मैं बिनायक सेन के राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं,लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए.भारत दोहरे मापदंडों वाले लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है...
एम जे अकबर
भारत एक अजीब लोकतंत्र बनकर रह गया है,जहां बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है और डकैत खुलेआम ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते हैं.सरकारी खजाने पर डाका डालने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए भी सरकार को खासी तैयारी करनी पड़ती है.जब आखिरकार उन पर ‘धावा’बोला जाता है,तब तक उन्हें पर्याप्त समय मिल चुका होता है कि वे तमाम सबूतों को मिटा दें.
भारत एक अजीब लोकतंत्र बनकर रह गया है,जहां बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है और डकैत खुलेआम ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते हैं.सरकारी खजाने पर डाका डालने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए भी सरकार को खासी तैयारी करनी पड़ती है.जब आखिरकार उन पर ‘धावा’बोला जाता है,तब तक उन्हें पर्याप्त समय मिल चुका होता है कि वे तमाम सबूतों को मिटा दें.
आखिर वह व्यक्ति कोई मूर्ख ही होगा,जो तीन साल पहले हुए टेलीकॉम घोटाले के सबूतों को इतनी अवधि तक अपने घर में सहेजकर रखेगा.तीन साल क्या,सबूतों को मिटाने के लिए तो छह महीने भी काफी हैं.क्योंकि इस अवधि में पैसा या तो खर्च किया जा सकता है,या उसे किसी संपत्ति में परिवर्तित किया जा सकता है या विदेशी बैंकों की आरामगाह में भेज दिया जा सकता है.राजनेताओं-उद्योगपतियों का गठजोड़ कानून से भी ऊपर है.अगर भारत का सत्ता तंत्र बिनायक सेन को कारावास में भेजने के बजाय उन्हें फांसी पर लटका देना चाहे,तो वह यह भी कर सकता है.
बिनायक ने एक बुनियादी नैतिक गलती की है और वह यह कि वे गरीबों के पक्षधर हैं.हमारे आधिपत्यवादी लोकतंत्र में इस गलती के लिए कोई माफी नहीं है.सोनिया गांधी,मनमोहनसिंह,पी चिदंबरम और यकीनन रमन सिंह के लिए इस बार का क्रिसमस वास्तव में ‘मेरी क्रिसमस’होगा. कांग्रेस और भाजपा दो ऐसे राजनीतिक दल हैं,जो फूटी आंख एक-दूसरे को नहीं सुहाते.वे तकरीबन हर मुद्दे पर एक-दूसरे से असहमत हैं.लेकिन नक्सल नीति पर वे एकमत हैं.नक्सल समस्या का हल करने का एकमात्र रास्ता यही है कि नक्सलियों के संदेशवाहकों को रास्ते से हटा दो.
बच्चों के डॉक्टर विनायक सेन |
मीडिया इस गठजोड़ का वफादार पहरेदार है,जो उसके हितों की रक्षा इतनी मुस्तैदी से करता है कि खुद गठजोड़ के आकाओं को भी हैरानी हो. गिरफ्तारी की खबर रातोरात सुर्खियों में आ गई. प्रेस ने तथ्यों की पूरी तरह अनदेखी कर दी. हमें नहीं बताया गया कि बिनायक सेन के विरुद्ध लगभग कोई ठोस प्रमाण नहीं पाया गया था.
अभियोजन ने गैर जमानती कारावास के दौरान बिनायक के दो जेलरों को पक्षविरोधी घोषित कर दिया था. सरकारी वकीलों की तरह जेलर भी सरकार की तनख्वाह पाने वाले नुमाइंदे होते हैं.लेकिन दो पुलिसवालों ने भी मुकदमे को समर्थन देने से मना कर दिया.एक ऐसा पत्र,जिस पर दस्तखत भी नहीं हुए थे और जो जाहिर तौर पर कंप्यूटर प्रिंट आउट था,न्यायिक प्रणाली के संरक्षकों के लिए इस नतीजे पर पहुंचने के लिए पर्याप्त साबित हुआ कि बिनायक सेन उस सजा के हकदार हैं,जो केवल खूंखार कातिलों को ही दी जाती है.
यदि काल्पनिक सबूतों के आधार पर बिनायक सेन जैसों को दोषी ठहराया जाने लगे तो हिंदुस्तान में जेलें कम पड़ जाएंगी.
बिनायक सेन स्कूल में मेरे सीनियर थे.वे तब भी एक विनम्र व्यक्ति थे और हमेशा बने रहे,लेकिन वे अपनी राजनीतिक धारणाओं के प्रति भी हमेशा प्रतिबद्ध रहे.मैं उनके राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं,लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए.भारत धीरे-धीरे दोहरे मापदंडों वाले एक लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है.जहां विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए हमारा कानून उदार है,वहीं वंचित तबके के लोगों के लिए यही कानून पत्थर की लकीर बन जाता है.
यह विडंबनापूर्ण है कि बिनायक सेन को सुनाई गई सजा की खबर क्रिसमस की सुबह अखबारों में पहले पन्ने पर थी. हम सभी जानते हैं कि ईसा मसीह का जन्म 25 दिसंबर को नहीं हुआ था. चौथी सदी में पोप लाइबेरियस द्वारा ईसा मसीह की जन्म तिथि 25 दिसंबर घोषित की गई, क्योंकि उनके जन्म की वास्तविक तिथि स्मृतियों के दायरे से बाहर रहस्यों और चमत्कारों की धुंध में कहीं गुम गई थी.क्रिसमस एक अंतरराष्ट्रीय त्यौहार इसलिए बन गया, क्योंकि वह जीवन को अर्थवत्ता देने वाले और सामाजिक ताने-बाने को समरसतापूर्ण बनाने वाले कुछ महत्वपूर्ण मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है. ये मूल्य हैं शांति और सर्वकल्याण की भावना, जिसके बिना शांति का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता.
सर्वकल्याण की भावना किसी धर्म-मत-संप्रदाय से बंधी हुई नहीं है.क्रिसमस की सच्ची भावना का सबसे अच्छा प्रदर्शन पहले विश्व युद्ध के दौरान कुछ ब्रिटिश और जर्मन सैनिकों ने किया था, जिन्होंने जंग के मैदान में युद्धविराम की घोषणा कर दी थी और एक साथ फुटबॉल खेलकर और शराब पीकर अपने इंसान होने का सबूत दिया था.अलबत्ता उनकी हुकूमतों ने उन्हें जंग पर लौटने का हुक्म देकर उन्हें फिर से उस बर्बरता की ओर धकेल दिया,जिसने यूरोप की सरजमीं को रक्तरंजित कर दिया था.
यदि काल्पनिक सबूतों के आधार पर बिनायक सेन जैसों को दोषी ठहराया जाने लगे तो हिंदुस्तान में जेलें कम पड़ जाएंगी.ब्रिटिश राज में गांधीवादी आंदोलन के दौरान ऐसा ही एक नारा दिया गया था.यह संदर्भ सांयोगिक नहीं है,क्योंकि हमारी सरकार भी नक्सलवाद के प्रति साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक रवैया अख्तियार करने लगी है.
लेखक ‘द संडे गार्जियन’ के संपादक और इंडिया टुडे के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं. बाईलाइन के नाम से लिखे जाने वाले इस कॉलम को रविवार डोट कॉम से साभार लिया जा रहा है.