Mar 27, 2017

मम्मी पापा का सर्जिकल स्ट्राईक, रोमियो और योगी

ललित सती

एक अंग्रेज़ी गाना है - आई एम किसिंग यू। बढ़िया गाना है। ऊपी का रोमियो भी किस करना चाहता है, जूलियट भी चाहती है। लेकिन कहाँ करे। अपने घर में? जूलियट के घर में? वहाँ तो कोई स्कोप नहीं है। स्कूल में? वहाँ भी कोई स्कोप नहीं। सड़कों पर, किसी झील के किनारे? समाज की आँखें सजग हैं। कहीं कोई स्कोप नहीं। 

होटल में कमरा लेने के पैसे नहीं। वे पार्क पहुँचते हैं। किसी झाड़ की आड़ में बैठते हैं। वहाँ पुलिस आ टपकती है। छुप के इसलिए करते हैं लगता है जैसे कोई अपराध करने जा रहे हों। अपराध ही ठैरा। दोनों ने अपने-अपने माँ-बाप को कभी एक दूसरे को बाँहों में लेते नहीं देखा, चूमते हुए देखना तो बहुत दूर की बात है। स्त्री पुरुष संबंध क्या होते हैं वे क्या जानें।

बचपन में पता चला था कि भगवान जी की वजह से बच्चा हो जाता है, बाद में लगा नहीं, कुछ ऐसा नहीं। बस, इतना समझ आया कि रात के अँधेरे में कोई सर्जिकल स्ट्राइक होती है और बच्चे हो जाते हैं, और बस इत्ता ही होता है स्त्री-पुरुष संबंध। लड़का मसें भींजने के साथ अँधेरे में छाती पर हाथ मारना, दबोच लेना टाइप शिक्षा तो अपने सीनियरों से पा लेता है, इससे अधिक परिवार से उसे कुछ ज्ञान नहीं मिल पाता, न स्कूल में कि किसी स्त्री से कैसे व्यवहार किया जाए। 

ऐसे पिछड़े परिवेश से आने वाले लड़कों से समझदार लोग कहते हैं - ऐ नालायक, प्रेम महज देह नहीं और यदि प्रेम करते हो तो बग़ावत कर डालो। लड़का, न लड़की, समझ नहीं पाते किससे बग़ावत करें। समझदार कहता है- ग़र बग़ावत नहीं कर सकते तो डूब मरो चुल्लू भर पानी में। चुल्लू भर पानी में डूबना संभव नहीं तो एक दिन रोमियो जूलियट फाँसी खा लेते हैं या किसी नदी में डूब मरते हैं हिंदुस्तान में। इति वार्ता हो जाता है, समाज की संस्कृति बची रह जाती है। समझदार की बात भी सही साबित हो जाती है कि ये जनता ही मूरख व कायर है।

जो स्पेस हम अपने नौजवानों का छीन रहे हैं, फ्री सेक्स, देह की भूख टाइप फ़ालतू बातें करके, हम नहीं जानते हम कितने असामान्य इंसान तैयार कर रहे हैं। स्त्रियों की तो मुझे नहीं पता, लेकिन पुरुषों में जिन पुरुषों को स्त्रियों का सानिध्य मिला यानी स्त्री का एक इंसान के रूप में सहज स्वाभाविक सानिध्य मिला। जिन्होंने प्रेम किया। जिनके जीवन में कम पाबंदियाँ रहीं। 

ब्रह्मचर्य के नाम पर पैंतीस-चालीस बरस तक ब्याह होने तक जिन्हें लोहे का लंगोट नहीं पहनना पड़ा, वे कहीं बेहतर पुरुष होते हैं। बूढ़े ठरकियों से अधिक बेहतर ढंग से युवा लोग प्रेम के मायने समझते हैं। युवापन में देह के रहस्य जान लेने की उत्सुकता तो होती है, देह पा लेने की ज़िद नहीं। युवापन में आदमी होता है कहीं अधिक संवेदनशील, कहीं बेहतर इंसान।

ठरकी बुड्ढे क्या ज्ञान पेलते हैं, इसे छोड़िए। अपने नौजवानों को स्पेस दीजिए। पार्कों में नहीं है तो घरों में ही दीजिए। यकीन मानिए ये कोई पाप नहीं।

न तो मजनू के पिंजड़े लड़कियों से होने वाली छेड़छाड़ को रोक सके, न कोई एंटी-रोमियो स्क्वाड रोक पाएगा। बस एक भ्रम अवश्य कुछ समय, कुछ बरसों के लिए क्रिएट हो जाएगा, जैसा विमुद्रीकरण के मामले में हुआ।

एकदम नारकीय जीवन में पशुवत जीवन जीते आदमी को प्रेम तो इंसान बना सकता है, मगर कोई डंडा नहीं। न कोई लोहे की लंगोट।

पाखंड के लिए आप भले किसी योगी, साधु, संत, मौलवी, "समझदार" के भक्त बने रहें, अपने बच्चों को तो जीवन दें। सुख मिलेगा।
(ललित सती सामाजिक मसलों पर रोचक टिप्पणियां लिखते हैं. यह टिप्पणी उनके वॉल से )

कमाई ​कला के दलालों के हिस्से और बेगारी आर्टिस्टों के

विश्व थियेटर दिवस पर विशेष 

कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाये तो सार्थक और मूल्यवान रंगमंच कभी भी अनुदान पर निर्भर होकर नहीं हुआ है। इन अपवादों की भी छानबीन करें तो हमें पता चलता है कि जिन रंगकर्मियों ने अनुदान लेकर बेहतर नाटक किये वे अनुदान के बिना भी बेहतर थियेटर करने की क़ाबिलियत रखते रहे हैं...

राजेश चंद्र

हबीब तनवीर अनुदान लेते थे, पर उनका थियेटर अनुदान की वजह से नहीं था। पोंगा पंडित जैसे नाटक अनुदान के बग़ैर भी उसी प्रभावशीलता के साथ हो सकते हैं, जिस तरह अनुदान लेकर। पर ज़्यादातर अनुदानकर्मी रंगकर्मी करते क्या हैं? 5-5 लाख लेकर दो कौड़ी के नाटक नहीं करते। 


कुछ ठेके पर नाटक का मंचन करवा लेते हैं। कुछ पुराने नाटक को दुहरा कर काम चला लेते हैं। कुछ नाटक ही नहीं करते, पूरा हजम कर जाते हैं। कुछ बीच का रास्ता निकालने की कोशिश करते हैं। यानी कुछ नाटक में भी लगा दो और कुछ अपने लिये भी रख लो। यह अनुपात रंगकर्मी में बचे ज़मीर का समानुपाती हुआ करता है, जो वैसे भी सैकड़ों में से किसी एक में मिलता है।

यह हाल तो प्रस्तुति अनुदान का है, पर अगर सैलरी ग्रांट या वेतन अनुदान की बात करें, जिसके अंतर्गत देश में सैकड़ों निर्देशकों को प्रतिवर्ष 10 से 25 लाख रुपये सरकार देती है, उसकी लूट का पैमाना व्यापम जैसे किसी भी महाघोटाले से छोटा नहीं होगा। यह अनुदान अभिनेताओं के वेतन के लिये है, पर उसका 60-70 फीसदी, और कहीं-कहीं तो 90 फीसदी हिस्सा रंगमंडल संचालक या निर्देशक हजम कर जाते हैं।

अभिनेताओं की हैसियत ज़्यादातर रंगमंडलों में दास या बेग़ार खटने वाले मज़दूर से अधिक नहीं होती। देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह उग आने वाले इन  रंगमंडलों का, जिनमें से ज्यादातर केवल काग़ज पर हैं, आपसी नेटवर्क इतना मज़बूत है कि इस गोरखधंधे का विरोध करने वाले अभिनेता को फिर कभी किसी रंगमंडल में काम नहीं मिलता। सी.ए. से फर्जी प्रमाणपत्र बनवा कर, तस्वीरें भेज कर और मंत्रालय के बाबुओं को खुश कर अनुदान हड़प लिये जाते हैं। 

मंत्रालयों में पैठ रखने वाले ताक़तवर रंगकर्मियों ने अलग-अलग लोगों के नाम से कई-कई रंगमंडल बना रखे हैं और वे नये रंगमंडलों के लिये ग्रांट पास करवाने के बदले भरपूर कमीशन भी खा रहे हैं। ऐसे सफेदपोश रंगकर्मी आज सभी राज्यों में कमीशन एजेन्ट का काम कर रहे हैं।

थियेटर में ग्रांट के वितरण और प्रबंध के लिये सरकार ने एनएसडी को नोडल एजेन्सी बना रखा है। थियेटर में बहने वाली भ्रष्टाचार और लूट की महागंगा की गंगोत्री यही ब्राह्मणवादी संस्था है।एनएसडी आज नाटक करने की, कथ्य समझने की तमीज़ नहीं सिखाती, वह उन्हें कुछ ट्रिक्स और फारमूले सिखा देती है, पांच लाख-दस लाख के अनुदान को खपाना सिखाती है, गलत-सही बिल बनाना और प्रोजेक्ट प्रपोज़ल बनाना सिखाती है, ताकि अनुदान के लिये फ़ाइट करने लायक नाटक उसके प्रशिक्षित लोग किसी प्रकार कर लें। एनएसडी प्रशिक्षण के नाम पर आज देश को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं करती। इस पर कभी और बात होगी।

आज थियेटर में अनुदान बंद हो जाये तो 80 फीसदी रंगकर्मी रंगकर्म छोड़ देंगे। अनुदान अपने साथ एक संस्कृति भी लेकर आता है, भ्रष्टाचार, समझौतापरस्ती, अवसरवाद और लोलुपता की! रंगकर्मी एक बार समझौतापरस्त और बेईमान हो गया तो फिर वह रंगकर्मी कहां रह गया! जब आप अनुदान की पात्रता के हिसाब से अपने रंगकर्म का स्वरूप निर्धारित करते हैं, कथ्य और शैली चुनते हैं, तो फिर कथ्य और नीयत और क्वालिटी तो पहले ही संदिग्ध हो जाती है। अगली बार के अनुदान की फिक़्र तो और जानलेवा होती है।

विकास परियोजनाओं के नाम पर देश भर के आदिवासी और दलित विस्थापित हो रहे हैं, उजाड़े जा रहे हैं, उनके जल, जंगल, ज़मीन और संस्कृति की जैसी भयावह तबाही रची जा रही है, वह रंगमंच से क्यों गायब है? बस्तर और दन्तेवाड़ा जैसी जगहों पर, मणिपुर में, असम में, कश्मीर में मानव अधिकारों को बर्बर तरीके से कुचला जा रहा है, वह हमारे नाटकों का विषय क्यों नहीं है? कभी अखलाक, कभी पानसरे, कभी कलबुर्गी और कभी किरवले। रोज़ समाज के सोचने समझने वाले, हाशिये पर जीने वाले लोग मारे जा रहे हैं, दलितों की बस्तियां जलायी जा रहीं हैं, उनको आत्महत्या के लिये मजबूर किया जा रहा है, नंगा कर घुमाया जा रहा है, ये हमारे नाटकों में क्यों नहीं आता? किसानों की इतने बड़े पैमाने पर हो रही आत्महत्याएं रंगमंच में क्यों जगह नहीं पातीं?

इन सवालों का अकेला जवाब यही है कि अनुदान लेकर आप इन मुद्दों पर सवाल नहीं उठा सकते। आपको अनुदान और पुरस्कार मिलता ही इसीलिये है कि आप यह सब नाटक और रंगमंच में नहीं आने दें। जनता के सामने व्यवस्था को कठघरे में खड़ा नहीं कर सकते आप अनुदान लेकर। अनुदान सरकार इसी मकसद से देती है। लोग यह मकसद आगे बढ़ कर पूरा कर रहे हैं।

अनुदान-विमर्श आज रंगमंच का सबसे अपरिहार्य और प्राथमिक सरोकार बन गया है! सारी मेधा और प्रतिबद्धता इसी जोड़-तोड़ और बचाव में चुक रही है! इससे पता चलता है कि हम जिसे रंगकर्म मान रहे हैं उस मान्यता और समझ में ही बहुत भारी लोचा उत्पन्न हो गया है! अगर रंगमंच को, उसकी सामाजिक-राजनीतिक भूमिका को, उसके गौरवशाली इतिहास को बचाना है तो रंगकर्म को सरकारी बैसाखी से मुक्त करना अपरिहार्य हो गया है। इस दिशा में संगठित होना आज एक बड़ा कार्यभार है।

एनएसडी आज तमाम संसाधनों पर वर्चस्व और एकाधिकार की वजह से केन्द्र में नहीं है! वह श्रेष्ठ और विशिष्ट थी,  तभी रंगमंच के सारे संसाधन और शक्तियां उसके पास हैं! एनएसडी के स्नातक श्रेष्ठ और विशिष्ट होते हैं, इसीलिये उनका सारे संसाधनों और अवसरों पर पहला और नैसर्गिक अधिकार है! यह सोच क्या वैसी नहीं है कि ब्राह्मण जन्म से ही श्रेष्ठ होते हैं, इसलिये उन्हें शेष समाज पर वर्चस्व और नियंत्रण का नैसर्गिक और दैवीय अधिकार है! जैसे अंग्रेज हमसे श्रेष्ठ और महान थे, इसलिये हम पर अपना शासन और अन्याय-उत्पीड़न थोपना उनका विशेष और नैसर्गिक अधिकार था! 

जिस प्रकार हिटलर के जन्मजात महान और श्रेष्ठ लोग दुनिया पर शासन करने निकल पड़े, उसी प्रकार जन्म से ही श्रेष्ठ और विशिष्ट संस्थान एनएसडी के श्रेष्ठ और विशिष्ट स्नातक भारतीय रंगमंच को विजित करने निकल पड़े! सारे संसाधनों पर, सारे ग्रांट पर, सारी कमिटियों पर, सारे पुरस्कारों पर, सारे महोत्सवों पर, सभी संस्थानों पर एकाधिकार करने और थियेटर को अपने अनुसार हांकने का उन्हें महान, विशिष्ट, जन्मजात और दैवीय अधिकार प्राप्त है! 

राजेश चंद्र वरिष्ठ रंग समीक्षक। कई नाटक लिख और निर्देशित कर चुके हैं। 

सरदार जोक्स पर फाइनल फैैसला आज, सबको है इंतजार

जनज्वार। बहुचर्चित और सरदार जोक्स पर प्रतिबंध लगाने के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट आज विस्तृत आदेश पारित करेगा। पिछले दिनों 7 फरवरी, 2017 को हुई सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सरदार जोक्स पर प्रतिबंध लगाने से मना कर दिया था। मगर साथ ही यह भी कहा था कि अगर इससे किसी की भावनाएं आहत होती हों तो वह कानूनन केस जरूर दर्ज कर सकता है।

गौरतलब है कि दिल्ली की 54 वर्षीय सिख वकील हरविंदर चौधरी ने सरदार जोक्स पर पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इस मामले में अदालत ने कहा था कि किसी समुदाय विशेष के लिए गाइडलाइन गठित की जानी काफी पेंचीदा काम है, मगर यह जरूर है कि किसी जोक विशेष से किसी को कोई परेशानी होती है तो वह कानून के अनुसार केस दर्ज करा सकता है।  

7 मार्च, 2017 को इस मामले में की गई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर अदालत किसी किसी धर्म या जाति विशेष पर कोई दिशा निर्देश जारी कर देगी तो इस फैसले के बाद अन्य दूसरी जातियां और धर्म भी इसी फैसले को आधार बनाकर अपनी मांगें मनवाएंगे। जहां तक हंसी की बात है तो उस पर कोई नियंत्रण नहीं है। कोई हंसता है, कोई नहीं हंसता.

गौरतलब है कि वकील हरविंंदर चौधरी ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में कहा था कि इंटरनेट पर मौजूद हजारों वेबसाइटें  सरदारों के नाम पर चुटकुले बेचती हैं, जिनमें सरदारों का बुद्धू, पागल, मूर्ख, बेवकूफ़, अनाड़ी और अंग्रेज़ी भाषा की अधूरी जानकारी रखने वाला कहते हुए मजाक उड़ाया जाता है। 

मन की बात में पहले भोजन बर्बादी पर भाषण दिया और फिर भोजन बर्बादी के कार्यक्रम के मेहमान बन गए

मोदी जी 'मन की बात' किस रिश्तेदार को सुनाते हैं, जब खुद वही करते हैं जो दूसरे पैसे वाले मंत्री, विधायक और पूंजीपति करते हैं। क्या उनकी नैतिक जिम्मेदारी नहीं कि ऐसे कार्यक्रमों का बहिष्कार कर अपने रईस मंत्रियों को सबसे पहले भोजन बर्बादी करने से रोकें.....

जनज्वार। मोदी जी ने जब कल मन की बात में खाने की बर्बादी पर भाषण दिया और बचाने की की अपील की तो देश को बहुत अच्छा लगा। देश के आम नागरिकों को लगा कि जिस देश की 80 फीसदी आबादी को ठीक से दो समय का भोजन नहीं मिलता, वहां इस तरह की बर्बादी रोकने पर पहल एक सकारात्मक और जरूरी प्रयास है।  
वैंकेया  नायडू  द्वारा ट्विटर पर शेयर की गई एक फोटो
पर थोड़ी ही देर में उनके बाकि बयानों की तरह यह भी खालिस ड्रामा साबित हुआ। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के शब्दों में कहें तो 'जुमला।' आपको याद होगा कि मोदी जी के हर खाते में पंद्रह लाख के बयान को अमित शाह ने मोदी जी का चुनावी जुमला बता दिया था। तब भाजपा और प्रधानमंत्री की बहुत किरकिरी हुई थी। 

कल 'मन की बात' करने के बाद मोदी जी अपनी सरकार के वरिष्ठ मंत्री वैंकेया नायडू के यहां एक भव्य कार्यक्रम में पहुंचे। वैंकेया नायडू मोदी सरकार में शहरी विकास के साथ शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्री हैं। मंत्री ने अपने आवास पर 'उगादि' का आयोजन रखा था जिसमें सैकड़ों की सख्या में मेहमान पहुंचे, जिसमें बड़ी संख्या में मीडियाकर्मी भी थे। उगादि दक्षिण भारत में नववर्ष का दिन होता है। मंत्री का ताल्लुक दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश से इसलिए उन्होंने अपने यहां कार्यक्रम रखा था। 

प्रधानमंत्री मन की बात करने के बाद जब इस कार्यक्रम में पहुंचे तो वहां मेहमानों को भोजन में बारहों तरह का व्यंजन परोसा गया। मंत्री जी खुद ही खुशी—खुशी दर्जनों व्यंजनों की फोटो लगाते रहे। उपर लगी तस्वीर भी मंत्री जी द्वारा शेयर की गयी तस्वीरों में से एक है। गौरतलब है कि हमारे देश में हर साल भंडारण के अभाव में ही 50,000 करोड़ रुपए यानी कुल खाद्यान्न उत्पादन का 40 फीसदी बर्बाद हो जाता है। यह बर्बादी केंद्र सरकार के मुताबिक ब्रिटेन के सालाना अनाज उत्पाद के बराबर है।  

ऐसे में सवाल बस यह कि फिर मोदी जी 'मन की बात' किस रिश्तेदार को सुनाते हैं, जब खुद वही करते हैं जो दूसरे पैसे वाले मंत्री, विधायक और पूंजीपति करते हैं। क्या उनकी नैतिक जिम्मेदारी नहीं कि ऐसे कार्यक्रमों का बहिष्कार करें और अपने रईस मंत्रियों को सबसे पहले भोजन बर्बादी करने से रोकें। ऐसे कार्यक्रमों में छप्पन भोग क्यों जरूरी हैं, जबकि 3—4 तरह के व्यंजनों से काम चल सकता है। 

हालांकि भोजन की बर्बादी को रोकने के लिए कई प्रदेशों ने स्वाग्तयोग्य कदम भी उठाए हैं। जम्मू कश्मीर सरकार ने तो शादियों में भोजन की बर्बादी को रोकने के लिए कानून तक बनाया है कि हर शादी में मीनू और खाने की मात्रा पहले ही तय कर ली जाए, ताकि खाना बर्बाद न जाए। वहीं सांसद रंजीत रंजन खाने की बर्बादी रोकने के लिए संसद में बिल पेश कर चुके हैं। 

मोदी अपने शहंशाह मानसिकता वाले मंत्रियों को बताएं कि देश का नब्बे फीसदी आमजन आज भी अपने बच्चे को रोज एक गिलास दूध नहीं दे पाता, बुंदेलखंड और विदर्भ रोज अपने बच्चे को दाल नहीं दे पाता और बंगाल, मध्यप्रदेश और उड़ीसा से लेकर उत्तर प्रदेश तक कुपोषित बच्चों वाले राज्यों में आज भी टॉप में आते हैं।

क्या दिखावे की बजाए मोदी को जीवन में उतारने वाली मन की बात नहीं करनी चाहिए। सवाल यह इसलिए भी बड़ा है कि खाने का यह भव्य आयोजन वह मंत्री कर रहा है जो शहरी व गरीबी उन्मूलन के लिए जिम्मेदार है और उन्मूलन की हालत यह है कि आज की तारीख में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बहुतायत शहरी आबादी गरीब है और उसे दो जून का संतुलित भोजन तो छोड़िए, भरपेट भोजन उपलब्ध नहीं है।