Oct 8, 2010

आखिरी यजमान

 कहानी

यजमान अक्सर उदाहरण दिया करते कि पंडितजी को देखो, अच्छा हो या बुरा, ऊँच मिले या नीच, कृष्ण हो या सुदामा हमेशा उं नमो शिवाय ही कहते हैं। लेकिन पंडितजी के अपने गांव में इस प्रताप की कभी कोई चर्चा नहीं होती। गांव में पंडितजी निकलते तो छुप-छुपाकर लड़के बस इतना ज्ञान चाहते कि ‘ए बाबा नेवलवा के केतना बड़ होला हो।’

अजय प्रकाश

छह हजार आबादी और ढाई हजार वोटों वाले हंड़िया गांव में पंडित श्याम सुंदर तिवारी की यजमानी चौचक चल रही थी। भविष्य में भी इस रोजगार में मंदी आने के आसार नहीं थे। पंडितजी के मरने से पहले कोई प्रतिद्वंदी मैदान में कूदने वाला नहीं था। अगर कोई चाहे तो कूद भी नहीं सकता था। कारण कि यजमानी रजवाडों जैसी चलती है, एकदम खानदानी। पट्टीदारी का भी घालमेल नहीं चलता। गर किसी ने इसकी कोशिश की तो पंडितजी ने उसको घर तक दौड़ाकर फजीहत किया।

एक दफा पंडितजी का पैर घोड़ा गाड़ी (टमटम) से गिरकर टूट गया। चलने-फिरने में असमर्थ हो गये। इधर यजमानों के यहां कथा-पूजा, शादी-ब्याह का दौर-दौरा पहले की तरह चलता रहा। पर पंडितजी नदारद। सर्दी-बुखार का तो पंडितजी ने कभी ख्याल ही नहीं किया। यजमानों के लिए पंडितजी हमेशा हाजिर होते थे। इसी लक्षण से प्रभावित हो स्कूल जाते बच्चे पंडित जी को देखते ही बोल पड़ते- ‘पंडित जात अन्हरिया रात, एक मुटठी चूड़ा पर दौड़लजात।' मगर अब टूटे पांव लेकर यजमानी में बेचारे कैसे जाते।

भगंदर की वजह से पंडितजी की पीड़ा  

इसी दुर्दिन का चांस लेकर एक दिन दूसरे ब्राह्मण ने यजमानी में दखल देने की हिमाकत की थी। पंडितजी को पंडिताइन ने जब यह संदेशा सुनाया तो वो गरजते हुए चौकी से एकदम कूद पड़े थे। उन्हें याद ही नहीं रहा कि पांव दवाओं के भरोसे है, उनके नहीं। दर्द के मारे बिलबिलाकर चौकी पर पसर गये। उस पंडित के दरवाजे न पहुंचपाने की भरपाई वह चौकी पर लेटे-लेटे ही उसकी मां-बहन के अंग विशेष में हाथी का, घोड़े का अंगविशेष डालकर कर रहे थे। पंडितजी ने इस दौरान जिस सबसे छोटे जानवर के अंगविशेष की चर्चा की वह नेवला था। पंडितजी को लगा कि आवाज उसके दरवाजे तक नहीं पहुंच पा रही है तो वे और जोर से दहाड़ने लगे। चिल्ला कर गाली बकने से खांसी उठती तो पंडितजी बीच-बीच में उं नमो शिवाय कर लेते।
‘भेज द अपनी माई के, नापवा उनहीं के दे देब’-पंडितजी सुनते ही यह जवाब ऐसे फेंकते जैसे उन्हें सवाल का हमेशा  इंतजार रहता हो। पंडितजी जी लड़कों के सवाल पर पर कुछ महीने पहले तक मां-बहन दोनों को नाप देने के लिए बुलाया करते थे, लेकिन एक दिन गांव में बहन के नाम पर बलवा  होने से बचा। तब बिचौलियों में सहमति बनी कि इस काम के लिए सिर्फ मां को बुलाया जाये। इसमें वादी कौन था, दोषी कौन इसका फैसला गांववाले करें, मगर बहनों को बुलाने पर ऐतराज करने वालों के बीच यह आम सहमति थी कि बहनों को लपेटना ठीक नहीं, वह दूसरे की घर की अमानत होती हैं। मगर गांव में उठने वाले इन झमेलों से पंडितजी के कैरियर पर कभी कोई संकट नहीं आया।

यजमानों के गांव ‘हड़ियां’ में पंडितजी के सामने से बच्चा गुजरे या बूढ़ा, पांय लागीं कहे बिना नहीं आगे बढ़ता। यह दीगर बात थी कि उम्र ढलने के साथ पंडितजी का शरीर हंड़िया गावं की चौहद्दी को समेट नहीं पा रहा था। हर बार कोई न कोई यजमान शाम हो जाने, थकान लगने या पेट खराब होने से छूट जाता। पंडितजी की यह हालत देख एकाध बार पट्टीदारों के बेटों ने कहा भी कि ‘दो चार यजमानी हमारे बीच साझा कर दो चाचा।’ मगर पंडित श्याम सुंदर तिवारी इस बात पर बुढ़ौती में भी जवानी के दिनों जैसे तरना उठते थे और कहते, ‘जैसे जमीन, जैसे जोरू वैसे यजमानी।’ मतलब साफ था पंडितजी जबतक जीयेंगे, यजमानी का रस पियेंगे। उनका फलसफा था खाने का मजा खिचड़ी (मकर संक्राति) में और कमाने का दशहरा में।

यजमान बच्चे जैसे उज्जवल होगा पंडितजी का बचपन
हर साल की तरह इस बार भी पंडितजी खिचड़ी की  दान-दक्षिणा पूरब और उत्तर टोले से बटोरते हुए जब दक्षिण टोला पहुंचे तो तीन बज चुके थे। जाडे़ का दिन था,सो सांझ घिरते चली आ रही थी, लेकिन पंडितजी को राहत महसूस हुई कि वहां दही-चूड़ा नहीं खाना पडे़गा और न ही बासी खिचड़ी कंपकपी लायेगी। वहां तो गर्मागर्म पूरी और खीर मिलेगी। सोचकर पंडितजी के मुंह में पानी आ गया। मुंह में पानी आते ही पंडितजी के भीतर तत्क्षण आत्मआलोचना जागी और उन्हें लगा कि यह तो छूद्रता है। पंडितजी को ऐसा कोई एहसास कभी होता नहीं था। संयोग ही था जो पंडितजी को ऐसा लगा था। नहीं तो पंडितजी कहा करते थे,‘जो ब्राह्मण खाने से भगे उसके असल ब्राह्मण होने पर संदेह है।’ उन्हें जैसे ही यह बात याद आयी, पंडितजी के कदम तेज हो गये और सोचने लगे वह भी क्या उम्र थी जब अपना निपटाकर दूसरे की यजमानी में कूद जाते थे और आज अपना ही आखिरी यानी चौदहवां यजमान नहीं समेटा पा रहा है।

दक्षिण टोले में केवल एक ही घर में यजमानी थी, फौजी के घर में। फौजी कश्मीर में तैनात था और पत्नी घर में। वह पति के दीर्घायु के लिए पर्व, त्योहार, दान-दक्षिणा किया करती थी। ऐसा करने से पत्नी को इलहाम होता था कि इसका असर सीधे पति पर होगा और दुश्मन की तरफ से दागी गयी गोली उसके शौहर को लगने के बजाय किसी और को लग जायेगी।

पत्नी की मान्यता भी थी कि चार सालों से मोर्चे पर तैनात पति के सुरक्षित बचे रहने में पंडित श्याम सुंदर तिवारी का विशेष प्रताप है। हालांकि आज जब पंडित उसके दरवाजे पहुंचे तो वह बेशब्री में बोल पड़ी ‘पंडितजी कहां लिपटा जाते हैं। पहर बीत गया, बच्चे भूख से तड़प रहे हैं और आप हैं कि सरक-सरक के आ रहे हैं।’

पंडित जी इस पर कुछ बोले नहीं सिर्फ उं नमो शिवाय बुदबुदाये, लेकिन फौजी की पत्नी जवाब की चाह में पंडितजी को घूरे जा रही थी। इसको भांप वे बोले ‘चिंता न करो स्वामिनी, काज यथाशीघ्र किये देता हूं।’ पंडितजी के सूत्र वाक्य का गृहिणी पर असर हुआ। उसे लगा कि पंडितजी की निगाह में उसकी इतनी इज्जत तो है ही, जितनी इज्जत दूरदर्शन  के सीरियल में नौकर मालकिन की करता है।

इस संतोष के साथ वह ठंडा हो चुके भोजन को गर्म करने लगी। मां को ऐसा करते देख बच्चे रसोई के दरवाजे पर टेक लेकर 'खाना दो, खाना दो' का टेर देने लगे। टेर तो दोपहर के पहले से ही वे दे रहे थे। तब फौजी की पत्नी ने सिक्कों से बच्चों का मुंह बंद किया था जिसे लेकर वह बनिये की दुकान की तरफ लुढक गये थे। मगर अबकी उनकी भूख की भरपाई में उठने वाली आवाजें तीक्ष्ण थीं। छोटे वाले को मां ने सिक्का पकड़ा फुसलाने की कोशिश की तो उसने बिना कुछ बोले सिक्के को जुठन वाली बाल्टी में डाल दिया।

पंडित जी फिर कुछ बुदबुदाने जैसा करने लगे, लेकिन बच्चे काहे को मानें। फौजी की पत्नी ने बच्चों का राम-लक्ष्मण कहा, जय-वीरू बोला। यहां तक कि सिपाही और साधुओं का डर कराया। बाजार से कुछ खरीदने का बहाना पकड़ाने की कोशिश की, पर बच्चे खाने के सिवाय कुछ और सुनने का तैयार ही नहीं थे।

माना जाता है श्याम सुन्दर इसी में से एक हैं
फौजी की पत्नी से जब नहीं रहा गया तो वह पंडितजी के सुनने जितनी आवाज में बड़बड़ाने लगी -‘पैसे तो मैं बाभनों, बनियों से ज्यादा देती हूं लेकिन ये मेरे दरवाजे सबसे बाद में आते हैं। कहते हैं अगर एक शूद्र के घर पहले आ गया तो दूसरे उससे पूजा नहीं करवायेंगे। किसी से कम हूं मैं? केवल एक जाति ही तो छोटी है कि बच्चों को भोजन के भंडार में रहते हुए अबतक खाये बिना बिलबिलाना पड़ रहा है।’ पूरी के लिए कड़ाही में हाथ डालते छोटे बेटे को रोककर गिड़गिड़ाती हुई फौजी की पत्नी बोली ‘बस पांच मिनट रूक जा बाबू, फिर जितना मन करे उतना खाना।’यह कहते हुए उसके चेहरे से ऐसा लग रहा था मानो वह गुजारिश कर रही हो कि इस पाप की भागीदार मैं नहीं हूं, मुझे माफ करना भगवान।

पंडित श्याम  सुंदर तिवारी लाई और चिउड़ा झटपट बटोरकर खाने के लिए पीढ़ा पर विराजमान हो गये। संतों की तरह पांव पर पांव चढ़ाकर बैठे पंडितजी ने बच्चों की तरफ देखकर कहा- ‘सब्र करो बालकों, भूख से मुक्ति का समय आ गया।’पर बच्चों की पंडित की बात में कोई दिलचस्पी नहीं दिख रही थी, वे बार-बार पूड़ी बेलते हाथ को और कढ़ाही से बाहर आ रही फूली- फूली पूड़ियों  को देख रहे थे। वैसे ही जैसे कुत्ते निहारते है खाना खाते आदमी को। यह देखकर पंडितजी ने फौजी की पत्नी को आदेश के अंदाज में कहा कि ‘ब्राह्मण के अन्न ग्रहण करने से पहले बच्चों के मुंह में अन्न का दाना नहीं जाने देना, नहीं तो तुम्हारे द्वारा किये जा रहे ये सारे सत्कर्म, दुश्कर्म में बदल जायेंगे।’

‘नहीं- नहीं पंडित जी, सुबह से एक दाना भी इनके मुंह  में नहीं गया है। ये देखिये।' छोटे वाले का मुंह चियारकर फौजी की पत्नी ने पंडितजी को दिखा दिया। मुंह चियराई बच्चे के लिए एक हादसे जैसा रहा जिसके बाद वह रोते हुए मां के पीछे की ओर सरक गया। बड़ा बेटा पूड़ी पर निगाह लगाये दीवार से लगकर उहक रहा था और पीछे पहुंचा छोटा बेटा कभी सब्जी में तो कभी खीर में हाथ डालने की कोशिश में लगा हुआ था। इसका आभास पंडित जी को हो गया, तो पूछ पड़े कि ‘ अरे छोटा वाला कहां है?'
'यहीं है पंडित जी।' फौजी की बीवी बोली.

पंडितजी- ‘अन्न आदि के पास बच्चों को नहीं रखते। खासकर जब भोजन बन गया हो और ब्राह्मण देवता को खिलाना हो तो कत्तई नहीं। ऐसा करो उसे आंगन में रख जाओ। कम-से-कम आंगन तुम्हारा इतना ऊंचा है कि जब तक कोई उठाकर उसे रखेगा नहीं, वहीं पड़ा रहेगा।
पंडितजी का सुझाव मान तुरंत फौजी की पत्नी ने बच्चे को आंगन में गिराने के अंदाज में रख दिया, लेकिन बच्चा आंगन की चौखट पर चढ़ आया। यह बात बच्चे की मां को भी मालूम थी कि छोटा वाला बड़ा हो गया है और वह आंगन की ऊँचाई लांघ आता है, लेकिन पंडितजी के संतोष के लिए रख गयी थी.

तभी अपनी तरफ बढ़ता देख पंडितजी चिल्लाये- ‘रोको, नहीं तो विनाश हो जायेगा। तुम समझ नहीं रही हो, अगर इसने मेरे भोजन को छूकर अपवित्र कर दिया तो इसका सीधा प्रभाव गृहस्वामी पर पडे़गा। तुम्हें पता है, मेरे अलावा पंडित गांव का कोई और ब्राह्मण किसी शूद्र के यहां पूजा-पाठ नहीं कराता, अन्न ग्रहण करना तो दूर। तुम क्या जानो एक बार तुम्हारे यहां आने के बाद मुझे इक्कीस दिन पीपल के पेड़ के नीचे तप करना पड़ता है, तब जाकर मैं सही-सलामत रह पाता हूं। वह तो तुम्हारे आदमी ने बहुत हाथ-पैर जोड़े थे तो मैं आ जाता हूं।’

वह सकपकाई सी अभी कुछ और बोल पाती इससे पहले ही पंडित फिर कह पड़े, ‘चलो छोड़ो, ये सब बात किसी से कहने-सुनने की नहीं है। अच्छा यह बताओ कि मैंने बेटे की भर्ती की जो बात तुम्हारे आदमी से की थी, उसके बारे में कभी मोबाइल पर उसने कुछ बताया क्या... अब तो तेरा मर्द सूबेदार हो गया है, भर्ती भले न करता हो, लेकिन करने वालों के बीच तो उसका रोज का उठना-बैठना है, है कि नहीं।’

फौजी की पत्नी पंडित की पहली और दूसरी बात को जोड़कर समझने की कोशिश  कर रही थी। उसके दिमाग में गृहस्वामी... पाप.......असर... जूठा... .नाश... टेलिफोन... सूबेदार... यह सारे शब्द आपस में गड्ड-मड्ड हो रहे थे। उसके चेहरे पर इत्मीनान का भाव लौटता देख लगा कि उसने उलझ रहे शब्दों को सजा लिया है, लेकिन तभी देखती क्या है कि- छोटा बेटा पंडितजी के बगल में सरककर आ गया है और उनकी थाली से एक पूरी  हाथ में ले ली। अब फौजी की पत्नी को काटो तो खून नहीं... जरा सी भी पंडितजी ने हरकत की तो छोटे का हाथ पंडित के हाथ से टकरायेगा और फिर...

फौजी की बीवी ने सब्र से काम लिया। पंडित जी देखते इससे पहले ही लड़के की आंख मां से मिली और वह बेटे को एकटक घूरने लगी। उसे घूरता देख पंडितजी कन्फ्यूजन मोड में चले गये गये और उनके गाल का रंग ललिया गया। पंडितजी शर्माते हुए पूछे, ‘कइसा लग रहा हूं, बड़े गौर से देख रही हो रे।’ मगर वह बच्चे को लगातार घूरती रही और पता नहीं किस अंदाज में इशारा किया कि बच्चा पूड़ी थाली में छोड़ पीछे लौट गया। पंडितजी बच्चे की छुई पुड़ी को जब मुंह में डाले तो बोल पड़े- ‘आजकल चक्की वाले पता नहीं क्या मिलाकर गेहूं पीस देते हैं।’
पंडित की बात सुनते ही दीवार से लगकर उहकरहा फौजी का बड़ा बेटा खिलखिलाकर हंस पड़ा। पूड़ी बेल रही फौजी की बीबी भी घुटनों के बीच मुंह टिकाकर हूं-हूँ .....हंसती रही।

शायद अब ऐसे हों
पीछे लौटा बच्चा चेहरे पर खिलंद्दड़ी मुस्कान लिए थाली की तरफ एक बार फिर लौटने लगा। अभी थाली से दो-चार इंच दूर रहा होगा कि फौजी की पत्नी झपट पड़ी। झटके से गोद में लेकर चांटा लगाते हुए चिल्लाई- ‘पंडितजी छिया खात हैं, छीः! ओआ... नहीं... पील्लू... गूह...धीरज रख, खीर-पूरी दूँगी... ये छीया है।’ यह कहते हुए चूल्हे के पास बैठ गयी

पंडितजी निवाला मुंह में डालने को थे, लेकिन फौजी की बीवी की बात सुन वह उस मुद्रा में आ गये जैसे बच्चे स्टेचू  का खेल खेलते वक्त हो जाते हैं। पंडितजी को एकबारगी लगा जो निगला है सब बाहर आ जायेगा। हाथ न ऊपर  हो रहा था न नीचे। हाथ में ली हुई तस्मयी (खीर) और पूडी जिसको उन्होंने अमृत समझकर खाया था, उसे बनाने वाली ने ही छीया कह दिया। क्या करें! पूड़ियां अब उन्हें बिष्टा में सनी हुई जान पड़ीं। उनके माथे पर गहरा बल पड़ने लगा और हाथ ने धीरे-धीरे जमीन की ओर झुकना शुरू कर दिया।

बोलने के बाद फौजी की पत्नी काठ हो गयी थी। करे तो अब क्या करे,क्या सफाई दे? सोच रही थी, ‘पंडितजी अगर मेरी विधर्मी जुबान को चरणों में मांगे तो मैं अभी दराती उठाकर सौंप दूं। हे भगवान! कुछ भी करो, लेकिन पंडितजी भोजन की थाल से न उठने दो। सारा धर्म नष्ट हो जायेगा भगवान।’

फौजी के पत्नी के मुंह से निकला भगवान शब्द पंडितजी तक पहुंचा तो उन्होंने ऊंह  किया। मानो कुछ पूछ रहे हों। तभी फौजी की पत्नी ने जो देखा वैसा आश्चर्य इससे पहले नहीं देखा था। उसने देखा कि पंडितजी का हाथ जो थोड़ा नीचे झुककर स्थिर हो गया था वह हिला और निवाला मुंह में डालते हुए पंडितजी ने कहा- ‘अरे बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं, उनके लिए कुछ भी कहना जायज है। तस्मई अच्छी बनी है थोड़ा और ले आओ।’

फौजी की पत्नी कटोरे में खीर डालने लगी तो पंडितजी ने पूछा ‘क्या कह रहा था तेरा मर्द, मेरे बेटे की भर्ती के बारे में। बेटे की नौकरी लग जाये तो हमें भी चैन आये।’ पंडितजी भोजन में दुबारा जुट गये और फौजी की बीवी मर्द को फोन मिलाकर पंडितजी के बेटे की नौकरी की पैरवी करने में लग गयी।

( इस वर्ष के दलित साहित्य वार्षिकी से साभार कहानी)