मई दिवस पर विशेष
मई दिवस मजदूर आंदोलन की वो विरासत है जो मजदूरों के संघर्ष का इतिहास बताता है, नये संघर्ष की प्रेरणा देता है। 1886 में अमेरिका के शिकागो शहर में मजदूरों ने जो लड़ाई लड़ी वो किसी खास प्लांट या मजदूरों के किसी खास हिस्से की मांग को लेकर नहीं अपितु दुनिया के सभी मजदूरों के लिए थी यानी मजदूर वर्ग के लिए।
सुमित
आठ घंटे काम की मांग मई दिवस के संघर्षों से उभरकर सामने आयी थी और आज 129 सालों बाद ये अधिकार इस मौजूदा पीढ़ी से पूँजीपतियों ने छीन लिया है। 4 मई 1886 यानी मई दिवस की घटना के पीछे सतत संघर्ष मौजूद था जिसने मालिकों और उनकी दलाल सरकारों के तमाम षडयंत्र और दमन-शोषण का मुँह तोड़ जवाब देते हुए हार मानने से लगातार इंकार किया था।
मई दिवस तथाकथित न्यायपालिका का मजदूर विरोधी चरित्र उजागर करता है। आठ घण्टे काम की मांग करने पर मई दिवस के शहीदों को जिस प्रकार पूँजीपतियों के षड़यंत्र के मुताबिक अदालत ने फांसी की सजा सुनाई आज ठीक उसी प्रकार यूनियन बनाने की मांग करने पर मारुति के 13 मजदूरों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई। एक बार फिर मालिकों ने मजदूरों को डराने के लिए अदालत का इस्तेमाल करते हुए ये बताना चाहा कि अगर मजदूर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने आगे आएंगे तो फांसी और उम्रकैद के जरिए उन्हें और उनके आंदोलन को कुचल दिया जाएगा।
बदलाव के नये रूप
तमाम उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए आज पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में लगातार बदलाव हो रहा है। इसी के साथ शोषण की प्रक्रिया में अलग-अलग बदलाव हुए हैं। विश्व पूँजीवादी व्यवस्था ने जहाँ मुनाफे की रफ्तार तेज कर दी है, वहीं सामाजिक बंटवारे को तीखा कर दिया है। दूसरी तरफ राजकीय नियंत्राण को घटा कर निजीकरण को खुला रूप दे दिया है।
उदारीकरण के पिछले तीस साल में उत्पादन के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर ढांचागत बदलाव हुआ है। वे उच्च तकनीक से थोड़े से स्थाई और भारी पैमाने पर ठेका, ट्रेनी, स्किल डेवलपमेण्ट आधारित कम वेतन और कभी भी निकालने के अधिकार के साथ उत्पादन व भारी मुनाफा बटोरने में जुटे हैं। आज मज़दूर स्थाई-ठेका-ट्रेनी, मुख्य प्लाण्ट, वैण्डर, सब वैण्डर जैसे बहु संस्तरों में बंटा-बिखरा है।
अधिकारों को छीनने का दौर
मई दिवस की परम्परा में लम्बे संघर्षों के दौर में हासिल सीमित कानूनी अधिकारों को छीनने का यह दौर है। मोदी सरकार ने सत्ता संभालने के बाद से ही इसे तेज कर दिया। एक-एक कर कानूनों को मालिकों के हित में बदलना उसका प्रमुख एजेण्डा है। जिसके मूल में है हायर एण्ड फायर, यानी जब चाहो काम पर रखो, जब चाहो निकाल दो। कम से कम वेतन पर ज्यादा से ज्यादा खटाओ।
नस्ल-धर्म आधरित बंटवारे तेज
आज पूरी दुनिया में मेहनतकश आवाम पर धर्म, नस्ल व जाति के आधार पर बंटवारे जुनूनी हद तक तेज हो गये हैं। पूरी दुनिया में नस्लवादी, फासीवादी मजदूर विरोधी ताकतें जाति और धर्म की पहचान को उभारकर जनता को घृणा और उन्माद के जरिए लामबंद कर सत्ता में आ रही हैं। देश के भीतर जातीय व मजहबी हमले और बंटवारे बेहद तीखे हो गये हैं। इसी के साथ, वाट्सऐप, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया झूठ और भ्रम फैलाने के महत्वपूर्ण उपकरण बन गये हैं।
मुनाफाखोरों की चालों को पहचानो
यह मालिकों के मुनाफे को कायम रखने के लिए मजदूरों का शोषण बढ़ाने का मामला है। इनके खिलाफ मजदूरों को ठेका, स्थायी, कैजुअल के बंटवारे की दीवार को तोड़कर व्यापक एकता बनानी होगी - जाति और धर्म की पहचान से परे समान काम समान वेतन, सम्मानजनक वेतन व ठेका प्रथा के खात्मे जैसी तत्कालिक मांगों को लेकर ना सिर्फ प्लांट स्तर पर बल्कि इलाका स्तर पर एकजुट होकर संघर्ष करना होगा। इन संघर्षो का नेतृत्व भी खुद मजदूरों को करना होगा और जिस तरह संघर्ष आगे बढ़ेगे नेतृत्व करने वाले मजदूर भी निकलकर आएंगे। लेकिन मौजूदा भ्रमपूर्ण स्थिति में मज़दूरों के सामने वैचारिक स्थिति भी साफ करना होगा। मई दिवस की विरासत हमें बताती है कि जब तक उत्पादन और राज-काज पर मेहनतकश वर्ग का नियंत्रण नहीं होगा, तब तक मज़दूरों की मुक्ति संभव नहीं है। इसलिए मज़दूरों को अपने तात्कालिक माँगों के साथ अपनी मुक्ति के दीर्घकालिक मुद्दों पर भी सतत संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।
नयी राह पर आगे बढ़ना होगा!
ऐसे में मई दिवस का रास्ता मजदूर वर्ग की मुक्ति की लड़ाई में ऐसा प्रेरणा स्रोत है जिसे हमें लगातार अपने सामने रखकर मजदूरों को संगठित करना होगा। आज वो दौर नहीं है कि लगातार बड़ी बड़ी हड़ताले हो रही हैं और मजदूर खूद अपनी पहलकदमी से मालिकों को, उत्पादन को चुनौती दे रहा है। स्थिति ठीक विपरीत है। आज के हालात में मजदूर आन्दोलन बिखरा हुआ है और लगातार पीछे जा रहा है। हालांकि बढ़ते शोषण के खिलाफ लगातार उठते स्वतःस्पफूर्त आन्दोलन प्रतिरोध की स्थितियां भी बयां कर रहे हैं।
इन्हीं मौजूदा चुनौतियों के बीच मई दिवस पर ये सवाल उपस्थित है कि मज़दूर आन्दोलन को नयी राह पर आगे कैसे बढ़ाया जाये?
(‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका से)