Jul 29, 2009

देखो, सीना ताने ताड़ खडें हैं

हत्यारा ताड़

अजय प्रकाश








वह 2003 अप्रैल के अंतिम दिन से पहले की शाम थी। उस दिन मदनपुर गांव में पंचायत बैठी थी। देवरिया जिले के रूद्रपुर तहसील में राप्ती और गोर्रा नदियों के विशाल पाट के बीच मदनपुर इतना बड़ा है कि गांव में ही थाना है। पंचायत दो मुसलमान परिवारों के बीच था। बंटवारा आकर दो ताड़ के पेड़ों में उलझ गया।
दोनों पक्ष जिसमें एक की कमान गुरफान संभाल रहे थे और दूसरे की हाजी इस्तयाक, में से कोई भी एक ताड़ के पेड़ पर अपनी दावेदारी छोड़ने को तैयार न था। पंचायत की राय पर सहमति नहीं बनी तो दोनों पक्ष आपस में भीड़ गये, गाली-गलौच शुरू हो गयी। गालियों से बात नहीं बनी तो गोलियां चल पड़ीं। गोली हाजी इस्तयाक को लगी और वह मौके पर ढेर हो गये। सालभर भी नहीं बिता कि हाजी इस्तयाक के बेटों ने गुफरान की हत्या कर दी।
तबसे न कोई पंचायत बैठी है और न बंटवारे पर बात छिड़ी है। सिर्फ बंदुकें चली हैं जिसमें अबतक चार लाशें गिरीं हैं। अगर किसी तरह के खतरे से कोई आश्वस्त है तो सिर्फ वे ताड़ के पेड़ जिनका इन छह सालों में कोई बाल बांका नहीं कर सका है और न ही पिछले पांच सालों से किसी ने इन पेड़ों की ताड़ी चखी है। यहां तक इन परिवारों का कोई बच्चा भी पेड़ों की ओर कदम ले जाने में सिहरता है। हां हवाओं के जोर से एक ताड़ का सिर जरूर कलम हो गया है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के मदनपुर गांव में छह साल पहले ताड के पेड़ बंटवारे को लेकर खूनी खेल का जो सिलसिला शुरू हुआ उसने दोनों परिवारों को तबाही के कगार पर ला खड़ा कर दिया है। मुकदमा लड़नें में जमीनें बिक रहीं हैं, हत्यारे होने का दाग लगने पर इनके घरों में कोई रिश्ता करने को तैयार नहीं है और खुद को सुरक्षित रखने के लिए इन्हें पेशेवर गुंडों के शरण में जाना पड़ रहा है।
बावजूद इसके हत्याएं अभी रूकी नहीं हैं, सिर्फ विराम लगा है।
कल को किसी की हत्या नहीं होगी यह गारंटी दोनों में से कोई परिवार नहीं करता। गुफरान के परिवार वालों को लगता है कि हाजी के बेटे बदला जरूर लेंगे और हाजी के बेटों को डर है कि दूसरे भाईयों की तरह उनकी भी हत्या न करा दी जाये। हाजी इस्तयाक के बेटे मुस्ताक पहलवान कहते हैं, 'हमने चाहा था अमन हो, इसलिए दोनो पक्ष की एक-एक हत्याओं के बाद समझौता कर लिया। लेकिन गुरफान के बेटों ने हमारे दो और भाईयों को मार डाला। अब लगता है वह भूल थी कि दुश्मनों को दुश्मन नहीं समझा।'
समझौते को भूल मानने वाले मुस्ताक को कौन बताये कि बदले का कोई अंत नहीं होता। बदला एक के मुकाबले दो के सिध्दांत पर चलता है, एक-एक के नहीं। हत्याओं के इस खेल में गुफरान का परिवार बड़ा हत्यारा साबित हुआ है। वैसे भी ये दोनों परिवार मौका मिलते ही एक दूसरे पर मुकदमें दर्ज कराते रहते हैं। मानो कि जिंदगी की हार-जीत, सामाजिक प्रतिष्ठा सबकि कुंजी एक-दूसरे को दबाने में है, नीचा दिखाने और बर्बाद करने में हैं।
हाजी इस्तयाक के बेटे गुफरान की हत्या करने के बाद अगली हत्याओं की साजिशें तो रचने में लगे रहे मगर अंजाम नहीं दे पाये। यह बात हाजी के बेटे नहीं कहते बल्कि गुफरान के घर वाले इस बात को कबूलते हैं। अभियुक्त हन्नान के घर पर मिली औरतों ने बताया कि 'हाजी के बेटे हमारे घर वालों की हत्या के लिए जिसको सुपारी देते हैं वह बब्बल भईया के दोस्त निकलते हैं। इसलिए उल्टे हाजी के बेटों की ही हत्या हो जाती है।'
गुफरान का बेटा बब्बल हत्या के आरोप में जेल में बंद है। गांव के लोग बताते हैं कि 'जेल में ही बब्बल की अपराधियों से दोस्ती हुई जिसके बाद अब उसकी तूती बोलती है।' गुफरान के दूसरे बेटे डब्बल की शादी उभरते बाहुबली नेता लाल अमीन खान की बेटी से हुई है जिसकी वजह से गुफरान के बेटों के पास आपराधिक रसूख के साथ-साथ राजनीतिक हाथ भी है। हाजी इस्तयाक का छोटा बेटा फहीम कहता है कि शमीम भाई ने केसों की पैरवी करनी शुरू की तो उनकी हत्या हो गयी, फिर शमीम की हत्या की पैरवी में नथुनी उर्फ मतलूब भाई जाने लगे तो वह भी मारे गये।
लेकिन ऐसा नहीं है कि डर के साये में सिर्फ फहीम के घर वाले ही जी रहे हैं। बल्कि मौत के भय ने गुफरान के घर वालों की जिंदगी को बेचैन करके रख दिया है। गुफरान के भाई जियाउल्लाह बुजुर्ग हो चुके हैं और खूनखराबे को रोकने के लिए अल्लाह से दुआ करते हैं। उनके बेटे भी जेल में हैं। वे कहते हैं, 'इस झमेले ने रोजगार, इज्जत सबकुछ मिट्टी में मिला दिया है। मुकदमा लड़ने में लगभग 10 बीघे जमीन बिक चुकी है, अभी और पता नहीं और कितना जायेगी।'
जेल में बंद तीन हत्याओं के आरोपी अतीकुर्ररहमान की बेटी नूर सबा खातून पिता को बेकसूर कहती हैं। जब मर्द मरेंगे तो असर औरतों की जिंदगी पर भी पड़ेगा के जवाब में अभियुक्त बब्बल की चाची कहती हैं, 'असर तो पड़ेगा लेकिन हम कर ही क्या सकते हैं।' अतिकुर्ररहमान के घर में शादी योग्य चार लड़कियां दिख रही थीं। सवाल है कि क्या कोई हत्यारे परिवार में शादी करने को जल्दी तैयार होगा। इससे कहीं बुरी हालत में हाजी के घर की महिलाएं हैं जहां दो मर्दों की हत्या हुई है। औरत के लिए पति ही पूंजी होता है जिसे इन औरतों ने खो दिया है।
दुश्मनी, हत्या और मुकदमा के इस चक्रव्यूह में जिन औरतों ने पति खोयें हैं उनसे बातचीत करने की जब इच्छा जाहिर की तो हाजी के बेटे मुस्ताक ने कहा, 'वो क्या बात करेंगी जो जानना है वो हमसे पूछिये।' लेकिन उन महिलाओं का कोई पक्ष तो होगा ! जो मर्दों के जायज-नाजायज को सालों से चौखट के भीतर से ही ठीक मानने के लिए मजबूर हैं? इस सवाल के जवाब में फहीम कहते हैं, 'हमारी भाभियों की बस एक ही मांग है कि हमारे भाईयों के हत्यारों को मुकम्मिल सजा हो।' मगर फहीम की यह मांग तो बदले की मांग है, औरतों की मांग को कौन बतायेगा।

Jul 23, 2009

सूखे से निकलती उम्मीदों की कोपलें

सलाम सहेलियों

अजय प्रकाश



हजारों करोड़ रूपये की योजनाएं लागू करने वाली जो सरकारें बुंदेलखंड में भुखमरी से होने वाली मौतों और आत्महत्याओं के सिलसिले को नहीं रोक पायीं, उसका हल नीतू, गुड़िया और रीना नाम की तीन लड़कियों ने निकाल लिया। महोबा जिले के पहाड़िया गांव की रहने वाली हैं इन लड़कियों न सिर्फ अपने पिता को आत्महत्या करने की मानसिकता से उबारा, बल्कि दादरा नाच आयोजित कर जो अनाज इकट्ठा हुआ, उससे कई दलितों को भूखों मरने से भी बचाया।
नीतू सक्सेना, गुड़िया परिहार और रीना परिहार नाम की इन लड़कियों को साल भर पहले तक गांव के लोग भी ठीक से नहीं जानता थे। लेकिन अब क्षेत्र के लोग उनके प्रयास का गुणगान करने से नहीं थकते। नीतू सक्सेना और गुड़िया परिहार के घर आमने-सामने हैं और वह अच्छी सहेलियां हैं। रीना परिहार गुड़िया की छोटी बहन है। गुड़िया के पिता रामकुमार सिंह परिहार चार लाख के कर्ज में थे। बैंकों की धमकी से खौफजदा रामकुमार सिंह परिहार कई दिनों से खाना पीना छोड़ पड़े हुए थे। गुड़िया और रीना ने पिता को समझाने की हर कोषिष की, पर हल नहीं निकला। गुड़िया ने पिता की हालत सहेली नीतु सक्सेना को बतायी तो नीतु ने भी अपने पिता के बारे में कुछ ऐसा ही बयान किया।
कोई उपाय सूझता न देखकर लड़कियों ने तय किया कि क्यों न पूरे गांव की हालत देखी जाये, षायद कोई रास्ता मिले। जाने की षुरूआत कैसी हुई के बारे में ये नीतू सक्सेना कहती हैं, 'हमने पहले दलित बस्ती में जाने का तय किया। हमने सोचा कि जो लोग हमलोगों के खेतों-घरों में मजूरी कर जीते हैं उनकी हालत कितनी दयनीय होगी जब हमारे खेतों में कुछ पैदा नहीं हो रहा है, कुएं-नल सूखे पड़े हैं।' दूसरे लोगों की स्थिति देखकर इन लड़कियों को अपने परिवारों के दुख कमतर जान पड़े। नीतू बताती हैं कि 'मैंने दलित परिवारों में भूख से बिलबिलाते लोगों को देखा जिनके पास कई दिन से अनाज नहीं था।'
पहाड़िया गांव की तीन हजार की आबादी में लगभग आधी से अधिक आबादी दलित और पिछड़ी जाति के लोगों की है। गुड़िया कहती हैं, 'जीवन के इस नर्क को देख हमारी आत्मा रो पड़ी थी और अगले दिन हम कॉपी-कलम के साथ निकले। फिर हम लोगों ने गांव के कुओं, नलकूपों, कर्ज और कमाई का सर्वे किया तो पाया कि गांव लगभग एक करोड़ रूपये के सरकारी-गैर सरकारी कर्ज में डूबा हुआ है। 108 में से मात्र तीन कुएं बचे हुए हैं और पंद्रह नलों में से सिर्फ स्कूल का एक नल ही पानी दे रहा है।' रीना के षब्दों में कहें तो 'अब हमारे सामने पहली चुनौती थी, भूख से मरने वालों को बचाना। लेकिन इतना अन्न किसी के घर में नहीं था जो दानदाता बनता। इसलिए पारंपरिक दादरा नाच का आयोजन हर सोमवार को कराने की ठानी गयी जो आज भी चल रहा है।'
बुंदेलखंड में दादरा नाच परंपरा का हिस्सा रहा है जिसमें सिर्फ महिलाएं ही षिरकत करती हैं। जो भी महिलाएं भाग लेने आती हैं वे एक कटोरा अन्न लेकर आती हैं। पहाड़िया गांव में यह आयोजन षुरू हुआ तो इससे मिले अनाज को दलित बस्ती में बांटना षुरू किया गया जिससे भूखों मरने की हालत में जी रहे दलित परिवारों को राहत मिली। नीतू के पिता हंसते हुए कहते हैं कि 'ये काम और बेहतर तरीके से हो इसके लिए तो नीतू और गुड़िया ने सामाजिक कामों के लिए ही अपना पूरा जीवन लगाने की तैयारी कर ली है।'
दूसरी तरफ इन लड़कियों ने सोख्ता बनाकर गांव के चार नलों को ठीक कर दिया। इन प्रयासों की जब इलाके में चर्चा हुई तो रामकुमार सिंह परिहार का कुछ कर्ज बैंक ने माफ कर दिया और बाकी वे जमा कर चुके हैं। इस बीच स्थानीय प्रषासन ने भी गांव पर ध्यान देना षुरू कर दिया है। गुड़िया और रीना के पिता रामकुमार सिंह बताते हैं, 'मुझे लड़कियों ने जीवनदान दिया है और गांव को जीने का उत्साह।'

समाजषास्त्र में एमए कर चुकीं नीतू सक्सेना, आठवीं पास गुड़िया और ग्यारहवीं की पढ़ाई कर रही रीना की तैयारी है कि गांव में महिलाओं की बदहाली दूर करने के लिए काम करेंगी। नीतू का मानना है कि 'षहरों में जैसे वृध्दों के लिए आश्रमों की व्यवस्था होती है वैसी जरूरत आज देहातों में भी है। नौकरी की तलाष में ज्यादातर नौजवान बीवी-बच्चों को लेकर महानगरों में जा चुके हैं और बूढ़े मां-बाप किसी के भरोसे जी रहे हैं नहीं तो भीख मांगकर गुजारे के लिए अभिषप्त हैं।'