आर्य आक्रमण और भारत के उत्थान—पतन के प्रश्न को समेटता यह लेख आपको जानने में मदद करेगा कि भारत में विकास की महागाथा लिखने में आर्यों का कितना योगदान है...
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अभी एक महत्वपूर्ण जेनेटिक रिसर्च सामने आई है, जो आर्य आक्रमण थ्योरी को सही सिद्ध कर रही है. अभी तक मेट्रीलिनियल डीएनए (स्त्रीयों से प्राप्त) की रिसर्च इस दिशा में बहुत मदद नहीं कर पाई थी. लेकिन अब हाल ही में जो वाय क्रोमोसोम (पुरुषों से प्राप्त) डीएनए की रिसर्च आई है वह सिद्ध करती है कि अतीत में (जो काल आर्य आक्रमण का काल माना जाता है ) उस दौर में भारतीय जीन पूल में एक बड़ा बाहरी मिश्रण हुआ है. ये संभवतः यूरेशिया से आये आर्यों के आक्रमण और धीरे-धीरे उनकी मूल भारतीय जनसंख्या में मिश्रण को बतलाता है.
इस नई रिसर्च को कुछ हाल ही की अन्य रिसर्च से जोड़कर सरल भाषा में यहाँ रखना चाहता हूँ. ये नवीन रिसर्च उन पुराने अध्ययन परिणामों के साथ एक गजब की कहानी कहते हैं. आये इसे विस्तार से समझें.
अभी तक के भाषाशास्त्रीय (लिंग्विस्टिक) एनालिसिस और साहित्यिक दार्शनिक एनालिसिस सहित किन्शिप (नातेदारी) और मानवशास्त्रीय सबूत आर्य आक्रमण को पूरा समर्थन करते हैं. साहित्यिक, मानवशास्त्रीय या भाषाशास्त्री सबूत अभी भी दुर्भाग्य से महत्वपूर्ण नहीं माने जाते हैं क्योंकि इनमे विचारधारा के पक्षपात का प्रश्न बना रहती है. लेकिन अब हार्ड कोर जेनेटिक्स अगर आर्य आक्रमण थ्योरी को समर्थन दे रही है तो आर्य आक्रमण थ्योरी को और अधिक बल मिलता है.
किन्शिप (नातेदारी) और सांस्कृतिक मानवशास्त्र (कल्चरल एन्थ्रोपोलोजी) पर मैं अभी कुछ खोज रहा था और मुझे कुछ गजब की स्टडीज नजर आईं। गुप्त काल के दौर में (पहली शताब्दी के मध्य के प्लस माइंस दो सौ साल) अर्थात इसवी सन 300 से लेकर 550 तक की जेनेटिक रिसर्च बताती है कि इस दौर में अचानक इन्डोगेमी (सगोत्र विवाह यानि जाति के भीतर विवाह) आरंभ होते हैं अर्थात जाति प्रथा आरंभ होती है (बासु एट आल. 2016).
ये आज से लगभग 70 पीढ़ियों पहले की बात है. ठीक से देखें तो यह ब्राह्मणवाद के शिखर का काल है. इसी दौर में जातियों का विभाजन काम के आधार पर ही नहीं, बल्कि रक्त शुद्धि और धार्मिक सांस्कृतिक भाषागत शास्त्रगत और आचरण की शुचिता आदि के आधार पर मनुष्य समुदायों का कठोर बटवारा आरंभ होता है. इसी तरह एक अन्य विद्वान् (मूर्जानी एट आल. 2013) के अध्ययन के अनुसार इंडो यूरोपियन भाषा बोलने वालों में 72 पीढ़ियों पहले इन्डोगेमी अर्थात अंतरजातीय विवाह आरंभ हुए.
मतलब साफ़ है कि पहले आर्य आक्रमणकारियों ने खुद में ही जातियां पैदा कीं और बाद में शेष भारत पर धीरे—धीरे लादना शुरू किया. (मूर्जानी एट आल. 2013) इस काल को आज से 72 पीढ़ियों पहले यानी लगभग 1900 से 3000 साल पुरानी घटना बताते हैं. यह बात डॉ. अंबेडकर की खोज की तरफ इशारा करती है.
डॉ. अंबेडकर ने अपने धर्मशास्त्रीय और मानवशास्त्रीय शोध के आधार पर कहा है कि पहले अंतरजातीय विवाह ब्राह्मणों में शुरू हुए फिर शेष वर्णों जातियों में फ़ैल गये. यहाँ उल्लेखनीय है कि डॉ. अंबेडकर आर्य आक्रमण को स्वीकार नहीं करते थे लेकिन वे ब्राह्मणी षड्यंत्र और आधिपत्य की बात को जरूर स्वीकार करते थे और ब्राह्मणवादी षड्यंत्र को भारत में वर्ण और जाति व्यवस्था के जन्म सहित भारत के सांस्कृतिक और नैतिक पतन के लिए जिम्मेदार मानते थे.
आगे के नगरीय सभ्यता के नाश विवरण भी इसी दौर से जुड़े हुए हैं. भारत में नगरीय सभ्यता का नाश ब्राह्मणवाद के उदय से जुदा हुआ है. नए अध्ययन बताते हैं कि मूल भारतीय संस्कृति नागर संस्कृति थी जिसमे व्यापार को अधिक महत्व दिया गया था. नागर संस्कृति में एक साथ नजदीक रहवास के कारण सामाजिक सौहार्द्र और लोकतंत्र भी बना रहता था. इससे ज्ञान विज्ञान और सभ्यता का विकास भी तेजी से हुआ था.
लेकिन यूरेशियन आर्यों को मूल भारतीयों से निकटता पसंद न थी लेकिन इन पुरुष आर्यों को भारतीय स्त्रियां भी चाहिए थीं. इसलिए उन्हें पसंद नापसंद और दूरी और निकटता का बड़ा जटिल सवाल सुलझाना पड़ा. इसी क्रम में वर्ण और जाति ने जन्म लिया. इसी कारण स्त्रियों को भी अन्य भारतीयों की तरह शूद्र कहा गया और उन्हें आर्य शास्त्रों को पढने की इजाजत नहीं दी गयी.
इस तरह आर्य ब्राह्मणों ने राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक कारणों से स्वयं अपने समुदाय में भेदभाव और दूरियाँ निर्मित की और इस भेदभाव के बावजूद समाज को एक रखने के लिए वर्ण व्यवस्था आश्रम व्यवस्था और ईश्वर सहित देवी देवताओं और मिथकों का निर्माण किया.
इस प्रकार जेनेटिक और मानवशास्त्रीय खोजों को अगर समाजशास्त्रीय और सांस्कृतिक विकास या पतन के नजरिये से देखें तो आर्य आक्रमण के आबाद जेनेटिक मिक्सिंग, भाषाई सांस्कृतिक बदलाव और नागरी सभ्यता के पतन सहित भारत के नैतिक और दार्शनिक पतन सहित वर्ण व्यवस्था और जाती व्यवस्था के उभार की एक पूरी तस्वीर साफ़ होना शुरू होती है.
आर्य आक्रमण थ्योरी के सच साबित हो जाने के बाद अब कुछ आर्यों की तरफ से एक नई बात आयेगी, वे कहेंगे कि पहले अफ्रीका से इंसान आये भारत को खोजा और इसे आबाद किया, फिर शक, हूण आये और बस गये, फिर तुर्क, मंगोल, मुगल आये. लेकिन वे अंग्रेजों का नाम नहीं लेंगे, वरना उनसे पूछा जाएगा कि अंग्रेजों को भगाया क्यों?
हालाँकि मूलनिवासी की बहस भी पूरी तरह ठीक नहीं है कोई भी किसी जगह का मूलनिवासी होना सिद्ध करे तो उसके पक्ष और विपक्ष में पर्याप्त तर्क हैं और मूलनिवासी होने के दावे से फायदे और खतरे भी बराबर हैं.
वैसे अंग्रेजों की शेष मेहमानों से तुलना ठीक भी नहीं है. अंग्रेजों के आक्रमण की आर्य आक्रमण से तुलना करना इसलिय पसंद नहीं की जाती क्योंकि अंग्रेजों ने शक, हूण, मंगोल, तुर्क, मुगल आदि की तरह भारतीयों से विवाह और खानपान के रिश्ते नहीं स्वीकार किये, वे हमेशा एलीट ही बने रहे और लूटते रहे. उनकी लूट भौगोलिक दृष्टि से साफ़ थी. वे भारत को लूटकर लूट का माल ब्रिटेन भेजते थे. जमीन के भूगोल में उनकी लूट साफ़ नजर आती थी.
लेकिन यही काम आर्य भी करते हैं, वे भी शेष भारतीयों से भोजन और विवाह के रिश्ते नहीं बनाते, इसीलिये उन्होंने वर्ण और जाति बनाई. अंग्रेजों की लूट से आर्य ब्राह्मणों की लूट कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हुई है. इन्होंने जमीन के भूगोल से ज्यादा समाज के भूगोल में लूट और लूट का संचय किया है. भारत की 85 प्रतिशत से अधिक आबादी को अपने ही गाँव गली मुहल्ले और देश में अपनी ही जमीन पर सामाजिक भूगोल (सोशल जियोग्राफी) में अलग—थलग और अधिकारहीन बनाया गया है. आर्य ब्राह्मणों ने इन बहुसंख्यकों से की गयी लूट का माल अपनी जातियों और वर्णों में भरने का काम किया है.
गौर से देखिये, ये लूट अभी भी जारी है और बहुत भयानक पैमाने पर चल रही है.
भारत के मंत्रियों, (कैबिनेट मंत्री, राज्य मंत्री) आईएएस, आईपीएस, मुख्य ठेकेदार, मन्दिरों के पुजारी, न्यायपालिका के जज, विश्वविद्यालयों के कुलपति, डीन, विभाग प्रमुख, प्रोफेसर और टीचर कौन हैं? किस वर्ण और जाति से आते हैं इसे ध्यान से देखिये. इन सभी पदों पर 50 से लेकर 70 प्रतिशत तक यूरेशियन ब्राह्मण आर्य बैठे हुए हैं. जो शेष भारत की जनसंख्या से भोजन और विवाह के संबंध रखना पसंद नहीं करते हैं.
असल भारतीय जनसंख्या में भारत के जमीनी भूगोल में इन यूरेशियन आर्यों की आबादी 3 प्रतिशत से भी कम है, लेकिन भारत के सामाजिक भूगोल में इन्होने 70 प्रतिशत स्थान घेरा हुआ है. जो लोग गहराई से जानते हैं वे समझते हैं कि भारत हर मामले में पिछड़ा क्यों है.
जिन जिन विभागों और मुद्दों पर आर्यों ने कमान संभाल रखी है उन विभागों और मुद्दों में भारत का प्रदर्शन बहुत खराब है. आप सभी पिछड़े हुए विभागों को उठाकर देखिये इनकी कमान किसने कब से कैसे संभाल रखी है.
तीन उदाहरण देखिये, पहला शिक्षा व्यवस्था जिसमें 60 प्रतिशत से अधिक आर्य ब्राह्मण हैं, दूसरा भारत की न्याय व्यवस्था जिसमें 70 प्रतिशत तक आर्य ब्राह्मण हैं. और तीसरा मीडिया जिसमें नब्बे प्रतिशत तक यूरेशियन आर्यों के वंशज हैं। इन तीनों की क्या स्थिति है हम जानते हैं. भारत की शिक्षा व्यवस्था दुनिया में सबसे पिछड़ी नहीं तो बहुत पिछड़ी जरूर है. न्यायपालिका में करोड़ों मुकदमे पेंडिंग हैं और मीडिया तो अभी चुड़ैल का श्राप, अश्वत्थामा की चड्डी और स्वर्ग की सीढियां खोज रहा है.
भारत को अगर सभ्य बनाना है तो सभी जातियों और वर्णों का प्रतिनिधित्व होना जरूरी है. ये देश के हित की सबसे महत्वपूर्ण बात है. ग्लोबल डेवेलपमेंट या सोशल डेवेलपमेंट की जिनकी थोड़ी सी समझ है वे जानते हैं कि पार्टिसिपेटरी डेवेलपमेंट या गवर्नेंस क्या होता है. सहभागी विकास ही सच्चा तरीका है. इसीलिये भारत में यूरेशियन आर्यों को आवश्यकता से अधिक जो अधिकार दिए गये हैं उन्हें एकदम उनकी मूल जनसंख्या अर्थात तीन प्रतिशत तक सीमित कर देने चाहिए ताकि 85 प्रतिशत भारतीयों - क्षत्रिय, राजपूत, वैश्य, वणिक, छोटे व्यापारी किसान, शूद्र दलितों आदिवासियों और स्त्रियों को समानता और प्रतिनिधित्व का अवसर मिल सके.
ये भारत के भविष्य के सबसे महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक है.
इस पोस्ट से कईयों को गलतफहमी और तकलीफ हो सकती है. मैं दुबारा स्पष्ट कर दूँ कि मैंने ये पोस्ट इसीलिये मूलनिवासी के मुद्दे को गैर महत्वपूर्ण बनाकर लिखी है, मेरी ये पोस्ट इस बात पर केन्द्रित है कि हम या आप या कोई और मूलनिवासी हों या न हों, हम भारतीय नागरिक के रूप में भोजन और विवाह के व्यवहारों में एकदूसरे को कितना शामिल करते हैं. यही अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात है. समानता और बंधुत्व सहित स्वतंत्रता भारत की ऐतिहासिक संस्कृति रही है. लेकिन जाति और वर्ण व्यवस्था बनाकर समता, स्वतन्त्रता और बंधुत्व को बाधित करने वालों को देश के दुश्मनों की तरह पहचानना भी जरूरी है.