Apr 23, 2011

एक डॉक्टर और हजारों डब्बा भूमिया


चीन एकाधिकारवादी देश है, जहां लेखक लियू जियाबाओ को सरकार के खिलाफ बयान देने के लिए 10 साल की सजा सुनाई है। लोकतांत्रिक भारत में एक अदालत ने इसी अपराध में विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई...

रामचन्द्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकार

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने विनायक सेन को जमानत दे दी। डॉक्टर और मानवाधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन को रायपुर की एक अदालत ने राष्ट्रद्रोह के इल्जाम में आजीवन कैद की सजा दी थी। डॉ.सेन पर नक्सलवादियों के हमदर्द होने का आरोप लगाया गया था और यह भी कहा गया था कि वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के संदेशवाहक की तरह काम कर रहे थे।

निचली अदालत के फैसले की तीखी आलोचना हुई, जहां अदालती कार्यवाही मजाक बन गई थी। छत्तीसगढ़ सरकार ने कोई ठोस सुबूत पेश करने की बजाय आरोपों और अफवाहों से ही काम चलाया। एक बार तो यह तक कहा गया कि डॉ.सेन के घर में कोई स्टैथोस्कोप नहीं पाया गया, इसलिए वह डॉक्टर नहीं, बल्कि माओवादी हैं।

अगर सुबूत मजबूत होता, तो भी सजा अतार्किक थी। चीन एकाधिकारवादी देश है, जहां लेखक लियू जियाबाओ को सरकार के खिलाफ बयान देने के लिए 10 साल की सजा सुनाई है। लोकतांत्रिक भारत में एक अदालत ने इसी अपराध में विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

विनायक सेन : और कितने अभी जेल में

डॉ. सेन को जमानत देते समय सुप्रीम कोर्ट ने उस प्रक्रिया की भी आलोचना की, जिसके जरिये उन्हें सजा सुनाई गई थी। सुनवाई करने वाले दो जजों न्यायमूर्ति हरजीत सिंह बेदी और न्यायमूर्ति चंद्रमौली प्रसाद ने कहा कि किसी के पास माओवादी साहित्य मिल जाने से कोई माओवादी नहीं बन जाता, जैसे कि ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ रखने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता। फैसले को पढ़ते समय मुझे कई वर्ष पहले छत्तीसगढ़ की एक जेल का दौरा याद आ गया।

मई 2006 में मैं निष्पक्ष नागरिकों के एक दल के सदस्य की हैसियत से माओवादियों और सलवा जुडूम के बीच चल रहे गृहयुद्ध के नतीजों की पड़ताल करने गया था। सलवा जुडूम वह सशस्त्र गैरसरकारी समूह है, जिसे छत्तीसगढ़ सरकार ने बनवाया है। मैंने अपने कागजात निकालकर देखे, 21 मई 2006 को मैंने जगदलपुर जेल का दौरा किया था। सन 1919 में बनी उस जेल में विशाल, हवादार और रोशनी से भरपूर कमरे हैं। कमरे एक आंगन के चारों ओर बने हुए हैं, हरेक कमरे में लगभग 50 कैदी रखे गए थे।

वैसे तो भारतीय जेलें आमतौर पर संकरी, भीड़ भरी, अंधेरी और गंदी होती हैं। वह जेल एक अपवाद थी। उसी तरह उस जेल के अधीक्षक भी थे। एक लंबे कद के विचारवान और दयालु शख्स अखिलेश तोमर। तोमर साहब हर सप्ताह कैदियों की ओर से एक नृत्य और संगीत का कार्यक्रम करते थे। इसके अलावा भी मनोरंजन के कई साधन थे। जब हम उस जेल का दौरा कर रहे थे, तब हमने लोगों को कैरम खेलते देखा। उस वक्त जगदलपुर जेल में 1,337 कैदी थे।

सुपरी टेंडेंट के दफ्तर में लगे एक बोर्ड पर इनके नाम अलग-अलग शीर्षकों के तहत रखे गए थे। 184 पुरुष और एक महिला को ‘नक्सलवादी बंदी’ की श्रेणी में रखा गया था। तोमर साहब ने बताया कि यह वर्गीकरण बहुत मोटा-मोटा था। जो कैदी दंतेवाड़ा जिले से आए थे, उन्हें आमतौर पर नक्सलवादी कह दिया जाता था। अधीक्षक ने बताया कि इसका अर्थ यह नहीं कि वे सचमुच नक्सली ही थे।

जेल के दौरे के बाद हमारी टीम को कुछ कैदियों से अलग-अलग बात करने का मौका मिला। मैंने डब्बा भूमिया नामक एक कैदी से बात की, वह 20 से कुछ ऊपर का विनम्र आदिवासी नौजवान था। उसके गांव का नाम बामनपुर था, जो कि भोपालपट्टनम के करीब था। उसने बताया कि वह कैसे जगदलपुर जेल पहुंच गया।

दरअसल, वह एक लिफ्ट इरीगेशन परियोजना में मजदूर था। एक दिन जब वह काम पर था, तब उसे एक सड़क बनाने वाली टीम मिली,जिसने उससे भोपालपट्टनम पुलिस स्टेशन का पता पूछा। वह उनके साथ वहां चला गया, तो पुलिस ने उसे रोक लिया। पुलिस ने उससे उसके गांव में नक्सलियों की उपस्थिति के बारे में पूछताछ की। फिर उन्होंने उसे सलवा जुडूम में भर्ती होने के लिए कहा। उसने कहा कि वह ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि उस पर पत्नी, दो छोटे बच्चों और एक विधवा मां की जिम्मेदारी है। इसके बाद उन्होंने उसे गिरफ्तार कर लिया।

इस घटना को तीन महीने हो गए थे। गिरफ्तारी के बाद डब्बा भूमिया को दंतेवाड़ा जेल भेजा गया, जहां से फिर उसे जगदलपुर लाया गया। गिरफ्तारी के बाद से उसने अपने परिवार को नहीं देखा था। मैंने उससे पूछा कि उसका अपने परिवार से संपर्क क्यों नहीं है, तो उसने कहा कि उसके परिजनों ने दंतेवाड़ा तक तो देखा नहीं है, ऐसे में वे जगदलपुर कैसे आ सकते हैं। बहरहाल, उसका एक वकील से संपर्क था, जो एक हफ्ते बाद अदालत में उसकी पैरवी करने वाला था। डब्बा भूमिया को उम्मीद थी कि उस पेशी के बाद उसे जमानत मिल जाएगी और वह अपने परिवार से मिल पाएगा।

मैं नहीं जानता कि उसे जमानत मिल पाई या वह अभी तक जेल में है। एक जानकार ने मुझे बताया कि अदालत में पेशियां अक्सर आखिरी मौके पर रद्द हो जाती हैं, क्योंकि जगदलपुर में फौजदारी अदालतों में कर्मचारियों की कमी है। इसके अलावा तथाकथित नक्सलवादियों के मामलों में विशेष सुरक्षा की जरूरत होती है और वह अक्सर नहीं मिल पाती। यह संभव है कि डब्बा भूमिया बहुत ही शानदार अभिनेता रहा हो, लेकिन मुझे तो वह दंतेवाड़ा के गृहयुद्ध का एक शिकार ही लगा।

रायपुर की अदालत की नजरों में डॉक्टर सेन का अपराध यह था कि वह माओवादी कैदियों से बात करते थे और अपने घर पर माओवादी साहित्य रखते थे। इस तरह उनका अपराध दूर की कौड़ी के जरिये मान लिया गया था। इसी दूर की कौड़ी ने डब्बा भूमिया को भी जेल पहुंचा दिया। यह सुना जाता है कि आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ की जेलों में हजारों डब्बा भूमिया सिर्फ इसलिए जेलों में हैं, क्योंकि वे उन जिलों में रहते हैं, जहां नक्सलवादी और पुलिस एक-दूसरे के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर कहा जाए, तो इन आदिवासियों ने माओ का पढ़ना तो दूर, उसका नाम तक नहीं सुना होगा। जब रायपुर के जज ने विनायक सेन को सजा सुनाई, तो गृहमंत्री ने कहा कि वह ऊंची अदालत में अपील कर सकते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ के गृह युद्ध के शिकार आम आदिवासी यह नहीं कर सकते। वे एक क्रूर और मनमानी करने वाली पुलिस के रहमोकरम पर हैं और अदालतें भ्रष्टाचार और दबावों के नीचे झुकी पड़ी हैं।

डब्बा भूमिया जैसे लोगों के लिए नई दिल्ली तो जगदलपुर से भी बहुत दूर है। डॉ. विनायक सेन को जमानत देने के लिए निस्संदेह सुप्रीम कोर्ट की सराहना की जानी चाहिए, लेकिन नक्सलवाद प्रभावित इलाकों में रहने वाले आम आदिवासियों की बदतर हालत के लिए भारतीय लोकतंत्र बधाई का हकदार नहीं हो सकता।

(हिन्दुस्तान  से  साभार) 

कभी रेलगाड़ी में भी झांकिये मिस बनर्जी

दशकों से रेल यात्री ट्रेनों में सरेआम यूं ही तरह-तरह के हथकंडों के द्वारा लुटते आ रहे हैं। कभी इन्हें सशस्त्र लुटेरे लूटते हैं तो कभी यात्रियों के रक्षक के रूप में दिखाई देने वाले सशस्त्र एवं बावर्दी लुटेरे...

निर्मल रानी

राष्ट्रीय स्तर की होनहार एवं उदीयमान वॉलीबाल एवं फुटबाल खिलाड़ी 24वर्षीया अरुणिमा उर्फ़ सोनू सिन्हा पर रेल यात्रा के दौरान लुटेरों द्वारा किए गए हमले के बाद एक बार पुन: रेल यात्रियों की सुरक्षा को लेकर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ गई है। पिछले   11अप्रैल को सोनू सिन्हा को तीन लुटेरों ने पदमावती एक्सप्रेस में चलती ट्रेन में लूटने की कोशिश की। एक खिलाड़ी एवं निडर महिला होने के नाते उसने लूटपाट का विरोध किया तथा लुटेरों का मुकाबला करने की कोशिश की। आख़िरकार बदमाशों ने उसे बरेली तथा चेनहटी स्टेशनों के मध्य चलती ट्रेन  से बाहर धकेल दिया।

ठीक उसी समय दूसरे रेल ट्रैक पर दूसरी ओर से एक अन्य ट्रेन तेज़ी से आ रही थी जिसके नीचे सोनू का पैर आ गया और उसके सिर तथा दाहिने पैर में भी काफी चोटें आईं । डॉक्टरों को उसका जीवन बचाने में बायां पैर काटना पड़ा। यह होनहार महिला खिलाड़ी एक परीक्षा देने के लिए  दिल्ली जा रही थी। ज़ाहिर है इस हादसे के बाद इस उदीयमान महिला खिलाड़ी का कम से कम खेल संबंधी भविष्य तो अब चौपट हो ही गया।

वॉलीबाल खिलाडी सोनू : रेल सुरक्षा का हाल

सोनू सिन्हा जैसे हादसे भविष्य में न हों, इस पर चिंतन-मंथन करने के बजाए चिर-परिचित भारतीय राजनीति की परंपरा के अनुसार राजनीतिज्ञों में सोनू के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन करने की होड़ लगी दिखाई दे रही है। उत्तर प्रदेश के खेल मंत्री अयोध्या प्रसाद पाल ने अस्पताल जाकर सोनू से मुलाकात की तथा उसे उत्तर प्रदेश के खेल मंत्रालय में नौकरी का प्रस्ताव दिया। केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन भी सोनू को देखने बरेली मेडिकल कॉलेज पहुंचे तथा उनकी संस्तुति पर सोनू को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती करा दिया गया।

केन्द्रीय मंत्री अजय माकन ने भी सोनू को रेलवे में नौकरी दिए जाने तथा दुर्घटना के बदले उचित मुआवज़ा दिए जाने के लिए रेलमंत्री ममता बैनर्जी को पत्र लिखा है। ज़ाहिर है नेताओं की यह दरियादिली एक ऐसे हादसे के बाद दिखाई दे रही है, जबकि सोनू अपना खेल कैरियर गंवा चुकी है तथा इस प्रकार के अर्थपूर्ण प्रस्ताव न तो उसके खेल कैरियर को पुन: वापस ला सकेंगे न ही उस पर गुज़रने वाली मानसिक पीड़ा की भरपाई कर सकेंगे। सोनू की पीड़ा को महसूस करते हुए भारतीय क्रिकेट टीम के युवराज तथा हरभजन सिंह जैसे खिलाडिय़ों ने भी उसे एक-एक लाख रूपये की आर्थिक सहायता दी है तथा सोनू के प्रति अपनी गहरी सहानुभूति भी व्यक्त की है।

गौरतलब है कि  ममता बनर्जी ने जबसे रेल मंत्रालय का कार्यभार संभाला है तबसे यह आम चर्चा है कि वे अपना सारा समय और ध्यान रेल मंत्रालय संबंधी काम देखने के बजाए पश्चिम बंगाल की राजनीति पर ही केंद्रित रखती हैं । हो सकता है पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव परिणाम उन्हें प्रदेश की सत्ता तक पहुंचा भी दें और वे रेल मंत्रालय छोड़कर राइटर्स बिल्डिंग  की शोभा बढ़ाने लग जाएं। परंतु अपने रेलमंत्री रहते उन्होंने रेल यात्रियों की सुरक्षा संबंधी कोई उपाय नहीं किए, इस बात का शिकवा पश्चिम बंगाल राज्य के रेलयात्रियों सहित पूरे देश के उन सभी रेल यात्रियों को रहेगा जो अपनी यात्रा शुरु होने से लेकर यात्रा की समाप्ति तक स्वयं को घोर असुरक्षित महसूस करते हैं।

ममता ने रेल विकास के लिए निश्चित रूप से कई नई योजनाएं शुरु की हैं। नई दूरगामी तथा तीव्र गति से चलने वाली कई नई रेलगाडिय़ों से भी देश का परिचय कराया है। रेलवे के आधुनिकीकरण के भी काम हुए हैं तथा दुरंतो और महिला विशेष ट्रेन जैसे नए प्रयोग भी सफल हो रहे हैं। परंतु रेल यात्रियों की सुरक्षा संबंधी बुनियादी प्रश्र आज भी वैसा ही नज़र आ रहा है। यानी आज़ाद भारत के आज़ाद रेल यात्री और उन्हें लूटने वाले आज़ाद लुटेरे ट्रेनों में यात्रियों को बेखौफ लूट रहे हैं।

ऐसा भी नहीं है कि रेल यात्रा में असुरक्षा का वातावरण कोई ममता बनर्जी या लालू यादव के ही कार्यकाल की बातें हो। दशकों से रेल यात्री ट्रेनों में सरेआम यूं ही तरह-तरह के हथकंडों के द्वारा लुटते आ रहे हैं। कभी इन्हें सशस्त्र लुटेरे लूटते हैं तो कभी यात्रियों के रक्षक के रूप में दिखाई देने वाले सशस्त्र एवं बावर्दी लुटेरे। कभी रेलगाडिय़ों में खाने-पीने का सामान बेचने वाले हॉकर यात्रियों को नकली, सड़ा-गला, मिलावटी, महंगा तथा अधिक कीमत लेकर कम सामान देकर पूरे देश में विभिन्न स्थानों पर लूटते दिखाई देते हैं, तो कभी हिजड़ों का भेष बनाए बदमाश भीख मांगने के नाम पर यात्रियों से जबरन पैसे वसूलते हैं। यदि इन्हें कोई यात्री पैसे देने से मना करता है तो यह हिजड़े उसके मुंह पर थप्पड़ मारने तक से नहीं हिचकिचाते।

रेलगाडिय़ों में नकली पेय पदार्थ ठंडा और पानी की बोतल सबकुछ धड़ल्ले से यात्रियों के हाथों बेचा जाता है। लूट का आलम तो यहां तक है कि कई स्टेशन पर प्लेटफार्म पर ट्रेन आने के समय बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से गर्मी के दिनों में पीने के पानी की प्लेटफार्म पर होने वाली सप्लाई बंद कर दी जाती है। ऐसा केवल इसलिए किया जाता है ताकि गर्मी की शिद्दत और प्यास से परेशानहाल यात्री पानी न मिलने पर पानी की बोतलें या कोल्ड ड्रिंक्स खरीदने पर मजबूर हों। और जब यात्रियों को लूटने की योजनाएं इस स्तर तक बनने लगें, फिर आप स्वयं समझ लीजिए कि ऐसे स्टेशन पर आपको असली,  ब्रांडेड या शुद्ध पानी की बोतल अथवा कोल्ड ड्रिंक्स आखिर कैसे मिल सकता है?

चुनाव प्रचार में व्यस्त ममता : रेल को कौन संभाले  
 रहा सवाल रेलयात्रियों को नशीली वस्तुएं खिला-पिलाकर उनके सामान लूटने का, तो यात्रियों की लूट का यह फार्मूला तो बहुत पुराना और चिर-परिचित हो चुका है। इसके बावजूद ज़हरखुरानी नामक लूट का यह तरीका भी नियंत्रित होने का नाम ही नहीं ले रहा है। कई ट्रेनों में जुआरी के भेष में ठगों का गिरोह सक्रिय रहता है। यह गिरोह पहले आपस में जुआ खेलता है, फिर आम यात्रियों को जुआ खेलने के लिए आकर्षित करता है तथा मिलीभगत कर उन्हें ठग लेता है।

सवाल यह है कि क्या भारतीय रेल विभाग के अधिकारियों तथा सुरक्षा संबंधी विभागों ने इस विषय पर नकेल कसने की कभी कोई गंभीर कोशिश की है? ऐसे में सोनू सिन्हा जैसी खिलाड़ी के साथ होने वाली घटना निश्चित रूप से भारतीय रेल में व्याप्त असुरक्षा और चोरी-डकैती के वातावरण को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उजागर करती है। ऐसे में निश्चित रूप से देश की प्रतिष्ठा तथा साख का भी सवाल खड़ा होता है। लिहाज़ा रेल यात्रियों को उनके हाल पर भगवान भरोसे छोडऩे के बजाए उनकी सुरक्षा के  उपाय किए जाने की तत्काल ज़रूरत है।

इन उपायों में सर्वप्रथम तो पूरे देश में रेलवे स्टेशन सहित सभी रेलगाडिय़ों में भी सीसी टीवी कैमरा प्रत्येक डिब्बे में लगा होना तथा लगाने के बाद उसका चलते रहना अत्यंत ज़रूरी है। उसके पश्चात जीआरपी तथा आरपीएफ की  संयुक्त कमान में रेल यात्रियों की सुरक्षा के लिए प्रत्येक डिब्बे में कम से कम दो सशस्त्र पुलिसकर्मी तैनात किए जाने चाहिए। या फिर केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल(सीआईएसएफ) को भारतीय रेल यात्रियों की सुरक्षा की भी जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। रेलवे में लूटपाट करने वाले तथा मिलावटी और नकली सामान बेचने वाले अपराधियों के विरुद्ध नए और सख्त कानून बनाने की सख्त जरुरत है.



लेखिका राजनीतिक-सामाजिक मसलों पर लिखती हैं और उपभोक्ता मामलों की विशेषज्ञ हैं. 






नमस्कार अन्ना



उम्मीद है आप स्वस्थ होंगे। उस दिन 9अप्रैल को बारह बजे के लगभग जब आप दिल्ली के जंतर-मंतर पर मंच से नीचे उतर गये तो हम आपसे बात करने को लपके थे, मगर वहां से पता नहीं आप कहां ओझल हो गये। अनशन स्थल के पीछे स्वामी अग्निवेश के बंधुआ मुक्ति मोर्चा के दफ्तर में भी गया कि आप शायद वहां हों, लेकिन वहां भी नहीं मिले। अलबत्ता स्वामी अग्निवेश जिस कमरे में आमतौर पर पत्रकारों से रू-ब-रू होते हैं, उसमें एक चैनल ने चलता-फिरता स्टूडियो जरूर बना लिया था।

उस दिन के बाद अब मैं आपको सीधे टीवी में देख रहा हूं। अन्ना मुझे दुख है कि आपकी और आपके सहयोगियों की ईमानदारी और शुचिता  पर शक किया जा रहा है। सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस से लेकर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में आपके साथ रहे लोग भी अब उसमें शामिल हो गये हैं। कमोबेश इसका एनएपीएम (नेशनल एलायंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट) जैसा हस्र होता दिख रहा है। आपको तो याद होगा कि दर्जनों सामाजिक संगठनों और मान्यता प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ताओं की और से कुछ वर्ष पहले जब एनएपीएम  का गठन हुआ तो लोगों में  व्यवस्था बदलने की उम्मीद बंधी थी. एनएपीएम के आह्वान पर जनता दो कदम बढाती उससे पहले ही आन्दोलन में शामिल बुद्धिजीवियों की  महत्वाकांक्षाएं आसमान चढ़ गयीं और कल तक जो लोग भ्रष्ट व्यवस्था को कोस रहे थे, उससे ज्यादा एक-दूसरे में मीन -मेख निकालने लगे और आखिरकार एकता बिखर गयी.

आपके अभियान को कठघरे में खड़ा करने वाले कह रहे हैं कि नागरिक समाज की ओर से जो पांच लोगों की टीम आपने चुनी है,उसमें झोल है। चुने गये लोग भी दागदार और भ्रष्टाचारी  हैं। राजनीति में बालीवुड के प्रतिनिधि और समाजवादी पार्टी से निष्कासित नेता अमर सिंह सीडी लेकर कूद रहे हैं और कहते फिर रहे हैं कि चोरों से बचाने का जिम्मा डकैतों को काहे देते हो जी। ऊपर से सरकारी फारेंसिक लैब ने शांतिभूषण, मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह की बातचीत वाली सीडी को असल बताने के बाद आपकी फजीहत और बढ़ा दी है। यानी कुल मिलाकर  भ्रष्टाचार को बनाये रखने वालों ने आपको चौतरफा घेर लिया है और लोकपाल बिल पर मसौदा तैयार होने से पहले आपलोगों का चरित्र प्रमाण पत्र जारी कर दिया  है.  

अमर सिंह की निगाह में शांतिभूषण डकैत हैं और अपने जैसे नेताओं को वह चोर मानते हैं। इसलिए वह राय देते हैं कि अब अरुणा राय या हर्षमंदर में से भी किसी को मसौदा समिति में शामिल करो और शांतिभूषण को निकाल बाहर करो। यही मांग कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी कर रहे हैं।

बहरहाल, आपने जंतर-मंतर पर 8 अप्रैल को ईमानदारी की खोज प्रतियोगिता के ऑडिशन  में नागरिक समाज की ओर से शामिल हो रहे लोगों में सबसे उपयुक्त प्रतिनिधि शांतिभूषण हैं को माना था। उसके बाद आपके विशेष सहयोगी अरविंद केजरिवाल ने उनके नाम की घोषणा  की थी। ईमानदारी के इसी बारीक परीक्षण में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जेएस वर्मा की छंटनी हो गयी थी। छंटनी इसलिए हो गयी थी, क्योंकि वह कुख्यात बहुराष्ट्रीय  कंपनी कोका कोला के फाउंडेशन  सदस्यों में से एक हैं और उनको समिति में शामिल करने से आपके धवल छवि पर भ्रष्टाचार की छाप पड़ती।

मगर अब उस धवल छवि पर छापों की बढती संख्या ने तो बड़ा घालमेल का माहौल बना दिया है। देश की लाखों जनता जो टीवी पर आपके आमरण अनशन का समाचार सुनकर उद्वेलित हुई थी, वह अब कन्फ्यूज हो रही है। अपने नेता और उनके सहयोगियों की भद्द पिटते देख वह खून का घूंट पी रही है।

जिस अन्ना और उसकी टीम को वह सप्ताह भर पहले दुनिया का सबसे ईमानदार और मोह-माया से मुक्त मानकर भ्रष्टाचार के मुखालफत की  कमान थमा के आयी थी, वह सप्ताह भर में ऐसा हो गया या भ्रष्टाचारी दैत्य मिलकर उसके राह में रोड़ा अटका रहे हैं, जनता फिलहाल इस गहरे द्वंद में है। आपके नाम पत्र  लिखे जाने तक कुछ जगहों पर लोग द्वंद से निराशा में जा रहे हैं और दोहराने लगे हैं कि सब साले चोर हैं, भ्रष्टाचार का कुछ नहीं हो सकता।

मगर देश की बड़ी आबादी अभी मान रही है कि आपका आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत शिकस्त  देगा। लेकिन इस अहसास को वह जाहिर कहां करे? टीवी वाले इस बात पर अब जनता की बाइट नहीं ले रहे और न ही मोमबत्ती बांट रहे हैं। कैमरा, लाइट और एक्शन का फ्यूजन अब उस ओर चला गया है जो पांच से नौ अप्रैल तक आपकी ओर था। इसलिए इतनी जल्दी रंग बदलकर दूसरे पाले में कूद चुके मीडिया वालों का आप नंबर सार्वजनिक करिये, बाकि जनता खुद ही निपट लेगी।

ज्यादा संभव है कि अबकी बार कैमरा, एक्शन और लाइट का खर्चा भी जनता खुद ही उठा ले। कारण कि इसके आगे भ्रष्टाचार के खिलाफ कैसे लड़ा जाये, इसकी शिक्षा तो आपके जंतर-मंतर आंदोलन से जनता को नहीं मिल पायी। समझने के लिए कहें जो जैसे कई बार चाय की टेबल पर क्रांति की जाती है, वैसे अबकी टीवी पर जनता उठ खड़ी हुई और अपनी नफरत जाहिर करने लगी। ऐसे में जनता के बीच जाना आपकी शीघ्र  आवश्यकता  बन गयी है अन्ना। अन्यथा आपके समर्थन में खड़ी  होने को बेताब जनता फिर एक बार गहरी निराशा में जायेगी।

अन्ना भरोसा करिए, जनता बड़े दिल की होती है और अपने नेता और पार्टी की गलतियों को अगले संघर्षों  में भूल जाती है और  नये जोश के साथ, नये नारों को लेकर चल पड़ती है। इसलिए बगैर किसी भय और देरी के अन्ना अपनी टीम को लेकर संघर्ष में उतरिये। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई चैनलों के झुंड और टीआरपी की लड़ाई तो नहीं है न। इसे तो आप भी समझते हैं, तो किसका इंतजार कर रहे हैं।

यहां अभी जो आप मसौदा समिति के लोगों पर हमला देख रहे हैं, वह तो लोकपाल बिल आपको झुकाने का श्रीगणेश है। असल खेल तो संसद में होगा, जहां न आप होंगे और न आपका शुद्धतावाद। उसके बाद भ्रष्टाचारियों के दलाल हो चुके जनप्रतिनिधि लोकपाल को रीढ़विहीन  करने की कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इसलिए अन्ना आपके हिस्से का अंतिम और असल विकल्प सिर्फ जनता के बीच लौटना ही है। जाहिरा तौर पर वह जनता टीवी पर कम, काम पर ज्यादा दिखती है।

थोड़ा कहना बहुत समझना. ऊंच-नीच, गलती - सही  माफ़ कीजियेगा.
  
आपका अनुज
अजय प्रकाश