Jan 14, 2010

सरकारी नवटंकी है, महंगाई पर लाचारी- गुरुदास दास गुप्ता

आवश्यक वस्तुओं और खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों का मुखर और तार्किक विरोध संसदीय-गैरसंसदीय कम्युनिस्ट पार्टियां ही कर रही हैं। फरवरी में राष्ट्रव्यापी बंद की तैयारी में जुटी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ट्रेड यूनियन 'एटक'  के राष्ट्रीय महासचिव और सांसद गुरुदास दास गुप्ता से महंगाई के मसले पर अजय प्रकाश की बातचीत


मुद्रास्फीति लगातार घट रही है,लेकिन महंगाई तेजी से बढ़ती जा रही है। क्या कारण है?

मुद्रास्फीति के घटने और महंगाई के बढ़ने का कोई रिश्ता नहीं है। दोनों अलग-अलग चीजें हैं। मुद्रास्फीति घटेगी तो महंगाई भी घटेगी वाला तर्क लोगों को बहलाने वाला है। जो मीडिया इस मसले पर जनता को जागरूक कर सकता है,उसकी प्राथमिकता में महंगाई के मुकाबले स्टॉक मार्केट का उतार-चढ़ाव छाया रहता है।

खाद्य वस्तुओं के दामों में इजाफा होने से क्या किसानों का भी लाभ बढ़ा है?

बिल्कुल भी नहीं। महंगाई बढ़ने से सिर्फ राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों को फायदा हो रहा है। सरकार की जनविरोधी नीतियों के कारण किसानों की हालत यह हो गयी है कि मुनाफे की कौन कहे,उन्हें खेती की लागत नहीं मिल रही है। फसलों की कीमतों में जो वृध्दि हो रही है,उसका एक पैसा भी किसान के घर नहीं जा रहा है, बल्कि हर साल खाद, पानी, बीज और दवा की बढ़ती कीमतों को पूरा करना ही किसानों के बूते से बाहर हो गया है। हाल ही में केंद्र सरकार के उचित लाभकारी मुल्य के खिलाफ गन्ना किसानों को एमएसपी के लिए संघर्ष करना स्पष्ट करता है कि सरकार कैसे पूंजीपतियों के पक्ष में सरेआम कानून बना रही है।

पिछले कुछ वर्षों में महंगाई अभूतपूर्व ढंग से बढ़ी है,आपकी पार्टी इसके मुख्य कारण क्या मानती है?

मेरा अनुमान है कि 2004से महंगाई के बढ़ने का सिलसिला तेजी शुरू हुआ है। हम लोगों ने संसद में,सरकार के लोगों से मिलकर, सभाएं करके, लिखित-मौखिक हर तरह से सरकार को चेताया कि भूंमंडलीकरण के अंधी दौड़ में भारतीय अर्थव्यवस्था को न लपेटिए। लेकिन सरकार नहीं मानी। संसद में करोड़पति सांसदों को बटोरने वाली सरकारों को इसका आभास ही नहीं कि जनता महंगाई की चक्की में पिस रही है और वे मुक्त बाजार व्यवस्था के पक्ष में जयजयकार कर रहे हैं।
यह सरकारी नीतियों का कमाल है कि राशन प्रणाली को मुनाफाखोरी के लिए बर्बाद कर दिया गया। केंद्र को केरल सरकार से सीखना चाहिए कि किस तरह वहां की सरकार ने राशन प्रणाली को बेहतर तरीके से लागू कर महंगाई पर काबू पाया है। साथ ही वहां के गरीब और वंचित तबके अन्य राज्यों के मुकाबले महंगाई की मार कम झेल रहे हैं। औद्योगिक पूंजीपतियों की कठपुतली और और व्यापारिक घरानों के इशारों पर संचालित होने वाली सरकार की असलियत है कि उसकी आयात-निर्यात नीति भी देश की जरूरत से नहीं,बल्कि पूंजीपतियों के मुनाफे को ध्यान में रख तय की जाती है।

देश की बड़ी आबादी के पास दो वक्त का भोजन नहीं है। ऐसे में महंगाई मानव विकास की दर को कहां ले जायेगी?

इसकी चिंता किसको है। सत्ताधारी वर्ग चाहे वे राजनीतिज्ञ हों या समाज के समृध्द लोग, सभी को सेंसेक्स और रुपये की बढ़ती चमक के अलावा कुछ नहीं दिखता है। पिछले साठ वर्षों में यह पहली बार है कि मंदी और मुनाफे की दो विरोधाभासी अर्थव्यवस्थाएं एक साथ इतने तीखे ढंग से आमने-सामने हैं।

सरकार की इन जनविरोधी नीतियों के खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टियों की क्या तैयारी है?

पार्टी संसदीय दल के नेता होने के नाते मैंने संसद के शीतकालीन सत्र में महंगाई को काबू कर पाने में अक्षम मनमोहन सरकार से श्वेत पत्र जारी करने की मांग की थी। लेकिन उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। हर मोर्चे पर विफल यूपीए सरकार महंगाई कम करने में जो अक्षमता जाहिर कर रही है वह अपने आकाओं को खुश करने के लिए है। योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह आहुलवालिया,केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार,वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह महंगाई के सामने लाचारी का रोना रो रहे हैं। फिलहाल सरकार इस की नवटंकी के खिलाफ सीपीआइ के अलावा अन्य कम्युनिस्ट पार्टियां महंगाई के खिलाफ एक व्यापक जनांदोलन की तैयारी में लगी हुई हैं। फरवरी या मार्च में हम महंगाई के खिलाफ एक राष्ट्रव्यापी बंद की तैयारी में हैं।