Jun 25, 2011

राष्ट्रपति से माओवादियों के कुछ सवाल जवाब

छत्तीसगढ़ की विधानसभा को सम्बोधित करते हुए 24 जून को राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने माओवादियों से हिंसा का रास्ता छोड़ने को कहा . राष्ट्रपति की इस अपील पर माओवादी क्या और क्यों  सोचते हैं, उस पूरे तर्कशास्त्र  को रखती  माओवादियों की ओर से  जारी प्रेस विज्ञप्ति ...


रायपुर प्रवास के दौरान राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने आज, यानी 24 जून 2011 को हमारे सामने यह प्रस्ताव रखा है कि 'माओवादी हिंसा छोड़कर बातचीत के लिए आगे आएं और मुख्यधारा से जुड़ जाएं ताकि आदिवासियों के विकास में शामिल हुआ जा सकें।' राष्ट्रपति का प्रस्ताव ऐसे समय सामने आया है जबकि भारतीय सेना के करीब एक हजार जवान बस्तर क्षेत्र के तीन जिलों में अपना पड़ाव डाल चुके हैं ताकि देश की निर्धनतम जनता पर जारी अन्यायपूर्ण युद्ध - ऑपरेशन गी्रनहंट में शिरकत कर सकें।

राष्ट्रपति ऐसे वक्त ‘वार्ता’ की बात कह रही हैं जबकि खनिज सम्पदा से भरपूर देश के कई इलाकों से प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के बाबत् सरकारों और कार्पोरेट कम्पनियों के बीच वार्ता के कई दौर पूरे हो चुके हैं और लाखों करोड़ रुपए के एमओयू पर दस्तखत किए जा चुके हैं। वे ‘वार्ता’ की बात तब कह रही हैं जबकि बस्तर क्षेत्र में 750 वर्ग किलोमीटर का वन क्षेत्र, जिसके दायरे में दर्जनों गांव और हजारों माड़िया आदिवासी आते हैं, सेना के हवाले करने का फैसला बिना किसी वार्ता के ही लिया जा चुका है।


देश की ये सर्वप्रथम महिला राष्ट्रपति हमें ऐसे समय हिंसा छोड़ने की हिदायत दे रही हैं जबकि इसी छत्तीसगढ़ राज्य के दक्षिणी छोर पर स्थित ताड़िमेट्ला, मोरपल्ली, पुलानपाड़ और तिम्मापुरम गांवों में सरकारी सशस्त्र बलों के हाथों बलात्कार और मारपीट की शिकार महिलाओं के शरीर पर हुए जख्म भरे ही नहीं। वे ऐसे समय हमें हिंसा त्यागने की बात कह रही हैं जबकि न सिर्फ इन गांवों में, बल्कि दण्डकारण्य, बिहार-झारखण्ड, ओड़िशा, महाराष्ट्र, आदि कई प्रदेशों में, खासकर माओवादी संघर्ष वाले इलाकों या आदिवासी इलाकों में सरकारी हिंसा रोजमर्रा की सच्चाई है।

दरअसल सरकारी हिंसा एक ऐसा बहुरूपिया है जो अलग-अलग समय में विभिन्न रूप धारण कर लेता है। जैसे कि अगर आज का ही उदाहरण लिया जाए, तो रातोंरात मिट्टी तेल पर 2 रुपए, डीजल पर 3 रुपए और रसोई गैस पर 50 रुपए का दाम बढ़ाकर गरीब व मध्यम तबकों की जनता की कमर तोड़ देने के रूप में भी होती है, जो पहले से महंगाई की मार से कराह रही थी। लेकिन राष्ट्रपति को इस ‘हिंसा’ से कोई एतराज नहीं!

भारत की यह प्रथम नागरिक हमें उस ‘मुख्यधारा’ में लौटने को कह रही हैं जिसमें कि उस तथाकथित मुख्यधारा के ‘महानायकों’ - घोटालेबाज मंत्रियों, नेताओं, कार्पोरेट दैत्यों और उनके दलालों के खिलाफ दिल्ली से लेकर गांव-कस्बों के गली-कूचों तक जनता थूं-थूं कर रही है। वो ऐसी ‘मुख्यधारा’ में हमें बुला रही हैं जिसमें मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं आदि के लिए अन्याय, अत्याचार और अपमान के अलावा कुछ नहीं बचा है।

प्रतिभा पाटिल हमें उस पृष्ठभूमि में वार्ता के लिए आमंत्रित कर रही हैं, जबकि ऐसी ही एक पेशकश पर हमारी पार्टी की प्रतिक्रिया सरकार के सामने रखने वाले हमारी पार्टी के प्रवक्ता और पोलिटब्यूरो सदस्य कॉमरेड आजाद की हत्या इसी सरकार ने एक फर्जी झड़प में की थी। इत्तेफाक से उनकी शहादत की सालगिरह ठीक एक हफ्ता बाद है, जबकि साल भर पहले करीब-करीब इन्हीं दिनों में चिदम्बरम और उनका हत्यारा खुफिया-पुलिस गिरोह उनकी हत्या की साजिश को अंतिम रूप दे रहे थे। कॉमरेड आजाद ने वार्ता पर हमारी पार्टी के दृष्टिकोण को साफ तौर पर देश-दुनिया के सामने रखा था और उसका जवाब उनकी हत्या करके दिया था आपकी क्रूर राज्यसत्ता ने। और उसके बाद भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को पकड़कर जेलों में कैद करने का सिलसिला लगातार जारी रखा हुआ है।

60-70 साल पार कर चुके वयोवृद्ध माओवादी नेताओ को जेलों में न सिर्फ अमानवीय यातनाएं दी जा रही हैं, बल्कि उन्हें बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से भी वंचित रखकर प्रताड़ित किया जा रहा है। उन पर 10-10 या 15-15 राज्यों के झूठे केस लगाए जा रहे हैं, ताकि ताउम्र उन्हें जेल की कालकोठरियों में बंद रखा जा सके।

इसलिए देश की जनता से हमारा आग्रहपूर्वक निवेदन है कि - आप महामहिम राष्ट्रपति से यह मांग करें कि ‘शांति वार्ता’ की पेशकश करने से पहले उनकी सरकार जनता पर जारी युद्ध - ऑपरेशन ग्रीन हंट बंद करे; बस्तर में सेना का ‘प्रशिक्षण’ बंद करे; और तमाम माओवाद-प्रभावित इलाकों से सेना व अर्धसैनिक बलों को वापस ले। अगर सरकार इसके लिए तैयार होती है तो दूसरे ही दिन से जनता की ओर से आत्मरक्षा में की जा रही जवाबी हिंसा थम जाएगी।

आप महामहिम राष्ट्रपति से यह मांग करें कि ‘विकास’ की बात करने से पहले उनकी सरकार कार्पोरेट घरानों और सरकारों के बीच हुए तमाम एमओयू रद्द करे। बलपूर्वक जमीन अधिग्रहण की सारी परियोजनाओं को फौरन रोके; उनकी सरकार यह मान ले कि जनता को ही यह तय करने का अधिकार होगा कि उसे किस किस्म का ‘विकास’ चाहिए।

आप महामहिम राष्ट्रपति से यह मांग करें कि ‘मुख्यधारा’ में जुड़ने की बात करने से पहले सरकार सभी घोटालेबाजों और भ्रष्टाचारियों को गिरफतार कर सजा दे। विदेशी बैंकों में मौजूद सारा काला धन वापस लाए। घोटालों और अवैध कमाई में लिप्त तमाम मंत्रियों और नेताओं को पदों से हटाकर सरेआम सजा दे।


सीपीआइ (माओवादी) के केन्द्रीय  कमेटी की यह विज्ञप्ति अभय के नाम से जारी हुई है, इसे यहाँ दखल की
दुनिया ब्लॉग से साभार प्रकाशित किया जा रहा है .

पर्यावरण और विकास के बीच पाखंड


सरकार की उदासीनता,लाहपरवाही और जनता की अज्ञानता के चलते योजनाओं से अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो रहे हैं। प्रदूषण सूचकांक -2010 में भारत का 123वां स्थान है और लगातार हम निम्न से निम्नतम् स्थान की ओर खिसकते जा रहे हैं...
 
डॉ0 आशीष वशिष्ठ

हाल ही में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने विश्व की विशालतम स्टील कंपनी ‘पास्को’को उड़ीसा में प्लांट लगाने की सशर्त इजाजत दी है। जिस क्षेत्र में ये प्लांट स्थापित किया जाएगा वो क्षेत्र वनस्पतियों और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है। सरकार को भलीभांति मालूम है कि उस क्षेत्र में उद्योग स्थापित करने से जंगल और जमीन को भारी नुकसान होगा,बावजूद इसके प्लांट लगाने देने की अनुमति प्रदान करना उसकी की नीति और नीयत को ही दर्शाता है। 

सरकार का पक्ष है कि देश के विकास के लिए औद्योगिक विकास आवश्यक है। दुनिया के हर मुल्क में बड़े-बड़े उद्योग स्थापित हैं, लेकिन भारत में सरकारी मशीनरी इतनी भ्रष्ट हो चुकी है कि एक बार उद्योग स्थापित होने के बाद लेनदेन का खेल शुरू हो जाता है। किसी भी उद्योग को देंखे, ऐसा हो ही नहीं सकता कि वहां पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन न होता हो। और सरकारकी आंख तब तक नहीं खुलती, जब तक कोई हादसा न हो जाए। 

पिछले दिनों ही लखनऊ के रिहायशी इलाके राजाजीपुरम में प्लाई बनाने की यूनिट और एक अन्य कारखाने में भीषण आग लगने के बाद प्रशासन की आंख खुली। आनन-फानन में इन औद्योगिक इकाईयों पर सख्त कार्रवाई का नाटक किया गया। लखनऊ की तरह  देश के हर छोटे-बड़े शहर के रिहायशी इलाकों में धडल्ले से सैकड़ों कारखाने चल रहे हैं। इनमें पर्यावरण कानूनों का खुलेआम उल्लंघन किया जाता है। पुलिस-प्रशासन की नाक के नीचे मानकों को ताक पर रखकर पर्यावरण और समूचे समाज की सेहत से खिलवाड़ आम बात है।

देश में पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियत्रंण के लिए कानूनों का भारी बस्ता तो हमारे पास है, लेकिन उनका पालन करवाने की इच्छाशक्ति नहीं है। सरकारी तंत्र की उदासीनता और सरकार की लाहपरवाही के कारण ही अन्य देशों से खतरनाक कचरा हमारे तटबंधों पर आसानी से उतार जाता है। ऐसी कई घटनाएं पूर्व में घट चुकी हैं और अक्सर ऐसे वाकया सुनाई देते रहते हैं।

कुछ समय पहले दिल्ली में संपन्न हुए सतत विकास शिखर बैठक-2011में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि ‘सतत विकास को सुनिष्चित करने की रणनीति का केन्द्रीय सिद्धांत   यह है कि आर्थिक पहलुओं का फैसला करने वाले सभी लोगों या संगठनों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाए कि वे पर्यावरण अनुकूल बातों को हमेशा ध्यान में रखें।’अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के मौजूदा मानकों को नाकाफी बताया। उनके मुताबिक अवशिष्ट प्रदूषण से निपटने के लिए ऐसा प्रवधान होना चाहिए कि प्रदूषण फैलाने वाले भुगतान करें। उनके विचार और सरकार के कारनामों में स्पष्ट विरोधाभास दिखाई देता है। वाकई पीएम पर्यावरण को लेकर इतने चिंतित है तो ‘पास्को’ को अनुमति क्यों दी गई।

पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण की रोकथाम के लिए सरकार और सरकारी मशीनरी कितनी गंभीर है उसकी सच्चाई हाल ही में भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (कैग) की ताजा रिपोर्ट से पता चलती है। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के कामकाज पर पहली बार जारी पर्यावरण ऑडिट रिपोर्ट में कैग ने जंगलों की सेहत सुधारने, जैव-विवधता और नदियों को बचाने समेत कईं मोर्चे पर योजनाओं के क्रियान्वयन में उदासीनता को लेकर फटकार लगाई है। रिपोर्ट के अनुसार परियोजनाओं के लंबित उपयोगिता प्रमाणपत्र के अंबार को लेकर भी आश्चर्य जताया है। 

इसके अलावा पर्यावरण मंत्रालय में वित्त वर्ष 2008-09के आंकड़ों की पड़ताल में पाया कि परियोजनाओं की पर्याप्त निगरानी नहीं की गई, जिसके कारण वे अपना उद्देश्य ही पूरा नहीं कर पाई। रिपोर्ट के अनुसार पेड़ लगाने की 93 फीसदी परियोजनाएं अपने निर्धारित लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाई है। कैग सरकारी संस्था है और जब सरकारी संस्था स्वयं सरकार की गतिविधियों पर सवाल उठा रही है तो जमीनी हालातों का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

सरकारी उदासीनता और ओछी राजनीति के कारण ही देश में नदी प्रदूषण की समस्या दिनों-दिन गंभीर रूप धारण करती जा रही है। चाहे नदियों को प्रदूषण मुक्त करने से लेकर नदियों पर बांध बनाने तक की हर छोटी-बड़ी योजना और पर्यावरण से जुड़े अहम् मसलों पर केंद्र और राज्य सरकारों के मध्य विवाद आम बात है। केंद्र और राज्य सरकारों की राजनीति के फेर में पर्यावरण जैसा अहम् मुद्दा पिस जाता है।

गंगा और यमुना नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए अब तक करोड़ों रूपये खर्च किए जा चुके हैं, बावजूद इसके अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो पाए हैं। जिन राज्यों से होकर गंगा नदी गुजरती है वहां की सरकारों का अपेक्षित सहयोग न मिल पाने के कारण गंगा को प्रदूषणमुक्त कर पाने में दिक्कतें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। वहीं केन्द्र सरकार के साथ ही साथ राज्य सरकारें भी गंगा को साफ-सुथरा बनाने के लिए कोई ठोस कार्ययोजना पर काम नहीं कर रही हैं। 

उत्तराखंड में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट की बाढ़ आई हुई है,वहीं उत्तर प्रदेश में गंगा एक्सप्रेस हाईवे योजना अपने उफान पर है। वर्तमान में गंगा एक्षन प्लान को राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (एनआरसीपी) के साथ विलय कर दिया गया है, बावजूद इसके स्थिति में मामूली सुधार भी नहीं आया है। गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए विश्व बैंक ने भी मदद का हाथ आगे बढ़ाया है। उसने इस कार्य के लिए 26 लाख अरब डालर की राशि स्वीकृत की है, जो पीएम की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के माध्यम से खर्च किया जाएगा। अगर ईमानदारी से इस धनराशि से उपयोग किया गया तो स्थिति में सुधार हो सकता है।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद कानपुर में चमड़ा शोधन इकाईयों को बड़ी मुश्किल से बंद करवाया जा सका है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार गंगा के तट पर बसा कानपुर देश का सर्वाधिक प्रदूषित शहर है। गंगा की भांति यमुना नदी में भी प्रदूषण का स्तर सारी हदें पार कर रहा है। हरियाणा और उत्तर प्रदेश मे स्थित औद्योगिक इकाईयां और घरेलू कचरा नदी जल को जहर में तब्दील कर रहा है। पिछले साल चम्बल अभ्यारणय में जहां यमुना नदी का प्रदूषित जल आकर चम्बल नदी में मिलता है,वहां सैंकड़ों घड़ियालों की मौत सुर्खियों में रही है। हाल ही में इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में मछलियों के भी मरने की खबरें आ रही हैं। इन सब घटनाओं के बाद भी सरकार महज कागजी कार्रवाई कर अपनी डयूटी पूरी कर रही है।


भारतीय संविधान विश्व का पहला संविधान है जिसमें पर्यावरण संरक्षण के लिए विषिष्ट प्रावधान है। लेकिन यहां पर्यावरण की स्थिति गंभीर रूप धारण करती जा रही है। सरकार के एजेंडे में पर्यावरण का स्थान काफी नीचे है, तभी तो कड़ाई से पर्यावरण कानूनों और प्रावधानों का पालन नहीं हो रहा है। असलियत यह है कि हमारी विकास रणनीति में पर्यावरण और विकास के बीच सांमजस्य बैठाने का प्रयास कभी किया ही नहीं गया है। यही कारण है कि समूची विकास योजनाआं में पर्यावरण संरक्षण का प्रश्न उपेक्षित ही रहता है। ज्यादातर मामलों में विकास का तर्क देकर जंगल के जंगल उजाड़ना, नदियों का रूख मोड़ने से लेकर उनके पानी को प्रदूषित करना, भूजल का अंधाधुंध दोहन, खेती के लिए रासायनिक उर्वरकों-कीटनाषको के बेलगाम इस्तेमाल आदि को खुद सरकारें प्रोत्साहित करती रही है।

पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण की रोकथाम के लिए अनेक परियोजनाएं चलाई जा रही हैं,लेकिन सरकार की उदासीनता,लाहपरवाही और जनता की अज्ञानता के चलते योजनाओं से अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं हो रहे हैं। प्रदूषण सूचकांक -2010 में भारत का 123वां स्थान है और लगातार हम निम्न से निम्नतम् स्थान की ओर खिसकते जा रहे हैं। बढ़ती जनसंख्या, गरीबी, शहरीकरण, खेती के लिए कम होती धरती, बढ़ता औद्योगिककरण, अनियंत्रित  विकास और पर्यावरण के महत्ता को न समझने के कारण देश में आने वाले दिनों में पर्यावरण से जुड़ी समस्यायों  में बड़ा इजाफा होना तय है।


 
स्वतंत्र पत्रकार और उत्तर प्रदेश के राजनितिक -सामाजिक मसलों के जानकार.


 

दलित महिलाओं पर शिक्षा मंत्री की दबंगई

इस बात पर किसी ने भी यह गौर करना उचित नहीं समझा कि आखिर पुष्पा देवी और उनके बेटे को हंगामा काटने पर क्यों मजबूर होना पड़ा। सबने बस वही सुना और लिखा जो पुलिस या मंत्री के समर्थकों ने कहा...

नरेन्द्र देव सिंह

पुष्पा देवी : उत्पीडन की शिकार
उत्तराखण्ड के नैनीताल जनपद के धारी ब्लाक के अन्तर्गत गांव सुई, रयूरीगाड़ निवासी पुष्पा सुयाल, उसके बेटे दीपक और सामाजिक कार्यकर्त्ता मुन्नी टम्टा को शिक्षा मंत्री गोविन्द सिंह बिष्ट के पीआरओ मदन पांडे की तहरीर पर धारा 151 के तहत जेल भेज दिया गया। गौरतलब है कि पुष्पा देवी और अनुसूचित जाति-जनजाति महिला उत्थान समिति की अध्यक्ष मुन्नी टम्टा दस जून को शिक्षा मंत्री के छडायल स्थित घर पर अपनी शिकायत दर्ज करने पहुंचे थे। जब पुष्पा देवी अपनी हिमायती महिला नेता के साथ गांव में दबंगों के हाथों उत्पीडित होने की शिकायत लेकर आयी थी, तब गोविन्द सिंह बिष्ट एक अधिकारी से बात कर रहे थे। 

शिक्षा मंत्री और  उनके समर्थकों के मुताबिक, पुष्पा देवी और  मुन्नी टम्टा कमरे में जबरन घुसने लगी. मना करने पर अनुसूचित जाति-जनजाति महिला उत्थान समिति की अध्यक्ष मुन्नी टम्टा  ने चप्पल उतार दी और शिक्षा मंत्री से अपशब्द कहे। इसी कारण मंत्री समर्थकों ने दोनों को बाहर खदेड़ा और उनकी पिटाई कर दी। इसके बाद कोतवाल प्रमोद शाह मुन्नी, पुष्पा और पुष्पा के बेटे को कोतवाली हल्द्वानी ले आये।

इस मामले में प्रमोद शाह शिक्षा मंत्री की आज्ञा का पालन करते दिखाई दिए, क्योंकि जब वह इन लोगों को गिरफ्तार करने आये तो उनके साथ कोई भी महिला पुलिसकर्मी नहीं थी। कोतवाली जाने के बाद पुष्पा देवी के बेटों का गुस्सा आक्रोश बनकर पुलिस की हीलाहवाली पर फूट पड़ा। करीब चार घंटे हंगामा होने के बाद उन्हें पुलिस की एकतरफा कार्रवाई का सामना करना पड़ा। 

इस पूरे मामले में इस बात पर किसी ने भी यह गौर करना उचित नहीं समझा कि आखिर पुष्पा देवी और उनके बेटे को हंगामा काटने पर क्यों मजबूर होना पड़ा। सबने बस वही सुना और लिखा जो पुलिस या मंत्री के समर्थकों ने कहा। असरदार लोगों की ऊंची आवाज से गरीब-दलित लोगों की चीखों को एक बार फिर से दबा दिया गया। 

पुष्पा देवी के बेटे सतीश ने अपनी आपबीती बताते हुए कहा कि 16  मार्च को ग्राम सुई का ग्राम प्रधान सुभाष ब्रजवासी अपने 10-12 साथियों के साथ नशे में धुत  होकर लाठी-डंडों के साथ हमारे घर में घुस गया. उसने और उसके साथियों ने विधवा पुष्पा देवी और उसके तीनों बेटों की जमकर पिटाई की। साथ ही घर में तोडफोड़ भी की. 

जब सुभाष ब्रजवासी पुष्पा देवी और उसके परिवार को बेहोशी (अधमरी) की हालत में छोड़कर चला गया तो कुछ स्थानीय लोगों ने 108 एम्लेंबुस बुलाकर इन्हें पदमपुरी चिकित्सालय भिजवाया। जहां से इन्हें हल्द्वानी बेस अस्पताल के लिए रेफर कर दिया गया। गौरतलब है कि यह मामला आपसी रंजिश के साथ-साथ सुभाष बृजवासी के गंदी नीयत का भी है। आरोप है कि सुभाष बृजवासी गांव की महिलाओं पर गंदी नीयत रखता है तथा अपनी दबंगई से गरीब और कमजोर लोगों को सताता है।

अस्पताल से कुछ ठीक होकर होने के बाद पुष्पा देवी ने मुक्तेश्वर थाने में सुभाष बृजवासी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करायी. उक्त नामजद लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई न होने के कारण पीड़ित पक्ष इस सम्बन्ध में तहसीलदार, जिलाधिकारी नैनीताल, एस.एस.पी. नैनीताल से भी मिल चुका था, मगर कोई कार्रवाई नहीं हो पाई। इसीलिए मजबूर होकर पीड़ित परिवार अपनी फरियाद लेकर शिक्षा मंत्री गोविन्द सिंह बिष्ट के पास गया, परन्तु गोविन्द बिष्ट द्वारा मिलने से मना करने पर मामला बिगड़ गया। 


पुष्पा देवी ने शिक्षा मंत्री पर आरोप लगाया है कि सुभाष बृजवासी को गोविन्द सिंह बिष्ट का समर्थन प्राप्त है। इस कारण पुलिस भी सुभाष के खिलाफ कोई कार्रवाई करने से बचती है। फिलहाल पुष्पा सुयाल और मुन्नी टम्टा जमानत पर रिहा हो चुकी हैं। दलितों के साथ इतना सबकुछ होने के बाद भी दलित हितों की बड़ी-बड़ी बात करने वाले कोई भी दलित नेता इन लोगों की सुध् लेने नहीं आया। जेल से रिहा होने के बाद मुन्नी टम्टा ने शिक्षा मंत्री पर आरोप लगाते हुए कहा कि ‘पुलिस शिक्षा मंत्री  के दबाव में काम कर रही है. जब हमें शिक्षा मंत्री के निवास स्थान से गिरफ्तार किया गया था तो कोई भी महिला पुलिस नहीं थी.'


इसके साथ ही शिक्षा मंत्री ने भी हम लोगों से अपशब्द कहे तथा अशोभनीय बर्ताव किया। मुन्नी टम्टा और पुष्पा देवी के साथ हुआ वाकया यह दर्शाता है कि प्रदेश के शिक्षा मंत्री गोविन्द बिष्ट ने इन महिलाओं के प्रति बर्बरतापूर्वक कार्यवाही करवायी है, लेकिन सत्ता पाने के लिए तत्पर विपक्ष भी इन मुद्दों पर ध्यान देता हुआ नहीं दिख रहा है।


युवा पत्रकार  नरेन्द्र देव सिंह  उत्तराखंड के सामाजिक-राजनीतिक  मसलों पर लिखते हैं .