May 7, 2010

आखिर चिदंबरम का क्या दोष

अजय प्रकाश

कुछ नेताओं, सुरक्षा विशेषज्ञों, बुद्धिजीवियों को छोड़ दें तो सरकार क्या यह नैतिक साहस कभी कर पायेगी कि मारे गये सुरक्षाबलों की जिम्मेदारी चिंदबरम पर सुनिश्चित करे ?

दंतेवाड़ा के चिंतलनार में मारे गये 76सुरक्षाबलों की जांच के लिए गृह मंत्रालय ने ईएन राममोहन कमेटी गठित की थी। बीएसएफ के पूर्व डीजी राममोहन के नेतृत्व में गठित यह कमेटी अप्रैल के अंतिम सप्ताह में सरकार को रिपोर्ट सौंप चुकी है। लेकिन जो जानकारियां आ चुकी थीं उससे अधिक के तथ्य कमेटी मुहैया नहीं करा सकी। लेकिन गृहमंत्रालय को कुछ तो करना है। सो मंत्रालय निचले स्तर के कुछ अधिकारियों-कर्मचारियों पर कार्यवाही कर साल-दो साल में चिदंबरम के नेतृत्व में माओवादियों के सफाये का फिर एक बार दंभ भरेगा।

पी चिदंबरम :  काम से सीइओ और पद से गृहमंत्री 

इसके लिए माहौल भी बनना शुरू  हो गया है। जैसे सीआरपीएफ कर्मियों की जीवन स्थिति बदहाल है, रहने-खाने की उचित व्यवस्था नहीं है, जबकि अधिकारी मौज मारते हैं। साथ ही चिदंबरम छत्तीसगढ़ पुलिस के उच्चाधिकारियों पर एक के बाद एक तीखी टिप्पणियां लगातार कर रहे हैं, जो यूं ही नहीं हैं। हालांकि चिदंबरम के इन सवालों से हमारा कोई इनकार नहीं है। लेकिन इतने बड़े घटनाक्रम के बाद क्या सीधे नीति पर बात नहीं होनी चाहिए थी? उसी नीति पर जिसके परिणाम के तौर पर हम सुरक्षाबलों की मौत और आदिवासियों की तबाही से रोज दो-चार हो रहे हैं। साथ ही माओवादियों और उनके समर्थकों की गिरफ्तारियों और हत्याओं का भी सवाल है.  

तो  क्या चिदंबरम को इस बात का थोडा भी अहसास है कि मध्य भारत के इस हिस्से को वह अपनी साम्राज्यवादी  चाहत  और चन्द व्यावसायिक घरानों के  लिए कहाँ पहुँचाने जा रहे हैं.  हत्याओं के भरोसे  जंगलों में स्वराज लाने की चाहत से ओतप्रोत चिदंबरमवाद अगर जंगलों के भीतर सैन्य छावनी बना ले तो  संघर्ष रूक जायेगा ? अगर इस खामखयाली से गृहमंत्री नहीं उबर पाए हैं तो यह देश के लिए सदमा ही होगा. 
  
यह लड़ाई आदिवासिओं की है, वहां के वाशिंदों की है. कल को वहां माओवादी नहीं होंगे कोई और होगा. लेकिन लोग कभी नहीं स्वीकारेंगे कि विकास के बहाने तबाही की बुनियाद पर  दुनिया का कोई भी सत्ताधारी  उनका इस्तेमाल करे.न ही  अपने अंतिम समय तक वह यह स्वीकार कर पाएंगे कि सरकार सुरक्षा के नाम पर उन्हें अपने गावों-घरों से उजाड़कर कैम्पों में बसाये.अगर सरकार का रवैया यही  रहा तो, हो सकता है कि आदिवासी लड़ाके दो कदम पीछे हटें और मज़बूरन उन्हें जंगलों में भागना पड़े. मगर उसके बाद सैन्य छावनियों और वहां के वाशिंदों के  बीच जो युद्ध शुरू होगा वह भारतीय संघीय प्रणाली की चूलें हिला देगा.जिसका हल सरकार को फिर एक बार  बंदूकों में ही नज़र आएगा.

ऐसे में  प्रश्न है कि इन सवालों पर अभी खुलकर बात क्यों नहीं हो रही है, जबकि सुरक्षाबलों के घरों में मातम का माहौल  बिलकुल ताज़ा है. बात सुरक्षाबलों की बदहाली पर हो रही है। सेना,पुलिस और सुरक्षाबलों में भर्ष्टाचार का मामला न तो नायाब  है और न ही नया. नया है तो इतनी बड़ी संख्या में एक साथ मारे गए सुरक्षाबल. हालाँकि अगर यह सुरक्षाबल मारे नहीं गए होते तो माओवादियों  के बहाने आदिवासियों को मार कर आते.यानी एक बात सपष्ट है कि सरकार की नीतियों के चलते सुरक्षाबलों और स्थानीय लोगों के बीच का सम्बन्ध दुश्मनाना बन चुका है जिसका  लक्ष्य जीत हासिल करना है.

इन्हें पहचाने   : आदिवासी या माओवादी
मीडिया मैनेज में माहिर और मनोवैज्ञानिक युद्ध के महारथी चिदंबरम जानते हैं कि असल मुद्दे पर अगर जोर जारी रहा तो इस्तीफा देने का दिखावा जो उन्होंने पिछले दिनों किया था वह हकीकत में बदल जायेगा.वित्तमंत्री से गृहमंत्री बने पी चिदंबरम के बदलते बयानों को इकट्ठा कर लिया जाये तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि आदेश और आरोप ही उनकी काबीलियत का सार है। इस काबीलियत से तंग आकर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने सुझाव दिया ‘जबान संभाले’तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा ‘थम के बोलिये और काम से बरसिये।’रही बात झारखंड के मुख्यमंत्री शिबु सोरेन की तो उनके बारे में चिदंबरम साहब के अधिकारी ही माओवादियों के मामले में संदेह व्यक्त करने वाले बयान देते हैं। सरकार के इस रवैये पर समयांतर पत्रिका के संपादक पंकज बिष्ट कहते हैं, ‘गृहमंत्री और गृहसचिव जीके पिल्लई को कौन समझाये कि सरकार युद्ध की तारीख तो तय कर सकती है लेकिन खात्मे की नहीं। युद्ध की अमेरिकी रणनीति आजमा रही सरकार को इसका अनुभव तो अफगानिस्तान, वियतनाम और इराक से लेना चाहिए।’

माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में सरकारी व्यवस्था अमल में लाने के लिए सफाया,कब्जा और निर्माण की अमेरिकी युद्ध नीति के तहत सरकार कार्यवाही कर रही है। चिंतलनार में मारे गये अर्धसैनिक  बल के 62वीं बटालियन के 75 सुरक्षाबल  समेत  ७६ जवान उसी नीति के तहत की जा रही कार्यवाही के दौरान माओवादियों और समर्थकों के हाथों मारे गये। ऐसी रणनीति का प्रयोग सरकार १९९० के दशक में उल्फा के सफाये के लिए उत्तर-पूर्व के राज्यों में कर चुकी है। इस युद्ध रणनीति के तहत सबसे पहले सुरक्षाबलों को अतिवादियों को मटियामेट कर एक निश्चित क्षेत्र में कब्जा करना होता है। जिसके बाद वहां फौजी नियंत्रण कायम कर सुरक्षाबल कब्जे के लिए आगे बढ़ते हैं। सफाये और कब्जे की लंबी प्रक्रिया के बाद सरकारी मशीनरी वहां निर्माण काम अपने हाथों में लेती है।

 छत्तीसगढ़ में मारे गये जवानों की हत्या के बाद पहली बार  है कि सत्ताधारी यूपीए की मुख्य पार्टी कांग्रेस के भीतर से कई बड़े नेताओं ने चिदंबरम की सफाया नीति का खुलकर विरोध किया है। कांग्रेस महासचिव दिग्वीजय सिंह ने तो बकायदा एक आर्थिक अंग्रेजी दैनिक में लंबे लेख के जरिये चिंतलनार समेत पूरी नीति को लेकर गृहमंत्री की समझ पर सवाल खड़े किये। इस सवाल का पुरजोर समर्थन वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व मंत्री मणिशंकर ने इस टिप्पणी के साथ किया कि ‘दिग्वीजय एक लाख प्रतिशत सही कह रहे हैं।’सुरक्षा विशेषज्ञ अजय साहनी दो टूक मानते हैं कि ‘यह चिदंबरम की रणनीतिक गलती का परिणाम है। ऐसे अभियान केंद्र सरकार आधारित कर संचालित करने पर भविष्य में इससे भी बुरे परिणाम हो सकते हैं।’