हैदराबाद विश्वविद्यालय का छात्र और उसके साथी जबतक आंदोलन में थे, देश में उनकी कोई चर्चा नहीं थी। उनके समर्थन में आंदोलनों का कोई सिलसिला होता नहीं दिख रहा था और न ही सोशल मीडिया पर खबर ट्रेंड कर रही थी। आज भी उनमें से जो चार बचे हुए हैं, उनकी कोई चर्चा नहीं है, सिवाय की उन्हें विश्विद्यालय ने बर्खास्तगी निरस्त कर वापस ले लिया है.
क्या अब छात्रों को भी अपनी समस्याओं पर सरकार, समाज और मीडिया का ध्यान दिलाने के लिए आत्महत्या का रास्ता चुनना होगा।
किसान पहले से ही इस रास्ते पर हैं। मैं आंध्र, विदर्भ और बुंदेलखंड के किसानों के बीच जितनी दफा भी रिपोर्टिंग करने गया हर बार पाया कि आत्महत्या करने वाले किसानों का बहुतायत इसे उपाय के तौर पर लेता है। उन्हें यह रास्ता 'हारे का हरिनाम' जैसा लगता है।
निराश किसान कभी कर्जमाफी, कभी बैंक की धमकी—बेइज्जती से बचने तो कभी इसलिए आत्महत्या कर लेते हैं कि परिवार को कुछ अनुकंपा राशि मिल जाएगी और दुख थोड़ा कम होे जाएगा।
आखिर हम देश को किस रास्ते पर ले जा रहे हैं। हमें पूरी ताकत लगाकर इसे रोकना होगा। एक सभ्य समाज के लिए यह सांस लेने जितनी जरूरी शर्त होनी चाहिए। हम कैसे देश हैं, जहां सिर्फ अपनी बात सुनाने के लिए जान देनी पड़ रही है। यह कैसा लोकतंत्र है जहां देश मजबूत और जनता कमजोर हो रही है।
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