Jan 31, 2016

कैंपस हैं या धर्म के अखाड़े


विश्वविद्यालयों  में जाति और धर्म को और मजबूत करने से किसका फायदा हो रहा है। हैदराबाद अकेला नहीं जहां एक छात्र की आत्महत्या के बाद विवाद चरम पर है, बल्कि डीयू, जेएनयू, बीएचयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में भी ऐसे विवाद लगातार सामने आए हैं।   

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने विश्वविद्यालयों के बारे में कहा था, ‘अगर विश्वविद्यालय ठीक रहेंगे तो देश भी ठीक रहेगा।’ सवाल है कि क्या उच्च शिक्षा के हमारे गढ़ों में देश को ठीक बनाए रखने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। या फिर राजनीतिक वर्चस्व के जरिए हमारी पीढि़यां धार्मिक और जातिवादी हस्तक्षेप के चक्रव्यूह में फंसती जा रही हैं। 

उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजी और मानवाधिकारवादी एसआर दारापुरी कहते हैं, ‘कई राज्यों में सत्ता बदलते के साथ एसपी और थानेदार बदल जाते हैं, इसलिए वह जनता की जिम्मेदारी को समझते ही नहीं। मुझे कुछ वर्षों से लगने लगा है कि सरकारें विष्वविद्यालयों को थाना और वीसी को एसपी समझने लगी हैं। अगर इसे नहीं रोका गया तो हमारी देष की मेधा राजनीतिज्ञों की फुटबाल बन जाएगी।’ 

सवाल है कि आखिर वह कौन सी लकीर होती है जिसके बाद लगने लगता है कि एक कैंपस हिंदूवादी, मुस्लिमपंथी, वामपंथी या कांग्रेसी होने लगा है और वैचारिक वैविध्यता का इंद्रधनुष किसी एक रंग का होता जा रहा है। नैनीताल विष्वविद्यालय के पूर्व षिक्षक और पद्म श्री शेखर पाठक मानते हैं, ‘एक  कैंपस में सभी विचारधाराओं के लोग होते हैं और छात्र वहां एक नया मुनश्य बनता है। लेकिन जब सीधा राजनीतिक हस्तक्षेप होने लगता है, शिक्षक से लेकर नीतियों तक में सरकार दखल देने लगती है तब वह लकीर गाढ़ी हो जाती है।’
   
गुजरात विश्वविद्यालय - आतंक का आरोपी मुख्य अतिथि 
18 जनवरी को हेमचंद्रआचार्य नाॅर्थ गुजरात यूनिवर्सिटी ने अपने कनवोकेशन में राष्ट्रीय  स्वंय सेवक संघ ‘आरएसएस’ के वरिश्ठ पदाधिकारी और 2007 अजमेर धमाकों के मुख्य आरोपी इंद्रेश कुमार को मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया। गुजरात के राज्यपाल ओपी कोहली की उपस्थिति में विश्वविद्यालय ने इंद्रेश के हाथों मेधावी छात्रों को स्वर्ण पदक दिलवाए। 

नहीं रही कभी गंगा जमुनी-संस्कृति - लखनउ विश्वविद्यालय 
लखनउ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुधीर पंवार हाल में हुई मेरठ के नए वीसी एनके तनेजा के बारे में बताते हैं कि उनके चयन की प्राथमिकता यह थी कि वह संघ समर्थक हैं। इसी तरह लखनउ विश्वविद्यालय में ‘भारतीय इतिहास शोध परिषद’ की ओर से एक कार्यक्रम हुआ। कार्यक्रम में प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक भी उपस्थित थे। उनकी उपस्थिति में इतिहास के पूर्व प्रोफेसर एसएन मिश्र ने कहा कि भारत में कभी गंगा-जमुनी संस्कृति नहीं रही। गंगा हिंदुओं और यमुना मुसलमानों की नदी रही है। भारतीय इतिहास शोध परिशद इतिहास मामलों में संघ की सर्वोच्च संस्था है। पंवार के अनुसार, ‘एकध्रुविय संस्कृति को हावी करने में जुटा संघ सरकार बदलने के बाद से षिक्षा को मुख्य हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की भरपूर कोशिश में जुटा है। उनको पता है कि किसी चुनाव से भी ज्यादा असर षिक्षा परिसरों का होगा।’ 

संघी होना ही सबसे बड़ी योग्यता - बीएचयू 
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पिछले सत्र की शुरुआत में ही संघ के सहकार्यवाहक गोपाल जी को अंबेडकर पर बोलने के लिए बुलाया गया। यहां एक दूसरे कार्यक्रम में संघ के इंद्रेष कुमार का भी लेक्चर हुआ। बीएचयू में इतिहास की प्रोफेसर वृंदा परांजपे कहती हैं, ‘गोपाली जी के लेक्चर के बाद कैंपस के अंदर आरएसएस समर्थक संगठनों, षिक्षकों और छात्रों की जिस तरह की गतिविधियां बढ़ीं, उससे वैचारिक असहिश्णुता का माहौल बड़ा स्पश्ट दिख जाता है।’ इतिहास विभाग में प्रोफेसरों के होने के बावजूद विश्वविद्यालय नियमों को ताक पर रख तीसरी बार अरूणा सिन्हा को सिर्फ इसलिए विभागाध्यक्ष बनाया गया है कि वह संघ पदाधिकारियों की करीबी हैं। इसी कैंपस के आइआइटी प्रोफेसर आरके मंडल बताते हैं, ‘मोदी सरकार से पहले संघ की केवल एक षाखा कैंपस में लगती थी पर अब चार से पांच लगने लगीं हैं। सवाल है कि क्या इन शा खाओं के जरिए मोदी ‘मेक इन इंडिया’ करना चाहते हैं। 
हाल ही में मैग्ससे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय की बीएचयू आइआइटी से  बर्खास्तगी का मुद्दा विवादों में रहा था। संदीप को भी विश्वविद्यालय ने नक्सल समर्थक कहकर निकाल दिया। इस बारे में संदीप कहते हैं, ‘संघी हमेषा से आरक्षण का इस आधार पर विरोध करते रहे हैं कि इससे मेधा खत्म होगी। मगर इन दिनों वे काबिलियत को जेब में रख विचारधारा के आधार पर कैंपसों को पाटा जा रहा है।’ 

क्यों रहे कांग्रेस काल का विश्वविद्यालय - जयपुर 
जयपुर में हरिदेव जोषी पत्रकारिता विश्वविद्यालय को बंद किए जाने की घोषणा राज्य सरकार ने कर दी है। सरकार का कहना है कि यह कांग्रेस के समय में खोला गया था और अब इसकी कोई जरूरत नहीं है। हरिदेव पत्रकारिता विश्वविद्यालयसे जुड़े प्रोफेसर नारायण बारेठ के मुताबिक, ‘किसी एक धर्म का नहीं बल्कि समाज में सभी धर्मों का असर बढ़ा है और दूसरे विचारों को बर्दाष्त नहीं किए जाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, डिस्कोर्स पर भरोसा कम हो रहा है।’  
दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार और संघ के करीबी माने जाने वाले रामबहादुर राय नई सरकार बनने के बाद कैंपसों में बढ़ते धार्मिक असर को पूर्वाग्रही मानते हैं। वे कहते हैं, हमारे समाज में धर्म की मान्यता है और षिक्षा धर्म से विमुख नहीं हो सकती। विरोध करने वालों को महात्मा गांधी, डाॅक्टर राजेंद्र प्रसाद और शिक्षाशास़्त्री राधाकृष्णन को पढ़ना चाहिए। बड़ी बात यह है कि कैंपसों में संघ या हिंदू धर्म के बढ़ते असर के सवाल को धार्मिक नहीं, राजनीतिक लोग उठा रहे हैं। विरोध कोई नई बात नहीं है। 1951 में संघ विचारक गुरु गोलवलकर जब इलाहा बाद विश्वविद्यालय में बोलने गए थे तब भी समाजवादियों, कम्यूनिस्टों और कांग्रेसियों ने तगड़ा विरोध किया था। 

जो विरोधी है वह नक्सली है - इलाहाबाद विश्वविद्यालय
इलाहाबाद विष्वविद्यालय में एबीवीपी ने गोरखपुर के भाजपा सांसद और हिंदू चरमपंथी नेता आदित्यनाथ को 20 नवंबर को बुलाए जाने का कार्यक्रम रखा। परंतु विश्वविद्यालय की छात्र संघ अध्यक्ष रिचा ने यह कहते हुए विरोध किया कि वह एक सांप्रदायिक और विवादित नेता को कैंपस में नहीं आने देंगी। आदित्यनाथ को छात्र संघ भवन का उद्घाटन करना था। 21 जनवरी को इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ द्वारा आमंत्रित वरष्ठि पत्रकार और संपादक सिद्धार्थ वर्द्धराजन का लेक्चर एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने कैंपस में यह कहकर नहीं होने दिया कि वह देशद्रोही और नक्सल समर्थक हैं। 

मंदिर पर बहस के लिए डीयू 
10 जनवरी को दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘श्री राम जन्मभूमि: उभरता स्वरूप’ को लेकर कार्यक्रम हुआ। इस कार्यक्रम का विरोध करने वाले संगठनों में शामिल क्रांतिकारी युवा संगठन हरीश गौतम कहते हैं, ‘विरोध भाजपा से नहीं उनके मुद्दों और नेताओं से हैं। सुब्रमन्यम स्वामी, योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं को एक कैंपस कैसे सह सकता है जो दंगा-फसाद के अलावा कुछ जानते ही नहीं। इनका छात्रों के सरोकार और समस्याओं से क्या लेना-देना।’ 

सवाल वीसी के चयन का - जेएनयू 
जेएनयू में 30 दिसंबर को विश्वविद्यालय की साझेदारी में आयोजित वेदांत अंतरराश्ट्रीय कांग्रेस में योगगुरु रामदेव को मुख्य वक्ता बनना था, लेकिन वामपंथी छात्रों के विरोध के कारण रामदेव ने जाने की मनाही कर दी। दिल्ली आइआइटी प्रोफेसर एम जगदीष कुमार का 21 जनवरी को जेएनयू के नए वीसी बनाए जाने की  फैसला हुआ। माना जा रहा है कि उनके चयन में संघ से नजदीकी बड़ी वजह है। पिछले दिनों वे संघ की साझेदारी में आयोजित एक कार्यक्रम में षामिल हुए थे। 

राम के जन्मदिन की खोज - आइआइएमसी 
षिक्षक और मीडिया विषेशज्ञ दिलीप मंडल शिक्षा परिसरों के इस बदलाव को बढ़ते धार्मिक असर के रूप में नहीं लेते। उनकी राय में, ‘जेएनयू कैंपस इंडियन इंस्टिट्यूट आॅफ मास कम्यूनिकेषन में 2011 में राम की जन्मतिथि को लेकर सेमीनार हो चुका है, इसलिए सवाल बढ़ते धार्मिक असर का नहीं है। बल्कि विरोध बढ़ गया है, क्योंकि कैंपसों का कंपोजिशन बदल गया है। उच्च षिक्षा संस्थानों में 2008 से आरक्षण लागू होने के बाद छात्रों की आबादी बदल गई, लेकिन शिक्षकों में वह परिवर्तन अभी नहीं आ पाया है। कैंपसों में बढ़ती टकराहट का यह सबसे बड़ा कारण है।’ 

साथ नहीं तो बर्खास्त - हैदराबाद विश्वविद्यालय
हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या का कारण भी एक कैंपस के धर्मांध होते चले जाना ही है। एबीवीपी कार्यकर्ताओं का अंबेडकर स्टूडेंट एसोसिशन ‘एएसए’ से जुड़े वेमुला और उनके साथियों से तब विवाद षुरू हुआ जब 1993 मंुबई हमलों के आरोपी याकूब मेनन को दी गयी फांसी के खिलाफ एएसए के प्रदर्षन कर रहा था। एएसए प्रदर्षन से पहले मुजफ्फरनगर दंगों पर बनी एक डाक्यूमेंट्री दिखाना चाहा, लेकिन एबीवीपी ने प्रदर्षन नहीं होने दिया। अलबत्ता एबीवीपी की षिकायत पर केंद्रीय राज्य मंत्री बंडारू दत्तात्रये ने केंद्रीय संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को पत्र लिखा कि पिछले कुछ महीनों से कैंपस में राश्ट्रविरोधी, चरमपंथी, धार्मिक भावनएं भड़काने वाली गतिविधियां बढ़ गई हैं। 

रोहित ने सोश ल मीडिया पोस्टों में अवैज्ञानिक मान्यताओं का मजाक उड़ाया है। वह ड्रोन को लेकर हिंदू देवता हनुमान पर कटाक्ष करते हैं। हैदराबाद विष्वविद्यालय के वीसी द्वारा बस की पूजा करने पर लिखते हैं, ‘ऐसा लग रहा है कि रास्ते में बस के खराब होने पर गणपति का ष्लोक पढ़ने से बस अपने आप चल पड़ेगी।’ 

पूर्व आइपीएस अधिकारी और लेखक के वीएन राय कहते हैं, ‘अवैज्ञानिक मान्यताओं को लेकर कोई भी सभ्य और आधुनिक समाज मजाक उड़ा सकता है। पर इसका परिणाम किसी की आत्महत्या के रूप में आएगा, इसे कतई बर्दाष्त नहीं किया जा सकता। बर्दाष्त नहीं कर पाने की इसी स्थिति को देखते हुए बीजेपी के पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान स्पश्ट करते हैं, ‘रोहित के साथ जो हुआ है, उसको गंभीरता से लेना होगा अन्यथा हमें व्यापक विरोध और विद्रोह के लिए तैयार रहना चाहिए।’ 

हटा रहे हैं उर्दू के शब्द 
प्रसिद्ध शिक्षाविद अनिल सदगोपाल शिक्षाविद  दीनानाथ बत्रा को पाठ्य पुस्तकों में बदलाव का जिम्मा दिए जाने को मेधा की राश्ट्रीय क्षति मानते हैं। वे बताते हैं, ‘प्राथमिक षिक्षा वह नींव है जहां सर्वे भवन्तु सुखीनः सर्वे संतु निरामया का संस्कार दिया जाता है। पर बत्रा क्या कर रहे हैं? उन्होंने केंद्रीय शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी को एनसीआरटी की पाठ्य पुस्तकों से छांटकर उर्दू के शब्द हटाने की एक सूची भेजी है। यह समाज और भाशा दोनों का दरिद्र करना है।’ बत्रा इससे पहले गुजरात में पाठ्य पुस्तकों में बदलाव का जिम्मा निभा चुके हैं और अब हरियाणा सरकार में वे औपचारिक षिक्षा सलाहकार बनाए जा चुके हैं। 

संघ का असर बढ़ने की बातें तथ्यहीन - उपेंद्र कुशवाहा, केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री 
हैदराबाद विश्वविद्यालय का मसला दूसरा है, वहां कार्रवाई हो रही है। इस तरह के मामले राज्य सरकारें देखती हैं। जहां तक कैंपसों में हिंदूवादी और संघी असर बढ़ने जैसी बातें हैं, मैं इसको तथ्यहीन मानता हूं। मुझे नहीं लगता कि  इलाहाबाद, बीएचू या डीयू-जेएनयू में विवादों के एक कारण हैं। अलग-अलग जगहों के मुद्दे अलग-अलग हैं हैं। सभी मुद्दों को एक में समेट लेना ठीक नहीं है। 

ऐसे नहीं वैसे बनेगी स्मार्ट सिटी

संजय जोठे 

स्मार्ट सिटी कैसे बनाई जाए इस विषय पर हफ्ते भर तक गंभीर मन्त्रणा के लिए कई देशों के प्रतिनिधि अमेरिका में इकट्ठे हुए। भारत की तरफ से एक "जमीन से जुड़े" खांटी  देशभक्त और संस्कृतिरक्षक मन्त्री जी भारतीय दल का नेतृत्व कर रहे थे।

भारतीय प्रतिनिधियों को छोड़कर बाकी सब लोग बहुत परेशान थे। वे सब बार—बार, मोटी—मोटी किताबें और रिपोर्टें उलटते पलटते, कभी लैपटॉप पर कुछ एनालिसिस करते कभी नक़्शे बनाते कभी मॉडल्स बनाकर देखते। कभी ब्रेनस्टार्मिंग होती कभी प्रेजेन्टेशन, इस सबके बीच वे अपना खाना पीना तक भूल गए।

लेकिन भारतीय प्रतिनिधि दिन भर मजे से सुरति रगड़कर खाते, वीडियो गेम खेलते और न्यूयार्क में शॉपिंग करते डिस्को में जाकर नाचते और डटकर दावत उड़ाते।

बाकी लोग ये सब देख रहे थे वे समझे कि शायद भारतीयों ने अपनी तैयारी बहुत पहले ही पूरी कर ली है इसीलिये वे टेंशन फ्री हैं।

एक अमेरिकन ने कुछ झेंपते शरमाते हुए  भारतीय मन्त्रीजी से पूछा "भाई आप इतने मजे में हैं शायद आपका सब कुछ तैयार हो गया है।"

मन्त्रीजी बोले "हमारी तैयारी तो हजारों साल पहले ही हो चुकी है महाराज ... आप आज स्मार्ट सिटी की बात कर रहे हो हम तो सदियों से एक स्मार्ट कल्चर बनाकर बैठे हैं.... इस स्मार्ट कल्चर को थोड़ा सा इधर उधर घुमाते ही हम जिसे चाहें रातोंरात स्मार्ट या इडियट बना सकते हैं"

अमेरिकन को चक्कर आ गए, वो संभलते हुए मन्त्रीजी से बोला "ये स्मार्ट कल्चर क्या चीज है? हम तो ये पहली बार सुन रहे हैं"

मन्त्रीजी: स्मार्ट कल्चर हजार बिमारियों की एक दवा है। आप हर बीमारी का अलग अलग इलाज करते हो आप एलोपैथी वाले हो आपके पास आँख का डाक्टर अलग और पेट का डाक्टर अलग होता है ... हम आयुर्वेदिक इश्टाइल में काम करते हैं एक ही काढ़े से सर के बाल से लेकर पाँव की खाल तक का इलाज कर देते हैं, आप सौ सुनार की करते हो हम एक लोहार की करते हैं"

अमेरिकन: मैं कुछ समझ नहीं सर थोडा विस्तार से बताइये न

मन्त्रीजी: देखो भाई ... ये सनातन फार्मूला है थोड़ी कही ज्यादा समझना ... समझो कि तुम्हारी पब्लिक हल्ला मचाती है कि उसे स्मार्ट सिटी चाहिए बुलेट ट्रेन या मेट्रो ट्रेन चाहिए, या जंगल मैदान जाने की बजाय पक्के टॉयलेट चाहिए, जुग्गी झोपडी की बजाय पक्के मकान चाहिए या कहो कि उच्च शिक्षा के लिए कालेज यूनिवर्सिटी या आधुनिक हस्पताल मागती है तब आप क्या करेंगे?

अमेरिकन: इतनी सब मांगें पूरी करने के लिए हम एक कमीशन बैठाएंगे, वो रिसर्च करेगा प्लान बनयेगा, एस्टिमेट बनाएगा, अलग अलग डिपार्टमेंट्स से सुझाव मांगेगा कि क्या काम कितने समय में कितने मिलियन डॉलर्स में होगा ... फिर ...

मन्त्रीजी (टोकते हुए): उ सब छोड़िये महाराज ये बताइये पब्लिक को क्या देंगे??

अमेरिकन: देखिये हम पब्लिक को सबसे पहले पक्की और रेग्युलेटेड कालोनियां बनाकर देंगे साफ़ पानी का इंतेजाम करंगे चौड़ी सड़कें बनाकर पब्लिक ट्रांसपोर्ट देंगे बड़े हस्पताल और स्कूल कालेज बनाकर देंगे। नगर निगमों को ट्रेनिंग देकर वेस्ट मैनेजमेंट वाटर रिसाइकलिंग सीवर ट्रीटमेंट सिखाएंगे। रेलवे ट्रैक सुधारकर बुलेट ट्रेन दौड़ाएंगे, शहरों में ऊँचे पिलर और सुरंगें बनाकर मेट्रो ट्रेन दौड़ाएंगे ...

मन्त्रीजी: अरे बस करो महाराज ... इस सब में इतनी बुद्धि वक्त और पैसा ठोंक दोगे तो अगला चुनाव कैसे लड़ोगे? ये सब सच में ही दे दिया तो अगले चुनावी घोषणापत्र में क्या सबको मंगल की सैर कराने का वादा करोगे?

अमेरिकन एकदम आसमान से जमीन पर गिरता है पूछता है "लेकिन ये सब न दिया तो पब्लिक आंदोलन करेगी शासन प्रशासन को उखाड़ फेंकेगी, चलिए आप ही बताइये आप कैसे डील करंगे"

मन्त्रीजी सुरति दबाये मन्द मन्द मुस्काते हुये कहते हैं "भैयाजी यहीं तो स्मार्ट कल्चर काम आता है, कुछौ बनाने की जरूरत नहीं जनता जो मांगती है उसके बारे में कहानियाँ सुनाइए और ये बताइये कि वो जो मांग रही है उससे ज्यादा उनके पास पहले से ही धरा हुआ है"

अमेरिकन: कुछ समझे नहीं, तनिक विस्तार से बताइये

मन्त्रीजी: अरे भाई, तुम भारतवर्ष के इतिहास में नहीं झांके हो कभी। हम एक ही विद्या जानते हैं, पब्लिक मैनेजमेंट, बस उसी से सब ठीक हो जाता है... समझो ...हमारी पब्लिक के हमने दो हिस्से किये हैं। पांच प्रतिशत वे लोग जो कुछ भी करके सुविधा मांगेंगे, वे कुछ बड़े शहरों में रहते हैं। बाकी पंचानबे पर्सेंट गरीब गुरबे छटे शहरों या गांव में रहते हैं। अब पंचानबे पर्सेंट गरीब पब्लिक को मैनेज करना ही स्मार्ट कल्चर का असली हुनर है।

सुनो जैसे कि ये गरीब पब्लिक बड़े अस्पताल मांगती है तो हम आयुर्वेद और योग पकड़ा देते है, इधर से खींचो उधर से छोडो और ताली बजाकर कीर्तन करो, वे आधुनिक ट्रेन मेट्रो और हवाई जहाज के लिए बिलबिलाते हैं तो हम पुष्पक विमान दिखाकर पूर्वजों के जैकारे शुरू कर देते हैं कि ये लो ये सब तो हमारे पास हजारों साल है ही, इसके आगे हवाई जहाज क्या चीज है, पब्लिक पक्के शहरों में टॉयलेट मांगती है तो कहते हैं कि भारत की आत्मा गाँव में बसती है, अब गाँव मतलब जंगल मैदान ... समझे कि नहीं?...

अगर कोई बड़े स्कूल कालेज या अंग्रेजी शिक्षा मांगे तो हम गुरुकुल परम्परा वैदिक विज्ञान अध्यात्म और संस्कृत का ढोल पीटने लगते हैं लोग अच्छे कपड़े मांगें तो थोड़ी देर केलिए हम खुद ही धोती दुशाला ओढ़कर बैढ़ जाते हैं ...  पब्लिक अच्छा खाना या पानी मांगती है तो हम गरीब और मरियल साधू खड़े कर देते हैं कि इन्हें देखो और त्याग करना सीखो स्वर्ग जाना है तो भुक्खड़ों की तरह खाने की बात न करो त्याग और तप की बात करो।

फिर आखिर में ऐसी कथाएँ रचते हैं जिनमे गरीब दरिद्र नारायण हों, अछूत हरिजन हों, विकलांग दिव्यांग हों, किसान अन्नदाता हों, स्त्रियां देवी हों... दो तीन हजार कथाकार समाज में छोड़कर ये कहानियाँ पेलते रहिये जनता खुश होकर सन्तोष में जीने लगेगी, बाकी सब भूल जायेगी। अब सन्तोषी सदा सुखी ... समझे कि नहीं?

अमेरिकन: अरे वाह ये तो चमत्कार है, हम तो इतना मगजमारी करते हैं और फिर भी पब्लिक एक के बाद एक मांग करती ही जाती है, रूकती ही नहीं ... अच्छा बस एक बात और बता दीजिये आखिर में, इस "स्मार्ट कल्चर मैनेजमेंट" से जो पैसा बचता है उसका क्या करते है?

मन्त्रीजी (सुरती थूकते हुए) : अरे, ये भी कोई पूछने की बात है, उसी बचत से हम उन शहरी पांच पर्सेंट लोगों के लिए दो चार विदेशी विमान, मेट्रो, बुलेट इत्यादि ख़रीदते हैं बाकी गरीबों को देशभक्ति पेलने के लिये इसी बचत से फाइटर प्लेन, पनडुब्बी जैसी चीजें खरीदते हैं, यही बचत फिर आखिर में राष्ट्रनिर्माण के सबसे बड़े अनुष्ठान में भी काम आती है।

अमेरिकन: राष्ट्रनिर्माण का सबसे बड़ा अनुष्ठान मतलब??

मन्त्रीजी (आँख मारते हुए) : मतलब अगला चुनाव, और क्या !!!

अगले दिन से गैर भारतीयों के सारे प्रेजेन्टेशन केंसल करके सिर्फ भारतीय ब्यूरोक्रेट्स और नेताओं के "प्रवचन" करवाये गए .... भारतीयों ने पूरी कांफेरेंस में भौकाल मचा दिया।

इस तरह आख़िरकार दुनिया ने विश्वगुरु के स्मार्ट कल्चर का लोहा मान लिया।

Jan 29, 2016

रोहित की जि़ंदगीः परतदार दर्द की उलझी हुई दास्ताँ

सुदीप्तो मंडल
हिंदुस्तान टाइम्स, गुंटूर/हैदराबाद. 27 जनवरी, 2016
अनुवादः रश्मि शर्मा


रोहित वेमुला की कहानी उसके उसके जन्म से 18 वर्ष पूर्व, सन् 1971 की गर्मियों में गुन्टूर शहर से प्रारंभ होती है। यही वह वर्ष था जब रोहित की दत्तक नानी अंजनी देवी ने उन घटनाक्रमों को प्रारंभ किया, जिन्हें बाद में इस शोधार्थी ने अपने आत्महत्या नोट में गूढ़ रूप से ‘‘मेरे जीवन की घातक दुर्घटना कहा है।’’

अंजनी यानी रोहित की नानी ने हिन्दुस्तान टाइम्स को बताया, ‘‘यह 1971 की एक दोपहर के भोजन का समय था। बहुत तेज गर्मी थी। प्रशांत नगर (गुंटूर) में मेरे घर के बाहर कुछ बच्चे नीम के पेड़ के नीचे खेल रहे थे। मुझे उनमें एक बेहद सुन्दर नन्ही बच्ची भी दिखाई दी। वह ठीक से चल भी नहीं पाती थी। शायद वह एक साल की उम्र से कुछ ही बड़ी होगी।’’ वह छोटी-सी लड़की रोहित की मां राधिका थी।

अपनी कहानी को बढि़या अंग्रेजी में बयान करते हुए वह स्थानीय तेलुगू मीडिया पर नाराज होती हैं, जिसने यह धारणा बनाई है कि शायद रोहित दलित नहीं था। वे कहती हैं, ‘‘वह बच्ची एक प्रवासी मजदूर दम्पति की बेटी थी, जो हमारे घर के बाहर रेल्वे लाइनों पर काम करते थे। मैंने हाल ही में अपनी नवजात बेटी को खोया था, उसे देखकर मुझे अपनी बेटी याद आ गई थी।’’

यह आष्चर्यजनक है कि अंजनी के पास बैठी राधिका, जो रोहित की माँ बनी, अंग्रेजी का एक भी शब्द नहीं बोलती है। वास्तव में तो अंजनी की अंग्रेजी रोहित की अंग्रेजी से भी बढि़या है।  अंजनी बताती हैं कि उन्होंने इस मजदूर दम्पति से उनकी बेटी मांगी और उन्होंने ‘खुषी-खुषी’ हाँ भी कर दी। वह कहती हैं कि हालांकि इस हस्तान्तरण का कोई रिकाॅर्ड नहीं है, लेकिन तब से नन्ही राधिका उनके परिवार की बेटी बन गई।

राधिका और मनीकुमार (यानी रोहित के पिता) के अन्र्तजातीय विवाह को स्पष्ट करते हुए अंजनी कहती हैं, ‘‘जाति? जाति क्या होती है? मैं वड्डेरा (ओ0बी0सी0) हूँ। राधिका के माता-पिता माला (अनुसूचित जाति) थे। मैंने कभी उसकी जाति के बारे में परवाह नहीं की, वह मेरी अपनी बेटी के समान थी। मैंने उसकी शादी अपनी जाति के व्यक्ति से की‘‘।

वे कहती हैं, ‘‘मैंने मनी के दादा से बात की थी, जो वड्डेरा समुदाय के एक सम्माननीय व्यक्ति थे। हम इस बात पर सहमत हुए कि हम राधिका की जाति को गुप्त रखेंगे और मनी को इसके बारे में कुछ नहीं बताएंगे।’’
राधिका बताती हैं, ‘‘विवाह के पहले पांच वर्षों में ही उनके तीनों बच्चे पैदा हो गए थे, जिनमें सबसे बड़ी नीलिमा, फिर रोहित और सबसे छोटा राजा था। मनी शुरू से ही उसके साथ हिंसक और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करता था। शराब पीकर कुछ चाँटे लगा देना उसके लिए आम बात थी।’’
विवाह के पांचवे साल में मनी को राधिका का रहस्य पता चल गया था।

अंजनी कहती हैं, ‘‘प्रषान्त नगर में हमारी वड्डेरा काॅलोनी में किसी ने उसे यह बता दिया था कि राधिका एक गोद ली हुई माला लड़की है, तभी से उसने उसे बड़ी बुरी तरह से पीटना शुरू कर दिया था।’’ उनकी बात की पुष्टि करते हुए राधिका कहती हैं, ‘‘मनी हमेषा ही दुव्र्यव्हार करता था, लेकिन मेरी जाति जानने के बाद वह और भी हिंसक हो गया। वह मुझे लगभग हर रोज मारता था और एक अछूत लड़की से धोखे से शादी कर दिए जाने पर अपनी किस्मत को कोसता था।’’

अंजनी देवी का कहना है, ‘‘उन्होंने अपनी बेटी राधिका व नाती-नातिन रोहित, राजा और नीलिमा को मनी कुमार से बचाया।’’ वे कहती हैं, ‘‘सन् 1990 में उन्होंने मनी को छोड़ दिया और मैंने अपने घर में फिर से उनका स्वागत किया।’’

जब हिन्दुस्तान टाइम्स की टीम रोहित के जन्मस्थल गुंटूर जाकर रोहित के सबसे अच्छे दोस्त और बी0एससी0 में उसके क्लासमेट शेख रियाज से मिली तो कुछ और ही सामने आया। राधिका और राजा का कहना है कि रियाज को रोहित के बारे में उनसे भी ज्यादा पता था।
पिछले माह जब राजा की सगाई हुई तो एक बड़े भाई होने के नाते जो रीति-रिवाज रोहित को निभाने थे, वे रियाज ने निभाए। हैदराबाद केन्द्रीय विष्वविद्यालय कैम्पस में चल रही परेषानियों की वजह से रोहित इस समारोह में नहीं आ सका था।

रियाज उसके लिए परिवार के समस्या के समान ही था और कहता है कि उसे अच्छी तरह पता है कि रोहित अपने बचपन में अकेलापन क्यों महसूस करता था, क्यों उसने अपने अंतिम पत्र में लिखा है, ‘‘हो सकता है कि इस दौरान मैंने इस दुनिया को समझने में गलती की। मैं प्यार, दर्द, जीवन, मौत को नहीं समझ पाया।’’
रियाज ने यह तथ्य उजागर किया, ‘‘राधिका आंटी और उनके बच्चे उनकी मां के घर में नौकरों की तरह रहते थे। वे घर का सारा काम करते थे, जबकि बाकी लोग बैठे रहते थे। बचपन से ही राधिका आंटी घर के सारे काम करते रही हैं।’’ यदि 1970 के दषक में बाल श्रमिक कानून लागू होता तो राधिका की तथाकथित माता अंजनी देवी पर यह आरोप लग सकता था कि उन्होंने बच्ची को घरेलू नौकरानी के रूप में इस्तेमाल किया।
जब 1985 में राधिका की शादी मनीकुमार से हुई, तब वह 14 साल की थी। उस समय तक बाल विवाह को अवैध घोषित किए हुए 50 साल से भी अधिक बीत चुके थे। राधिका जब 12-13 साल की थी, तभी उसे यह जानकर बड़ा धक्का लगा था कि वह गोद ली हुई बच्ची है और माला जाति की है। 67 वर्षीय उप्पालापति दानम्मा का कहना है, ‘‘अंजनी की माँ ने, जो उस समय जीवित थीं, राधिका को बहुत बुरी तरह से मारा-पीटा व गालियाँ दी थी। वह मेरे घर के पास रो रही थी। मेरे पूछने पर उसने बताया कि घर का काम न करने पर उसकी नानी ने उसे ‘माला कु...’ कहकर बुलाया और उसे घर में लाने के लिए अंजनी पर भी नाराज हुईं।’’ दानम्मा उस रिहायषी इलाक़े में रहने वाले सबसे पुराने बाषिंदे हैं और उन्होंने राहित की माँ राधिका को बचपन से देखा है। वो पूर्व पार्षद भी हैं और दलित नेता भी। उनका नया-नया रंगरोगन हुआ घर माला और वड्डेरा समुदायों की बसाहटों की सीमा रेखा पर है।

प्रषांत नगर की वड्डेरा काॅलोनी के उनके कई पड़ोसियों के अनुसार सामान्य धारणा तो यही थी कि राधिका एक नौकरानी है। काॅलोनी के एक वड्डेरा रहवासी ने अंजनी पर नाराज होते हुए हिन्दुस्तान टाइम्स को बताया कि दलित राधिका से धोखाधड़ीपूर्वक मनीकुमार की शादी करके अंजनी ने समूचे वड्डेरा समुदाय को धोखा दिया है।

रियाज का कहना है, ‘‘रोहित को अपनी नानी (अंजनी) के घर जाने से नफरत थी क्योंकि जब भी वे वहां जाते, उसकी माँ को नौकरानी की तरह काम करना पड़ता था। राधिका की अनुपस्थिति में उसके बच्चों को घर का काम-काज करना पड़ता था।’’ रोहित के परिवार को घरेलू कामकाज के लिए बुलाने की यह परम्परा तब भी जारी रही जब वे एक कि0मी0 दूर अपने स्वतंत्र एक कमरे के घर में रहने चले गए।

गुंटूर में बी0एससी0 की डिग्री लेने के दौरान रोहित कभी-कभार ही अपने घर गया। वह इससे नफरत करता था। वह रियाज व दो अन्य लड़कों के साथ एक छोटे से बैचलर कमरे में रहता था। वह अपना खर्च निर्माण श्रमिक और केटरिंग ब्वाय का काम करके निकालता था। वह पर्चे बांटता था और प्रदर्षनियों में काम करता था।

अंजनी की चार जैविक संताने हैं। राधिका के आने के बाद उनकी दो बेटियां हुईं। उनका एक बेटा इंजिनियर है और दूसरा सिविल ठेकेदार है। एक बेटी ने बी.एससी.-बी.एड. किया है और दूसरी ने बी.काॅम.-बी.एड. किया है।
सिविल काॅन्ट्रेक्टर बेटा शहर के बढ़ते रियल एस्टेट कारोबार में एक जाना-पहचाना नाम है। उसके घनिष्ठ संबंध तेलगू देषम् पार्टी के सासंद एन. हरकिृष्णा से हैं, जो तेलुगू सिनेमा के प्रख्यात अभिनेता व आंध्रप्रदेष के भूतपूर्व मुख्यमंत्री एन. टी. रामाराव के परिवार से संबंध रखते हैं।

अंजनी की एक बेटी गुंटूर के एक सफल क्रिमिनल वकील से ब्याही है। अंजनी देवी तो अपनी सगी बेटियों से भी अधिक षिक्षित हैं। उन्होंने एम.ए.-एम.एड. किया है और गुंटूर शहर में नगर पालिका द्वारा संचालित हाईस्कूल की हेडमास्टर रही हैं। उनके पति शासन में चीफ इंजीनियर रहे हैं। उनका मकान प्रषांत नगर के सबसे पुराने व बड़े मकानों में से एक है।

चूंकि वे किषोर उम्र की लड़कियों के विद्यालय में पढ़ाती थीं, अतः 14 वर्ष की उम्र में राधिका को ब्याहते समय अंजनी को अच्छी तरह पता होगा कि विवाह की कानूनी उम्र क्या होती है। वे एक षिक्षाविद् थीं लेकिन उन्होंने उस लड़की को षिक्षा से वंचित किया जिसे वे ‘‘अपनी खुद की बेटी’’ कहती थीं। हालाँकि अपनी सगी संतानों के लिए उन्होंने सर्वश्रेष्ठ बचा कर रखा।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि क्यों वे खालिस अंग्रेजी बोल पाती हैं और उनकी बेटी और नाती नहीं बोल पाते। अंजनी देवी इतनी दयालु अवष्य थीं कि उन्होंने एक दलित नौकर लड़की को अपने घर में रहने दिया। उन्होंने उसे खुद को ‘‘माँ’’ भी कहने दिया, लेकिन वे एक अच्छी व दयालू मालकिन ज्यादा प्रतीत होती हैं, एक देखभाल करने वाली माँ नहीं।

हैदराबाद केन्द्रीय विष्वविद्यालय में एम.एससी. व पीएच.डी. करते समय रोहित अपने निजी जीवन को छुपा कर रखता था। यहाँ तक कि उसके घनिष्ठतम मित्र भी उसके संपूर्ण पारिवारिक इतिहास से परिचित नहीं थे। हर व्यक्ति थोड़ा-थोड़ा कुछ जानता था। रोहित के खास दोस्त और ए.एस.ए. के साथी रामजी को पता था कि जीवनयापन के लिए रोहित ने छोटे-मोटे काम किए हैं, लेकिन उसे भी यह पता नहीं था कि उसकी नानी एक समृद्ध महिला हैं। हैदराबाद केन्द्रीय विष्वविद्यालय किसी भी विद्यार्थी को, जिसमें से कई रोहित के खास दोस्त थे, उसकी जिंदगी के सबसे अंधेरे उन अध्यायों के बारे में कुछ नहीं पता था, जिन्हें उसने अपने अंतिम पत्र में भी उजागर नहीं किया। अंजनी से दुबारा बात करने से पूर्व हिन्दुस्तान टाइम्स ने यह कहानी प्रकाषित करने के लिए राजा वेमुला की अनुमति चाही थी। उनकी पहली प्रतिक्रिया ‘‘षाॅक’’ की थी और वो जानना चाहते थे कि हमने यह कैसे पता लगाया। जब उन्हें उन लोगों के नाम पता चले जिनसे हिन्दुस्तान टाइम्स ने गंुटूर में बात की थी तो वे टूट गए और बोले, ‘‘हाँ, यही हमारा सच है। यही वह सच है जिसे मेरी माँ और मैं सबसे अधिक छुपाना चाहते हैं। हमें यह बताने में शर्म आती है कि जिस महिला को हम ग्रान्डमा (अंग्र्रेजी में) कहते हैं, वह वास्तव में हमारी मालकिन है।’’

राजा ने अपनी खुद की जिंदगी से भी कुछ घटनाएं बताईं, जिनसे यह जाहिर होता है कि रोहित किन परिस्थितियों से गुजरा होगा। वे कहते हैं कि आंध्र विष्वविद्यालय की एम.एससी. प्रवेष परीक्षा में उनकी 11वी रैंक आई थी और वे इसकी पढ़ाई करने लगे थे। दो महीने बाद उन्हें पाॅण्डिचेरी विष्वविद्यालय का परिणाम भी प्राप्त हुआ, जिसे बेहतर जानकर वे वहाँ जाना चाहते थे।

राजा कहते हैं, ‘‘स्थानांतरण प्रमाण पत्र के लिए आंध्र विष्वविद्यालय ने मुझसे 6000 रुपये मांगे थे। मेरे पास कोई पैसा नहीं था और मेरी नानी के परिवार ने कोई मदद नहीं की। कोई चारा न होने पर मैंने आंध्र विष्वविद्यालय के अपने दोस्तों से मदद मांगी। किसी ने मुझे 5 रूपये दिए किसी ने 10 रूपये दिए, यह सन् 2011 की बात है। मेरी जिंदगी में पहली बार मैंने अपने आप को एक नाकारा भिखारी की तरह महसूस किया।’’
पाॅण्डिचेरी जाने के बाद राजा ने पहली करीब 20 रातें अनाथ एड्स मरीजों के आश्रम में रातें बिताई। वे कहते हैं, ‘‘कैम्पस के बाहर एक स्वतंत्र मकान में रहने वाले मेरे एक सीनियर ने तब मुझे घरेलू नौकर के रूप में अपने पास रखा। मैं उनके घर का काम करता था और वे मुझे अपने घर में सोने देते थे।’’

राजा उस समय के बारे में बताते हैं जब उन्होंने पाॅण्डिचेरी में 5 दिन बिना खाने के बिताए थे। वे कहते हैं, ‘‘काॅलेज में मेरे सभी सहपाठी खाते-पीते घरों के थे। वे कैम्पस के बाहर से पीत्जा और बर्गर लेकर आते थे और कोई भी मुझसे यह नहीं पूछता था कि मैं कमजोर क्यों दिख रहा हूँ। वहाँ सभी जानते थे कि मैं भूखा मर रहा हूँ।’’

इन सारी तकलीफों के बावजूद उन्होंने एम.एससी. के प्रथम वर्ष मंे 65 प्रतिषत और अंतिम वर्ष में 70 प्रतिषत अंक प्राप्त किए थे। लेकिन उनकी नानी मदद के लिए आगे क्यों नहीं आईं? राजा कहते हैं कि यह सवाल तो आपको उन्हीं से पूछना चाहिए।

जब हिन्दुस्तान टाइम्स की टीम नानी अंजनी से दुबारा मिली तो वे हैदराबाद केन्द्रीय विष्वविद्यालय के कैम्पस में एक प्रोफेसर के घर में राधिका और राजा के साथ ठहरी हुईं थीं। राजा ने इस मुलाकात का हिस्सा बनने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और बाहर इंतजार करते रहे।

यह पूछने पर कि वे अपनी बेटी से ज्यादा अच्छी अंग्रेजी कैसे बोल लेती हैं, अंजनी ने कहा कि राधिका बहुत बुद्धिमान नहीं थी। यह पूछने पर कि उनके सारे बच्चे स्नातक हैं जबकि रोहित की माँ को उन्होंने 14 साल की उम्र में ब्याह दिया, अंजनी कहती हैं, ‘‘हमें एक अच्छे परिवार का अमीर लड़का मिल गया था, तो हमने यह शादी पक्की कर दी।’’ उनका दावा है कि उन्हें मनीकुमार के बुरे चरित्र के बारे में कुछ नहीं पता था। वे कहती हैं कि राधिका आगे नहीं पढ़ना चाहती थी।

लेकिन इस समय तक रियाज ने सत्य जाहिर कर दिया, ‘‘राधिका आंटी अपने बच्चों के माध्यम से पुनः षिक्षा की ओर अग्रसर हो गईं। वे बच्चों के स्कूल के पाठ पहले खुद याद करती थीं फिर उन्हें घर में पढ़ाती थीं।’’ राधिका ने अपने बेटों के साथ अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की।

रियाज याद करते हैं, ‘‘जब रोहित बी.एससी. के अंतिम वर्ष में था तब राधिका आंटी बी.ए. की द्वितीय वर्ष में थी और राजा बी.एससी. के प्रथम वर्ष में था। पहले रोहित सफल हुआ, अगले साल आंटी और उसके एक साल बाद राजा ने बी.एससी. उत्तीर्ण की। कई बार हम लोग साथ-साथ पढ़ाई किया करते थे। एक बार तो एक ही दिन हम सभी की परीक्षा थी।’’

जब अंजनी को यह बातें बताई गईं और यह पूछा गया कि उन्होंने और उनके जैविक परिवार ने अपने मेधावी नातियों की पढ़ाई में मदद क्यों नहीं की, तो उन्होंने रिपोर्टर को बहुत देर तक घूरकर देखा और कहा, ‘‘मुझे नहीं पता।’’

क्या रोहित वेमुला के परिवार से उनके घर में नौकरों की तरह बर्ताव किया जाता था? ‘‘मुझे नहीं पता आप क्या कह रहे हैं।’’ अंजनी फिर से कहती हैं, ‘‘आपको यह सब किसने बताया? आप मुझे परेषानी में डालना चाहते हैं, है ना?’’

हिन्दुस्तान टाइम्स द्वारा गुंटूर से जुटाए गए एक भी तथ्य को अंजनी ने नहीं झुठलाया। कुछ समय बाद तो उन्होंने अपनी आँखें नीची कर लीं और रिपोर्टर को जाने का इषारा कर दिया।

रोहित के सबसे अच्छे दिन उसके सबसे अच्छे दोस्त रियाज के साहचर्य में ही बीते। रियाज हिन्दुस्तान टाइम्स टीम को उन दोनांे के मनपसंद स्थानों पर ले गया, जहां उन्होंने कई एडवेंचर्स किए थे। गुंटूर में 6 घण्टों तक घूमने के दौरान ऐसा लगा कि हर गली में रोहित रियाज की कहानी छुपी हुई है।

पार्टियाँ, किषोर उम्र के आर्कषण, वेलेन्टाइन-डे के असफल प्रस्ताव, लड़कियों को लेकर झगड़े, फिल्में, संगीत, ब्वाय गेंग पार्टियाँ, अंगे्रजी संगीत, फुटबाल खिलाडि़यों की हेयर स्टाइल - वे सभी चीजें जो रोहित पहली बार देख रहा था।

रियाज जोर देकर कहता है कि रोहित हमेषा हीरो रहा और वह हीरो का साथी। रियाज कहता है, ‘‘एक बार उसे क्लास से बाहर निकाल दिया गया था, क्योंकि वह बहुत ज्यादा प्रष्न पूछ रहा था और षिक्षक उसका जवाब नहीं दे पा रहे थे। चंूकि प्राचार्य को रोहित की प्रतिभा का ज्ञान था अतः उन्होंने उसका पक्ष लेते हुए षिक्षक से कहा कि वह क्लास के लिए बेहतर तरीके से तैयार होकर आया करे।’’

रोहित को इंटरनेट का अच्छा ज्ञान था। रियाज का कहना है कि वह अक्सर अपने षिक्षकों के सामने यह साबित कर देता था कि उनका पाठ्यक्रम पुराना हो चुका है। उसे विज्ञान की वह वेबसाइट पता थी जो उसके टीचर को भी नहीं पता थी। वह अपनी कक्षा में हमेषा आगे रहता था।

रियाज का कहना है कि गुंटूर के हिन्दू काॅलेज के कैम्पस में कुछ ही तत्व जातिवादी थे और अधिकांष अध्यापक धर्मनिरपेक्ष थे।

रियाज के अनुसार रोहित की जिंदगी में सिर्फ दो बातें सर्वाधिक महत्वपूर्ण थीं- पार्ट टाइम नौकरी ढूँढ़ना और इंटरनेट पर समय बिताना। वह जूलियन असांजे का बहुत बड़ा प्रषंसक था और विकीलीक्स फाइलों पर घण्टों बिताया करता था। बी.एससी. की परीक्षा के बाद स्नातकोत्तर के लिए उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह किस विषय को चुने।

उसका पीएच.डी. कोर्स सिर्फ प्रमाण-पत्र पाने के लिए नहीं था। उसका शोध सामाजिक विज्ञानों और तकनीकी का सम्मिश्रण लिए था। रियाज के अनुसार सामाजिक विज्ञान में रोहित को अधिकांष ज्ञान ए.एस.ए. और एस.एफ.आई. जैसे समूहों से जुड़ने की वजह से प्राप्त हुआ था, क्योंकि इन समूहों में कैडर को राजनीतिक थ्योरी पढ़ने पर जोर दिया जाता था।

मरने से पहले रोहित ने रियाज को कमजोर कहा था। रियाज बताते हैं, ‘‘उसने मुझसे कहा था कि उसे अपनी पीएच.डी. की पढ़ाई बंद करनी पड़ेगी। उसने कहा था कि विपक्षी ए.बी.व्ही.पी. बहुत ताकतवर है, क्योंकि उसके पास सांसदों, विधायकों, मंत्रियों और विष्वविद्यालय प्रषासन का भी समर्थन है। उसने जीतने की उम्मीद छोड़ दी थी।’’
दोनों दोस्त लम्बे समय तक बातें किया करते थे और जब उन्होंने 6 महीने पहले गुंटूर मंे तीन अन्य खास दोस्तों के साथ तैयार किए गए बिजनेस प्लान के बारे में चर्चा करना प्रारंभ किया तो रोहित का मूड सुधरने लगा। एक बातचीत में रोहित ने कहा था, ‘‘हम बिजनेस शुरू करेंगे और गुंटूर पर राज करेंगे।’’
रियाज कहते हैं कि उस फोन काॅल में वह बार-बार कहता रहा कि पीएच.डी. उसके लिए सिर्फ इसलिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि इससे उसका कॅरियर बनेगा बल्कि इस शोध के माध्यम से वह नई संभावनाएं पैदा करना चाहता था।

क्या जिंदगी भर मिले असमानता के बर्ताव और विष्वविद्यालय की परिस्थितियों ने ही रोहित को आत्महत्या का कदम उठाने के लिए मजबूर किया।

रियाज कहते हैं, ‘‘रोहित को सारी जिंदगी अपने परिवार का इतिहास सताता रहा। जिस घर में वह बड़ा हुआ, उसी में उसे जातिगत भेदभाव झेलना पड़ा। लेकिन घुटने टेकने के बजाय रोहित ने इससे संघर्ष किया। उसने कई बाधाओं को पार किया और अंत में पीएच.डी. तक पहुंचा। जब उसे लगा कि वह और आगे नहीं जा सकता तो उसने हार मान ली।’’

अपने तमाम संघर्षो के बाद, उसके खुद के शब्दों में, रोहित ने हार मान ली जब उसे महसूस हुआ कि ‘‘मनुष्य का मूल्य उसकी तात्कालिक पहचान और निकटतम संभावनाओं तक ही सिमट गया है। एक वोट। एक संख्या। एक वस्तु। इन तक ही मनुष्य की पहचान रह गई है। मनुष्य के साथ कभी भी एक दिमाग की तरह बर्ताव नहीं किया गया। सितारों की धूल से बनी हुई एक शानदार वस्तु। हर क्षेत्र में, पढ़ाई में, सड़कों पर, राजनीति में, मरने में, जीने में।’’

http://www.hindustantimes.com/static/rohith-vemula-an-unfinished-portrait/index.html

मुसलमानों का नंबर होने के कारण बताया आइएसआइएस का एजेंट, संघ के कार्यालय में बनाया बंधक

लखनऊ 29 जनवरी 2016। रिहाई मंच ने संघ के गुण्ड़ों द्वारा मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा पर शोध कर रहे छात्र अनिल यादव को जबरन संघ कार्यालय में बंधक बनाने की घटना को संघ द्वारा अपने घिनौने कृत्यों को छुपाने का एक और हिंसक उदाहरण बताया। मंच ने शोधार्थी अनिल यादव की सुरक्षा की गारंटी की मांग करते हुए इस पूरी घटना में संघ से जुड़े नीरज शर्मा, रामवीर सिंह, आशुतोष और अनुभव शर्मा समेत अन्य लोगों पर कार्यवाई की मांग की। मंच ने मुजफ्फरनगर आरएसएस कार्यालय को आतंकी कारवाईयों का सेंटर बताया।

रिहाई मंच प्रवक्ता राजीव यादव ने बताया कि गिरि विकास संस्थान लखनऊ के पोजेक्ट रिसर्च एसोसिएट अनिल यादव जो की मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा पर शोध के लिए मुजफ्फरनगर गए थे को 27 जनवरी को रात 8 बजे से 10 बजे तक मुजफ्फरनगर अंसारी रोड स्थित आरएसएस कार्यालय में बंधक बनाकर रखा गया। जहां आपराधिक तरीके से आरएसएस के लोग 3 घंटे तक अनिल को अपने कार्यालय मे बंदकर पूछताछ करते रहे और आईएसआई का एजेंट बोलकर जान से मारने की धमकी देते रहे। उन्होंने बताया कि अनिल के बार-बार बताने के बावजूद की मैं रिसर्चर हूं के बाद भी लाठी डंडे दिखाकर जान से माने की धमकी देते रहे।

इस दौरान अनिल का फोन भी ले लिया और उसमें डायल नंबरों के बारे में यह पूछा गया कि किस आतंकवादी का नंबर है। इतने मुल्लाओं का नंबर तुम्हारे पर कैसे है। परिचय पत्र दिखाने के बाद भी मुसलमान कहकर प्रताडि़त करते रहे और आईएसआई, आईएसआईएस का एजेंट कहकर गांलियां देते रहे। घंटों प्रताड़ना के बाद मोबाइल वापस किया। मंच के प्रवक्ता ने बताया कि इस पूरी घटना में संघ से जुड़े नीरज शर्मा, रामवीर सिंह, आशुतोष और अनुभव शर्मा समेत दो और लोग शामिल थे।

रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने गिरि विकास संस्थान लखनऊ के पोजेक्ट रिसर्च एसोसिएट अनिल यादव को बंधक बनाने की घटना को अकादमिक जगत के शोधों पर आरएसएस का हमला बताया। उन्होंने कहा कि रोहित वेमुला, दाभोलकर, पंसारे को मार देने या फिर मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित संदीप पाण्डेय को बीएचयू से और मोदी गो बैक का नारा लगाने वालों को बीबीएयू से निकालने और अब अनिल यादव को बंधक बनाने से सवालों को नहीं दबाया जा सकता। जो लोग कहते हैं कि देश में असहिष्णुता नहीं है उन्हें अनिल यादव से पूछना चाहिए की मुसलमान का नंबर रखने भर से जो उनके साथ किया गया उससे उनपर क्या गुजरी। जो यह सोचने पर विवस करता है कि मुसलमान होना कितना गुनाह हो गया है।

रिहाई मंच के अध्यक्ष ने कहा कि जिस तरह से देश की राजधानी के करीब गाजियाबाद के डासना में पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिंदू स्वाभिमान संगठन के लोग मुसलमानों के खिलाफ भड़काकर पिस्तौल, राइफल, बंदूक जैसे हथियार चलाने का प्रशिक्षण आठ-आठ साल के हिंदू बच्चों को दे रहे हैं उस पर खुफिया-सुरक्षा एजेंसियां और सरकार क्यों चुप है। आखिर इस संगठन के प्रमुख नसिहांनंद मुसलमानों और हिंदुओ की बीच युद्ध में पश्चिम उत्तर प्रदेश को आतंक की एक प्रयोगशाला बना रहे हैं उनके खिलाफ सपा सरकार सिर्फ इसलिए चुप है कि स्वामीजी उर्फ दीपक त्यागी कभी सपा के यूथ विंग के प्रमुख सदस्य रह चुके हैं। उन्होंने कहा की ठीक इसी प्रकार मुजफ्फरनगर साप्रदायिक हिंसा के दोषी संगीत सोम सपा से चुनाव तक लड़ चुके हैं।
मुलायम सिंह को जो यह अफसोस हो रहा है कि उन्होंने बाबरी मस्जिद के सवाल पर गोली चलवा दी उन्हें और उन जैसे नेताओं को इस बात पर भी अफसोस होना चाहिए कि उन जैसे लोगों की छद्म धर्म निरपेक्षता के चलते हिंदुत्वादी संगठन कैसे छोटे-छोटे बच्चों को आतंकवादी बना रहे हैं और वह चुप हैं। जिस तरह से आतंकी हिंदू स्वाभिमान संगठन के महासचिव राज्य स्तरीय पहलवान अनिल यादव कहते हैं कि पहलवानों को योजनाबद्ध तरीके से कट्रपंथ की शिक्षा के जरिए तैयार कर सड़कों पर खुला छोड़ दिया जाए तो बड़ा हंगामा कर सकते हैं। ऐसे में यह हिंदू समाज के लिए भी सोचने का वक्त है कि एक अनिल यादव जो अपने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की वजह से प्रताडि़त होता है उसके साथ उसे खड़ा होना है या फिर वो जो इनके बच्चों को हिंदू स्वाभिमान के नाम पर आतंकी बना रहे हैं उनके साथ।

मुहम्मद शुऐब ने कहा कि अकादमी जगत के लोगों पर हो रहे हमले यह साफ करते है कि संघ तार्किक विचारों से कितना डरता है। उन्होंने कहा कि यह हमला देश के लोकतांत्रिक ढांचे को तहस-नहस करने का है इसे कत्तई बर्दास्त नहीं किया जाएगा।

Jan 28, 2016

कत्ल के अनुसंधान

नवल सिंह

कत्ल के अनुसंधान
कल्त का उन्होंने
नया तरीका खोजा निकाला
जिसमें
ना तो कोई सबूत
ना इल्जाम
ना ही होते है खुन के छीटे
 
वो छीन लेते है
नथुनों की हवा
वो चुराते है
स्वाभिमान, गौरव
भरते है जबरदस्ती ठूस-ठूस कर
आत्मगलानी, निराशा, अपमान
दमधोटू इंजन से
ढकेलते है जिन्दगी की रेल को
मौत की खाई में
 
नामाकरण करते
हवा के उडाते बुलबुले सा
आत्महत्या का
मिमयाते
नाजायज कारण
जो संडाध मारते निकलते
उनके मुखारविन्द से
मृतक के
जनाजे में टांगते है
डरपोक, देशद्रोही, अराजक
के तमगे
 
पर इतने सब पर भी
वो
कहां छुपा पाते है
रक्त से सने नाखुन
आदमखोर दांत
आकाओं से डाट खाकर
वो फिर से जुटते है
नए कत्ल के अनुसंधान में
जो कत्ल ना लगे

Jan 27, 2016

गणेश चतुर्थी की इस व्रत कथा को मत पढ़िए आप !

आज गणेश चतुर्थी है। पुत्र की आस में महिलाएं यह व्रत रखती हैं। हिंदू धर्म अनुया​ईयों मुताबिक गणेश चतुर्थी का व्रत करने से पुत्र प्राप्ति की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। प्रबलता का ही असर है कि व्रत का रेंज दिल्ली से दौलताबाद तक है और व्रत रखने वाली महिलाओं में अनपढ़, पढ़, सूपढ़ से लेकर सामंती, प्रगतिशील, डिजायनर तक शामिल हैं। संयोग से इससे मेरा घर भी अछूता नहीं है।

व्रत के पीछे एक लोक कथा है। शाम को कुछ खाने से पहले इस लोक कथा को महिलाएं सामूहिक रूप से सुनती—सुनाती हैं। पर उससे भी पहले वह गणेश भगवान के लिए भोजन का एक मामूली हिस्सा निकालकर अलग रख देती हैं। मान्यता है कि रात में गणेश भगवान आकर खायेंगे।

हालांकि महानगरी पुरोहितों के एक सर्वे में पाया गया है कि कथा को सुनने—सुनाने की परंपरा का शहरों में तेजी से लोप हो रहा है। पर उन्हें एक दूसरी बात से संतोष है। सुनने—सुनाने की परंपरा के लोप से व्रत वाली महिलाओं में ज्यादा कमी नहीं दर्ज की जा रही है। सर्वे में इसका कारण धर्म के प्रति कम होती आस्था को नहीं बल्कि अलगाववादी—आधुनिक और महानगरी संस्कृति माना गया है। वहीं गांवों में इस परंपरा के अक्षुण्य बने रहने पर हर्ष भी जताया गया है।

कथा के मुताबिक एक ही गांव में दो बहनों की शादी हुई। एक बहन संपन्न थी और दूसरी विपन्न। विपन्न यानी गरीब बहन दिन—प्रतिदिन एक—एक सामान के लिए मोहताज होती जा रही थी। थोड़े ​ही दिनों उसकी स्थिति भूखों मरने की आ गई।

मरने से बचने का कोई और रास्ता न देख उसने संपन्न बहन के यहां कामवाली बाई का काम शुरू कर दिया। अब वह सुबह से शाम तक झाड़ू—पोछा, बर्तन—बासन काम करने लगी। लेकिन संपन्न बहन निहायत घमंडी और कंजूस थी। वह अपनी गरीब बहन को काम के बदले धान की भूसी और चावल का झाड़न यानी खुद्दी देती थी।

वह बेचारी उसी भूसी और चावल को फेटकर रोटी बनाती और किसी साग के साथ खा लेती। इस तरह उसका जीवन जैसे—तैसे चल रहा था। उधर उसकी बहन दिनों—रात संपन्नता की सीढ़ियां चढ़ रही थी।

समय बीता गणेश चतुर्थी आई। उसने भी व्रत रखा। पर उस दिन भी उसकी बहन ने उसे धान की भूसी और चावल का झाड़न ​ही दिया। उसने रोटी और साग बनाया, थोड़ा गणेश जी के लिए रख दिया और बाकी खाकर सो गइे।

देर रात गणेश जी आए। पूछे, 'मेरे लिए क्या रखी हो। मैं बहुत भूखा हूं।'

उसने कहा, 'मेरे पास क्या है। पड़ी है आधी रोटी और साग, जाओ खा लो।'

भगवान को भक्त के यहां ही खाना था इसलिए खा लिए गणेश जी, लेकिन 56 भोग खाने वाले गणेश को भूसी कहां पचती। सो, उनको झाड़ा लग गया। मतलब ट्वायलेट यानी टट्टी।

पेट में गुड़गुड़ से बेचैन गणेश ने उस औरत से पूछा कहां जाउं।

उसने कहा, 'क्या रखा है इस घर में, यहीं कर लो टट्टी, किसी भी कोने में।'

गणेश जी कूद—कूद कर चारों कोनों में हगे। हगने के बाद पिछवाड़ा धोने का पानी भी नहीं था घर में, सो गरीब भक्त के सिर पर पोंछ गए।

सुबह हुई। उसकी संपन्न बहन आई। गरीब बहन के घर में सोना ही सोना था। यहां तक उसकी मांग और सिर पर भी। गणेश जी बिष्टा नहीं सोना हगे थे। वह गरीब के घर में खाद नहीं सोना छिड़क गए थे।

संपन्न बहन पूछने लगी कि रातों—रात यह सब कैसे हुआ।

गरीब बहन जो अब गरीब नहीं रह गई थी, उसने पूरी रात की कथा सुनाई।

लालची बहन के कलेजे पर सांप लोट गया। वह और धन इकट्ठा करने के लिए मचलने लगी। पर संकट था कि गणेश चतुर्थी साल में एक ​ही दिन आता है। ऐसे में उसके पास कोई चारा नहीं था और वह इस दिन का इंतजार करने लगी।

साल का वह दिन आया। बड़ी तैयारी के साथ संपन्न बहन ने अपने का उसी रूप में पेश किया जैसी माली हालत में गणेश जी ने उसकी गरीब बहन को पाया था।

वह एक खाली झोपड़ी में भूसी की रोटी और साग खाकर लेटी थी। गणेश जी आए। उसने वही जवाब दिया जो उसकी बहन ने दिया था।

फिर क्या था, अबकी भी गणेश जी चारों कोनों पर हग दिए और पिछवाड़ा उसके सिर पर पोंछ गए।

उसका घर बदबू से भर गया था। इस बार गणेश हगने में सोना नहीं बिष्टा दे गए थे। एक लालची के यहां, एक घमंडी और कंजूस के यहां।

शिक्षा — आप समझ ही गए होंगे। लालच बुरी बला।

उपसंहार — पर आज भी करोड़ों हिंदू धर्मावलंबी महिलाएं गणेश जी के सोना हगने की उम्मीद में व्रत रखे जा रही हैं और मर्द रखवाए जा रहे हैं।

चुनौती — यह देखना होगा कि अबतक गणेश जी ने कितने महिलाओं की मांग में गूह लपेटा है और कितनों में सोना।

सवाल — भारत में बढ़ते मल कचरे के पीछे कहीं सीधे गणेश जी तो जिम्मेदार नहीं हैं। 

Jan 24, 2016

प्रकाश भाई तुम क्या इतनी तकलीफ में थे!

​साहित्यिक मसलों को लेकर सक्रिय रहने वाले अनिल जनविजय के वाल पर अभी थोड़ी देर पहले देखा कि उन्होंने युवा कवि प्रकाश की मौत के बारे में सूचना दी है। लिखा है कि प्रकाश ने नींद की गोलियां खा ली थींं, जिससे उनकी मौत हो गयी।  आत्महत्या का कारण अबतक साफ नहीं हो सका है। 

वह अक्षय उपाध्याय स्मृति शिखर सम्मान से सम्मानित थे और उनका एक कविता संग्रह  'होने की सुगन्ध' भी छप चुका था।

प्रकाश से मैं परिचित था और उनसे दिल्ली के मंडी हाउस, कॉफी हाउस और भगत सिंह पार्क पर कई दफा मुलाकात हुई थी। हम उन दिनों नई सांस्कृतिक मुहिम के पक्षधरों के साथ भगत सिंह पार्क में बैठते थे, जिसमें वह भी शरीक होने आते थे। उन्होंने कई मौकों पर अपनी कविताएं भी सुनाई थीं। 

उनके साथी कवि और पत्रकार पंकज चौधरी ने हम सब से पहली बार उनसे भेंट कवि के रूप में ही कराई थी। वह अपनी उम्र से अधिक और गंभीर दिखते थे। उन्हें देखकर लगता था कि वह भदेस बॉडी लैग्वेज के आदमी और दिल्ली उनकी कद्र नहीं कर पाएगी। 

दिल्ली पहले चमक देखती है, फिर काबिलियत तौलती है। संभवत: इसीलिए कुछ समय बाद वह उत्तर प्रदेश के आगरा में हिंदी संस्थान से निकलने वाली पत्रिका से जुड़ गए। इस बीच उनका कई दफा दिल्ली आना हुआ और दो—चार बार सार्वजनिक जगहों पर हाय—हैल्लो भी हुई। बातचीत में उन्होंने बताया था कि शादी हो चुकी है। 

मुझे नहीं मालुम कि वह कहां के थे, किस तरह से संघर्ष करते हुए दिल्ली तक आए थे। पर उनके आगरा चले जाने के बाद भी उनके मित्र पंकज चौधरी और अभिनेता राकेश उनकी जीवटता और संघर्ष के किस्से अक्सर सुनाते थे। उनकी बातों को याद करते हुए अब लग रहा है कि वह आदमी हमारे बीच का चार्ली चै​प्लीन था जो मुस्कुराते हुए चला गया। 

फ्रीलांसिंग, मामूली अखबारी लेखन, कम पैसे का अनुवाद और करीब—करीब मुफ्त की प्रूफ​​रीडिंग के जरिए जीने वाले युवा साहित्यकारों की जिंदगी कितनी मुश्किलों भरी होती है, उसके वह जिंदा मिसाल थे। इतनी कठिनाइयां झेलने वाला आदमी क्या इससे भी बड़ी परेशानी में था और अकेला भी कि वह हमारे बीच से चला गया। सच में प्रकाश भाई, तुम क्या इतनी तकलीफ में थे!

संघर्ष के दिनों में मकान मालिकों की भभकियां, होटल वालों की वार्निंग और दोस्तों की बकाएदारी हम सब के जीवन की दैनंदिन रही है और वह उनके जीवन की भी थी। उनके रूम पार्टनर रहे राकेश अक्सर एक किस्सा उनके बारे में सुनाते थे, जिसके बाद सभी लहालोट हो जाते थे। 

वह काम की तलाश में एक बार दरियागंज स्थित किरण प्रकाशन के दफ्तर गए। प्रकाशक ने उन्हें प्रूफरीडिंग या संपादन का काम देने के लिए बुला रखा था। दफ्तर के दरवाजे पर खड़े हुए तो दिखा कि प्रकाशक देवता को अगरबत्ती दिखा रहा है। उन्हें काम की जरूरत इस कदर थी वह हर कीमत पर काम हथिया लेना चाहते थे।

यह सोचते हुए वह एक तरफ दरवाजे से अंदर दाखिल हो रहे थे और दूसरी तरफ प्रकाशक को इंप्रैस करनी की तरकीबें सोच रहे थे। तभी बिजली का तार उनके पैरो से लटपटाकर टूट गया, वह गिरने को हुए और बिजली चली गई। 

कमरा अंधकार से भर गया। अगरबत्ती दिखा रहा प्रकाशक चिढ़ गया। उसने जल्दी से अगरबत्ती धूपदान में खोंसी और गुस्से में पूछा, 'कौन हो बावले।' 

'सर मैं प्रकाश'। 

कमरे में फैले अंधकार के बाद यह हमारे मित्र प्रकाश का जवाब था। इसके बाद हम सभी हंस पड़ते थे। 

मैंने अबतक नौकरी के लिए श्रद्धांजलि लिखी है। मतलब पत्रकारिता के लिए। लेकिन आज एक परिचित का लिख रहा हूं जिसके साथ मैंने कुछ पल बिताएं हैं, कुछ यादें हैं, सार्वजनिक मुलाकातों की सही। 

मन कह रहा है लोग शायद बुरा मानें। बुरा मानने वाले माफ करेंगे पर एक परिचित इंसान की श्रद्धांजलि देवताओं जैसी कैसे लिखी जा सकती है। 

पुरस्कार - डिग्रियां लौटा देना ही त्याग का महाभियान

एक ब्राम्हण कवि ने
बेहद आत्मीय पलों में कहा
मैंने दलितों पर कभी कोई कविता नहीं लिखी
उनका दुख नहीं लिख पाया

संघर्ष कम नहीं हैं उनके
जीत का सिलसिला भी कम नहीं
पर मैं नहीं लिख पाया

नहीं लिख पाने की आत्मस्विकारोक्ति पर
दशकों तक
खूब तालियां पीटी गयीं संस्कृति के सभागारों में
वर्षों तक
भावविह्वल श्रोताओं से कालीनें होती रहीं गिलीं
आज भी
पुर्नजागरण के सिपाही आंसू पोछने के लिए बांटते फिरते हैं रूमाल

बहरहाल
कुछ ने इसे सदी की महाआत्मस्विकारोक्ति कहा
कुछ ने कहा जातिवाद के विघटन का महाआख्यान
बात निकली तो दूर तलक गई और
दलितों पर एक हर्फ न लिखने वाला कवि
महाकवि बना
उस देश में जिस देश में 80 फीसदी रहते हैं शूद्र, म्लेच्छ और नीच

अब वही
कविता का प्रतिमान है
संघर्ष का नया नाम है
विद्रोहियों की शान है
जातिवाद ख़त्म करने की पहली पहचान है...
भक्त कहते हैं
उसके बिना साहित्य बियाबान है

मैं पूछता हूँ,
सदियों बाद स्वीकार कर लेना ही
बराबरी का कीर्तिमान है
और
पुरस्कार - डिग्रियां लौटा देना ही त्याग का महाभियान !

आज का एकलव्य होता तो एक बाल नोचकर न देता द्रोणाचार्य को

संघर्ष में विजित, पराजित और सक्रिय रहने वाले दलितों को एकलव्य क्यों कहना है? 

यह उदाहरण अपने आप में ब्राम्हणवाद को मजबूत नहीं करता। 

मैं यह इसलिए पूछ रहा हूं कि रोहित वुमेला के मौत के बाद फिर एक बार यह शब्द तेजी से ट्रेंड करने लगा है। वह भी उसके पक्षधरों द्वारा। 

एक तरफ आप कहते हैं, दलितों का महाकाव्य अभी लिखा जाना है और दूसरी तरफ शोषकों के महाकाव्य में रचित चरित्र को सिर—आंखों पर बैठाते हैं। आप महिषासुर को पुर्नपरिभाषित कर रहे हैं, लेकिन आज के युग में आदर्श बन रहे दलितों को एकलव्य से आगे नहीं जाने दे रहे। 

रही होगी उस समय एकलव्य की कोई मजबूरी जो उसने द्रोणाचार्य को अपना अंगूठा दे दिया, लेकिन आज का दलित एक बाल नोचकर न दे। उल्टे वह सदियों का हिसाब ले ले। क्या वह इतने के बाद भी एकलव्य की तरह ईमोशनल वारफेयर में फंसेगा ? 


आपको लगता है कि अगर किसी दलित ने महाभारत लिखी होती तो अपना धर्म न निभाने वाले द्रोणाचार्य के प्रति वह वैसा ही रवैया बरतता जैसा व्यास ने बरता है। नहीं न। न ही धनुष विद्या में निपुण एकलव्य बकलोल होता, जो अपनी बेइज्जती इस कदर भूल जाता कि वह अपना अस्त्र 'अंगूठा' ही दान कर दे। 


पूरा महाभारत 'कर्म करो फल की चिंता मत करो' के सूत्र वाक्य का समाहार है तो क्या एकलव्य का यही कर्म था। 


एक काबिल दलित का अंगूठा देना ब्राम्हणवाद की उस परंपरावादी समझ को पुष्ट नहीं करता है कि तुम चाहे जितने काबिल हो जाओ, बुद्धि में तुम हमसे पार न पा पाओगे, हम तुम्हें कमतर करके ही छोड़ेंगे। मतलब वे अनंतकाल तक एकलव्य पैदा करते रहेंगे। 


पर आज का दलित इस श्रेष्ठता बोध को क्यों जारी रहने दे और खुद हीनताबोध में क्यों जिए ।

तुम किसके पक्ष में हो प्यारे

अजय प्रकाश 
तुम दलितों के पक्ष में नहीं हो कि वह आरक्षण चाहते हैं,
तुम मुसलमानों का पक्ष नहीं लेते कि वह देश हड़पना चाहते हैं,
तुम पिछड़ों को नहीं चाहते कि वह क्रीमी लेयर का मजा ले रहे हैं,
तुम आदिवासियों को नहीं चाहते कि वह असभ्य हैं,
तुम औरतों को नहीं चाहते कि वह तुम्हारे लिए इस सदी की सबसे बड़ी चुनौती हैं,
तुम बच्चों को भी नहीं चाहते कि वह आबादी बढ़ा रहे हैं
अलबत्ता तुम मनुष्यता को भी नहीं चाहते कि उसे तुमने अवसरवादी घोषित कर रखा है !
तुम चाहते क्या हो प्यारे,
तुम किसके पक्ष में हो,
कौन है तुम्हारी घोषित चाहत !
आज तुम खुद ही बताओ
पूरा खुलकर
हो सके तो मुनादी कराओ
पर बताओ जरूर
हम भी देखें !
तुम्हारी कैसी कायनात है
जिसमेें मनुष्य नहीं
सिर्फ सवर्ण रहते हैं...

आवाज सुनाने के लिए छात्र ने की आत्महत्या

हैदराबाद विश्वविद्यालय का छात्र और उसके साथी जबतक आंदोलन में थे, देश में उनकी कोई चर्चा नहीं थी। उनके समर्थन में आंदोलनों का कोई सिलसिला होता नहीं दिख रहा था और न ही सोशल मीडिया पर खबर ट्रेंड कर रही थी। आज भी उनमें से जो चार बचे हुए हैं, उनकी कोई चर्चा नहीं है, सिवाय की उन्हें विश्विद्यालय ने बर्खास्तगी निरस्त कर वापस ले लिया है.

क्या अब छात्रों को भी अपनी समस्याओं पर सरकार, समाज और मीडिया का ध्यान दिलाने के लिए आत्महत्या का रास्ता चुनना होगा। 


किसान पहले से ही इस रास्ते पर हैं। मैं आंध्र, विदर्भ और बुंदेलखंड के किसानों के बीच जितनी दफा भी रिपोर्टिंग करने गया हर बार पाया कि आत्महत्या करने वाले किसानों का बहुतायत इसे उपाय के तौर पर लेता है। उन्हें यह रास्ता 'हारे का हरिनाम' जैसा लगता है। 

निराश किसान कभी कर्जमाफी, कभी बैंक की धमकी—बेइज्जती से बचने तो कभी इसलिए आत्महत्या कर लेते हैं कि परिवार को कुछ अनुकंपा राशि मिल जाएगी और दुख थोड़ा कम होे जाएगा। 

आखिर हम देश को किस रास्ते पर ले जा रहे हैं। हमें पूरी ताकत लगाकर इसे रोकना होगा। एक सभ्य समाज के लिए यह सांस लेने जितनी जरूरी शर्त होनी चाहिए। हम कैसे देश हैं, जहां सिर्फ अपनी बात सुनाने के लिए जान देनी पड़ रही है। यह कैसा लोकतंत्र है जहां देश मजबूत और जनता कमजोर हो रही है।