Feb 9, 2007

कानी बुढिया

निकली मौसी हफ्ते भर पर
चूल्‍हे-चूल्‍हे झांकी थी
नहीं कहीं कुछ बची-खुची थी
नहीं कहीं अगीआरी थी

घर आयी तो देखी मामा दुम दबाये बैठे हैं
बडकी मौसी चढी अटारी पेट सुखाये ऐंठी हैं

बात नहीं यह रविवार की सोमवार की बात रही
मामा ने खायी रोटी और मैं खायी थी साथ दही

खूब बजा था नगाडा और बडी नची थी मनुबाई
ओढाया था चादर उसको घुमाया था गली-गली

राम नाम का नारा देकर ले गये उसको नदी-वदी
जोडे-जाडे, फूंके-तापे घर को आये हंसी-खुशी

टुक-टुक मामा देखा करते वह पकवान बनाती थी
घर पर तब वह पहरा देते जब लोटा संग बहरा जाती थी

बिल्‍ली मौसी बडी सयानी मन बहलाया करती थीं
देकर अपनी अगली पीढी घर उजियारा करती थीं

सालोंसाल रही जिंदा वह बिन मानुष बिन आगम के
कुत्‍ता बिल्‍ली रहे हमसफर बिन मानुष बिन आगम के

असली भूतनी कानी बुढिया बच्‍चे कहते जाते थे
न करना कभी झांका-झांकी सभी हिदायत करते थे

कहते हैं अब लोग गांव के छोड गया वह कानी कहकर
तब से बुढिया जी रही थी भूत, पिशाच, निशाचर बनकर

मर गयी बुढिया बीता हफ्ता घर के दावेदार खडे थे
घर बार बिना वे हुये अभागे जो घर में सालोंसाल रहे थे।
अजय प्रकाश

साथी
वह किसान का लडका था
लडा, आजाद कौम के लिये
तुम भी मेहनतकश के बेटे हो
लड रहे हो एक बेहतर कल के लिये

वह कल जो तुम्‍हारी रगों में दौड रहा है
वह सपना बस्तियों में गूंज रहा है
जेल की कालकोठरी में बैठे
जो आंच तुम्‍हें मिल रही है साथी
वह बेकार नहीं जायेगी
वह बेकार नहीं जायेगी

तख्‍त नहीं डिगा सकते सपनों को
क्‍योंकि वे रातों को नहीं रोक सकते

वह सफदर को घूंघरू बांधने से नहीं रोक सकते
नहीं रोक सकते पाश को गलियों में गाने से
वह नाजिम के हाथों को एक होने से नहीं रोक सकते
नहीं रोक सकते पाब्‍लो की समुद्री लहरों को
तो कैसे रोक लेंगे तुम्‍हारे सपनों को

साथी
इल्‍म करा दो ताजदारों को
हरावली सेना मौत से नहीं डरती
और लोग, बख्‍तरबंद सैनिकों से

अजय प्रकाश