Jul 3, 2011

जनतंत्र भ्रम फैलाने का शासन है


आज तो जनतंत्र जनता में भ्रम पैदा करने वाला शासन है जो धूर्तता और पाखण्ड के सहारे चलता है। जनता में अपना विश्वास जमाने, भ्रम पैदा करने तथा उसे अपने पक्ष में करने के लिए शासक दल, उनकी सरकारें जनता के हाव-भाव, जीवन शैली, जनता के नारे और मुद्दे अपना लेते हैं...
 
कौशल किशोर

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कहकर कि वे लोकपाल के दायरे में आने को तैयार हैं, अन्ना हजारे की माँग का ही नैतिक समर्थन किया है। भले ही यह मनमोहन सिंह के निजी विचार हैं और इसका सरकार के दृष्टिकोण पर ज्यादा असर न पड़े । फिर भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह देश के प्रधानमंत्री के विचार हैं और जिन  मुद्दों को लेकर सरकार और अन्ना हजारे के नागरिक समाज के बीच गतिरोध बना हुआ है, उनमें यह प्रमुख है। ऐसे में प्रधानमंत्री के इस कथन को क्या भावुकता में कही बातें समझी जाय या इसका कोई गंभीर निहितार्थ है ? इसे किस रूप में लिया जाय ?

हाल की घटनाओं ने जिन तथ्यों को उजागर किया है, उसे लेकर आम नागरिक काफी संवेदित है। आमतौर पर कहा जा रहा है कि मौजूदा तंत्र व व्यवस्था भ्रष्ट हो चुकी है। यह सरकार स्वयं कई घोटालों में फँसी है। उसके कई मंत्रियों को इन मामलों में जेल के सीखचों के पीछे जाना पड़ा है। भ्रष्टाचार से संघर्ष करने में सरकार द्वारा जो प्रतिबद्धता दिखाई जानी थी, इस सम्बन्ध में वह कमजोर साबित हुई है तथा लोकपाल बिल लाने के लिए भी वह तब तैयार हुई जब नागरिक समाज के आंदोलन का दबाव बना। और अब वह ऐसा लोकपाल लाना चाहती है जो नख दंत विहीन हो। आज ऐसी बातें आम चर्चा में हैं। इसने सरकार, कांग्रेस पार्टी तथा मंत्रियों की छवि को धूमिल किया है।

इस सबके बावजूद इस सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के व्यक्तित्व के बारे में अलग राय व्यक्त की जा रही है। इनके बारे में यही कहा जाता है कि वे स्वच्छ और ईमानदार छवि वाले एक अच्छे इन्सान है। वे कमजोर हो सकते हैं। उनका लोगों से संवाद कम हो सकता है, लेकिन उनके ऊपर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता है। अर्थात भले ही सरकार के पाप का घड़ा भर गया हो, लेकिन उसका मुखिया पाक साफ है। सरकार, सत्ता प्रतिष्ठान, कांग्रेस पार्टी, मीडिया, राजनेताओं और बौद्धिकों के बड़े हिस्से द्वारा इसे  अवधारणा के स्तर पर प्रचारित और स्थापित किया गया है।

आखिरकार राजनीति की इस परिघटना को किस रूप में देखा जाय ? अगर यह मौजूदा राजनीति की विसंगति है, तो इसकी व्याख्या कैसे की जाय ? मनमोहन सिंह एक ईमानदार व्यक्ति हैं और स्वयं इस विचार के हैं कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में आना चाहिए, तो क्या यह कुर्सी मोह या मात्र सत्ता का मोह है जो उन्हें कथित ‘भ्रष्टाचार और घोटालों की सरकार’ का मुखिया बने रहने के लिए बाध्य किये हुए है ? उनकी अपनी नैतिकता क्या कठघरे में नहीं खड़ी है ?

बातें तो इससे भी आगे जाकर कही जा रही हैं कि मनमोहन सिंह की सरकार कठपुतली सरकार है और इसका रिमोट कन्ट्रोल दस जनपथ के पास है। इस सरकार में निर्णय लेने की इच्छा शक्ति नहीं है और मनमोहन सिंह कांग्रेस का असली चेहरा नहीं है। इस सबके बावजूद मनमोहन सिंह अपने दल और सरकार में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त करते हैं। सत्ताधारी दल की इसके पीछे क्या मजबूरी हो सकती है ?

जहाँ तक सत्ता मोह या कुर्सी मोह की बात है, यह कहना इस विसंगति की सरलीकृत व्याख्या होगी।  हकीकत तो यह है कि आज हमारी व्यवस्था राजनीतिक संकटों में फँसी है। सरकार ने जिन अमीरपरस्त नीतियों पर अमल किया है, उनसे अमीरी और गरीबी के बीच की खाई चौड़ी हुई है। सत्ता और सम्पति से बेदखल गरीबों का कोई पुरसाहाल नहीं है। वे लोग जिनके श्रम से देश चलता है, अपने हक और अधिकार से वंचित किये जा रहे हैं। महँगाई और भ्रष्टाचार से हर तबका त्रस्त है। जनता के पास आज इतनी समस्याएँ है कि वह इसके बोझ के नीचे दब सी गई है। जितनी जटिल समस्याएँ हैं, उतने ही तरह के आन्दोलन भी उठ खड़े हुए हैं।

यह सरकार के लिए कठिन स्थिति है  कि उसे एक तरफ अपनी नीतियों व एजेण्डे को अमल में लाना है, वहीं उसे इसका भी ख्याल रखना है कि उसकी विश्वसनीयता जनता के बीच कायम रहे। हमारी राजनीतिक प्रणाली संसदीय जनतांत्रिक है। इसकी यही खूबी है कि जिन मतदाताओं के बूते राजनीतिक पार्टी सरकार बनाती है, उसी के ऊपर उसे शासन करना होता है और आगे शासन में बने रहने के लिए उसे उन्हीं मतदाताओं के पास जाना होता है। संकट उस वक्त आता है, जब सरकार की घोषित नीतियाँ तो कुछ और होती हैं, पर अघोषित नीतियाँ कुछ और हैं जिन पर वह अमल करती है। ऐसे में इस राजनीतिक प्रणाली की वजह से सत्ताधारी दलों और उनकी सरकार को दोहरे दबाव में काम करना होता है। यही उनके चरित्र में भी दोहरापन लाता है।

इब्राहिम लिंकन ने जनतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था कि यह जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन है। लेकिन आज के राजनीतिक संकट के युग में यह परिभाषा बहुत प्रासंगिक नहीं रह गई है। बल्कि आज तो जनतंत्र जनता में भ्रम पैदा करने वाला शासन है जो धूर्तता और पाखण्ड के सहारे चलता है। जनता में अपना विश्वास जमाने, भ्रम पैदा करने तथा उसे अपने पक्ष में करने के लिए शासक दल, उनकी सरकारें जनता के हाव-भाव, जीवन शैली, जनता के नारे और मुद्दे अपना लेते हैं। जनतंत्र में शासक वर्ग के लिए यह जरूरी होता है क्योंकि अपनी इन्हीं तरकीबों से वह अपनी सत्ता को स्थिर करता है तथा अपनी वास्तविक नीतियों को बेरोकटोक लागू करने में सफल हो पाता है।

इंदिरा गांधी इस राजनीति की कुशल खिलाड़ी थी। उन्होंने ‘गरीबी हटाओ, समाजवाद लाओ’ के नारे के साथ देश को तानाशाही का ‘तोहफा’ दिया था। बाद के सत्ताधारी दलों और उनकी सरकारों ने इसी तरह के भ्रम पर अमल किया है। आज जब मनमोहन सिंह अपने को लोकपाल के दायरे में लाने की बात करते है तो वे उसी भ्रम को फैला रहे होते हैं तथा इसका मकसद भ्रष्टाचार को लेकर जनता में उभर रहे जन असंतोष को अपने में समायोजित कर लेना है।



जनसंस्कृति मंच लखनऊ के संयोजक और सामाजिक संघर्षों में सक्रिय.




उन दीवारों का शोर किसी ने सुना नहीं...


चारों ओर से आलीशान इमारतों से घिरे उस घर की बात ही कुछ अलग थी। उसके आसपास के सभी घर दोबारा बनाए जा चुके थे। वहां सिर्फ वही एक घर था, जो मध्यमवर्गीय परिवार की झलक दिखलाता था। शायद अब तक उस घर में बड़ा फेरबदल नहीं किया गया था...

इमरान खान

बक्शे पर खूबसूरत अंदाज़ में दर्ज के-25 और अमृता प्रीतम
 दीवारें चीखती रहीं,चिल्लाती रहीं पर किसी को कुछ सुनाई नहीं दिया। उस घर की एक-एक ईंट पर इतिहास के लाखों लफ्ज उभरे थे, लेकिन वो उन मजदूरों को दिखाई नहीं दिए, जो शायद पढऩा-लिखना नहीं जानते थे। उनके हर वार पर उस घर का जर्रा-जर्रा रोया तो जरूर होगा। अफसोस इतना कुछ होने पर भी किसी ने कुछ सुना नहीं, किसी ने कुछ देखा नहीं। 

यह सब शायद दिल्ली में ही मुमकिन है। पंजाब की बेटी जिसने अपनी कलम से दुनिया को रौशनी दिखाते हुए औरत के हक की आवाज बुलंद की, उसका घर टूट चुका है। घर टूटते ही उसका वो सपना भी चूर-चूर हो चुका है, जिसमें उसने उस घर को सदियों तक वैसा ही रखने का सोचा था। दिल्ली के हौजखास स्थित के-25 जहां अमृता ने अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा बिताया था, वो घर अब रहा नहीं। उस घर में अमृता का परिवार जिसमें उनके दोनों बेटे, उनकी बीवियां और बच्चे रहते थे, अब वहां वीरानी छाई है।

उस घर में वो इंसान भी रहता था जो अमृता के बेहद करीब था, जिसने उसकी हर याद को संजोकर रखा था। जी हां, मैं इमरोज की ही बात कर रहा हूं। वो घर किन कारणों से बिका, इसका अभी तक खुलासा नहीं हुआ है। उनके बच्चों ने इमरोज के रहने का इंतजाम तो कर दिया है, लेकिन ऐसा क्यों हुआ इससे पर्दा उठना अभी बाकी है। ज्यादातर संभावनाएं खराब आर्थिक स्थिति की हैं। अमृता तो अपनी कविताओं में रहती दुनिया तक जिंदा रहेगी, लेकिन उनके सपनों के घर को तोड़ दिया जाना भी बेहद दुखदाई है।

चारों ओर से आलीशान इमारतों से घिरे उस घर की बात ही कुछ अलग थी। उसके आसपास के सभी घर दोबारा बनाए जा चुके थे। वहां सिर्फ वही एक घर था, जो मध्यमवर्गीय परिवार की झलक दिखलाता था। शायद अब तक उस घर में बड़ा फेरबदल नहीं किया गया था, इसलिए उस घर की नक्काशी उधर से गुजरते हुए राहगीर का ध्यान अपनी ओर खींच ही लेती थी। 

घर का दरवाजा शायद उस मोहल्ले के सभी दरवाजों से छोटा था। छोटा होने पर भी उसकी शान में कोई कमी मालूम नहीं पड़ती थी। दरवाजा घर की बाईं ओर था। दरवाजे के दाईं ओर गहरे जामुनी रंग के बने दो बक्सों में एक पर के-25 और दूसरे पर दर्ज था अमृता प्रीतम। दोनों बक्सों पर लटकती पत्तियां उस नाम को और भी खूबसूरत बनाती थीं। दरवाजे की दाईं ओर बेतरतीबी से उगे रंग-बिरंगे फूलों की महक एकबारगी में ही अमृता के जीवन को उसके अंतर्मन से महसूस करने वाले के जेहन में उतार देती थी।

सफेद रंग से रंगा अमृता प्रीतम का वो घर देखने वाले को एक सुकून का अहसास करवाता था, जो शायद दिल्ली में ढूंढने पर ही कहीं मिले। दरवाजे से सीधे जाने पर दाईं ओर एक छोटा दरवाजा ऊपर को जाता था, ऊपर के कमरों में ही अमृता और इमरोज ने लगभग 40 साल बिताए थे। इतनी बड़ी लेखिका का घर इतना साधारण, पहली बार वहां जाने वाला शख्स सोचता तो जरूर होगा, लेकिन दीवारों से निकलते मोहब्बत के झोंके उसे इतना मदहोश कर देते कि और कुछ सोचने की किसी में हिम्मत न रहती। घर के आखिर में पहुंचने पर वहां प्लास्टिक की एक कुर्सी और एक छोटा टेबल रखा था। छत पर टंगा पंखा भी 30-35 साल पुराना ही मालूम होता था। इमरोज अपने चाहने वालों से उसी जगह मिला करते थे।

घर टूटने का गम अमृता और इमरोज को चाहने वाले करोड़ों लोगों को होगा, पर अफसोस कि अब कुछ किया नहीं जा सकता। हमारे बहुत से दोस्त इसका साहित्यिक विरोध भी कर रहे हैं, मगर अब इसका क्या फायदा। खरीदने वाले ने तो वहां नई इमारत बनाने का काम भी शुरू करवा दिया है। विरासत का किला तो अब ढह चुका है। अब तक तो उस घर के कण-कम में बसी मोहब्बत करोड़ों लोगों के जेहन में उतर चुकी होगी।

लेखक पत्रकार हैं.


...फिर से वृक्षारोपण


आज वृक्ष लगाना सोशल वर्क की श्रेणी में सबसे नवीनतम फैशन का रूप धारण कर चुका है। विदेशी वीआईपी से लेकर देश का हर बड़ा आदमी अपने आपको पर्यावरण प्रेमी दिखाने की होड़ और दौड़ में पीछे रहना नहीं चाहता है। दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति हो या फिर कोई लोकल वीआईपी, सभी पेड़ लगाकर सुर्खियां बटोरने का अवसर कभी छोड़ते नहीं हैं... 


डॉ.  आशीष वशिष्ठ 

 अब के बरस सावन में... गीत के बोल रिमझिम फुहार और प्यार की बौछार की बरबस ही याद दिलाते हैं। ऐसा नहीं है कि सावन के महीने की प्रतीक्षा केवल प्रेमी-प्रेमिका ही करते हैं, बल्कि वन विभाग और एनजीओ भी इसका बेसब्री से इंतजार करते हैं। मानसून आते ही केन्द्र और राज्यों में वन विभाग और पर्यावरण से जुड़ी अनेक संस्थाएं एक साथ सक्रिय हो जाती हैं। सरकारी अमले के अलावा स्वयं सेवी संस्थाएं (एनजीओ) भी सुप्तावस्था से निकलकर ‘एक्टिव’ भूमिका में दिखाई देने लगती हैं।

सावन के महीने में पूरे देश में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर वृक्षारोपण का जो उफान दिखाई देता है, सावन खत्म होने के साथ ही वो सारी सक्रियता ऐसे गायब हो जाती है जैसे गधे के सिर से सींग। समस्या इस बात को लेकर नहीं है कि हर साल सावन में वृक्षारोपण की रस्म अदा की जाती है, नाराजगी का कारण यह है कि एक बार पौधा लगाने के बाद उसी देखरेख और उसको संभालने की जिम्मेदारी उठाता कोई नजर नहीं आता।

सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा देशभर में लाखों वृक्षों को लगाया तो जाता है, लेकिन तस्वीर का काला पक्ष यह है कि अगला सावन तो क्या एक-दो महीनों में ही लगभग अस्सी से नब्बे फीसदी तक पौधे मुरझाकर खत्म हो जाते हैं। बेशर्मी का आलम यह है कि पर्यावरण संरक्षण और धरती को हरा-भरा बनाने की कवायद में जुटे तथाकथित नेता, पर्यावरणविद्, सामाजिक कार्यकर्ता और संस्थाएं अगले सावन में पुनः पुरानी जगह पर नया पौधा लगाकर अपनी फोटो खिंचवाते और अखबार में लंबी-चौड़ी खबरें छपवाते हैं। सरकारी स्तर पर प्रत्येक वर्ष वृक्षारोपण के लिए जितना बजट पास होता है अगर ईमानदारी से उसका दस फीसदी भी खर्च किया जाये तो देश में हरियाली का संकट आने वाले दो-तीन सालों में लगभग खत्म हो जाएगा।

वर्ष 2007 में उत्तर प्रदेश सरकार ने एक ही दिन में प्रदेशभर में 1 करोड़ पौधे लगाकर गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करवाया था। आज लगभग चार सालों के बाद उन एक करोड़ पौधों में से बामुश्किल एक लाख पौधे भी शायद ही जीवित हों। हमारे देश में पर्यावरण और उससे जुड़ी समस्याओं को न तो सरकार और न ही नागरिक गंभीरता से लेते हैं। ऐसे में पर्यावरण संरक्षण और सुधारने के लिए जो भी कवायद की जाती है वो महज ‘पब्लिसिटी स्टंट’ और ‘कागजी कार्रवाई’ तक सिमट जाती है। और फिर हर साल सावन आने पर कुकरमुत्ते की भांति सैंकड़ों सामाजिक संस्थाएं और बरसाती मेंढक रूपी सरकारी तंत्र देश की गली-गली में वृक्षारोपण के गीत टर्राने लगते हैं।

देश के हर छोटे-बड़े राज्य में वन विभाग हर साल बरसात के मौसम में वृक्षारोपण के लिए भारी-भरकम बजट की व्यवस्था करता है और जिलेवार सभी वन अधिकारियों और कर्मचारियों को वृक्षारोपण का ‘टारगेट’ दिया जाता है। असली खेल यहीं से शुरू हो जाता है। पौध खरीदने से लेकर वृक्ष रोपने और ट्री-गार्ड लगाने तक सरकारी मशीनरी लाखों-करोड़ों का वारा-न्यारा कर चुकी होती है। हड्डी पर बचा-खुचा मांस एनजीओ और पर्यावरण को समर्पित संस्थाएं नोंच लेती हैं।

वृक्षारोपण की आड़ में जो काली कमाई की कहानी है उसमें बड़े-बड़े सफेदपोश शामिल हैं। हरियाणा में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के तहत वन विभाग ने करोड़ों के बजट से वृक्षारोपण पिछले दो-तीन सालों में करवाया, लेकिन जब एक ईमानदार वन अधिकारी संजीव चतुर्वेदी ने विभाग के  कारनामों का कच्चा-चिट्ठा खोलना शुरू किया तो वन मंत्री से लेकर आला अधिकारी तक इस ईमानदार अधिकारी के पीछे हाथ धोकर पड़ गए। इसी का नतीजा है कि पांच साल की नौकरी में नौ बार तबादला और अन्ततः निलबंन की मार संजीव को झेलनी पड़ी।

 हर साल की भांति इस मानसून में भी करोड़ों पौधे रोंपे जाएंगे, लेकिन सावन बीत जाने के बाद अगर तथाकथित जिम्मेदार संस्थाओं और सरकारी मशीनरी से जिंदा पौधों का हिसाब मांगा जाए तो ऐसे-ऐसे बहाने बनाए जाएंगे कि आप चौंक जाएंगे। कहने को तो चाहे कोई कितनी लंबी चौड़ी बातें करे या बयानबाजी करे लेकिन जब जिम्मेदारी लेने का समया आता है तो स्वयं को जिम्मेदार बताने वाले दूसरों के कंधों पर जिम्मेदारी का टोकरा डालने की कोशिश करते नजर आते हैं।

 धरती पर दिखाई दे रहे हैं। कुदरत ने वनों के विस्तार का अपना ही सिस्टम बना रखा है। जीव-जंतु, वनों में विचरनेवृक्षारोपण और धरती को हरा-भरा बनाने के पीछे चंद ईमानदार और निःस्वार्थी प्रयासों की बदौलत ही बचे-खुचे पौधे वाले प्राणी, पषु-पक्षी, बरसात और वन का अंदरूनी तंत्र स्वयं वनों का विस्तार करता रहता है। अगर कोई सरकार या संस्था ये दावा करती है कि उसने वनों को बनाया और लगाया है तो वो सरासर झूठ बोलती है। हां, थोड़े-बहुत क्षेत्र को वन क्षेत्र के रूप में मानव प्रयासों से विकसित किया जाता है, लेकिन दुनियाभर के जितने भी छोटे-बड़े और घने जंगल हैं उन्हें स्वयं कुदरत ने ही सजाया और संवारा है।

देश के महानगरों और नगरों में सड़कें चौड़ी करने के नाम पर हर साल लाखों वृक्षों की बलि ली जाती है। पिछले एक दशक में विकास के नाम पर करोड़ों वृक्ष देशभर में काटे गये हैं। लखनऊ में लगभग सभी प्रमुख मार्गों के विस्तार और चौड़ीकरण के नाम पर सौ-सौ साल पुराने इमली, पीपल, बरगद, गूलर आदि के हजारों पेड़ों को बेरहमी से काट डाल गया। लखनऊ शहर की जो सड़कें किसी जमाने में ‘ठण्डी सड़क’ के नाम से जानी जाती थी आज उन्हीं सड़कों पर गर्मी और तपिश के कारण आम आदमी का चलना दुश्वार हो चुका है।

पिछले साल दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी के नाम पर न जाने कितनेवृक्षों की बेरहम कटाई की गई। लखनऊ और दिल्ली की तर्ज पर देश के हर छोटे-बड़े कस्बे से लेकर महानगर तक विकास का पहला ठीकरा पर्यावरण पर ही फूटता है। अनियोजित विकास की जो रूपरेखा बड़ी तेजी से खींची जा रही है उसने पर्यावरण के हालात असामान्य बना दिये हैं। लखनऊ, दिल्ली, मुम्बई, मद्रास, बंगलुरू, कोलकाता, चंडीगढ, पटना, रांची में स्लम एरिया बढ़ता जा रहा है। अनियत्रिंत आबादी और शहरीकरण का बढ़ता विस्तार  पर्यावरण के लिए अत्यधिक जहरीले तत्व साबित हो रहे हैं। 

ऐसा  भी नहीं है कि केवल सावन के मौसम में ही देश में वृक्षारोपण किया जाता है। आज वृक्ष लगाना सोशल वर्क की श्रेणी में सबसे नवीनतम फैशन का रूप धारण कर चुका है। विदेशी वीआईपी से लेकर देश का हर बड़ा आदमी अपने आपको पर्यावरण प्रेमी दिखाने की होड़ और दौड़ में पीछे रहना नहीं चाहता है। दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति हो या फिर कोई लोकल वीआईपी, सभी पेड़ लगाकर सुर्खियां बटोरने का अवसर कभी छोड़ते नहीं हैं।

 पुराने जमाने में पेड़-पौधे लोगों की जिन्दगी का एक अहम हिस्सा थे। जन साधारण प्रकृति प्रदत्त इस अनमोल विरासत को सहेजकर रखने में विश्वास करते थे। अनेक सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में वृक्षों की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी। घरों में तुलसी एवं पीपल का पौधा लगाना वृक्षों की उपयोगिता का प्रमाण था। विवाह मंडप को केले के पत्तों से सजाना, नवजात शिशु के जन्म पर घर के मुख्य द्वार पर नीम की टहनियाँ लगाना, हवन में आम की लकड़ियों का प्रयोग आदि ढेरो ऐसे उदाहरण हैं जिनसे तत्कालीन समाज में वृक्षों की उपयोगिता का बखूबी पता चलता है।

मगर आज स्थिति इसके ठीक विपरीत है। घरों में वृक्ष लगाने का चलन लगभग दम ही तोड़ चुका है और सरकार एवं एनजीओ द्वारा हर साल सावन के मौसम में वृक्षारोपण की जो खानापूर्ति और भ्रष्टाचार का खुला खेल होता है वो लगातार पर्यावरण की सेहत को बिगाड़ रहा है। जरूरत इस बात की है कि  हम सच्चे मन और कर्म से  लाखों-करोड़ों पौधे के स्थान पर चाहे एक ही पौधा लगाएं, लेकिन उसकी तब तक देखभाल करें, जब तक वो अपनी जड़ों पर स्वयं खड़ा न हो जाये, क्योंकि यहां सवाल धरती को हरा-भरा बनाने का है न कि गिनती गिनाने का।

देश के आम आदमी से लेकर राष्ट्रपति तक से जुड़ी पर्यावरण, प्रदूषण और उससे जुड़ी अनेक दूसरी समस्याओं को महज खानापूर्ति  न समझकर हमें पूरी संजीदगी से हर दिन और हर अवसर पर अपने आस-पास एक पौधा लगाने का पवित्र संकल्प लेना चाहिए, तभी हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए हरी-भरी धरती का उपहार दे पाएंगे।

स्वतंत्र पत्रकार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक- सामाजिक मसलों के लेखक .