अजय प्रकाश
सरकार,जानते हैं मेरा एक कुत्ता था शेरू। गांव में बाकियों की तरह उसका भी जीवन शांति और आनंद से गुजर रहा था, मगर गांव के दो लोगों को शेरू पसंद नहीं था। वह लोग जब भी दरवाजे के सामने से गुजरते शेरू गुर्राते हुए ओसारे में चला जाता। शेरू का इतना ऐतराज उनके लिए असहनीय हो गया। हालांकि गांव के लोग भी उन दोनों को पसंद नहीं करते और बातचीत में कहते कि ''देखो जानवर भी आदमी को पहचानता है।''
फिर दोनों ने मिलकर कुत्ते को सबक सिखाने की तरकीब सोची। तय प्रोग्राम के मुताबिक वे सो रहे कुत्ते के पास आहिस्ता से पहुंचे और उसके पिछवाड़े में पेट्रोल लगी लकड़ी घुसेड़ दी। पेट्रोल लगते ही शेरू पवनपुत्र हो गया और कई घंटे तक यहां-वहां झुरमुट देख पिछवाड़ा रगड़ता रहा। बाद में गढ़ही में घुसा तो राहत मिली।
घटना के अगले दिन से लेकर जब तक शेरू जिया,तब तक पेट्रोल लगाने वाले लोग डर के मारे मेरा दरवाजा तो भूल ही गये, पंद्रह घरों के टोले में भी उनका आना-जाना छूट गया। जानते हैं सरकार, ऐसा इसलिए नहीं था कि शेरू उन्हें देखते ही काटने को दौड़ता और वह शेरू से शेर हो गया था। हुआ इसलिए कि उन दोनों ने शेरू के साथ जो रवैया अपनाया वह हमें,हमारे गांव और समाज को मंजूर नहीं था। जाहिरा तौर पर यह बात शेरू के पक्ष में जाती थी। किसी एक ने भी गांव में कभी नहीं कहा कि वह शेरू के समर्थन में है और उन दोनों के विरोध में। मगर सरकार सच मानिये गुनहगारों की छठी इंद्रिय ने अहसास दिला दिया था कि समाज उनके पाप का भागीदार नहीं बनेगा।
सरकार,असभ्य शब्दों में लिप्त इस किस्से को सुनाने का एक गूढ़ अर्थ था। हम बस इतना बताना चाह रहे थे कि जिस समाज में कुत्तों के जीने के अधिकार की इतनी जबर्दस्त रक्षा होती है वह समाज नरसंहारों, हादसों और हत्याओं पर आपके बयानों की बाजीगरी से बहकेगा,यह मुगालता छोड़ दीजिए। समाज किसी के हित की रक्षा में घोषणाएं नहीं करता,जिंदगी बदल देने की तारीखें नहीं देता और न ही वह वादे का मोहताज होता है। यह शगल आपका है क्योंकि इससे सरकार चलती है, समाज नहीं। परसों के उदाहरण को लीजिये तो फिर एक बार आपने वही खेल खेला है जिसके आप उस्ताद हैं।
पश्चिम बंगाल में खड़गपुर के नजदीक दिल दहला देने वाली ट्रेन दुर्घटना के बाद बगैर तथ्यगत पुष्टि के लाखों पेज, सैकड़ों घंटे सिर्फ प्रशासनिक और राजकीय लापरवाही को छुपाने में इस बहाने बर्बाद कर दिये गये कि हमला माओवादियों ने किया है। चंद अखबारों को छोड़ किसी ने भी माओवादियों या पीसीपीए का पक्ष हाशिये पर भी दर्ज करने की जहमत नहीं उठायी। माओवादियों को हत्यारा, रक्तपिपासु, देशद्रोही, आतंकी जैसे शब्दों से नवाजने वाला मीडिया इतना नैतिक साहस भी नहीं कर पाया कि वह देश को बताये कि माओवादी बकायदा इस दुर्घटना की स्वतंत्र एजेंसी से जांच की मांग कर रहे हैं. जिसमें इंजीनियर, विशेषज्ञ, बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक शामिल हों। इतना ही नहीं, माओवादी नेता और पीसीपीए संयोजक का बयान आने पर भी जगह देने में वही कोताही बरती गयी जिसके आप पक्षधर हैं सरकार। वैसे में हम पूछते हैं और अधिकार चाहते हैं कि ''क्या इसका भी कोई कन्टेम्ट, कहीं दर्ज हो पायेगा सरकार?''
अगर आपका जवाब हां में है तो दर्ज कीजिये और पिछवाड़े में पेट्रोल लगाने की आदत से बाज आइये। हमारी इन जायज शिकायतों को दर्ज किये बगैर आप उम्मीद करें कि हम आपको मक्कार,झूठा और पूंजीपति घरानों का दलाल न कहें तो इसकी चाहत बेमानी है। काहे कि दर्जनों की भीड़ में हर रोज देश की अदालतों में पेशकारों के अंग विशेष के ठीक ऊपर जो न्याय का वारा-न्यारा होता है, उस पर एक हरफ चलायें तो ‘कन्टेम्ट ऑफ़ कोर्ट’हो जाता है। देश के सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अपनी परंपरा को ताक पर रख सेवानिवृति से चंद रोज पहले विवादित व्यायसायिक बंधुओं पर फैसला देता है और हम न्यायाधीश के जाने की बधाई लिखते हैं। हम बखूबी जानते हैं कि देश का प्रधानमंत्री बनने की पहली तस्दीक अमेरिका करता है, बावजूद इसके हम संप्रभुता को कलम की गहराई देते हैं। और भी बहुतेरे सच की बारीकियां बड़े करीब से जानते हैं। मगर सरकार हमारी मजबूरी तो देखिये। आपसे थोड़ा कहने के लिए 60 साल का अनुभव कम पड़ता है, जबकि आपकी हर बात अंतिम बात की तरह हमारे कागज पर उतरने और टीवी में बोलने लगती है।
सरकार आपके इस शगल से हमें कोई ऐतराज है, तो भी आप महान देशभक्त हैं और हम माओवादियों के पैराकार ‘देशद्रोही।’ मगर पूछना है कि ‘आपकी बात, अंतिम बात’ इस पर आपका ही आरक्षण क्यों है। थोड़ी जगह दूसरों को भी दीजिए। जगह देना तो लोकतंत्र की बुनियादी परंपरा है और आपको सफदर हाशमी के नाटक ‘राजा का बाजा’ का डॉयलॉग तो याद होगा ही- ‘थोड़ी जगह बनाइये, हमें भी आने दीजिए सरकार।’ गर आप इतना भी देने में कोताही बरतते हैं तो हमें माफी दीजिए क्योंकि देश को अभी तय करना बाकी है कि कौन देशभक्त है और कौन देशद्राही।