Aug 25, 2010

पुनर्जागरण-प्रबोधन की सांस्कृतिक मुनाफाखोरी


कात्यायिनी  और शशि प्रकाश के संगठन के मुताबिक ट्रेड यूनियन करने,पत्रकारिता व लेखन करने,सरकारी नौकरी में होने से हमलोग जनविरोधी हो गये हैं। इससे अधिक जनविरोधी बात और क्या हो सकती है कि आप जन को ही दुश्मन के खेमे में डाल दें और उससे यह भी पूछें कि पार्टनर तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है?


विवेक कुमार

 देर आये दुरुस्त आये। अच्छा लगा। आपने कम से कम इतना तो स्वीकार किया कि-
1- संगठन में  किसी  व्यक्ति के नाम से भवन/भूखंड है।
2- आपके यहाँ  सामूहिक उद्यम है।
3-  साथियों की परिसम्पत्ति को ट्रस्ट/सोसायटी में बदलने की प्रक्रिया, कानूनी अड़चनों के बावजूद जारी है।
4-  कुछ के मामले बुर्जुआ कोर्ट में चल रहे हैं। (कात्यायनी के जवाब 'चंदे के हमारे व्यक्तिगत स्रोत है' के  पॉचवें हिस्से को देखें।)
5-  जनज्वार पर ब्लॉग चर्चा में हिस्सेदार लोगों में से अधिकांश आपके संगठन से हैं। जिन्हें या तो निकाला गया या खुद ही निकल गये (उपरोक्त का पहला हिस्सा)।
6- आपके यहाँ हरेक कार्यकर्ता को सामान ढोना, स्टाल लगाना, झाड़ू-पोछा, खाना बनाना और मेहनत-मजदूरी का काम करने और सीखने के साथ- साथ मजदूरों के बीच रहना होता है (उपरोक्त का चौथा हिस्सा)।
7- आपके संगठन ने “सूदखोर” से परिकल्पना प्रकाशन और उसके लिए खरीदे गये वाहन के लिए एक बड़ा आर्थिक सहयोग लिया (उपरोक्त का सातवां हिस्सा)।
8- “गैरजनवादी एशियाई समाज में पार्टियों के भीतर भाई-भतीजावाद और विशेषाधिकार की प्रवृतियां अनुकूल वस्तुगत आधार के कारण तेजी से फल-फूल सकती हैं।” (उपरोक्त का चौथा हिस्सा)।
9- आपका वैचारिक लेखन काफी हद तक सामूहिक उत्पाद है (उपरोक्त का छठा हिस्सा)।

आपके लेखन में एक तरफ बाल्जाक की निर्मम यथार्थवादी पद्धति है,तो वहीं मार्खेज के कथ्य की जादुई शैली भी। यथार्थ की प्रस्तुति में निश्चय ही सामूहिक प्रयास दिख रहा है, लेकिन रूप और शैली तो आपकी ही है। यद्यपि इसमें भी सामूहिकता के स्वर झलक उठे हैं। आक्रामक स्वर और शैली के बीच यथार्थ की कठोर भूमि का वर्णन जितनी शालीनता एवं कोमलता से किया गया है वह सचमुच अदभुत और सराहनीय है। यद्यपि इसमें यथार्थ के ऊबड़-खाबड़पन का अहसास कमतर हो गया है। कहीं-कहीं यथार्थ का पक्ष पृष्ठिभूमि में चला गया है,लेकिन इसके असर को समझा जा सकता है। जादुई यथार्थवाद नतीजों तक तो नहीं, लेकिन असर के रूप में हमें जरूर उस दुनिया तक ले जाता है जहां बाल्जाक का निर्मम यथार्थवाद है और उससे उपजा इंसान का मनोविज्ञान, एक प्रतिसंसार।

कात्यायिनी :  किसके लिए लेखन
युद्धक्षेत्र में लूटमार करने वाले लुटरों के बारे में आपका लिखा लेख हमें एक ऐसी दुनिया की ओर ले जाता है जहॉ संपत्ति, परिवार, मुकदमा, फरेब, षडयंत्र, गठजोड़, भय, आशंका, आरोप तथा घपलेबाजी है। एक ऐसा सांस्कृतिक बोध भी जिसके भीतर बाहर की दुनिया के प्रति घोर असहनशीलता और नफरत है। यह मौत के बोध से बनी काफ्का की दुनिया नहीं है। यह अतीत से पीछा छुड़ा लेने और भविष्य पर काबिज हो जाने की वही असीम ललक की दुनिया है जो ब्राह्मणों के द्विज होने में अभिव्यक्त होती है। जिसे हमेशा छूत का डर बना रहता है।

सार्वजनिक स्थलों पर सिर्फ यही वक्ता व नियन्ता होता है। सिर्फ इसी का विश्लेषण मान्य एवं अंतिम होता है। जो कुछ है उसी का है। शेष तो माध्यम हैं,चराचर हैं। वेदपाठी ब्राहमण का रचा एक प्रतिसंसार,जिसका निर्मम यथार्थ एक ब्राहमणवादी संरचना और उसकी संस्कृति के रूप में अभिव्यक्त होता है। और इतिहास अपराधी मेमने की तरह निरीह एक कोने में खड़ा रहता है।

 इसमें दलित, स्त्री, आदिवासी और समाज के हाशिए पर डाल दिये गये लोग नहीं हैं। कात्यायनी हमें इसी दुनिया के अन्दरखाने में ले जाती हैं। जहॉ अद्वैतवादी दर्शन है और उससे निसृत राष्ट्रवाद। वह रेखांकित करती है :'विवेकानन्द उपनिवेशवाद और उसके द्वारा पोषित सामंतवाद एवं उसके रूढ धार्मिक-सांस्कृतिक मूल्यों का विरोध करते हुए नये राष्ट्रवाद की वैचारिक आधारभूमि तैयार करने में अहम भूमिका निभाते हैं।' (कुछ जीवन्त कुछ ज्वल्नत- कात्यायनी, पृष्ठ 30)।

जनचेतना : प्रबोधन की दुकान
विवेकानन्द न केवल वर्णाश्रम के समर्थक थे,साथ ही स्त्री शिक्षा के विरोधी भी थे। नये राष्ट्रवाद के इसी पाठ का पुनर्पाठ कात्यायनी के लेख तथा उनके संगठन से आये पूर्ववर्ती लेखों में किया जा किया जा सकता है। इनके संगठन से आयी पुस्तिकाओं,पत्रिकाओं व लेखों में इसी अवस्थिति की प्रस्थापना है। इसी पाठ को एक लंबी छलांग मारकर उन्होंने सर्वहारा पुनर्जागरण व सांस्कृतिक प्रबोधन का नाम दे रखा है। इसकी सच्चाई को जरूर परखें कि यह कितना प्रबोधन है और कितना आत्मबोधन!

आइए, इस सर्वहारा सांस्कृतिक प्रबोधन को कात्यायनी व उनके संगठन से आये लेखों के सांस्कृतिक पक्ष को देखें और इस पाठ के राजनीतिक पृष्ठिभूमि की तलाश करें। सबसे पहला लेख एक राजनीतिक कार्यकर्ता जयपुष्प का है। वह जनज्वार को नंगई करने के लिए लताड़ते हैं। क्या सचमुच नंगई एक गाली है?श्रम करने वाली जातियों को वस्त्र धारण करने पर तरह-तरह की पाबंदियां थीं। आज भी देश के कई हिस्सों में दलित समुदाय के कपड़ों की लंबाई तय है।

नंगई न केवल जातिसूचक अर्थ लिए हुए है,साथ ही यह परम्परागत विरोध के इतिहास को भी समेटे हुए है। आज भी पूरी दुनिया में इस तरीके के रूप अख्तियार किये जाते हैं। अपने देश में महिलाओं ने इसे सबसे सशक्त तरीके से अपनाया। मणिपुर में बलात्कार व दमन के खिलाफ महिलाओं का प्रदर्शन और अभी हाल ही में देवदासी समुदाय का प्रदर्शन एक गाली है या सरकार के मुंह पर करारा थप्पड़?

आपके तीनों लेख में कुछ साथियों के निकाले जाने व तीन महीने की सजा देने का उल्लेख है। धारा 377 भी इतनी ही सजा देती है जितनी आपके दावे के अनुसार दी गयी। मुझे लगता है कि यह समलैंगिकता का मामला था। आपकी नजर में यह अपराध है और भयानक तौर पर गोपन है। क्योंकि आपने इतनी नफरत के बावजूद सिर्फ संकेत किया है। आप इसे घिनौना कर्म मानती हैं, लेकिन अब सरकार भी इसे अपराध नहीं मानती। सजा नहीं देती। संकेत कर अपमानित नहीं करती। बुर्जुआ कोर्ट में भी उन्हें एक नागरिक माना जाता है।

दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों का अधिकांश हिस्सा समलैंगिक लोगों के अधिकार का समर्थन करता है। मुंबई में 2004के हिस्सेदार सभी संगठनों ने उनके अधिकार का समर्थन किया। आप अभी भी इसे गाली के रूप में प्रयोग करने पर आमादा हैं और सजा देने पर गर्व महसूस कर रहे हैं। आप तो समाजवादी क्रांति के झंडाबरदार हैं फिर  बुर्जुआ जनवादी अधिकार देने में  इतनी कोताही क्यों?

संगठन से निकले लोगों के लिए आपने कुछ विशिष्ट शब्दावलियां भी बचाकर रख ली हैं। मसलन,कुछ लोग 'मउगा' और 'हिजड़ा'हैं। इस मुददे पर नीलाभ और मैंने पिछले पोस्ट में लिखा है। स्त्रीयोचित व्यवहार को आप एक गाली के रूप में बदल देते हैं,लेकिन वहीं जब झांसी की रानी को मर्दानी के रूप में वर्णित किया जाता है तो निश्चय ही आपकी भी बाछें खिल उठती होंगी। स्त्रियों के प्रति यह व्यवहार,सिद्धांत और सोच की तरह आपके लेखों में व्यक्त होता है.ऐसा क्यों है यह बात स्वाभाविक तौर पर आप बखूबी जानते होंगे। शारीरिक भिन्नता के आधार पर भेदभाव की प्रवृत्ति और उसे गाली में बदल देने की प्रक्रिया घोर अमानवीयता और असीम क्रूरता है।

सत्यम, मीनाक्षी और कात्यायिनी :  क्रांति पर कब्ज़ा
कात्यायनी ने नीलाभ को 'राजनीतिक मुल्ला'की पदवी से  नवाजा है और अपने खिलाफ फतवेबाजियों का इतिहास बताया है। भारतीय समाज में सबसे बुरे लोग मुल्ला और उनकी फतवेबाजियाँ ही हैं? शंकराचार्यों, पुजारियों, बाबाओं से ग्रस्त इस देश में गालियों के लिए यदि आप अल्पसंख्यकों के ही गली में चक्कर मार रहे हैं तो सचमुच इस देश के नागरिक समाज को खतरा है। यदि आपका तर्क यह है कि मुल्लाओं व फतवेबाजियों से ही मुसलमान पीछे हैं तो आप सच्चर रिपोर्ट से कोसों दूर पीछे हैं। बहरहाल, इससे आपकी मुसलमानों के प्रति सोच का एक संकेत मिलता है।

मीनाक्षी और आपके लेखों में व्यक्ति के जन्मना संबंध पर काफी जोर दिया गया है। मसलन,मुकुल जी कायस्थ हैं तो उनकी कमी में मुंशीगिरी को जोड़ दिया गया है। सत्येन्द्र कुमार साहू के साथ बनियागीरी, आदेश कुमार सिंह के साथ धमाका करने,अशोक कुमार पाण्डेय के साथ पंजीरी ग्रहण करने जैसे जुमले का प्रयोग किन अर्थों में किया गया है? पारिवारिक पृष्ठिभूमि के आधार पर कम से कम दो लोग आपके दुश्मन खेमे से हैं। उन्हें आपने संगठन की सदस्यता दी। इसी आधार पर आप उन्हें गाली भी दे रहे हैं। इन साथियों को जातिसूचक कर्म के आधार पर गरियाना किस नैतिकता और मूल्य के तहत आता है? दूसरे, यह सवाल भी मौजूं है कि इसमें से कौन है जो अपने परिवार के व्यवसाय को आगे बढ़ा रहा है?

सत्येंद्र साहू का अपराध सूदखोर होना है या सूदखोर का बेटा होना?आपके अनुसार सूदखोर का बेटा होना ही अपराध है। तब तो आदेश सिंह से लेकर अभिनव सिन्हा तक सभी अपराधी हैं। इस आधार पर तो चाउ एन लाई, चू तेह से लेकर बाबूराम भटटाराई, गुजरेल तक सभी अपराधियों की श्रेणी में शुमार किये जायेंगे। सांस्कृतिक क्रांति के दौरान यह मुददा भी सामने आया था। इस मामले में आपकी पोजीशन माओ के खिलाफ है। जातीय संरचना के चलते भारत की स्थिति और अधिक जटिल है। जन्मना भेदभाव व पैतृक व्यवसाय से व्यक्ति के चरित्र का निर्धारण घोर ब्राहमणवाद के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

सर्वहारा सांस्कृतिक प्रबोधन के गर्दो गुबार के भीतर जाति,धर्म व व्यक्ति के प्रति इनके नजरिये का खुलासा यह बताता है कि यह संगठन सर्वहारा तो दूर,एक आम जनवादी संस्कृति को भी व्यवहृत नहीं करता। इसका चरित्र सवर्ण हिन्दू है और संरचना पितृसत्तात्मक ब्राहमणवादी। कृपया यहाँ यह तर्क प्रस्तुत न करें कि इनके प्रकाशन की गाड़ी पर भगवाधारियों ने हमला किया इसलिए ये वामपंथी धर्मनिरपेक्ष संस्कृति के पुरोधा हैं।

अरविन्द सिंह: बेचने की तैयारी
यह इस संगठन के सर्वहारा सांस्कृतिक प्रबोधन के गर्दो गुबार की पड़ताल की संक्षिप्त प्रस्तुति है। उस प्रतिसंसार और उसके मनोविज्ञान की परख है जिसके भीतर व बाहर बैठा कोई भी कार्यकर्ता जैसे ही प्रश्न के पत्थर को उछालता है वहां भूचाल आ जाता है सबकुछ बेतरतीब होने लगता है। भगदड़ मच जाती है। आपात् की स्थिति बन जाती है। भारतीयजन के विविध समुदाय की आकांक्षा को अद्वैतवाद से निस्सृत राष्ट्रवाद व नेहरूवियन राजनीति में निस्तारित कर सीधा सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति की लंबी कूद लगाने वाला यह संगठन खुली आलोचना-बाम्बार्ड द बुर्जुआ हेडक्वार्टर की पहली सीढी पर ही जिस तरह के रूदन में लग गया उससे निश्चय ही हृदय विदारक दृश्य बन उठा है।

सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक जमीन पर घटित हुई। इसने क्रांति की जटिलता व बदलाव को सुलझाने में कुछ आम नियम व दर्शन के नये क्षितिज खोले। यह संगठन सांस्कृतिक क्रांति के संदर्भ में बच्चों के अनुकरण जैसा खेल खेल रहा है जिसमें वे डगरौना चलाते हुए गाड़ी चलाने के अहसास से भर उठते हैं। यहॉ फर्क इतना ही है कि जहाँ इससे बच्चों में कल्पनाशीलता व सृजनशीलता बढ जाती है वहीं इस अनुकरण पद्धति से इस संगठन के कार्यकर्ताओं में ठहराव,कुंठा,निराशा और अवसाद भर उठता हैं। सामूहिकता,कम्यून व व्यक्तित्वांतरण संपत्ति, परिवार एवं उत्तराधिकार में बदलने की प्रक्रिया में बदल जाता है और राजनीति खोखली भाषा के एक ऐसे धुरखेल में बदल जाता है जिसका प्रयोग लोगों को भगाने में किया जाता है।

इस अजब से दृश्य में कात्यायनी के सवाल बार बार घूमकर सामने आ जाते हैं :कीचड़ उछालने वालो तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है? इस सान्द्र समय में एक अदना सवाल भी अपने पीछे के पूरे रेले को लेकर आता है। असंगतता का स्वर मुखर हो उठता है। निषेध की प्रक्रिया तेज हो उठती है। हमारी पोलिटिक्स आपके संगठन की कार्यशैली, उसकी राजनीतिक समझदारी, नेतृत्व के व्यवहार, नेतृत्व समूह की जीवन शैली का निषेध है। इस संगठन से निकले इतने सारे लोग जीवन यापन के लिए जीविका में लगे हुए हैं। इससे निश्चय ही राजनीति तय होती है।

आपके अनुसार ट्रेड यूनियन करना,पत्रकारिता व लेखन करना, सरकारी नौकरी में होने से ही हम सभी जनविरोधी हो गये हैं। आपकी यह अनोखी व मौलिक बात बेचारे मार्क्स के वे दुर्दिन समय की याद दिला गये जब जीविका के लिए वे न्यूयार्क टाइम्स के लिए लेख लिखा करते थे। इससे अधिक जनविरोधी बात और क्या हो सकती है कि आप जन को ही दुश्मन के खेमे में डाल दें और उससे यह भी पूछें कि पार्टनर तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है? आपके हिसाब से दुनिया लेनिन और माओ के युग से आगे निकल चुकी है। तो पार्टनर आप यह जरूर बताएं कि हम किस युग में जी रहे हैं और इस नये युग की नेतृत्वकारी विचारधारा क्या है? मार्क्सवाद, लेनिनवाद और माओवाद में किस इजाफे के साथ आपने दर्शन को एक नई मंजिल तक पहुँचाया है?

एक सुसंगत लेनिनवादी पार्टी संगठन व उसके मुखपत्र, घोषणापत्र व कार्यक्रम के अभाव में इतनी बड़ी दावेदारियों के पीछे की भी एक राजनीति है। आपके इस नई दावेदारी में 'उत्तर' वाद की नई सरणी वाली प्रवृति साफ दिख रही है। आपके चिंतन की सुई प्रभात पटनायक और विपिन चंद्रा पर टिकी हुई है और दावेदारी दर्शन में एक अनोखे योगदान की है। निश्चय ही आपकी इस दावेदारी की भी राजनीति है। आप पहले यह घोषित करते हैं :'एक नया दौर शुरू हो चुका है,परआर्थिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर इस नये दौर की सभी अभिलाक्षणिकताएं और सभी परिणतियां अभी स्पष्ट रूप से उभरकर सामने नहीं आयी हैं। यह स्थिति वर्तमान सांस्कृतिक पटल को भी जटिल बना रही है (सृजन परिप्रेक्ष्य पुस्तिका-1, पृष्ठ-55)।'

इसके साथ ही आप अपने को विशिष्ट, मौलिक, सर्वोत्तम घोषित करने के लिए न केवल दार्शनिक का जामा पहन लेते हैं अपितु पार्टी संगठन को भी संक्रमणकालीन घोषित कर प्रयोगों के अंतहीन सिलसिले के राजनीतिक पुरोधा बन जाते हैं। इसका संयोजन करते हुए आप सर्वोत्तम व्यक्तित्व भी बन जाते हैं। आप समकालीनों की रेड़ पीटने का अभियान चलाते हैं। अन्य पार्टी संगठन के नेतृत्व को मनबहकी लाल, बादामखोर से लेकर भाई लोग (गुंडा) तक की संज्ञा से चरित्र हनन की राजनीति कुछ और नहीं,बल्कि अपने नाम के कीर्तन सुनने की असीम ललक है। चारू मजुमदार से लेकर रामनाथ व गैरी के चरित्र हत्या के अभियान की राजनीति, मौलिक होने की गहन कुंठा का ही एक रूप है।

परिवार की भाषा में मजदूरों का अख़बार
जब कात्यायनी हाय हाय करते हुए 'महान नेता' यानी रामनाथ को निकृष्ट घोषित करती हैं तो इसके पीछे अपने को सर्वोत्कृष्ट घोषित कर लेने की राजनीति ही है। पार्टनर, यह तुम्हारी राजनीति की आलोचना हैं, संगठन से निकले व निकाले गये रूप में भी और हम सभी के दिये जा रहे आलोचनात्मक वक्तव्य के तौर पर भी। एक समतामूलक समाज में आस्था व उसकी रचना की आकांक्षा ही हमारी राजनीति है। मार्क्सवाद लेनिनवाद माओवाद की अग्रिम मंजिल की बात करने वाले शशिप्रकाश व कात्यायनी जी आपकी राजनीति के बारे में आपके ही शब्दों में कहना ठीक लग रहा है-'कहा जा सकता है कि 'उत्तर'अवस्था वाले तमाम सिद्धांत आज के पूजीवाद का सांस्कृतिक तर्क है और ये सिद्धान्तकार नित्शे के वर्णसंकर मानस पुत्र हैं जिनके लिए सांस्कृतिक-साहित्यिक (और राजनीतिक-ले)कर्म भाषा के खेल से अधिक कुछ भी नहीं है(सृजन परिप्रेक्ष्य पुस्तिका-1, पृष्ठ-67)।'

आपके सवालों और बुद्धिजीवियों से लगायी गयी गुहारों के संदर्भ में यह बात जानने की आकांक्षा तीव्र हो उठी कि आप जिस स्वाभिमान की छत से सीढी सहारे उतरकर नीचे आयीं, व्यक्तव्य दिया, उस स्वाभिमान की प्रकृति कैसी है? दुनिया की सारी कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने ऊपर लगे आरोपों का जवाब सार्वजनिक रूप से ही दिया है। अपने पक्ष में जन व बिरादराना संगठनों को खड़ा होने का आह्नान करता रहा है। वह बुद्धिजीवियों को पक्ष में खड़ा होने का तर्क प्रस्तुत करता है।

आप जन व बिरादराना संगठनों को अपनी उम्मीद से बाहर रखते हैं। असीम श्रद्धा के साथ आप बुद्धिजीवियों से पक्ष में खड़े होने की उम्मीद करते हैं। क्या यह इस कारण से है क्योंकि आप यह मानते हैं कि 'पूजीवादी संस्कृति की रुग्णताएँ आज जनसंचार के अधुनातन उपकरणों के सहारे भांति भांति के नये नये रूप धरकर जन समुदाय के दिलोंदिमाग तक पहुँच रही हैं और व्यापक आबादी मानो इसका एक निष्क्रिय उपभोक्ता सी बन कर रह गयी है व  'परिवर्तनकामी शक्तियां' विखराव, ठहराव व विखंडन की स्थिति में हैं।' इसलिए आप जोर देते हैं कि 'लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों की नईं कतारें तैयार की जाएँ। ऐसी भरती मध्यवर्ग के ऐसे युवाओं के बीच से होगी जो पूंजीवाद  के कोप कहर को झेल रहे हैं, जिन्हें एक हद तक की बुर्जुआ शिक्षा और सांस्कृतिक विरासत हासिल है, जो अग्रिम तत्व हैं, तर्कपरक होने के नाते धार्मिक कटटरपन्थी फासीस्ट प्रचार से प्रभावित नहीं हैं, जो पुरातनपंथी और जातिगत संस्कारों से मुक्त हैं, जिनमें विद्रोह की भावना है।'

 साथ ही आप 'मजदूर वर्ग के बीच से भी भर्ती' का आहवान 'मजदूर बुद्धिजीवी' निर्मित करने के उददेश्य से करते हैं। वहीं आप यह घोषित करते है कि 'महानगरों के खाते पीते जीवन से अलग जो कवि लेखक दूरस्थ गावों कस्बों में रहकर लिख रहे हैं, वे भी या तो अपने आसपास के जीवन से विलग (कस्बे के बुद्धिजीवी), हैं या फिर वैज्ञानिक दृष्टि से रहित ऐसे लेखक हैं जो किसानी जीवन की रागात्मकता टूटने पर छाती पीट रहे हैं,पुरानी चीजों की अनिवार्य मृत्यु की नीयति पर बिसूर रहे हैं। वह सर्वहारा साहित्य की जमीन नहीं है।वहां वसे भविष्य की दिशा नहीं दिखती।' (उपरोक्त सभी उद्धहरण सृजन परिप्रेक्ष्य पुस्तिका-1, पृष्ठ-42 व 43 से उद्धृत)।

इस तरह आप निषेध करते हुए महानगर के मध्यवर्ग के उस हिस्से के पास पहुँचते हैं जो पूँजीवाद की मार से त्रस्त भी है और बुर्जुआ मूल्य से लैस भी। यही है जो आपके सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन के कार्यभार का अगुआ दस्ता है। शेष या तो विलगित-विघटित हैं या भेंड़ हैं जिसका नेतृत्व आप व आपका उपरोक्त हिरावल दस्ता है। पाठक समुदाय आप ही इस अवस्थिति का विश्लेषण करे। क्योंकि यहां बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। यहाँ इतना जरूर कहना है कि कात्यायनी जिस क्रांतिकारी शान व स्वाभिमान की बात कर रही हैं वह कुछ और नहीं, बस थोथा अभिमान है, उन्हीं के शब्दों में टटपूंजियों का अहंकार है।

अंत में, साहित्यकारों व साहित्य सृजन के संदर्भ में चंद बातें। आपने बताया कि नीलाभ जी राजनीति के नये मुल्ला हैं। 65साल के इस लेखक व कवि के बारे में यह बात कुछ हजम नहीं हुई। क्या आप नक्सलबाड़ी की धारा को पतित विघटित घोषित कर उसके इतिहास को भी नल एण्ड वायड घोषित कर रही हैं?इसी शर्त पर ही नीलाभ नये मुल्ला साबित होंगे। इसी तरह आपने संजीव को नार्सिसिज्म (आत्ममुग्धता की एक बीमारी)से पीड़ित बताया है। महोदया, यह बीमारी दूसरों के प्रभाव का निषेध करती है और अपने प्रतिबिंबन के अनुकूल एक मोहीनी रचना संसार को निर्मित करती है। वह ऐसे ही कई बीमारियों से ग्रस्त हैं आपने उन्हें एक और बीमारी पकड़ा दीं। एक छोटी सी टिप्पणी की इतनी बड़ी सजा। यह साहित्य की भाषा में निरी कटुता है, जो ठीक नहीं है।

मैं यह मानता हूँ कि आप मौलिक रचनाकार हैं और आप ही के शब्दों में,इसमें सामूहिक प्रयासों के स्वर हैं। बहुत सी जगहों पर आपके संगठन के लेखों का कविता रूपांतरण भी है। विचार व कहीं कहीं भाषा की साम्यता से विभ्रम की स्थिति बन जाती है। आप मूलतः अपने पति के नेतृत्व में राजनीतिक व सांस्कृतिक कर्म कर रही हैं, जो अपनी प्रकृति में मौलिक, अनोखा व सर्वोत्तकृष्ठ है। इस संदर्भ में आप न तो अपने नेतृत्व की छाप को नकार सकती हैं और न ही उसके हस्तक्षेप की बात से मुकर सकती हैं।

आपकी रचना प्रक्रिया के यही मूलतत्व हैं जो आपके रूप व शैली में अभिव्यक्त होते हैं। यहॉ समस्या इस बात की है कि आपका व्यक्तित्व आपके रूप व शैली और विषयवस्तु के चुनाव तक ही सीमित क्यों है?आप बता रही हैं कि आप व शशिप्रकाश की विचारधारा,जीवन और एक हद तक जीने के तरीका एक ही है। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि आपकी विशिष्टता रूप,शैली व विषय वस्तु के चुनाव तक ही सीमित है। यदि यह ऐसा ही है तो सचमुच चिन्ताजनक है। जनज्वार पर उठी बहस के जवाब में आपके संगठन की तरफ से आये जवाब के कथ्य, रूप, शैली की साम्यता सृजन के संदर्भ में एक चिन्ताजनक स्थिति को पेश कर रही है। शायद यही कारण है कि अजय प्रकाश ने जनज्वार पर आप व आपके नेतृत्व के जवाब के रूप में प्रस्तुत किया। शायद यही कारण है कि आप की रचना को शशिप्रकाश द्वारा रचित व किसी और द्वारा लिखे गये लेख को आप द्वारा रचित बता दिया जाता है। मेरी समझ से यह तोहमद है जो ठीक नहीं है। लेकिन निश्चय ही आपको सृजन प्रक्रिया व संदर्भ को दुरूस्त करना होगा। यह सवाल आपके स्त्री होने से नहीं अपितु सृजन प्रक्रिया व संदर्भ से जुड़ा हुआ है।

इस बहस में मेरी ओर से समापन टिप्पणीः धोबीघाट पर कलंक को धुला जाता है कलंक लगाया नहीं जाता। यह हमारा ब्राहमणवादी समाज ही है जिसने खुद को पाक-साफ घोषित कर धोबी समुदाय, जाति को कलंकित घोषित कर दिया। वामपंथ की यह धारा किस लोक में जी रही है और किस लोकस्वराज का नारा दे रही है?सचमुच संकल्प चाहिए, अद्भुत अन्तहीन कि कम से कम बोलने व हस्तक्षेप करने का साहस बना रहे, विरोध करने की ताकत बनी रहे, और जन के पक्ष में एकता बची रहे।