सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी से न केवल छत्तीसगढ़ सरकार की लचर दलील की बखिया उधेड़ दी है, बल्कि रमन सिंह सरीखी सरकारों की असली नीयत से पर्दा भी उठा दिया है...
पीयूष पंत
डॉक्टर सेन की रिहाई के लिए देश-विदेश में लोग सड़कों पर उतर आए थे. |
सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी से यह साफ कर दिया है कि विचारधारा विशेष का साहित्य रखने या पढ़ने से ही यह साबित नहीं हो जाता है कि आप उस विचारधारा के अनुयायी भी हैं. वैसे भी ज्ञान कि धारा और सूचना की बयार अविरल बहनी ही चाहिए. किसी भी समाज के सभ्य, प्रगतिशील और विकसित होने की यह पहली शर्त है.इसलिए छत्तीसगढ़ सरकार का यह बचकाना तर्क कि डाक्टर बिनायक सेन के पास माओवादी साहित्य पाया गया इसलिए वे राज्य के खिलाफ साज़िश में शामिल थे. इसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया.उसने इस ओर भी इशारा किया कि माओवादी विचारधारा का अध्ययन करना राज्यविरोधी गतिविधि नहीं है.न ही यह हिंसक विचारधारा है,यह उतनी ही हिंसक हो सकती है जितनी महत्मा गाँधी कि आत्मकथा.
छत्तीसगढ़ की रमन सिंह की भाजपा सरकार ने केवल माओवादी साहित्य रखने और पढने को संगीन अपराध मानते हुए डाक्टर बिनायक सेन को नक्सली करार दे दिया था. वहां की एक निचली अदालत ने उन्हें देशद्रोही बताते हुए आजीवन कारावास की सजा भी सुना दी थी.
सालों से मानवाधिकारों की रक्षा के लिए मुस्तैद और घने जंगलों में बसे उपेक्षित आदिवासियों को ज़रूरी चिकित्सा सुविधा मुहैया करवाने में निस्वार्थ भाव से लगे डाक्टर बिनायक सेन के लिए इससे ज्यादा क्रूर मज़ाक और क्या हो सकता था?
सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिपणी से न केवल छत्तीसगढ़ सरकार की लचर दलील की बधिया उखेड दी है बल्कि रमन सिंह सरीखी सरकारों की असली नीयत से पर्दा भी उठा दिया है.
आम जानकारी यह है कि डाक्टर बिनायक सेन द्वारा राज्य की ओर से प्रायोजित कार्यक्रम सलवा जुडूम की लगातार आलोचना रमन सिंह सरकार को नहीं सुहा रही थी,इसलिए उनकी आवाज को बंद करने के लिए उसे एक हथियार चाहिए था. उसे लगा कि बिनायक सेन को माओवादी घोषित कर आसानी से उन्हें काल कोठरी में डाला जा सकता है. इस तरह सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों की आलोचना करने वाले लोकतंत्र के हिमायती लोगों को संदेश भी दिया जा सकता है.वैसे भी मेरे महान देश क़ी सरकारों के लिए जनता के नैसर्गिक और संवैधानिक अधिकारों को कुचलने और उसकी आवाज को दबाने के लिए माओवाद और आतंकवाद रेडिमेड हथियार बन गए हैं.
भूमंडलीकरण को कॉरपोरेटी लूट का चारागाह बनाने वाली विकसित देशों और कुछ विकासशील देशों की सरकारों के लिए आतंकवाद और माओवाद उम्दा हथियार साबित हुए हैं, न केवल कॉरपोरेटी लूट और सरकारी दलाली के खिलाफ उठती जागरूक जनता की आवाज को कुचलने में बल्कि इन दोनों "वाद" के नाम पर आने वाली राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सहायता से नेता-अधिकारियों की जेबें भरने में भी.
माओवाद को राज्य के खिलाफ हिंसा भड़काने वाले दर्शन और माओवादियों को आतंकवादी के रूप में प्रचारित करने वाली सरकारें क्या बताएंगी की सलवा जुडूम जैसे कार्यक्रम चला कर जनता के एक वर्ग को दूसरे के खिलाफ हिंसक व्यवहार अपनाने के लिए प्रेरित कर या फिर कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में सेना द्वारा लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ रही जनता पर गोली चलवा कर कौन सी रामधुन सुनवाई जा रही है. शायद ‘वैदिक हिंसा हिंसा न भवती’ की तर्ज़ पर हमारे देश की विभिन्न सरकारें मानने लगी हैं कि सरकारी हिंसा को हिंसा नहीं कहा जा सकता है.
हमें तो इंतज़ार है उस दिन का जब एक और बिनायक सेन लंबी यंत्रणा झेलते हुए सुप्रीम कोर्ट को यह टिप्पणी करने के लिए मजबूर कर देगा कि लोकतंत्र में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही जनता पर सरकारों द्वारा किया गया किसी भी प्रकार का हमला 'हिंसक' ही माना जाएगा. उस कुकृत्य के लिए जिम्मेदार अधिकारी, मंत्री या फिर मुख्यमंत्री आजीवन कारावास की सजा भुगतेगा.
फिलहाल तो सुप्रीम कोर्ट न्याय का मान रखने और उन तमाम प्रबुद्ध नागरिकों की संभावित रिहाई का मार्ग प्रशस्त करने के लिए बधाई का पात्र है, जिन्होंने पूंजीवादी विकास की कलई उजागर करने का खामियाजा सीखचों के पीछे जीवन बिता कर भरना पड़ रहा है.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पत्रिका 'लोक संवाद'के संपादक हैं.उनसे panditpant@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.