Oct 20, 2016

भाजपा आपको भटका रही है और आप भटकने के एक्सपर्ट बनते जा रहे हैं

पिछले दो दशकों से जनसंघर्षों की अगुवाई कर रहे हिमांशु कमार का महत्वपूर्ण हस्तक्षेप

भाजपा बड़ी चालाकी से सारी राजनैतिक बहस को असली मुद्दों से हटा कर गाय, मुसलमान, पाकिस्तान जैसे काल्पनिक मुद्दों पर ले गयी है। इनकी साजिश को पहचानिए, इन्हें असली मुद्दों पर खींच कर लाइए...

डिजिटल इंडिया कार्यक्रम के तहत सरकार ने गरीबों को राशन मिलने के तरीके में कुछ बदलाव किये हैं। अब गरीबों के लिए दो नए नियम बनाये गए हैं।

पहला तो यह की राशन उसी को मिलेगा जिसके पास आधार कार्ड होगा। अब आधार कार्ड तो उसी का बन सकता है जिसके पास पहले से कोई पहचान पत्र हो। लेकिन जो लोग फुटपाथ पर रहते हैं, ट्रांसजेंडर, बेघर और प्रवासी मजदूर हैं इनके पास कोई पहचान पत्र नहीं हैं, इसलिए इनका आधार भी नहीं बनेगा .

और इनका आधारकार्ड नहीं बनेगा तो इन्हें राशन भी नहीं मिलेगा, जबकि सस्ते राशन की ज़रूरत तो सबसे ज्यादा इन्हीं लोगों को है। यानि जिन लोगों को राशन की सबसे ज्यादा ज़रूरत है, उन्हें ही सरकार नें धक्के मार कर बाहर खदेड़ दिया है। इसके अलावा सरकार नें राशन दुकानों में अंगूठे और उँगलियों के निशान के मार्फत ही राशन देने का नियम बना दिया है।

अब जो मजदूर पत्थर ढोने का काम करते हैं या अमीरों के घरों में बर्तन साफ़ करने वाली महिलायें हैं, उनकी उँगलियों के निशान घिस जाते हैं या सर्दियों में उंगलियों की खाल फट जाती हैं। इन हालातों में दूकान पर दी गयी मशीन उँगलियों के निशान नहीं पहचानती, बुढापे में झुर्रियां पड़ने से भी मशीन उँगलियों के निशान नहीं पहचानती।

इसकी वजह से मजदूर, महिलायें और बुजुर्ग लोग कई किलोमीटर पैदल चल कर आते हैं और मशीन के द्वारा उँगलियों के निशान ना पहचाने जाने पर खाली हाथ वापिस चले जाना पड़ता है। कई महीनों तक राशन ना देने के बाद दुकानदार लिख देता है की यह व्यक्ति राशन लेने नहीं आता है। क्योंकि सरकार द्वारा दूकान वालों को यही आदेश दिया गया है, इसके बाद ऐसे लोगों के राशन कार्ड रद्द कर दिए जाते हैं।

जाहिर है लाखों गरीबों का राशन लेने का हक सरकार साजिश करके मार रही है। एक तरफ अंबानी जैसे धनिकों को पैसे के बल पर सारे देश की आबादी की दाल से मुनाफा कमाने और तीन गुना कीमत कर देने की सहूलियत दी जा रही है। वहीं जान—बूझ कर गरीब को राशन की दूकान से भगा कर बाज़ार से सामान खरीदने की साजिश पर काम चालू है ताकि गरीब मजदूर की जेब से भी मुनाफ़ा निकाल कर तिजोरी में डाला जा सके।

हम सरकार को चुनौती देते हैं कि सरकार में दम है तो गरीब जनता से जुड़े मुद्दों पर राजनीति कर के दिखाए। सर्जिकल स्ट्राइक जैसे काल्पनिक मुद्दों पर सारे देश का ध्यान भटकाने की साजिश बंद करी जाय। चुनाव भी देश की गरीब जनता के मुद्दे पर लड़ कर दिखाइये।

देश की गरीब जनता की बात कोई नहीं सुन रहा है। भाजपा बड़ी चालाकी से सारी राजनैतिक बहस को असली मुद्दों से हटा कर गाय, मुसलमान, पाकिस्तान जैसे काल्पनिक मुद्दों पर ले गयी है। इनकी साजिश को पहचानिए, इन्हें असली मुद्दों पर खींच कर लाइए, अगर आप भाजपा के मुद्दों पर बहस में फंसेंगे तो वो आपको अपने मैदान में पीट कर भगा देंगे। इन संघियों को अपने मैदान में घसीट कर लाइए,
ये यहाँ मार खायेंगे कि ये हिन्दुओं की नहीं अमीरों के गुलामों की सरकार है।

घटिया होती पत्रकारिता का जिन्हें गम है सिर्फ वही पढ़ें

इस लेख को उन पत्रकारों को जरूर पढ़ना चाहिए जो सच को सामने लाने के लिए खुद में हलचल महसूस करते हैं और मानते हैं कि उनमें पत्रकारिता की धारा बदल देने का माद्दा है...

प्रेम से बोलो जय भारत माता की  

शेखर गुप्ता
पाकिस्तानी पत्रकार अौर टिप्पणीकार प्राय: कहते हैं कि जब विदेश और सैन्य नीतियों की बात आती है तो भारतीय मीडिया उनके मीडिया की तुलना में सत्ता के सुर में अधिक सुर मिलाता है। कड़वा सच तो यह है कि कुछ पाकिस्तानी पत्रकार (ज्यादातर अंग्रेजी के) साहसपूर्वक सत्ता प्रतिष्ठानों की नीतियों व दावों पर सवाल उठाते रहे हैं। इनमें कश्मीर नीति में खामी बताना तथा अातंकी गुटों को बढ़ावा देने जैसे मुद्‌दे शामिल हैं। इसके कारण कुछ पत्रकारों को निर्वासित होना पड़ा (रजा रूमी, हुसैन हक्कानी) या जेल जाना पड़ा (नजम सेठी)।

भारतीय पत्रकारों की अपनी दलील है : भारत में कहीं ज्यादा असली लोकतंत्र है व सेना राजनीति से दूर है, इसलिए तुलना अप्रासंगिक है। जहां जरूरत होती है, हम सवाल खड़े करते ही हैं। श्रीलंका सरकार के खिलाफ लिट्‌टे को पहले ट्रेनिंग व हथियार देने में सरकार का अंध समर्थन करने (इंडिया टुडे ने 1984 में मुझे यह स्टोरी ब्रेक करने दी थी। इंदिरा गांधी ने तब मुझे राष्ट्र विरोधी कहा था।) और बाद में भारतीय शांतिरक्षक बल के द्वारा वहां हस्तक्षेप करने के समर्थन का भारतीय मीडिया पर कोई आरोप नहीं लगा सकता।

किंतु यह परिपाटी अब बदल रही है और यह सिर्फ उड़ी हमले के बाद नहीं हुआ जब इंडिया टुडे के करण थापर ही एकमात्र एेसे पत्रकार थे, जिन्होंने सवाल उठाया कि कैसे चार गैर-सैनिक ब्रिगेड मुख्यालय की सारी सुरक्षा को चकमा देने में कामयाब हुए। लेफ्टिनेंट जनरल जेएस ढिल्लौ आलोचनात्मक आकलन करने वाले एकमात्र रिटायर्ड जनरल थे। वे उन पांच ब्रिगेड में से एक के कमांडर थे, जो 1987 के अक्टूबर में सबसे तेज गति से जाफना पहुंची थीं। वह भी न्यूनतम नुकसान के साथ।

मैं स्वीकार करूंगा कि बदलाव करगिल के साथ हुआ। करगिल युद्ध तीन हफ्तों के इनकार के बाद शुरू हुआ। पाकिस्तानियों ने इनकार किया कि वे वहां मौजूद हैं, हमारी सेना ने इतनी गहराई और विस्तार में हुई घुसपैठ से इनकार किया। जनरलों के पहले जर्नलिस्ट वहां पहुंच गए। वहां पत्रकारों और सैन्य इकाइयों में एक-दूसरे के लिए फायदेमंद रिश्ता स्थापित हो गया। अंतिम नतीजा सबके लिए अच्छा रहा : भारत की विश्वसनीयता बढ़ी, क्योंकि इसने स्वतंत्र प्रेस को रणभूमि में बेरोक-टोक पहुंचने की अनुमति दी।

सेना को यह फायदा हुआ कि उसके असाधारण पराक्रम की कहानियां पूरे देश में पहुंचीं। इस सारी प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण खबर रह गई : इतने सारे पाकिस्तानी इतने भीतर तक कैसे घुस आए, हमें इसका पता लगने में इतना वक्त क्यों लगा, हमने इसकी आधे-अधूरे मन से (छोटे गश्ती दलों का इस्तेमाल कर) पड़ताल क्यों की या ऐसे विमान क्यों इस्तेमाल किए, जो कंधे से चलाई जा सकने वाली मिसाइलों का निशाना बन सकते थे, जबकि बेहतर विकल्प मौजूद थे।

नतीजा यह हुआ कि किसी की बर्खास्तगी नहीं हुई। स्थानीय ब्रिगेड कमांडर सशस्त्र बल न्यायाधीकरण में भेजे गए और बच गए। युवा अफसरों व सैनिकों की वीरता की खबरें देकर हमने ठीक ही किया, लेकिन राजनीतिक व सैन्य प्रतिष्ठानों को अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाही चाहे न भी कहें, बहुत बड़ी अक्षमता के साथ बच निकलने देकर ठीक नहीं किया। सैन्य कमांडरों की नाकामी से बढ़कर खतरनाक कोई नाकामी नहीं होती और यही वजह है कि परम्परागत सेना जवाबदेही पर इतना जोर देती है। इस बीच भारतीय मीडिया को ताकत बढ़ाने वाले तत्व (फोर्स मल्टीप्लायर) के रूप में सराहना मिल रही थी।

हम उस पल में डूब गए, लेकिन गलत छाप भी छोड़ गए : पत्रकार देश के युद्ध प्रयासों के आवश्यक अंग हैं, उसकी सेना की शक्ति बढ़ाने वाले कारक। वे दोनों हो सकते हैं, लेकिन सच खोजने की चाह दिखाकर, सेवानिवृत्त पाकिस्तानी जनरलों पर चीखकर नहीं या चंदमामा शैली के सैंड मॉडल के साथ स्टूडियो को वॉर रूम में बदलकर नहीं। कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे यहां सिरिल अलमिडा और आयशा सिद्दीका नहीं हैं, जो ‘शत्रु’ के प्रवक्ता घोषित होने का जोखिम मोल लेकर कड़वा सच बोलने को तैयार हों। भारतीय न्यूज टीवी सितारों (मोटतौर पर) का बड़ा हिस्सा स्वेच्छा से प्रोपेगैंडिस्ट बनकर रह गया है।

जब पत्रकार अपने लिए ‘फोर्स मल्टीप्लायर’ की परिभाषा स्वीकार कर लेते हैं, तो प्रश्नों के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचती। बेशक उड़ी और बाद की घटनाएं इस लेख की वजह हैं। इसने मीडिया को दो ध्रुवों में बांट दिया है, एक तरफ अत्यंत प्रभावी पक्ष उनका है, जो न सिर्फ कोई प्रश्न नहीं पूछते बल्कि वे दावे करने में सरकार व सेना से भी आगे निकल जाते हैं। इन दावों को भरोसेमंद बनाने के लिए रात्रिकालीन कमांडो कवायद के ‘सांकेतिक’ फुटेज का इस्तेमाल किया जाता है। साफ कहें तो कोई भी विश्वनीयता के साथ यह बताने की स्थिति में नहीं है कि तीन हफ्ते पहले हुआ क्या था। या तो हमारी सरकार तथ्यों को गोपनीय बनाए रखने में माहिर हो गई है या हम पत्रकारों ने उन्हें खोजना बंद कर दिया है।

दूसरी तरफ बहुत ही छोटा और सिकुड़ता ध्रुव है, खुद को दूसरों से बेहतर समझने वाले संदेहवादियों का। वे सरकार के किसी दावे पर भरोसा नहीं करते, लेकिन कोई तथ्य नहीं रखते, खोजकर कोई बड़ा धमाका नहीं करते। वे बहुत ही मार्मिक ढंग से सरकार से अपने दावों की पुष्टि करने वाले सबूत देने को कहते हैं। पत्रकारिता महाविद्यालय में जाने वाले हर युवा को सिखाया जाता है कि सरकार छिपाती है और पत्रकार को खोजना होता है। यहां हमारे सामने संदेहवादी खेमे में सबसे उदार, श्रेष्ठतम शिक्षा पाए, प्रतिष्ठित, ख्यात सेलेब्रिटी पत्रकार हैं, वे धमाकेदार खबर खोजते नहीं, बल्कि प्रेस कॉन्फ्रेंस की मांग करते हैं।

 वे खबर नहीं प्राप्त कर सकते, लेकिन वे मानक तय कर देते हैं, जिनका दूसरों को पालन करना ही चाहिए। एक समूह कहता है, आप मुझे जितना बता रहे हैं, उससे ज्यादा में भरोसा करता हूं, मुझे सबूत नहीं चाहिए। दूसरा कहता है, आप जो भी कह रहे हैं, उसमें किसी बात पर मुझे भरोसा नहीं है, इसलिए सैन्य अभियान को सार्वजिनक करें वरना मैं मान लूंगा कि आप झूठ बोल रहे हैं। अब यह न पूछें कि मैं क्यों कह रहा हूं कि भारतीय पत्रकारिता आत्म-विनाश के पथ पर है। जब यह नारा लगाने को कहें : ‘प्रेम से बोलो, जय भारत माता की’ तो कौन भारतीय इसमें दिल से शामिल नहीं होना चाहेगा, लेकिन यदि आप आपकी सरकार को मातृभूमि और राष्ट्र मान लें तो आप पत्रकार नहीं, भीड़ में शामिल एक और आवाज भर हैं।
(दैनिक भास्कर से साभार)