Apr 16, 2011

बिनायक सेन की रिहाई का मतलब

सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी  से न केवल छत्तीसगढ़ सरकार की लचर दलील की बखिया उधेड़  दी है, बल्कि रमन सिंह सरीखी सरकारों की असली नीयत से पर्दा भी उठा दिया है...
पीयूष पंत

डॉक्टर सेन की रिहाई के लिए देश-विदेश
में लोग सड़कों पर उतर आए थे.
मानवाधिकार कार्यकर्ता और जन चिकित्सक डाक्टर बिनायक सेन को सुप्रीम कोर्ट से मिली जमानत बिनायक सेन, इलिना सेन और उनके परिवार की निजी जीत के साथ- साथ भारतीय लोकतंत्र, जन सरोकार पर गहरी आस्था और नागरिक समाज की अदम्य ऊर्जा की भी जीत है.यह जीत हमारे उस लोकतांत्रिक अधिकार की भी है जिसके तहत हम विचारधारा विशेष का साहित्य पढ़ने या किसी भी तरह की जानकारी हासिल करने के लिए पूरी तरह आज़ाद हैं,यानी कि ज्ञान प्राप्त करने की हमारी जिज्ञासा न केवल हमारा नैसर्गिक बल्कि संवैधानिक अधिकार भी है.

सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी से यह साफ कर दिया है कि विचारधारा विशेष का साहित्य रखने या पढ़ने से ही यह साबित नहीं हो जाता है कि आप उस विचारधारा के अनुयायी भी हैं. वैसे भी ज्ञान कि धारा और सूचना की बयार अविरल बहनी ही चाहिए. किसी भी समाज के सभ्य, प्रगतिशील और विकसित होने की यह पहली शर्त है.इसलिए छत्तीसगढ़ सरकार का यह बचकाना तर्क कि डाक्टर बिनायक सेन के पास माओवादी साहित्य पाया गया इसलिए वे राज्य के खिलाफ साज़िश में शामिल थे. इसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया.उसने इस ओर भी इशारा किया कि माओवादी विचारधारा का अध्ययन करना राज्यविरोधी गतिविधि नहीं है.न ही यह हिंसक विचारधारा है,यह उतनी ही हिंसक हो सकती है जितनी महत्मा गाँधी कि आत्मकथा.

छत्तीसगढ़ की रमन सिंह की भाजपा सरकार ने केवल माओवादी साहित्य रखने और पढने को संगीन अपराध मानते हुए डाक्टर बिनायक सेन को नक्सली करार दे दिया था. वहां की एक निचली अदालत ने उन्हें देशद्रोही बताते हुए आजीवन कारावास की सजा भी सुना दी थी.

सालों से मानवाधिकारों की रक्षा के लिए मुस्तैद और घने जंगलों में बसे उपेक्षित आदिवासियों को ज़रूरी चिकित्सा सुविधा मुहैया करवाने में निस्वार्थ भाव से लगे डाक्टर बिनायक सेन के लिए इससे ज्यादा क्रूर मज़ाक और क्या हो सकता था?

सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिपणी से न केवल छत्तीसगढ़ सरकार की लचर दलील की बधिया उखेड दी है बल्कि रमन सिंह सरीखी सरकारों की असली नीयत से पर्दा भी उठा दिया है.

 आम जानकारी यह है कि डाक्टर बिनायक सेन द्वारा राज्य की ओर से प्रायोजित कार्यक्रम सलवा जुडूम की लगातार आलोचना रमन सिंह सरकार को नहीं सुहा रही थी,इसलिए उनकी आवाज को बंद करने के लिए उसे एक हथियार चाहिए था. उसे लगा कि बिनायक सेन को माओवादी घोषित कर आसानी से उन्हें काल कोठरी में डाला जा सकता है. इस तरह सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों की आलोचना करने वाले लोकतंत्र के हिमायती लोगों को संदेश भी दिया जा सकता है.वैसे भी मेरे महान देश क़ी सरकारों के लिए जनता के नैसर्गिक और संवैधानिक अधिकारों को कुचलने और उसकी आवाज को दबाने के लिए माओवाद और आतंकवाद रेडिमेड हथियार बन गए हैं.

भूमंडलीकरण को कॉरपोरेटी लूट का चारागाह बनाने वाली विकसित देशों और कुछ विकासशील देशों की सरकारों के लिए आतंकवाद और माओवाद उम्दा हथियार साबित हुए हैं, न केवल कॉरपोरेटी लूट और सरकारी दलाली के खिलाफ उठती जागरूक जनता की आवाज को कुचलने में बल्कि इन दोनों "वाद" के नाम पर आने वाली राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सहायता से नेता-अधिकारियों की जेबें भरने में भी.

माओवाद को राज्य के खिलाफ हिंसा भड़काने वाले दर्शन और माओवादियों को आतंकवादी के रूप में प्रचारित करने वाली सरकारें क्या बताएंगी की सलवा जुडूम जैसे कार्यक्रम चला कर जनता के एक वर्ग को दूसरे के खिलाफ हिंसक व्यवहार अपनाने के लिए प्रेरित कर या फिर कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में सेना द्वारा लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ रही जनता पर गोली चलवा कर कौन सी रामधुन सुनवाई जा रही है. शायद ‘वैदिक हिंसा हिंसा न भवती’ की तर्ज़ पर हमारे देश की विभिन्न सरकारें मानने लगी हैं कि सरकारी हिंसा को हिंसा नहीं कहा जा सकता है.

हमें तो इंतज़ार है उस दिन का जब एक और बिनायक सेन लंबी यंत्रणा झेलते हुए सुप्रीम कोर्ट को यह टिप्पणी करने के लिए मजबूर कर देगा कि लोकतंत्र में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही जनता पर सरकारों द्वारा किया गया किसी भी प्रकार का हमला 'हिंसक' ही माना जाएगा. उस कुकृत्य के लिए जिम्मेदार अधिकारी, मंत्री या फिर मुख्यमंत्री आजीवन कारावास की सजा भुगतेगा.

फिलहाल तो सुप्रीम कोर्ट न्याय का मान रखने और उन तमाम प्रबुद्ध नागरिकों की संभावित रिहाई का मार्ग प्रशस्त करने के लिए बधाई का पात्र है, जिन्होंने पूंजीवादी विकास की कलई उजागर करने का खामियाजा सीखचों के पीछे जीवन बिता कर भरना पड़ रहा है.


लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पत्रिका 'लोक संवाद'के संपादक हैं.उनसे panditpant@gmail.com    पर संपर्क किया जा सकता है.





भ्रष्ट व्यवस्था का सेफ्टी वाल्व बनेगा अन्ना आन्दोलन

अण्णा हजारे की पांचों मांगें मान ली गयीं हैं. शासकवर्ग भी किसी ऐसे ही आन्दोलन  के जरिए भ्रष्टाचार की समस्या को अस्थायी तौर पर हल करना चाहता था. इस आंदोलन ने सरकार के लिए एक तरह से सेफ्टीवाल्व का ही काम किया...

जयप्रकाश नरेला

गांधीवादी    नेता अण्णा हजारे लोकपाल बिल को संसद में पास कराकर वर्तमान व्यवस्था में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहते  हैं. वे  मानते हैं कि लोकपाल भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाएगा और प्रधानमंत्री तक पर कार्रवाई  करने का अधिकार रखेगा.अन्ना के इस सपने को पूरा करने की नूराकुश्ती आज से मसौदा समिति ने शुरू कर दी  है और देश भ्रष्टाचार ख़त्म करने वाली  उस जादुई छड़ी का इंतज़ार कर रहा है.  

किसी भी देश की अर्थव्यस्था और उसके ऊपरी ढांचे (राजनीति,सामाजिक संस्थान, संस्कृति, कला और साहित्य) को चलाने के लिए उत्पादन उसका आधार होता है,जैसे कृषि और उद्योग. भारत में उत्पादन के दोनों साधनों पर चंद उद्योगपतियों का कब्जा है.ये सभी उद्योग मुनाफे पर आधारित हैं. मुनाफा श्रम का शोषण है.यह मुनाफा, शोषण की इस व्यवस्था में लगातार बढ़ता गया. भारत का संविधान निजि उद्योगों पर व्यक्तिगत अधिकार की गारंटी देता है.इनकी सुरक्षा के लिए उसमें पर्याप्त प्रावधान भी है.पूंजी के तंत्र पर आधारित उसकी संस्कृति सामाजिक व्यवस्था में फल-फूल रही है.
समर्थन में हिरोइन उर्मिला मांतोडकर

यहां हर चीज बिकाऊ है.हर चीज एक उत्पाद है.सामाज का नैतिक मूल्य पैसा बनता जा रहा है, क्योंकि पूंजीवादी समाज व्यक्ति प्रधान,व्यक्तिपूजक, निजि संपत्ति और पद की प्रतिष्ठा पर आधारित है. पूंजीवादी व्यवस्था विशिष्ट व्यक्ति को ही सम्मान देने की संस्कृति विकसित करती है, न की मेहनत और ईमानदारी जैसे नैतिक मूल्यों और मान्यताओं को. हमारी शिक्षा व्यवस्था भी इसी को बढ़ावा देती है.उसका उद्देश्य पढ़-लिखकर समाज पर रोब गांठना और किसी भी तरह बेतहाशा पैसा कमाना बन गया है. समाज में अमीर को ही इज्जत मलती है, गरीब को नहीं. भले ही वह कितना भी ईमानदार क्यों न हो.

अण्णा हजारे अपने आंदोलन में आर्थिक ढांचे की बात नहीं उठा रहे हैं.वे आर्थिक ढांचे पर खड़े राजनीतिक और सामाजिक ढांचे की बात कर रहे हैं. वे राजनीतिक ढांचे में सुधार की बात कर रहे हैं. वे पेड़ के जड़ की नहीं, उसकी कोपलों और टहनियों की बात कर रहे हैं. वे कोपलों में सुधार चाहते हैं.पेड़ की जड़ से अण्णा को कोई गुरेज नहीं है. कहा जाता है कि जैसा बीज होगा वैसा ही पौधा और उसकी कोपलें होंगी. यहां बीज तो पूंजीवाद है. लेकिन वे ऊपरी ढांचा समाजवाद का बनाना चाहते हैं. अण्णा हजारे ने साफ भी कर दिया है कि वर्तमान व्यवस्था में भ्रष्टाचार कभी पूरी तरह से खत्म नहीं होगा.

अण्णा जिस जन लोकपाल बिल की बात कर रहे हैं उससे भ्रष्टाचार कितना खत्म होगा यह तो आने वाला समय बताएगा.लेकिन सवाल यह है कि भ्रष्टाचार को पूरी तरह खत्म करने की मुहिम न चलाने के पीछे इस आंदोलन की मजबूरी क्या है?भ्रष्टाचार कुछ कम हो जाए लेकिन ज्यादा नहीं, यह भी कोई बात हुई.  जाहिर तौर पर भ्रष्टाचार पूरी व्यवस्था से समूल नष्ट होना चाहिए. इसके लिए आंदोलन और उपाय होने चाहिए.

अगर हम इस आंदोलन के चारित्र को देखें तो इसका उद्देश्य वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में सुधार कर इसे और मजबूत बनाना है. इसलिए यह आंदोलन इसी व्यवस्था के भीतर की लड़ाई है. इस का नेतृत्व चाहता है कि पूंजीवाद और निजी  पूंजी पर आधारित इस व्यवस्था में कुछ लुटेरे उद्योगपतियों की व्यवस्था बनी रहे. इसके लिए भ्रष्टाचार थोड़ कम कर दिया जाए. इसलिए मध्यवर्ग का ऊपरी हिस्सा इस आंदोलन का हिस्सा बन गया.पूरे आंदोलन में किसी ने भी आर्थिक ढांचे पर सवाल नहीं उठाए और उसको भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया.

अण्णा के पांच दिन के इस आंदोलन में मजदूर, किसान और गरीब जनता का कहीं नजर नहीं आई. जो नजर आए उनमें 50हजार से तीन लाख रुपए प्रतिमाह की तनख्वाह पाने वाले या छोटे-मोटे व्यापारी थे.यहां यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि इस आंदोलन को भारत की मीडिया ने चलाया. मीडिया की वजह से इस अभियान को प्रोत्साहन मिला. इसे फोर्ड फाउंडेशन का पूरा समर्थन था. लेकिन आंदोलन के चार दिन बाद का घटनाक्रम चौंका देने वाला था.

शासकवर्ग ने अण्णा हजारे की पांचों मांगें मान लीं.शासकवर्ग भी किसी ऐसे केंद्र के जरिए इस समस्या को अस्थायी तौर पर हल करना चाहता था. इस आंदोलन ने सरकार के लिए एक तरह से सेफ्टीवाल्व का ही काम किया. एक समय तो केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने अपरिक्वता के कारण यह भी कह दिया कि बिल बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई, बिजली-पानी और तमाम समस्याओं का समाधान कैसे करेगा? लेकिन आकाओं की फटकार पड़ते ही वे चुप्पी साध गए. लेकिन वे सही बात कह गए.

भारत में दो तरह के वर्ग हैं, एक वह जो मेहनत-मजदूरी कर कमाता है, दूसरा वह जो उनकी कमाई को हर तरह से लूटता है.अण्णा हजारे और उनके साथियों से पूछा जाए कि भारत के उद्योगपति और कारपोरेट घराने किस वर्ग में हैं?उनसे यह भी पूछा जाए कि भ्रष्टाचार का जनक इनमें से कौन है?क्या वे भ्रष्टाचार के जनक को खत्म करने के लिए कभी आंदोलन करेंगे?मुझे तो ऐसा नहीं लगता है कि वे कभी ऐसा करेंगे,क्योंकि वैचारिक और दर्शन के धरातल पर अण्णा शासक वर्ग के ही हिस्से नजर आते हैं.

अण्णा का अभियान पांचवे दिन ही क्यों खत्म हो गया?शासकवर्ग और आंदोलनकारियों को यह बखूबी पता था कि जितना काम करना है, उतना करो, लंबा खिंचने से व्यवस्था के विरोध में यदि स्वत: स्फूर्त आंदोलन चल गया होता तो अण्णा हजारे और शासकवर्ग के लिए एक नई मुश्किल पैदा हो जाएगी. ऐसे में अण्णा पीछे रह जाते और आंदोलन आगे निकल जाता. इसलिए अभियान को पांच दिन में ही निपटा दिया गया. 

मध्यवर्ग का निचला हिस्सा वास्तव में भ्रष्टाचार से दिन-प्रतिदिन जूझ  रहा है. उसकी चेतना को आगे छंलाग लगानी थी.लेकिन इस चेतना का विकास अण्णा हजारे और उनकी टीम या शासकवर्ग के पहुंच के बाहर की चीज है. तब यह आंदोलन शायद सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था विरोधी आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर लेता.शासकवर्ग चाहता था कि इस मसले पर अन्य वर्गों की लामबंदी न हो जाए. इसलिए आंदोलन को जल्द से जल्द निपटा दिया गया.

अन्ना की मांग के लिए जंतर मंतर पर उतरे युवा

यहां हमारा कहना यह है कि पूंजी पर खड़े तंत्र का पूंजी द्वारा निर्मित संस्कृति में भ्रष्टाचार भी उसी का हिस्सा है. इसे संपूर्णता में समझना होगा.केवल एक कानून उसका समाधान नहीं हो सकता है.आमूलचूल परिवर्तन ही भ्रष्टाचार और समाज के सभी दोषों से समाज को मुक्ति दिला सकता है. अण्णा हजारे की सोंच और उनके आंदोलन की यही सीमाएं हैं.

हम भ्रष्टाचार को थोडा-बहुत  समाप्त नहीं करना चाहते हैं, जैसा अण्णा हजारे कह रहे हैं. हम भ्रष्टाचार को समूल खत्म करना चाहते हैं.इसका रास्ता क्या होगा और इसकी मंजिल क्या होगी?यह किसी आंदोलन और उसके नेतृत्व के सामने शीशे की तरह साफ होना चाहिए.इसके बाद ही आंदोलन को उसके अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है.

हमे पहले भ्रष्टाचार के असली कारण को समझना होगा.यह पनपा कैसे?इसे खाद-पानी कहा से मिला? यह नीचे के आदमी तक कैसे पहुंचा? व्यवस्था और समाज कैसे भ्रष्ट हो गया?

इसका दोष भारत के अर्थतंत्र में नजर आता है.यह अर्थशास्त्र पूरे भात में ऐसी मूल्य-मान्यताओं और संस्कृति को बढ़ावा दे रहा है और सामाजिक स्पर्धा को जन्म दे रहा है, जो एक-दूसरे को लूटें. एक दूसरे का शोषण करें.ज्यादा से ज्यादा धनवान बने.ऐसी बाजारू संस्कृति में मानवीय गरिमा में लगातार गिरावट आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है.

 इस प्रक्रिया में लोग रीढ़विहीन केंचुए जैसे बनने लगते हैं. वे पूंजी के दास बन जाते हैं. आज संस्कृति,मानवीय मूल्यों और गरिमा पर पैसे और पूंजी तंत्र का शासन है.यही हमारे समाज का अर्थशास्त्र है. अण्णा की पांच दिनी आंदोलन इसका इलाज तो कतई नहीं है. यह एक लंबी और सतत चलने वाली लड़ाई है. राजनीतिक सुधार न होकर व्यवस्था परिवर्तन ही इसका एकमात्र उपाय है.