Jul 24, 2011

जनसांस्कृतिक मूल्यों के लिए फाउंडेशन

फाउंडेशनों की भीड़ में यह अलग किस्म का फाउंडेशन होगा,जो व्यक्ति तक सिमटा नहीं रहेगा,बल्कि उन मूल्यों,सिद्धांतों और संघर्षशील चेतना को आगे बढ़ाएगा, जो अनिल सिन्हा की जिंदगी का मकसद था...

सुधीर सुमन


 

अनिल सिन्हा : जनपक्षधर लेखक

ईमानदारी के साथ अनवरत अपने विचारों और मूल्यों के साथ सक्रिय रहने वाले शख्स कभी हमख्याल लोगों द्वारा विस्मृत नहीं किये जाते। 23जुलाई की शाम अनिल सिन्हा की याद में उनके नाम पर गठित मेमोरियल फाउंडेशन की ओर से दिल्ली के ललित कला अकादमी के कौस्तुभ सभागार में आयोजित कार्यक्रम में साहित्यिक-सांस्कृतिक लोगों ने भी यह महसूस किया।

संस्कृतिकर्मी और पत्रकार अनिल सिन्हा की बेटी रितु ने कहा कि फाउंडेशनों की भीड़ में यह अलग किस्म का फाउंडेशन होगा जो व्यक्ति तक सिमटा नहीं रहेगा,बल्कि उन मूल्यों,सिद्धांतों और संघर्षशील चेतना को आगे बढ़ाएगा, जो अनिल सिन्हा की जिंदगी का मकसद था। रितु ने बताया कि हर साल लखनऊ में फाउंडेशन की तरफ से एक आयोजन होगा,जिसमें अनिल सिन्हा स्मृति व्याख्यान होगा और एक संगोष्ठी होगी तथा उनके नाम पर एक सम्मान दिया जाएगा।

अनिल सिन्हा के दूसरे कहानी संग्रह ‘एक पीली दोपहर का किस्सा’ का लोकार्पण कवि वीरेन डंगवाल ने किया। अनिल सिन्हा के साथ दोस्ती के अपने लंबे अनुभवों को साझा करते हुए उन्होंने कहा कि वे हमेशा विनम्र और सहज रहे। जसम की स्थापना में उनकी भूमिका को याद करते हुए उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि फाउंडेशन उन्हीं जन सांस्कृतिक मूल्यों के लिए काम करेगा,जिसके लिए जसम की स्थापना हुई थी।

कवि मंगलेश डबराल ने कहा क़ि अनिल सिन्हा जिस तरीके से अपने पारिवारिक जरूरतों और वैचारिक मकसद के लिए पूरे दमखम के साथ संघर्ष करते थे,वह उन्हें आकर्षित करता था। आर्थिक और वैचारिक संघर्ष के साथ-साथ ही एक पिता के बतौर बच्चों को सुशिक्षित और योग्य नागरिक बनाने में अनिल सिन्हा की जो भूमिका थी,उसे भी मंगलेश डबराल ने याद किया।

'समकालीन तीसरी दुनिया' के संपादक आनंदस्वरूप वर्मा ने कहा कि उनके विचारों में जबर्दस्त दृढ़ता और व्यवहार में लचीलापन था और वे मूलतः पत्रकार थे। नेता,पुलिस,ब्यरोक्रेसी और दलालपत्रकारों के नेक्सस के खिलाफ उन्होंने जनपक्षीय पत्रकारों को संगठित करने की पहल की और नवभारत टाइम्स से अलग होने के बाद उन्होंने एक फ्रीलांसर की तरह काम किया।

इस आयोजन में इरफान ने अपनी सधी हुई आवाज में अनिल सिन्हा के ‘एक पीली दोपहर का किस्सा’ संग्रह की एक कहानी ‘गली रामकली’का पाठ किया। कुछ तो इरफान की आवाज का जादू था और कुछ कहानीकार की उस निगाह का असर जिसमें एक दलित मेहनतकश महिला के प्रति निर्मित होते सामाजिक सम्मान के बोध की बारीक दास्तान रची गई है,उसने कुछ समय के लिए श्रोताओं को अपने मुहल्लों और कस्बों की दुनिया में पहुंचा दिया। चित्रकार-कथाकार अशोक भौमिक ने व्याख्यान-प्रदर्शन पेश किया। अपनी कला-समीक्षाओं में अनिल सिन्हा की गहरी निगाह चित्रकारों के सामाजिक सरोकारों पर रहती थी।

आयोजन की अध्यक्षता कर रहे प्रो. मैनेजर पांडेय ने  अनिल सिन्हा मेमोरियल फाउंडेशन के बारे में  सुझाव दिए। उन्होंने कहा कि हिंदी और अंग्रेजी में अनिल सिन्हा का जो लेखन इधर-उधर बिखरा हुआ है,उसे एक क्रम में व्यवस्थित करके ठीक से एक जगह रखा जाना चाहिए। कार्यक्रम का संचालन  युवा आलोचक आशुतोष कुमार ने किया।

आयोजन में इब्बार रब्बी, मुरली मनोहर प्रसाद, रेखा अवस्थी, मदन कश्यप, नीलाभ, विमल कुमार, योगेंद्र आहूजा, रंजीत वर्मा, कुमार मुकुल, भाषा सिंह, गोपाल प्रधान, कविता कृष्णन, संदीप,  असलम,कनिका, उमा, मनोज सिंह, अशोक चैधरी, मुकुल सरल, कौशल किशोर, भगवान स्वरूप  कटियार, सुभाषचंद्र कुशवाहा, निधि, अनुराग, कौशलेश आदि भी मौजूद थे।

 

अदालती फैसले ही आखिरी आस

किसानों से सलाह-मशविरा किये बिना सत्ता  विकास के नाम पर जब-जहां चाहती  है किसानों की भूमि कब्ज़ा  कर लेती  है.  किसान इसका विरोध करता है तो उसे मिलती हैं पुलिस की लाठियां और गोलियां...

तनवीर जाफरी

हमारे देश के राजनैतिक हल्क़ों में ‘मसीहा’शब्द का प्रयोग अत्यधिक कसरत से होते हुए देखा जा सकता है। लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों में तमाम नेता ऐसे मिल जाएंगे जो इस खुशफ़हमी में जीते आ रहे हैं कि वे अपने सामाजिक जीवन में किसी न किसी वर्ग विशेष के मसीहा के समान है। कोई स्वयं को किसानों का मसीहा कहने में आत्मसंतोष महसूस करता है तो कोई दलितों का स्वयंभू मसीहा बना बैठा है। कोई मज़दूरों का मसीहा तो कोई छात्रों का। इन तथाकथित मसीहाओं में सबसे अधिक ‘मसीहाई’या तो दलितों की की जाती है या फिर देश के अन्नदाता समझे जाने वाले विशाल एवं वृहद् कृषक समाज की।

लेकिन राजनैतिक दल जब किसानों की मसीहाई का दम भरते हैं तो हमें कभी सिंगूर नज़र आता है तो कभी नंदीग्राम,कभी जैतापुर तो कभी भट्टा-पारसौल। किसानों की हमदर्दी का दम भरने वाली राजनीति,सत्ता या नेता बिना किसानों से पूछे हुए व बिना किसी सलाह-मशविरे के देश के विकास के नाम पर जब और जहां चाहते हैं किसानों की भूमि अधिगृहित कर लेते हैं और यदि किसान इसका विरोध करता है तो उसे मिलती हैं पुलिस की लाठियां और गोलियां।

 नॉएडा के किसान :  नहीं छोड़ेंगे खेत                   फोटो- जनज्वार

ऐसे में किसान अदालत का दरवाजा खटखटाता है जैसा कि पिछले दिनों दिल्ली के समीप नोएडा क्षेत्र के तमाम किसानों के साथ हुआ। नोएडा-आगरा एक्सप्रेस मार्ग हेतु अधिग्रहण की गई किसानों की भूमि के संबंध में और भी सैकड़ों याचिकाएं किसानों द्वारा अदालत में डाली गई हैं। उम्मीद है कि इन सभी मामलों में अदालतें किसानों को उनकी भूमि वापस किए जाने के ही आदेश देगी। इसी से डरकर हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने भी राज्य में अधिगृहित की गई ज़मीनों के सिलसिले में किसानों को बड़ी राहत देते हुए गत् 6माह के दौरान अधिग्रहण की गई ज़मीनों पर अगला कानून बनने तक रोक लगा दी है।

इस घटनाक्रम से जुड़े कई प्रश्र ऐसे हैं जो केंद्र सरकार की भूमि अधिग्रहण नीति की धारा 4 को तो चुनौती देते ही हैं साथ ही साथ राज्य सरकारों की नीयत तथा उनकी भूमि का यहां तक कि भविष्य में उसकी विश्वसनीयता तक पर प्रश्रचिन्ह लगाते हैं। राज्य सरकारें बड़ी आसानी से किसानों की भूमि का अधिग्रहण इस बहाने से कर लेती हैं कि ‘भूमि अधिग्रहण कानून की धारा 4तो केंद्र सरकार की परिधि में आती है। राज्य सरकारें तो केवल उसका अनुसरण मात्र करती हैं।’ परंतु भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 4 की व्यवस्था देश की विकास संबंधी योजनाओं को मद्देनज़र रखते हुए है।

राज्य सरकारें दुहाई तो केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून की देती हैं परंतु उसकी आड़ में सरकारें अपने चेलों,चट्टेबट्टों,चम्मचों तथा शुभचिंतकों के बीच किसानों की अधिग्रहण की गई ज़मीन का बंदरबांट करने लग जाती हैं। यदि सडक़ बनाने के बहाने किसानों की ज़मीन उनसे ली गई है तो वहां सडक़ के साथ-साथ नई टाऊनशिप बनने लगती है। बिल्डर्स नई-नई कालोनियां व गगनचुंबी इमारतें बनाने लगते हैं। शॉपिंग माल, निजी स्कूल, मंहगे निजी अस्पताल आदि बनाए जाते हैं।

ऐसे में जहां किसान,नेताओं व राजनैतिक दलों द्वारा स्वयं को ठगा हुआ महसूस करते हैं तथा सरकार के प्रति उनमें अविश्वास की भावना पैदा होती है,वहीं अदालतों द्वारा किसानों के पक्ष में फैसले सुनाए जाने के बाद बिल्डर्स,निजी कंपनियां,निवेशक तथा औद्योगिक घरानों का भी विश्वास राज्य सरकारों से पूरी तरह से उठ जाता है।

ज़ाहिर है कोई भी बिल्डर या औद्योगिक घराना अपनी किसी योजना को लेकर राज्य सरकार के निमंत्रण पर या उससे हुए समझौते के तहत ही किसी क्षेत्र विशेष में अपना निवेश करता है। परंतु जब माननीय उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय किसानों को उनकी ज़मीन वापस किए का आदेश दे दे जैसाकि पिछले दिनों नोएडा-आगरा यमुना एक्प्रेस हाईवे के किसानों के मामले में दिया गया है, ऐसे में राज्य सरकार की विश्वसनीयता स्वयं ही समाप्त हो जाती है।

सवाल उठता है इस पूरे घटनाक्रम में आखिर दोषी है कौन है ? क्या किसान दोषी है, जिसकी ज़मीन का अधिग्रहण बिना उसके सलाह-मशविरे तथा बिना उसकी शर्तों को सुने व स्वीकार किए कर लिया गया? फिर कोई उद्योगपति या बिल्डर भी इसके लिए क्यों दोषी है, जोकि राज्य सरकार के निमंत्रण पर अथवा उसके साथ हुए करार के तहत किसी क्षेत्र विशेष में अपनी योजना पर काम कर रहा है? इसी प्रकार वह मध्यमवर्गीय निवेशक भी क्योंकर दोषी हो सकता है जिसने अपने व अपने बच्चों के भविष्य के मद्देनज़र अपनी जमापूंजी अथवाकर्ज लेकर किसी आवासीय योजना में अथवा अन्यत्र पूंजीनिवेश किया हो?

इस पूरे प्रकरण में यदि सबसे अधिक गैरजि़म्मेदार व संदेहास्पद भूमिका नज़र आती है तो वह केवल राज्य सरकार की अथवा उनके तथाकथित सलाहकारों व शुभचिंतकों की है जोकि सत्ता का दुरुपयोग कर बड़े पैमाने पर धांधली करने की कोशिश करते हैं तथा कानून की आड़ लेकर किसानों को भूमिहीन करने तथा उद्योगपतियों,बिल्डर्स आदि की सांठगांठ से स्वयं मोटी रकम कमाने का प्रयास करते हैं।

गत् दो माह से हरियाणा के अंबाला शहर में भी 6 गांवों के किसानों ने अपनी भूमि अधिग्रहण के विरोध में धरना दे रखा है। सोचने का विषय यह है कि जो किसान परिवार अपना घर-द्वार, सुख-चैन सब कुछ पीछे छोडक़र जि़ला कार्यालय के बाहर गर्मी, लू-धूप, बारिश तथा मच्छरों की परवाह किए बिना बैठे हों क्या यह किसान सरकार को अपनी ज़मीनों का अधिग्रहण सरकार की अपनी शर्तों पर आसानी से करने देंगे?

चाहे महाराष्ट्र का जैतापूर हो चाहे बंगाल का सिंगूर या नंदीग्राम या अलीगढ़ व नोएडा के किसान या गुडग़ांव,भट्टा-पारसौल या अंबाला के किसान। सरकार को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जब किसान अपनी ताकत का एहसास कराने पर तुल जाता है तब टाटा जैसे देश के प्रमुख उद्योगपति को भी अपना उद्योग पश्चिम बंगाल से हटाना पड़ जाता है। ऐसे में राज्य सरकारों को किसानों से टकराने या उनकी भूमि का जबरन अधिग्रहण किए जाने जैसे विचार अपने ज़ेहन से निकाल देने चाहिए और राज्य सरकारों को किसानों की उन्नत कृषि तकनीक के उपाय सुझाने चाहिए।


हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के टिप्पणीकार.



देश ब्लैकबेरी के बगैर जी सकता, शाह्बेरी के बिना नहीं

असल में शाहबेरी का निवासी बनने को देश का वो क्लास उत्सुक है जो ब्लैकबेरी मोबाइल हाथ में लेकर घूमता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने ‘ब्लैकबेरी क्लास’ के सपनों के महल को चकनाचूर कर डाला है...

आशीष वशिष्ठ का विश्लेषण

राष्ट्रीय राजमार्ग यानी एनएच 58पर बसा गांव शाहबेरी देश के उन तमाम गांवों में से एक है जिसकी खेती योग्य जमीन विकास के नाम पर सरकार ने अधिग्रहित की थी। लेकिन शाहबेरी गांव के किसान भाग्यशाली निकले क्योंकि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार को किसानों को उनकी जमीन वापिस करने का आदेश दिया है।

विकास के नाम पर अधिग्रहित की गई जमीन को सरकार ने कारपोरेट घरानों और बिल्डरों को ऊंचे दामों में बेचकर कमीशन की मोटी मलाई काटी थी लेकिन शाहबेरी के किसानों ने इंसाफ की आस नहीं छोड़ी और अन्ततः सुप्रीम कोर्ट ने उनके हक में फैसला सुनाकर न्यायपालिका पर आम आदमी की आस्था को जिंदा रखा।

गौरतलब है कि पिछले एक दशक में ग्रेटर नोएडा में लगभग 85000 हजार एकड़ जमीन प्राधिकरण ने अधिग्रहित की है। वर्तमान में शाहबेरी गांव में सात बिल्डरों द्वारा तकरीबन पचास हजार फ्लैट बनाने का काम जोरों पर था। ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण ने किसानों को बाजार भाव से काफी कम मुआवजा दिया गया लेकिन वही जमीन सरकार ने बिल्डरों को ऊंचे दामों पर बेची थी। शाहबेरी में बन रहे छोटे से छोटे फ्लैट की कीमत आधा करोड़ के करीब है।

असल में शाहबेरी का निवासी बनने को देश का वो क्लास उत्सुक है जो ब्लैकबेरी मोबाइल हाथ में लेकर घूमता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने ‘ब्लैकबेरी क्लास’के सपनों के महल को चकनाचूर कर डाला है। अदालत के सकारात्मक व खेती-किसानी के प्रति नरम और सहयोगी रवैये से ये उम्मीद जगी है कि शाहबेरी जैसे देश के अन्य हजारों गांव ब्लैकबेरी क्लास का ठिकाना बनने से बच जाएंगे।

किसी जमाने में मोटे तौर पर जमीन के दो ही उपयोग थे, एक घर बनाने और दूसरा खेती के लिए। लेकिन उदारीकरण की बयार में चांदी-सोने और षेयर बाजार की भांति जमीन भी निवेश का सौदा बन गयी। पिछले एक दषक मंे तेजी से उभरे नव धनाढय वर्ग ने दिल खोलकर जमीन में निवेष किया। विकास और उलूल-जलूल बहानों का सहारा लेकर लगभग हर सरकार ने कारपोरेट घरानों और बिल्डरों को थाली में सजाकर जमीनों का तोहफा देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। पिछले दो दशक में रियल एस्टेट कारपोरेट के लिए मुनाफे का सौदा साबित हुआ है, कुकरमुत्ते की तरह देषभर में उग आयी रियल एस्टेट कंपनियों  और बिल्डरों ने खेती योग्य हजारों एकड़ जमीन को कंक्रीट के जंगल में तब्दील कर डाला।

शेयर मार्केट से पिटे ओर घाटा खाए निवेशकों को जमीन में निवेश सुरक्षित और मुनाफे का सौदा लगने लगा है। परिणामस्वरूप देशभर में जमीन के रेट में जर्बदस्त उछाल तो आया ही है वहीं लगभग हर षहर के चारों ओर खेती की जमीन को खरीदने का जनून और पागलपन चरम पर है। सरकारी मशीनरी को घूस और कमीशन खाने से ही फुर्सत नहीं है। सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण को अगर जमीन हड़पना कहा जाए तो कोई बुराई नहीं होगी। ग्रेटर नोएडा में सरकार ने हजारों एकड़ जमीन का अधिग्रहण जिस उद्देश्य से किया था, उसे बिल्डरों के हाथों मंहगे दामों में बेचने और कमीशन की काली कमाई खाने के अलावा सरकार ने विकास के नाम पर कुछ खास नहीं किया।

देश की तेजी से बढ़ती आबादी और उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक मकान और अनाज की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है। हरित क्रांतियों ने देश को अन्न के मामले में आत्मनिर्भरता बनाया है लेकिन पिछले दो दशकों से किसानों का रूझान व्यवासायिक खेती की ओर होने से पारंपरिक खेती को बहुत नुकासान पहुंचा  है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दखलअंदाजी और सरकार की खेती विरोधी नीतियों और नीयत के कारण किसान आत्महत्याएं करने को विवष हुये हैं। असल में खेती किसानी का असली मुनाफा बिचौलिये और बड़ी कंपनियों द्वारा खा जाने के कारण खेती आज घाटे का सौदा साबित हो रही है। परिणामस्वरूप किसान खेती-किसानी से विमुख हो रहे हैं।

भूमि अधिग्रहण के वर्तमन अपंग कानून के कारण सबसे अधिक अधिग्रहण खेती योग्य भूमि का ही हुआ है। जिस जमीन पर कभी हरे भरे-पूरे खेत और फसले लहलहाती थी आज वहीं मल्टीस्टोरी बिल्डिंग खड़ी हैं। देश में खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल काफी तेजी से कम हो रहा है और दूसरी और दुगनी तेजी से कांक्रीट का जंगल फैल रहा है। देश की राजधानी दिल्ली में बेतहाशा बढ़ती आबादी को बसाने के लिए सबसे अधिक खेती योग्य जमीन का अधिग्रहण पिछले दो दशकों में हुआ है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अर्थात एनसीआर की सीमा से सटे यूपी, हरियाणा के कई जिले एनसीआर का हिस्सा बन चुके हैं। बढ़ती आबादी को आशियाने और तमाम अन्य उत्तम सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए ही खेती वाली जमीन का अधिग्रहण धडल्ले से किया गया। असल में लाखों करोड़ों कमाने वाली जमात दिल्ली की भागदौड़ और भागमभाग भरी जिंदगी से उबकर दिल्ली के आस-पास के इलाकों में रिहाइश  के ठिकाने   में लगी। नोटों से भरी जेब,ऊंचे सपनो और पावर से लबरेज ब्लैकबेरी जमात ने जब भी दिल्ली से थोड़ा बाहर देखा किसी गरीब किसान को अपनी जमीन से हाथ धोना पड़ा, शाहबेरी और तमाम दूसरे गांव इस जमात के ठिकाने बनने लगे और बेचारे किसान अपने हक के लिए लाठी और गोली खाते रहे।

उदारवाद ने देश में एक नयी जमात को जन्म दिया है। इस नव धनाढय जमात की महत्वकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति के वास्ते हर शहर में खेती योग्य जमीन की बलि दी जा रही है। संपूर्ण एनसीआर क्षेत्र में उद्योगपति, मल्टीनेशनल कंपनियों के एक्जिक्यूटिव और आफिस, तथाकथित नेता और बड़े ओहदे पर आसीन और सेवानिवृत्त महानुभावों का आधिपात्य और साम्राज्य है। भोले-भाले और अनपढ़ किसानों को मुआवजे और नेतागिरी के फेर में  उलझाकर चालाक और भ्रष्ट नेता खेती वाली जमीन को मोटी कमीशन के खातिर हड़प रहे हैं।