May 22, 2011

कैसा समर्थन चाहता है पाकिस्तान?

लाडेन की पाकिस्तान में मौजूदगी ने पाकिस्तान को जितना शर्मसार किया उतना ही शर्मनाक पाकिस्तान के लिए यह भी रहा कि अमेरिका ने पाक सुरक्षा तंत्र को अविश्वास के चलते इस आप्रेशन की कानों-कान भनक तक नहीं लगने दी...

तनवीर जाफरी

पाकिस्तान इन दिनों आतंकवाद को लेकर भीषण संकट के दौर से गुज़र रहा है। पाकिस्तान में आतंकवाद न केवल तीन दशकों से संरक्षित,फल-फूल व पनप रहा है बल्कि पाकिस्तान में अपनी जड़ें  गहरी कर चुके इस आतंकवाद को लेकर स्वयं पाक शासक भी अब अपनी बेचारगी का इज़हार करते हुए दुनिया से बार-बार यह कहते फिर रहे हैं कि ‘दुनिया में पाकिस्तान तो स्वयं आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार है।’ ज़ाहिर है पाकिस्तान को बारूद के इस ढेर तक ले जाने में किसी अन्य देश की उतनी भूमिका नहीं रही है जितनी कि स्वयं पाकिस्तान हुकूमत, वहां के हुक्मरानों की या उनकी गलत नीतियों की रही है।

पिछले  2 मई को पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में स्थित राष्ट्रीय सैन्य अकादमी के निकट एबटाबाद में अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लाडेन को अमेरिकन कमांडो द्वारा मारे जाने के बाद पाकिस्तान के शासकों से दुनिया को जवाब देते नहीं बन पा रहा है। पाकिस्तान की अवाम तथा हुक्मरान इन दिनों अपनी अलग-अलग किस्म  की उलझनों के शिकार हैं। पाक नागरिक इस बात को लेकर बड़े अचंभे में हैं कि आखिर इस्लामाबाद में आकर अमेरिकी कमांडो लाडेन को मार कर उसकी लाश अपने साथ लेकर चले भी गए और पाकिस्तानी सेना,सुरक्षा तंत्र, ख़ुफ़िया  तंत्र तथा निगरानी तंत्र कुछ भी न कर सका। पाकिस्तान अवाम इसे पाक संप्रभुता पर अमेरिकी सैनिकों का सीधा हमला मान रही है।

कहने को तो पाक शासक भी सार्वजनिक रूप से मजबूरन पाक अवाम की ही भाषा बोल रहे हैं। परंतु उनकी इस ललकार में कोई दम हरगिज़ नहीं है। क्योंकि अमेरिका न सिर्फ इस्लामाबाद में ओसामा बिन लाडेन को मार गिराने के लिए किए गए आप्रेशन जेरोनिमो को उचित ठहरा रहा है बल्कि यह भी कह रहा है कि ज़रूरत पडऩे पर ऐसी ही कार्रवाई पाकिस्तान में दोबारा भी की जा सकती है। यही नहीं बल्कि लाडेन को मारने के अगले ही दिन अमेरिका ने पाक सीमा के भीतर आतंकवादियों को निशाना बनाकर ड्रोन विमान से हमला भी किया। हां इतना ज़रूर है कि पाक सेना ने पाकिस्तानी अवाम को दिखाने के लिए तथा उनका हौसला बढ़ाने के लिए पिछले दिनों अफगानिस्तान सीमा के निकट वायुसीमा का उल्लंघन करने के नाम पर एक अमेरिकी हेलीकॉप्टर पर गोलीबारी ज़रूर की।

यह अलग बात है कि इसके जवाब में अमेरिकी हेलीकॉप्टर से भी गोलियां बरसाई गईं जिससे कई पाकिस्तानी सैनिक घायल हो गए। यही नहीं बल्कि लाडेन की मौत के बाद अमेरिका व पाक के मध्य उपजे तनावपूर्ण वातावरण के बीच अमेरिकी सीनेटर जॉन कैरी ने पाकिस्तान का दौरा किया। उन्होंने भी दो टूक शब्दों में पाकिस्तान को यह बता दिया कि अमेरिका को आप्रेशन जेरोनिमो करने में न कोई अफसोस है न शर्मिंदगी। और वे इसके लिए माफी मांगने पाकिस्तान नहीं आए हैं।

उपरोक्त हालात में पाकिस्तानी शासकों को यह मंथन ज़रूर करना चाहिए कि पाकिस्तान को आज इस नौबत का सामना आखिर क्योंकर करना पड़ रहा है। आज केवल अमेरिका ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को इस बात का लगभग यकीन हो चुका है कि पाकिस्तान आतंकवाद का दुनिया में सबसे बड़ा पोषक संरक्षक तथा इसकी पनाहगाह है। विश्व मीडिया तो पाकिस्तान को ‘आतंकवादियों का स्वर्ग’ कहकर संबोधित करने लगा है। पाकिस्तान में मौजूद आतंकवादियों के प्रशिक्षण केंद्र व शिविर इस समय पूरी दुनिया की नज़रों में हैं। अब यदि यह आतंकी शिविर पाकिस्तान में बेरोक-टोक व बेखौफ संचालित हो रहे हैं तथा इनके सरगऩा व आक़ा पाकिस्तान में खुलेआम सशस्त्र आतंकियिों के साथ घूमते फिर रहे हैं और कहीं-कहीं तो इन्हें पुलिस सुरक्षा भी मुहैया कराई जा रही है। फिर पाकिस्तान के इन सब हालात के लिए कोई दूसरा देश कैसे और क्यों जि़म्मेदार हो सकता है। पाकिस्तान में लाडेन की गत् 5 वर्षों से मौजूदगी प्रमाणित होने के बाद यह पहला अवसर था जबकि पाकिस्तान को दुनिया को यह दिखाना पड़ा कि हम आतंकवाद को लेकर गंभीर हैं तथा इस विषय को लेकर पाकिस्तान पर लगने वाले आरोपों को लेकर अत्यंत चिंतित हैं।

इसी गरज़ से पाक संसद का विशेष सत्र पिछले दिनों बुलाया गया तथा आइएसआइ  प्रमुख शुजा पाशा को संसद में पेश किया गया। संसद में हुई इस कार्रवाई की वीडियो रिकार्डिंग भी की गई। आइएसआइ प्रमुख शुजा पाशा पर तमाम सांसदों  ने सवालों की झड़ी लगा दी। अधिकांश सांसदों के प्रश्र इसी विषय को लेकर थे कि आइएसआइ व आतंकवाद तथा आइएसआइ व अलकायदा के मध्य गुप्त समझौते का  क्या औचित्य है? ऐसा है या नहीं और है तो क्यों? तथा किन हालात में पाकिस्तान को दुनिया में इतनी रुसवाई, अपमान का सामना करना पड़ रहा है,आदि? शुजा पाशा सांसदों के सवालों में इस कद्र घिरे कि आजिज़ होकर उन्होंने अपने पद से इस्तीफा देने की पेशकश तक कर डाली। जिसे प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी ने अस्वीकार कर दिया।

गिलानी ने खुलकर आइएसआइ तथा पाक सुरक्षा व्यवस्था व सरकार की पैरवी की। उन्होंने दुनिया के इन इल्ज़ामों को खारिज किया कि अमेरिका द्वारा पाकिस्तान में ओसामा बिन लाडेन को मारा गिराया जाना पाकिस्तान सुरक्षा व्यवस्था की अक्षमता व अयोग्यता को दर्शाता है। गिलानी ने आइएसआइ व अलकायदा के मिलीभगत के आरोपों का भी खंडन किया। दूसरी तरफ़ इन सबके बीच पाक तालिबानों ने पाक सुरक्षाकर्मियों का निशाना बनाकर एक बड़ा धमाका किया जिसमें 80 से अधिक लोगों की मौत हो गई। तालिबानों ने धमाके के बाद यह संदेश भी दिया कि यह घटना लाडेन की मौत के बदले की शुरुआत है।

पाकिस्तान लगभग प्रतिदिन किसी न किसी आतंकवादी घटना का शिकार बनता रहता है। आत्मघाती दस्तों की पाकिस्तान में गोया बाढ़ सी आ गई है। उधर 9/11 को अमेरिका पर हुए आतंकी हमले के बाद इसी पाकिस्तान ने आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिका को सहयोग देने के नाम पर अरबों डॉलर तथा हथियारों का बड़ा ज़खीरा हासिल कर लिया है। अब क्या इसे महज़ एक इत्ते$फा$क समझा जाए या फिर पाकिस्तान हुक्मरानों की सोची-समझी साजि़श अथवा रणनीति कि जबसे पाकिस्तान आतंकवाद के नाम पर अमेरिका से पर्याप्त धन व शस्त्र लेता आ रहा है लगभग इसी समयावधि के दौरान पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों के पास शस्त्रों का भंडार भी बढ़ता जा रहा है तथा यह ताकतें आर्थिक रूप से भी दिन-प्रतिदिन सुदृढ़ होती जा रही हैं।

ऐसे में क्या पाक शासकों को दुनिया को इस बात का स्पष्टीकरण नहीं देना चाहिए कि आतंकवाद के विरुद्ध छेड़े गए युद्ध में पाकिस्तान का रचनात्मक रूप से क्या योगदान रहा है। और जब बात ओसामा बिन लाडेन को मारने की आई तो इसकी पूरी गुप्त योजना व मिशन अमेरिका ने अकेले तैयार किया तथा पाकिस्तान को इस आप्रेशन की कानों-कान भनक तक नहीं लगने दी। यानी लाडेन की पाकिस्तान में मौजूदगी ने पाकिस्तान को जितना शर्मसार किया उतना ही शर्मनाक पाकिस्तान के लिए यह भी रहा कि अमेरिका ने पाक सुरक्षा तंत्र को अविश्वास के चलते इस आप्रेशन की कानों-कान भनक तक नहीं लगने दी।

दूसरा, पाकिस्तान आतंकवाद के विरुद्ध दुनिया से किस प्रकार के सहयोग चाहता है? क्या पाकिस्तान को आतंकवाद के नाम पर लडऩे के लिए दुनिया से सिर्फ पैसा और हथियार ही चाहिए? यदि हां तो इसके पिछले परिणाम ठीक नहीं रहे हैं। इसलिए पाकिस्तान को  एक ऐसा चार्टर्ड पेश करना चाहिए जिससे दुनिया यह जान सके कि आतंकवाद के विरुद्ध पाकिस्तान को  किस प्रकार के सहयोग की दरकार है?



लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.




एक काले कानून की आधी सदी

पिछले 53 वर्षों में एक बार नहीं, बल्कि हजारों बार साबित हो चुका है कि अफ्स्पा कानून नहीं, कानून के नाम पर बर्बरता  है. इस बात को सरकारी कमेटी ने भी दबे मुंह से  स्वीकार किया है...

महताब आलम

आज  बाईस मई की सुबह जब ऑफिस या काम पर जाने की चिंता से बेफिक्र हम सोते रहेंगे, उसी समय नॉर्थ-ईस्ट और कश्मीर की जनता जो सुबह देखेगी, वह कानून के नाम पर बर्बरता की  53 वीं  सालगिरह होगी.  जी हाँ, मैं आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट (अफ्स्पा) की  बात कर रहा हूँ. कानून के नाम पर, ला-कनूनियत नाफ़िज़ करने का घिनौना हथियार. जिसके खाते में अगर कुछ लिखा है, तो सिर्फ ला-क़नूनियत और बरबरियत की न खत्म होने वाली दास्तानें.

बाईस मई 1958 को नागा लोगों को 'नियंत्रित' करने के लिए ये कानून अमल में लाया गया. नागा जनता के पुरजोर विरोध के बावजूद, अपनी आदत के मुताबिक भारतीय संसद ने 18 अगस्त 1958 को इस कानून पर अपनी मुहर लगा दी. पहले- पहल ये कानून  सिर्फ नागा जनता को 'नियंत्रित' करने के लिए बना और कहा गया कि जल्द ही हटा लिया जायेगा. पर ऐसा कभी हुआ नहीं. बल्कि धीरे-धीरे ये 'कानून' पूर्वोत्तर के 7 राज्यों से निकलता हुआ कश्मीर की घाटी तक पहुँच गया. आख़िरकार, कानून के हाथ लम्बे होते हैं. वैसे भी, अगर भेड़िये को एक बार खून का स्वाद मिल जाये तो फिर उसे कौन रोक सकता है और खासतौर पर खून 'विदेशी' या अलग नस्ल का हो. इस पूरे मामले में भी कुछ ऐसा ही दिखता है.

खैर, ये कानून, प्रसिद्ध किस्सागो महमूद फारुकी और दानिश अहमद के लफ्जों में ' तिलिस्म' है ?' ऐसा क्या है कि ये देश के 'रक्षकों' को भक्षक और राक्षस बना देता है? कानून की बात करें तो ये सरकार द्वारा घोषित 'disturberd' इलाकों में सशस्त्र बल को विशेष अधिकार ही नहीं, बल्कि एकाधिकार देता है. इस काले कानून के बदौलत  सशस्त्र बल जब चाहें, जिसे चाहें, जहाँ चाहें मौत के घाट उतर सकते हैं-- इसमें उम्र और लिंग का कोई भेद नहीं है. कारण, यही कि अमुक व्यक्ति 'गैरकानूनी' कार्य कर रहा था. या फिर अमुक व्यक्ति देश की सत्ता और संप्रभुता के लिए खतरा था...आदि, आदि.

ये अधिकार सिर्फ सशस्त्र बल के उच्च- अधिकारियों को ही नहीं, बल्कि आम जवानों (नॉन-कमीशंड) ऑफिसर्स तक को हासिल हैं. इस कानून की वजह से भारतीय वैधानिक व्यवस्था के तहत जिन नियमों का पालन करना ज़रूरी होता है, सबके सब ख़ारिज हो जाते हैं. इन्हें कुछ उदाहरणों के जरिये समझा जा सकता है.

मणिपुर के पश्चिमी इम्फाल जिले के युम्नुं गाँव कि बात है, 4 मार्च 2009, दोपहर के बारह बजने वाले थे. इसी गाँव के मोहम्मद आजाद खान, जिसकी उम्र मात्र 12 साल थी, अपने घर के बरामदे में एक मित्र कियाम के साथ बैठा अख़बार पढ़ रहा था. तभी मणिपुरी पुलिस कमांडो के कुछ जवान उसके घर में दाखिल हुए. एक जवान ने आजाद के दोनों हाथों को पकड़कर घसीटना शुरू कर दिया. वे उसे उत्तर दिशा में लगभग 70 मीटर दूरी पर एक खेत तक ले गए. इसी बीच एक दूसरे जवान ने आजाद के मित्र कियाम से पूछा कि तुम इसके साथ क्यों रहते हो? तुम्हे मालूम होना चाहिए कि ये एक उग्रवादी संगठन का सदस्य है. इतना कहने के बाद उस जवान ने कियाम के मुंह पर एक जोरदार तमाचा जड दिया.

जवानों ने आजाद को खेत तक ले जाकर पटक दिया. जब आजाद के घरवालों ने जवानों को रोकने की कोशिश की तो उन पर बंदूकें तान बुरा अंजाम भुगतने की धमकियां दी गयीं. आजाद को खेत तक घसीटकर ले जाने के बाद एक जवान ने बन्दूक से उसको वहीँ ढेर कर दिया. उसके बाद एक दूसरी बन्दूक उसकी लाश के पास रख दी, जिसे आजाद के पास से बरामद होना बताया गया. इस काण्ड को अंजाम देने के बाद जवान आज़ाद की लाश को थाने ले गए.

जब एक बार फिर आज़ाद के घर और गांव के लोगों ने थाने तक जाने की कोशिश की तो फिर उन्हें रोक दिया गया. हो सकता है किसी को ये हिन्दी फिल्म की कहानी लगे, मगर ये एक तल्ख हकीकत है. इन स्थितियों से मणिपुर से लेकर कश्मीर तक की जनता दोचार हो रही है. अगर सिर्फ मणिपुर ही की बात करें तो फर्जी मुठभेड़ में मार डालना, बेवजह सताना, बलात्कार समेत विभिन्न प्रकार की यातनाएं सहना यहाँ के लोगों की नियति बन चुकी है.

यही हाल नागालैंड, मिजोरम, असम, त्रिपुरा, मिजोरम, अरुणाचल और कश्मीर के ज्यादातर हिस्सों का है. और इन सबका तात्कालिक कारण है-- अफ्स्पा. इस कानून को हटाने की मांग को लेकर पिछले 11 वर्षों से इरोम शर्मिला भूख हड़ताल पर हैं. इरोम ने अपनी बात और लाखों जनता की मांग को भारत के नीति-निर्धारकों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए दिल्ली तक का सफर किया. वो भारतीय जनतन्त्र का बैरोमीटर कहे जाने वाले जन्तर मन्तर पर भी बैठी, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.

पिछले 53 वर्षों में एक बार नहीं, बल्कि हजारों बार साबित हो चुका है कि अफ्स्पा कानून नहीं, कानून के नाम पर धब्बा है. इस बात को सरकारी कमेटी ने भी दबे मुंह से  सही, मगर स्वीकार किया है. वर्ष 2004 में, भारत सरकार द्वारा गठित जस्टिस जीवन रेड्डी अध्यक्षता वाली कमिटी के रिपोर्ट में इसको कबूल किया गया है. जून 2005 में आई इस रिपोर्ट में लिखा है, 'चाहे जो भी कारण रहे हों, ये कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी का साधन का एक प्रतीक बन गया है.'

ऐसे समय में जब कश्मीर से लेकर मणिपुर की जनता इस कानून की वजह से (ये सिर्फ एक वजह है) आपातकाल की स्थिति में जी रही हो, उनके बुनियादी अधिकार स्थगित कर दिए गए हों, ला-कनूनियत का राज हो, लोकतंत्र फ़ौजतंत्र में बदल गया हो, 'आज़ादी' का सुख भोग रहे हम लोगों का कर्तव्य बनता है कि इन सबकी आवाज़ में आवाज़ मिलाकर कहें कि  अफ्स्पा जैसे अलोकतांत्रिक कानून को अविलम्ब रद्द किया जाये. इसी में हम सब का भविष्य है, अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब आग की लपटें हमारे घरों तक भी पहुँच जाएँगी. वैसे भी छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओड़िसा आदि तक तो पहुँच ही चुकी है.




लिखने और लड़ने की जरुरत को एक समान मानने वाले महताब, उन पत्रकारों में हैं जो जनसंघर्षों को मजबूत करने के लिए कभी कलम पकड़ते हैं तो कभी संघर्षों के हमसफ़र होते हैं.