Jan 29, 2011

अमर रहे सुर तुम्हारा

  
भीमसेन जोशी की संगीत-दृष्टि अपने घराने से होती हुई बहुत दूर, दूसरे घरानों, संगीत के लोकप्रिय रूपों, मराठी नाट्य और भाव संगीत,कन्नड़ भक्ति-गायन और कर्नाटक संगीत तक जाती थी। यह एक ऐसी दृष्टि थी जिसमें समूचा भारतीय संगीत एकीकृत रूप में गूंजता था...


मंगलेश डबराल

उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में उस्ताद अब्दुल करीम खां की जादुई आवाज ने जिस किराना घराने को जन्म दिया था,उसे बीसवीं शताब्दी में सात दशकों तक नयी ऊंचाई और लोकप्रियता तक ले जाने वालों में भीमसेन जोशी सबसे अग्रणी  थे। किराना घराने की गायकी एक साथ मधुर और दमदार मानी जाती है और इसमें कोई संदेह नहीं कि जोशी इस गायकी के शीर्षस्थ कलाकार थे।

अर्से से बीमार चल रहे जोशी का निधन अप्रत्याशित नहीं था,हालांकि उनके न रहने से संगीत के शिखर पर एक बड़ा शून्य नजर आता है। लेकिन सिर्फ यह कहना पर्याप्त नहीं होगा कि भीमसेन जोशी किराना घराने के सबसे बड़े संगीतकार थे। दरअसल उनकी संगीत-दृष्टि अपने घराने से होती हुई बहुत दूर, दूसरे घरानों, संगीत के लोकप्रिय रूपों, मराठी नाट्य और भाव संगीत,कन्नड़ भक्ति-गायन और कर्नाटक संगीत तक जाती थी। यह एक ऐसी दृष्टि थी जिसमें समूचा भारतीय संगीत एकीकृत रूप में गूंजता था।

कर्नाटक संगीत के महान गायक बालमुरलीकृष्ण के साथ उनकी विलक्षण जुगलबंदी से लेकर लता मंगेशकर के साथ उपशास्त्रीय गायन इसके उदाहरण हैं। दरअसल भीमसेन जोशी इस रूप में भी याद किये जायेंगे कि उन्होंने रागदारी की शुद्धता से समझौता किये बगैर,संगीत को लोकप्रियतावादी बनाये बगैर उसका एक नया श्रोता समुदाय पैदा किया। इसका एक कारण यह भी था कि उनकी राग-संरचना इतनी सुंदर,दमखम वाली और अप्रत्याशित होती थी कि अनाड़ी श्रोता भी उसके सम्मोहन में पड़े बिना नहीं रह सकता था।




धारवाड़ के गदग जिले में 1922  में जन्मे भीमसेन जोशी की जीवन कथा भी आकस्मिकताओं से भरी हुई है। वे 11 वर्ष की उम‘ में अब्दुल करीम खां के दो 78 आरपीएस रिकॉर्ड सुन कर वैसा ही संगीत सीखने घर से भाग निकले थे और बंगाल से लेकर पंजाब तक भटकते,विष्णुपुर से लेकर पटियाला घरानों तक के सुरों को आत्मसात करते रहे।

अंततः घर लौटकर उन्हें पास में ही सवाई गंधर्व गुरू के रूप में मिले जो अब्दुल करीम खां साहब के सर्वश्रेष्ठ शिष्य थे। उन्नीस वर्ष की उम‘में पहला सार्वजनिक गायन करने वाले भीमसेन जोशी पर जयपुर घराने की गायिका केसरबाई केरकर और इंदौर घराने के उस्ताद अमीर खां की मेरुखंड शैली का प्रभाव भी पड़ा। इस तरह उन्होंने अपने संगीत का समावेशी स्थापत्य निर्मित किया जिसकी बुनियाद में किराना था, लेकिन उसके विभिन्न  आयामों में दूसरी गायन शैलियां भी समाई हुई थीं।

भीमसेन जोशी अपने गले पर उस्ताद अमीर खां के प्रभाव और उनसे अपनी मित्रता का जिक‘अक्सर करते थे। कहते हैं कि एक संगीत-प्रेमी ने उनसे कहा कि आपका गायन तो महान है लेकिन अमीर खां समझ में नहीं आते। भीमसेन जोशी ने अपनी सहज विनोदप्रियता के साथ कहा: ‘ठीक है, तो आप मुझे सुनिए और मैं अमीर खां साहब को सुनता रहूंगा।’

भीमसेन जोशी के व्यक्तित्व में एक दुर्लभ  विनम्रता  थी। किराना में सबसे मशहूर होने के बावजूद वे यही मानते रहे कि उनके घराने की सबसे बड़ी गायिका उनकी गुरू-बहन गंगूबाई हंगल हैं। एक बार उन्होंने गंगूबाई से कहा,‘बाई, असली किराना घराना तो तुम्हारा है। मेरी तो किराने की दुकान है।’ अपने संगीत के बारे में बात करते हुए वे कहते थे: ‘मैंने जगह-जगह से, कई उस्तादों से संगीत लिया है और मैं शास्त्रीय   संगीत का बहुत बड़ा चोर हूं। यह जरूर है कि कोई यह नहीं बता सकता कि मैंने कहां से चुराया है।’  

दरअसल विभिन्न  घरानों के अंदाज भीमसेन जोशी की गायकी में घुल-मिलकर इतना संश्लिष्ट रूप ले लेते थे कि मंद्र से तार सप्तक तक सहज आवाजाही करने वाली उनकी हर प्रस्तुति अप्रत्याशित रंगों और आभा  से भर उठती थी। किराना का भंडार ग्वालियर या जयपुर घराने की तरह बहुत अधिक या दुर्लभ रागों से भरा हुआ नहीं है,लेकिन किसी राग को हर बार एक नये अनुभव की तरह,स्वरों के लगाव,बढ़त और लयकारी की नयी रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत करने का जो कौशल भीमसेन जोशी के पास था वह शायद ही किसी दूसरे संगीतकार के पास रहा हो।

मालकौंस, पूरिया धनाश्री, मारू विहाग, वृंदावनी सारंग, मुल्तानी, गौड़ मल्हार, मियां की मल्हार, तोड़ी, शंकरा, आसावरी, यमन, भैरवी  और कल्याण के कई प्रकार उनके प्रिय रागों में से थे और इनमें शुद्ध कल्याण और मियां की मल्हार को वे जिस ढंग से गाते थे,वह अतुलनीय था। उनके संगीत में एक साथ किराना की मिठास और ध्रुपद  की गंभीरता थी, जिसे लंबी, दमदार और रहस्यमय तानें, जटिल सरगम और मुरकियां अलंकृत करती रहती थीं। एक बातचीत में उन्होंने कहा था: ‘गाते हुए आपकी साधना आपको ऐसी सामर्थ्य देती है कि यमन या भैरवी  के स्वरों से आप किसी एक प्रतिमा को नहीं, बल्कि समूचे ब्राह्मांड को बार-बार सजा सकते हैं।’

भीमसेन जोशी करीब सत्तर  वर्षों तक अपने स्वरों से किसी एक वस्तु या मूर्ति को नहीं,समूची सृष्टि को अलंकृत करते रहे। यही साधना थी जो उन्हें बीसवीं सदी में उस्ताद अमीर खां साहब के बाद इस देश के समूचे शास्त्रीय   संगीत का सबसे बड़ा कलाकार बनाती है और उन्हीं की तरह वे अपनी देह के अवसान के बावजूद अपने स्वरों की अमरता में गूंजते रहेंगे।
 (एनबीटी  से साभार)


 

 साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित , हिंदी के प्रमुख कवि और पत्रकार.उनसे mangalesh.dabral@gmail.com   पर संपर्क  किया जा सकता है.




 
 
 

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