May 22, 2011

एक काले कानून की आधी सदी

पिछले 53 वर्षों में एक बार नहीं, बल्कि हजारों बार साबित हो चुका है कि अफ्स्पा कानून नहीं, कानून के नाम पर बर्बरता  है. इस बात को सरकारी कमेटी ने भी दबे मुंह से  स्वीकार किया है...

महताब आलम

आज  बाईस मई की सुबह जब ऑफिस या काम पर जाने की चिंता से बेफिक्र हम सोते रहेंगे, उसी समय नॉर्थ-ईस्ट और कश्मीर की जनता जो सुबह देखेगी, वह कानून के नाम पर बर्बरता की  53 वीं  सालगिरह होगी.  जी हाँ, मैं आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट (अफ्स्पा) की  बात कर रहा हूँ. कानून के नाम पर, ला-कनूनियत नाफ़िज़ करने का घिनौना हथियार. जिसके खाते में अगर कुछ लिखा है, तो सिर्फ ला-क़नूनियत और बरबरियत की न खत्म होने वाली दास्तानें.

बाईस मई 1958 को नागा लोगों को 'नियंत्रित' करने के लिए ये कानून अमल में लाया गया. नागा जनता के पुरजोर विरोध के बावजूद, अपनी आदत के मुताबिक भारतीय संसद ने 18 अगस्त 1958 को इस कानून पर अपनी मुहर लगा दी. पहले- पहल ये कानून  सिर्फ नागा जनता को 'नियंत्रित' करने के लिए बना और कहा गया कि जल्द ही हटा लिया जायेगा. पर ऐसा कभी हुआ नहीं. बल्कि धीरे-धीरे ये 'कानून' पूर्वोत्तर के 7 राज्यों से निकलता हुआ कश्मीर की घाटी तक पहुँच गया. आख़िरकार, कानून के हाथ लम्बे होते हैं. वैसे भी, अगर भेड़िये को एक बार खून का स्वाद मिल जाये तो फिर उसे कौन रोक सकता है और खासतौर पर खून 'विदेशी' या अलग नस्ल का हो. इस पूरे मामले में भी कुछ ऐसा ही दिखता है.

खैर, ये कानून, प्रसिद्ध किस्सागो महमूद फारुकी और दानिश अहमद के लफ्जों में ' तिलिस्म' है ?' ऐसा क्या है कि ये देश के 'रक्षकों' को भक्षक और राक्षस बना देता है? कानून की बात करें तो ये सरकार द्वारा घोषित 'disturberd' इलाकों में सशस्त्र बल को विशेष अधिकार ही नहीं, बल्कि एकाधिकार देता है. इस काले कानून के बदौलत  सशस्त्र बल जब चाहें, जिसे चाहें, जहाँ चाहें मौत के घाट उतर सकते हैं-- इसमें उम्र और लिंग का कोई भेद नहीं है. कारण, यही कि अमुक व्यक्ति 'गैरकानूनी' कार्य कर रहा था. या फिर अमुक व्यक्ति देश की सत्ता और संप्रभुता के लिए खतरा था...आदि, आदि.

ये अधिकार सिर्फ सशस्त्र बल के उच्च- अधिकारियों को ही नहीं, बल्कि आम जवानों (नॉन-कमीशंड) ऑफिसर्स तक को हासिल हैं. इस कानून की वजह से भारतीय वैधानिक व्यवस्था के तहत जिन नियमों का पालन करना ज़रूरी होता है, सबके सब ख़ारिज हो जाते हैं. इन्हें कुछ उदाहरणों के जरिये समझा जा सकता है.

मणिपुर के पश्चिमी इम्फाल जिले के युम्नुं गाँव कि बात है, 4 मार्च 2009, दोपहर के बारह बजने वाले थे. इसी गाँव के मोहम्मद आजाद खान, जिसकी उम्र मात्र 12 साल थी, अपने घर के बरामदे में एक मित्र कियाम के साथ बैठा अख़बार पढ़ रहा था. तभी मणिपुरी पुलिस कमांडो के कुछ जवान उसके घर में दाखिल हुए. एक जवान ने आजाद के दोनों हाथों को पकड़कर घसीटना शुरू कर दिया. वे उसे उत्तर दिशा में लगभग 70 मीटर दूरी पर एक खेत तक ले गए. इसी बीच एक दूसरे जवान ने आजाद के मित्र कियाम से पूछा कि तुम इसके साथ क्यों रहते हो? तुम्हे मालूम होना चाहिए कि ये एक उग्रवादी संगठन का सदस्य है. इतना कहने के बाद उस जवान ने कियाम के मुंह पर एक जोरदार तमाचा जड दिया.

जवानों ने आजाद को खेत तक ले जाकर पटक दिया. जब आजाद के घरवालों ने जवानों को रोकने की कोशिश की तो उन पर बंदूकें तान बुरा अंजाम भुगतने की धमकियां दी गयीं. आजाद को खेत तक घसीटकर ले जाने के बाद एक जवान ने बन्दूक से उसको वहीँ ढेर कर दिया. उसके बाद एक दूसरी बन्दूक उसकी लाश के पास रख दी, जिसे आजाद के पास से बरामद होना बताया गया. इस काण्ड को अंजाम देने के बाद जवान आज़ाद की लाश को थाने ले गए.

जब एक बार फिर आज़ाद के घर और गांव के लोगों ने थाने तक जाने की कोशिश की तो फिर उन्हें रोक दिया गया. हो सकता है किसी को ये हिन्दी फिल्म की कहानी लगे, मगर ये एक तल्ख हकीकत है. इन स्थितियों से मणिपुर से लेकर कश्मीर तक की जनता दोचार हो रही है. अगर सिर्फ मणिपुर ही की बात करें तो फर्जी मुठभेड़ में मार डालना, बेवजह सताना, बलात्कार समेत विभिन्न प्रकार की यातनाएं सहना यहाँ के लोगों की नियति बन चुकी है.

यही हाल नागालैंड, मिजोरम, असम, त्रिपुरा, मिजोरम, अरुणाचल और कश्मीर के ज्यादातर हिस्सों का है. और इन सबका तात्कालिक कारण है-- अफ्स्पा. इस कानून को हटाने की मांग को लेकर पिछले 11 वर्षों से इरोम शर्मिला भूख हड़ताल पर हैं. इरोम ने अपनी बात और लाखों जनता की मांग को भारत के नीति-निर्धारकों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए दिल्ली तक का सफर किया. वो भारतीय जनतन्त्र का बैरोमीटर कहे जाने वाले जन्तर मन्तर पर भी बैठी, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.

पिछले 53 वर्षों में एक बार नहीं, बल्कि हजारों बार साबित हो चुका है कि अफ्स्पा कानून नहीं, कानून के नाम पर धब्बा है. इस बात को सरकारी कमेटी ने भी दबे मुंह से  सही, मगर स्वीकार किया है. वर्ष 2004 में, भारत सरकार द्वारा गठित जस्टिस जीवन रेड्डी अध्यक्षता वाली कमिटी के रिपोर्ट में इसको कबूल किया गया है. जून 2005 में आई इस रिपोर्ट में लिखा है, 'चाहे जो भी कारण रहे हों, ये कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी का साधन का एक प्रतीक बन गया है.'

ऐसे समय में जब कश्मीर से लेकर मणिपुर की जनता इस कानून की वजह से (ये सिर्फ एक वजह है) आपातकाल की स्थिति में जी रही हो, उनके बुनियादी अधिकार स्थगित कर दिए गए हों, ला-कनूनियत का राज हो, लोकतंत्र फ़ौजतंत्र में बदल गया हो, 'आज़ादी' का सुख भोग रहे हम लोगों का कर्तव्य बनता है कि इन सबकी आवाज़ में आवाज़ मिलाकर कहें कि  अफ्स्पा जैसे अलोकतांत्रिक कानून को अविलम्ब रद्द किया जाये. इसी में हम सब का भविष्य है, अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब आग की लपटें हमारे घरों तक भी पहुँच जाएँगी. वैसे भी छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओड़िसा आदि तक तो पहुँच ही चुकी है.




लिखने और लड़ने की जरुरत को एक समान मानने वाले महताब, उन पत्रकारों में हैं जो जनसंघर्षों को मजबूत करने के लिए कभी कलम पकड़ते हैं तो कभी संघर्षों के हमसफ़र होते हैं. 





2 comments:

  1. good information and good article

    ReplyDelete
  2. रामकुमार, पंचकुलाSunday, May 22, 2011

    पूरा देश एक भारत नहीं है इसका अहसास मुझे आज हुआ यह जानकार कि आफ्सपा को लागु हुए ५३ साल हो गए लेकिन कभी अहसास ही नहीं हुआ कि एक ऐसा भी कानून है जो लोगों को शक के आधार पर गोली मारने का अधिकार देता है. मुझे सरकार की यह बेईमानी भी ठीक नहीं लगती कि अन्ना हजारे पर चार दिन में फैसला और आफ्सपा के खिलाफ संघर्ष कर रही इरोम शर्मीला ११ साल भूख हड़ताल पर हैं तो उनकी कोई सुनवाई नहीं है. महताब जी आपने बहुत अच्छा लिखा है, इससे कुछ लोगों को इस बारे में पता चलेगा.

    ReplyDelete