राम बरन के पास महज 11 कट्ठा जमीन थी। जिसमें से नौ कट्ठा जमीन रेल पटरी के लिए ले ली गई। सब्जी की खेती कर गुजारा करने वाले राम बरन के सामने बाकी बची दो कट्ठा जमीन पर गुजारा करना संभव नहीं रह गया था...
वरुण शैलेश
भूमि अधिग्रहण का संकट केवल भट्ठा-पारसौल तक सीमित नहीं है, जहाँ उग्र आन्दोलन के बाद जमीन अधिग्रहण राष्ट्रीय स्तर की सुर्खियाँ बन पाया है । आज देश में ऐसे कई अधिग्रहण क्षेत्र हैं जहाँ बिल्ली की चाल की तरह किसानों की भूमि कब्जे में की जा रही है, लेकिन वह खबर नहीं बन पा रहे हैं। भूमि अधिग्रहण से जुड़ी त्रासदी की एक कहानी उत्तर प्रदेश और बिहार को जोड़ने वाले हथुआ-भटनी प्रस्तावित रेलमार्ग के सहारे लिखी जा रही है। हथुआ से भटनी तक रेल पटरी बिछाने को लेकर 112.49 एकड़ जमीन के अधिग्रहण का नोटिस किसानों को मिल चुका है, लेकिन किसान अपनी जमीन देने को तैयार नहीं हैं।
किसानों की चिंता : कहाँ बोयेंगे, क्या खायेंगे |
भूमि अधिग्रहण के खिलाफ पूर्वांचल के किसान लामबंद होकर भटनी में पिछले तीन महीने से क्रमिक अनशन पर बैठे हैं। हथुआ-भटनी प्रस्तावित रेलमार्ग के लिए अधिग्रहित की जाने वाली जमीन की चपेट में 14 गांव आ रहे हैं। जमीन अधिग्रहण की घोषणा होने के बाद इलाके में घटित कुछेक घटनाएं किसानों के सामने पैदा हुए संकट का आभास कराती हैं। घटना इस साल 22 फरवरी की है, जब भूमि अधिग्रहण के विरोध में क्रमिक अनशन पर बैठे देवरिया जिले में बनकटा गांव के राम बरन चौहान की हार्टअटैक से मौत हो गई। पचपन वर्षीय राम बरन के पास महज 11 कट्ठा जमीन थी, जिसमें से नौ कट्ठा जमीन रेल पटरी के लिए ले ली गई।
सब्जी की खेती कर गुजारा करने वाले राम बरन के सामने बाकी बची 2 कट्ठा जमीन पर गुजारा करना संभव नहीं रह गया था। जमीन जाने की पीड़ा और भविष्य की आशंका ने इस कदर घेरा कि उनकी जिंदगी पर बन आयी। वैसे राम बरन की मौत इलाके में उजागर हुई पहली घटना नहीं है। प्रस्तावित रेलमार्ग के लिए वर्ष 2006 में जमीन की पैमाइश के दौरान अपनी जमीन पर पत्थर गाड़ते देख रायबरी चौरिया गांव के सरल खेत में ही गिर पड़े। सरल भी जमीन छिनने के सदमे का शिकार हुए और दिल का दौरा मौत का कारण बना।
दिल के दौरे से दो किसानों की मौत यह बताने के लिए काफी है कि किसी किसान के लिए जमीन का मामला महज आर्थिक नहीं है। किसान का जमीन से भावनात्मक नाता भी होता है। एक किसान अपने खेतों के कई नाम रखकर पुकारता है। कहें तो जमीन के साथ रिश्तों की तमाम कड़ियां जोड़ता है। ऐसे में जमीन छिनने का मतलब चट्टान के दरकने की तरह होता है,जिससे किसान का पूरा जीवन अनिश्चितता की खाई में चला जाता है। जमीन से मानवीय संवेदनाएं इस कदर जुड़ी हुई हैं कि जमीन बेचने वालों को समाज सम्मान की निगाह से नहीं देखता है। जमीन का होना हैसियत तय करता है। यहां तक कि शादी-ब्याह का निर्णायक पहलू बनता है, लेकिन विकास की आयातित व्याख्या में किसानों व आदिवासियों की इस मार्मिकता की कोई जगह नहीं है।
जमीन अधिग्रहण के समय छोटे किसान व भूमिहीन किसानों का संकट सबसे ज्यादा बढ़ जाता है, जिन्हें मिला मुआवजा किसी धोखे से कम नहीं होता है। वैसे भी भारतीय कृषि परंपरा में किसान के लिए जमीन महज जीविका ही नहीं, बल्कि सोचने-समझने की ताकत होती है। यानी एक किसान खेती के काम के लिए ही कुशल होता है, लेकिन जब उसकी जमीन छिनती है तो उसकी परंपरागत कुशलता भी खारिज होती है। जिसके चलते राम बरन और सरल जैसे तमाम किसान अकुशलता वाला पेशा करने शहर जाने या दूसरा रोजगार अपनाने के लिए मजबूर होते हैं।
विकास के मौजूदा मॉडल जनभावनाओं का ख्याल रख पाने में नाकाम हैं। यही वजह है कि सरकारों के विकास के दावे महज आर्थिक विकास दर तक केंद्रित होकर रह गये हैं। जनजीवन की गुणवत्ता में सुधार के दावे विज्ञापननुमा हैं, जिसकी सच्चाई भूख से होने वाली मौतें बयान करती हैं। कुल मिलाकर लागू आर्थिक नीतियों में भारतीय जनता की भलाई न के बराबर है। लिहाजा न केवल भूमि अधिग्रहण कानून में संसोधन की मांग होनी चाहिए, बल्कि इसके साथ-साथ शोषणकारी व्यवस्था को पोषित करने वाली आर्थिक नीतियों की समीक्षा की भी मांग होनी चाहिए। ताकि जनता व उसकी भावनाओं को बेदम होने से रोका जा सके।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और भारतीय जनसंचार संस्थान से शिक्षा-दीक्षा. अब जनपक्षधर पत्रकारिता में रमने की तैयारी.
पूर्वी उत्तर प्रदेश का हाल सामने लाना बहुत जरुरी है. लालू प्रसाद जब रेल मंत्री थे भटनी - हथुआ रेल लाइन का उद्घाटन हुआ था. जिसके लिए कभी किसी किसान से सहमति नहीं ली गयी. अगर यह परियोजना लागु होती है तो उस क्षेत्र के किसान और ज्यादा मरेंगे. वरुण आपने बहुत अच्छा लिखा है कि किसान का भावनात्मक रिश्ता होता है खेतों से.
ReplyDeleteयह रेलवे लाइन तत्कालीन रेल मंत्री श्री लालू प्रसाद यादव जी ने अपनी ससुराल जाने के लिए पास कराई थी (हालांकि राबड़ी देवी की ससुराल भी इसी रेलवे रूट पर पड़ेगी).लेकिन ये किसान उसमें बाधक बन रहे हैं.अब कोई व्यक्ति अगर अपने बाप की ट्रेन से ससुराल जाना चाहता है तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है.लेकिन पता नहीं ये किसान अपनी टांग क्यों अड़ा रहे हैं(अरे अभी तो केवल जमीन ही ले रहे हैं, अगर आनाकानी की तो कल गोली चलाकर जान भी ले लेंगे ये नेता जी लोग). उन्हें यह पता नहीं है कि यह देश ऐसे ही सनकी नेताओं से भरा पड़ा है. और किसानों को नियति में केवल अपनी जमीन या जान से हाथ धोना भर ही लिखा है.देखा नहीं टप्पल और ग्रेटर नोएडा में क्या किया है बहन जी ने. अपने जेपी भाई के लिए गांव के गांव हथिया लिए हैं. सस्ते में जमीन खरीद कर महंगे दाम में जेपी भाई को दे रही हैं और जेपी भाई उसपर सार्वजनिक उपयोग की सड़कें बनवा रहे हैं.हां, वरुण भाई आपने अच्छा लिखा है. लिखते रहिए आपमें संभावना नजर आ रही है.
ReplyDeletebahut badhiya varun bhai
ReplyDeletesach men bahut marmik report hai.lekin kuch hota kahan hai.
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