Apr 25, 2011

बाघों के शिकार बनते ग्रामीण


वन क्षेत्रों में जो लोग जंगली जानवरों का शिकार हो रहे हैं उनकी सरकार नहीं सुन रही है। मीडिया भी चुप है क्योंकि सरकार और होटल-रेस्तरां मालिकों से विज्ञापन की टुकड़खोरी का सवाल है. इस हालात का जायजा ले रहे हैं रामनगर से...

सलीम मलिक  

उत्तराखंड  के राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 121 पर रामनगर से करीब 14 किमी दूर सड़क के किनारे बसे सुन्दरखाल गांव में पिछले 12 नवम्बर से बाघों के हमले में अबतक 8 लोग मारे जा चुके  हैं। पहले से ही बदहाली की जिंदगी गुजार रहे सुंदरखाल के ग्रामीण एशिया के पहले नेशनल पार्क 'जिम कार्बेट' के चलते आयी इस नयी मुसीबत से दो-चार होने को मजबूर  हैं। पूरी दुनियां में जहां बाघों की तादात तेजी से घट रही है,वहीं कार्बेट नेशनल पार्क में और  इससे सटे इलाकों में बाघों की संख्या बढ़ रही है।

पर्यटकों   के इस अत्याचार का रेस्तरां वाले विशेष पॅकेज लेते
पिछली बार हुई बाघों की गणना के नतीजे तो वन्यजीव प्रेमियों को इतने मुफीद लगे थे कि उन्होने कार्बेट पार्क के इस इलाके को ‘बाघों की राजधानी’ जैसा शानदार नाम देने से गुरेज नही किया था। बाघों की इस गणना से उत्साहित वन्यजीव प्रेमियों की पहली चिन्ता यहां मौजूद बाघों की सुरक्षा के लिये है। बाघ विशेषज्ञों की मानें तो इस इलाके में उपलब्ध शिकार की अच्छी संख्या के चलते एक बाघ को अपने स्वच्छंद विचरण के लिये करीब 20 किलोमीटर का इलाका चाहिये।

अपनी इस टेरेटरी में बाघ आमतौर पर दूसरे बाघ का हस्तक्षेप किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करता। इलाके के वर्चस्व की इस लड़ाई में आमतौर पर बाघ आपस में ही भिड़ जाते हैं जिसमें से किसी के मैदान छोड़ने या प्रतिद्वंद्वी की मौत के बाद ही यह लड़ाई अपने मुकाम पर पहुंचती है। वैसे दिलचस्प बात यह है कि बाघ जहां अपने इलाके में दूसरे नर बाघ को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर सकता, वहीं वह दो या तीन मादा बाघिन को अपने हरम में रहने की इजाजत देता है।

बाघों की बढ़ती आबादी के चलते उन्हें पार्क के अंदर वह प्राकृतिक एवं  स्वच्छंद वातावरण नहीं मिल रहा है जिसके की वह प्राकृतिक रुप से आदी है। इस कारण अब जगह की तंगी के चलते बाघों ने जंगल से निकलकर आबादी का रुख करना आरम्भ कर दिया है। ऐसी हालत में बाघों के आदमी पर हमले की घटनाओं में अचानक तेजी आ गई है।

बाघों के हमले में मारे गए लोग, जिनके विवरण उपलब्ध हो पाए :-
12 मार्च 2011  को सुंदरखाल में एक विक्षिप्त व्यक्ति
26 जनवरी 2011 को मालधन का युवक पूरन चन्द्र जो की सुंदरखाल रिश्तेदारी में आया था
10 जनवरी 20011 को गर्जिया की शान्ति देवी
31 दिसम्बर 2010 को सुंदरखाल देवीचौड़ की देवकी देवी
18 नवम्बर 2010 को चुकुम गांव की कल्पना देवी
12 नवम्बर 2010 को सुंदरखाल की ही नंदी देवी
फरवरी 2010 में सुंदरखाल की शान्ति देवी और ढिकुली निवासी भगवती देवी

पहले भी इस इलाके में बाघों का आदमी से आमना-सामना होता रहा है,लेकिन वह इतना कम था कि उसे अपवाद कहना ठीक होगा। लेकिन बीते साल  12नवम्बर को बाघ के हमले में मारी गई महिला के बाद तो इस क्षेत्र में बाघों के हमले बढ़ गये हैं। एक ही इलाके में बाघों के इन हमलों से जहां सुंदरखाल के ग्रामीण मौत के खौफ में जीने को अभिशप्त है,वहीं वन-विभाग से जुड़े अधिकारी भी परेशान हो गये है। इस साल की शुरुआत यानी 27जनवरी को बाघ के हमले में मारे गये युवक की मौत के बाद तो ग्रामीणों का गुस्सा वन-विभाग के प्रति अपने चरम पर था,जिसकी गम्भीरता को देखते हुये विभाग के अधिकारी तक मौके पर नहीं पहुंचे।

सिलसिलेवार हुई इन घटनाओं में हाल तक बाघ के हमले में अपनी जान गंवानें वालों की संख्या अधिकृत तौर पर आठ  हो चुकी है। अधिकृत इसलिये कि बाघ के हमले में मारे गये ग्रामीणों के बाद गांव वालों का ध्यान जब इस क्षेत्र में घुमने वाले विक्षिप्तों की ओर गया तो पता चला कि कई ऐसे विक्षिप्त लोग जो पहले क्षेत्र में ही घूमा करते थे,इन दिनों  दिखाई नहीं दे रहे हैं। ऐसे में गांव वालों का यह कहना भी है कि इस क्षेत्र के अनेक अज्ञात गायब विक्षिप्त भी बाघ का शिकार बन चुके हैं। विक्षिप्तों को लेकर कोई दावा नहीं करने वाला इसलिये उनके बारे में कोई शोर नहीं हुआ।

सुंदरखाल के ग्रामीण बीते चार दशकों से जंगलों पर ही आश्रित रहकर अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं। गांव में चाय की दुकान चलाने वाले विशाल का कहना है कि ‘पहले गांव वाले अक्सर अकेले ही जंगल चले जाया करते थे। बाघ जंगल के रास्ते में मिल जाता था तो आदमी का रास्ता छोड़ झाड़ियों में दुबक जाता था। या बाघ शिकार खा रहा है तो फिर आदमी ही अपना रास्ता बदल लेते थे। आदमी और बाघ के बीच यह अनोखा तालमेल इतना मजबूत था कि इक्का-दुक्का की संख्या में जंगल जाने से भी बाघों के हमले की घटनायें अपवादस्वरूप हुआ करती थीं।

वह क्षेत्र जहाँ लोग बाघों का शिकार हो रहे हैं
इसके अलावा एक और खास बात यह थी कि यदि बाघ ने हमला कर भी दिया तो वह आदमी को खाता नहीं था। जिसका अर्थ है कि बाघ ने आदमी को अपने आहार के लिये नहीं मारा, बल्कि अपनी या अपने बच्चों की सुरक्षा के लिहाज से मारा। लेकिन अब इन ताजा घटनाओं में बाघ न केवल आदमी को मार रहा है, बल्कि उसे खा भी रहा है। इस बारे में बाघों के व्यवहार पर अध्ययन करने वालों की राय है कि जंगल में बढ़ रहा मानवीय हस्तक्षेप बाघों के व्यवहार में आ रहे परिवर्तन की मुख्य वजह है।

आमतौर पर शांत फिजाओं  का निवासी यह वन्यजीव अपने वासस्थल पर इंसानी दखल के चलते अपने प्राकृतिक व्यवहार से दूर होता जा रहा है। विशेषज्ञों की इस राय को आधार बनाकर वन महकमा जंगल में ग्रामीणों की आवाजाही को शत-प्रतिशत बंद करने पर तुला हुआ है, लेकिन कार्बेट नेशनल पार्क में सैलानियों के माध्यम से हो रही इंसानी घुसपैठ को रोकने या इसे नियंत्रित करने पर वन विभाग जोर नहीं देता है। कार्बेट नेशनल पार्क की स्थापना की प्लेटिनम जुबली के मौके पर यहां आयोजित अंतर्राष्ट्रीय टाइगर मीट में कार्बेट पार्क और कोसी नदी के बीच होने के चलते सुंदरखाल को ऐसा अवरोध माना गया जिसकी वजह से अपनी प्यास बुझाने के लिये पानी के पास जा रहे वन्यजीवों जीवों से आदमी का टकराव बढ़ रहा है।

लेकिन गर्जिया नदी के उत्तरी किनारे से ढिकुली के दक्षिणी हिस्से तक कुकरमुत्ते की तरह उग आये उन रिसोर्ट की कोई चर्चा नहीं हुई जिनके कारण लगभग पांच किमी की यह पट्टी पूरी तरह से कार्बेट पार्क और कोसी नदी के बीच ‘ग्रेट चाइना वाल’ बन गई है। इसके अलावा जंगल को नजदीक से जानने वाले विशेषज्ञों के अनुसार इस बार प्रदेश में आई आपदा के चलते पार्क के ढिकाला जोन में रामगंगा नदी में इतना मलवा आ गया है कि वहां पर ग्रासलैण्ड पूरी तरह से नष्ट हो गई है। ग्रासलैण्ड के अभाव में वहां से हिरन सहित घास पर जिंदा रहने वाली वन्यजीवों की वह प्रजाति जो कि बाघ का शिकार है, अपना स्थान बदल लिया है। जिसका सीधा असर वहां पर रहने वाले बाघों पर भी पड़ा है। इस मामले में ग्रामीणों का इन रिसोर्ट वालों के खिलाफ एक सीधा आरोप भी है।

ग्रामीणों के मुताबिक रिसोर्ट वाले अपने सैलानियों को बाघ की साइटिंग (दर्शन) कराने के लिये सड़क के किनारे कार्बेट पार्क के हिस्से में मांस के टुकड़े डालते हैं। जिस कारण यह बाघ मांस के लालच में यहां आ रहे हैं तथा मांस न मिलने के कारण जंगली शिकार के मुकाबले कहीं ज्यादा आसान शिकार आदमी को अपना निशाना बना रहे है। वन्यजीवों पर गहरा अध्ययन करने वाले सुमांतो घोष भी मानते है कि आदमी बाघ की आहार सूची में कभी भी शामिल नहीं रहा।


 दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' में रिपोर्टर , उनसे   maliksaleem732@gmail.com    पर संपर्क किया जा सकता है.

मिलिये मौलाना बिनायक सेन से


मैंने उनसे पूछा कि आपने ये हुलिया क्यों बनाया हुआ है कि लोग आपको मुसलमान समझते हैं? तो उनका जवाब था, दरअसल मैं मुसलमान की तरह इसलिए दिखना चाहता हूँ ताकि समझ सकूं कि हमारे अपने देश में अल्पसंख्यक होने का मर्म क्या होता है...

महताब आलम

पिछले शुक्रवार को सर्वोच्य न्यायालय ने देशद्रोह के आरोप में सजा काट रहे मशहूर नागरिक अधिकार कार्यकर्ता एवं चिकित्सक, डॉक्टर बिनायक सेन को ज़मानत पर रिहा करने का आदेश सुनाया है और वो सोमवार को रिहा भी हो गए हैं.उन पर आरोप है कि उन्होंने देश की सत्ता और संप्रभुता के खिलाफ माओवादियों के साथ मिलकर षडयंत्र रचा और राष्ट्रद्रोही गतिविधियों में शामिल रहे. इन्हीं सब आरोपों के आधार पर पिछले वर्ष दिसंबर में छत्तीसगढ़ की एक निचली अदालत ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.

बीते तीन-चार वर्षों में डॉक्टर बिनायक सेन के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा गया है-- सकारात्मक और नकारात्मक दोनों. वर्ष 2007 के मई महीने में पहली बार गिरफ़्तारी के बाद मीडिया में विशेषकर 'मुख्यधारा' में जो चीजें आई वो ज़्यादातर नकारात्मक ही थी. लेकिन धीरे-धीरे ये सिलसिला रुका और सकारात्मक रूप लेने लगा. हाँ,ये और बात है कि छत्तीसगढ़ की मीडिया बिनायक को आज भी 'नक्सली डाकिया' ही मानती और लिखती है.

बिनायक के बारे में जो कुछ भी लिखा या कहा गया है उससे ये बात सामने उभरकर आती है कि डॉक्टर बिनायक सेन का  काम और उनकी सोच छत्तीसगढ़ या अविभाजित मध्य प्रदेश और आदिवासी समुदाय तक सीमित है.जो कि सरासर ग़लत है. ये सही है कि बिनायक छत्तीसगढ़ और वहां आदवासी समुदाय से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहे हैं लेकिन उन्हें फ़िक्र सारी दुनिया की रहती थी, खासतौर पर शोषित और अल्पसंख्यक वर्गों की.

बिनायक सेन पर आई एक नयी किताब "ए डॉक्टर टु डीफेंड : दी स्टोरी आफ बिनायक" में इसका प्रमाण भी मिलता है. इस किताब में ऐसी कई घटनाओं का ज़िक्र मिलता है जिनसे न सिर्फ उनके राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय व्यक्तित्व का पता चलता है, बल्कि उनके व्यक्तिगत जीवन के कई अनकहे और अनसुने पहलू मालूम पड़ते हैं,जो बुनियादी तौर उनकी छोटी से छोटी चीज़ के लिए संवेदनशीलता एवं प्रतिबद्धता को दिखाते हैं.

ये महज़ इत्तेफाक नहीं था कि बिनायक स्वास्थ्य का काम करते-करते मानवाधिकार का काम करने लगे, बल्कि ये उन्होंने सोच-समझकर किया था. इस समझ का कारण वो ये बताते हैं कि बहुत कम उम्र में ही उनको पता चल गया था कि स्वास्थ्य की एक पॉलिटिकल इकॉनोमी भी होती है और उसको संबोधित किये बिना स्वास्थ्य के मसलों को हल नहीं किया जा सकता.

यही नहीं, उनके दाढ़ी बढाने और कुरता-पायजामा पहने का भी खास कारण था. उनके मित्र डॉक्टर योगेश दीवान बताते हैं कि एक बार वे बिनायक के साथ पुरुलिया जा रहे थे. दोनों सेकेण्ड क्लास डब्बे में सफ़र कर रहे थे. तभी एक सज्जन ने आकर बिनायक से पूछा- "मौलाना साहब, क्या टाइम हुआ है ?" डॉक्टर योगेश आगे कहते हैं, 'बाद में जब मैंने उनसे पूछा कि आपने ये हुलिया क्यों बनाया हुआ है कि लोग आपको मुसलमान समझते हैं? तो उनका जवाब था, ’दरअसल मैं मुसलमान की तरह इसलिए दिखना चाहता हूँ ताकि समझ सकूं कि हमारे अपने देश में अल्पसंख्यक होने का मर्म क्या होता है.'

अभी हाल की एक मुलाकात में उनकी पत्नी प्रोफेसर इलीना सेन ने मुझे बताया कि ’जब बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का मामला जोरों पर था तो हम सपरिवार अयोध्या गए थे. वहां पहुँचने पर जब हमने अन्दर जाना चाहा तो सबको जाने दिया गया, लेकिन बिनायक को रोक दिया. जब हमने पूछा कि वो ऐसा क्यों कर रहे हैं? तो उनका जवाब था 'हम बेहतर जानते हैं कि किनको अन्दर जाने देना है और किनको नहीं.' मतलब ये था कि बिनायक अन्दर इसलिए नहीं जा सकते हैं क्योंकि वो 'मुसलमान' हैं!’

किताब में इस बात का भी उल्लेख है कि पिछली बार जब वो जेल में थे और ग़ाज़ा में निहत्थे फिलिस्तीनियों के मारे जाने की खबर रेडियो पर सुनते थे, तो वहां के हालात को छत्तीसगढ़ के हालात से जोड़कर देखते थे. मुझे ऐसा लगता है जब वो इस बार जेल में थे और अरब देशो में हो रहे परिवर्तन के बारे में उनको खबर मिलती रही होगी तो वे ज़रूर इस पर सोच रहे होंगे कि इसके सकारात्मक असर दक्षिण एशिया पर क्या और कैसे पड़ेंगे? मुझे याद है कि पिछले वर्ष अगस्त के महीने जब मेरी उनसे राउरकेला में एक कार्यकम में मुलाकात हुयी तो बहुत देर तक झारखण्ड के हालात के बारे में मालूम करते रहे. वो वहां के हालात को लेकर खासे चिंतित थे.

इस सोमवार कोजेल से रिहाई के बाद अपनी पहली प्रेस कॉन्फ़्रेंस में भी बिनायक ने ’शांति और न्याय’ के लिए लोगों को आगे आने का आह्वान किया. जेल से छूटते ही उनका पहला वाक्य था, “खुली हवा में सांस लेना अच्छा लग रहा है.” साथ ही उन्होंने यह भी आगाह किया कि भले ही ’राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय अभियानों और लोगों के सक्रिय समर्थन से वे रिहा हो गए हैं, लेकिन अभी भी छत्तीसगढ़ और देश के अन्य दूसरे हिस्सों में सैकड़ों-हज़ारों लोग उनकी ही तरह के फ़िल्मी और बेबुनियाद आरोपों के आधार पर क़ैद हैं, और हमें उन सभी लोगों की रिहाई के लिए इस अभियान के दायरे को बढ़ाना होगा.’

उपरोक्त तथ्य बिनायक की चिंताओं से रू-ब-रू तो कराते ही हैं, ये छत्तीसगढ़ सरकार के ’देशद्रोह’ के तुच्छ, वैमनस्य भरे और आपराधिक आरोपों की कलई भी खोलते हैं. जब बिनायक कहते हैं कि ’मैं अपने दिल से जानता हूं कि मैंने इस देश और देश की जनता के साथ कोई गद्दारी नहीं की’ तो उनकी इस बात पर अविश्वास करने के रत्ती भर भी कोई कारण नहीं है.अगर कोई सरकारों की ’आधिकारिक लाइन’ और उसके समर्थन में दी जाने वाली हास्यास्पद दलीलों का आलमबरदार हो तो तब की बात कुछ और है.


(लेखक  मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे activist.journalist@gmail.com     पर संपर्क किया जा सकता है.)



स्त्री शोषण की सुमंगली योजना


मजदूरों के होने वाले शोषण की तमाम बारीकियों से पाठक परिचित हैं.मगर यह पहली दफा होगा जब हमारे हिंदी के पाठक एक ऐसी योजना के बारे में जानेंगे, जिसे कंपनी मालिकों और सरकार ने मिलकर स्त्री उत्पीड़न की  बुनियाद पर खड़ा किया है और नाम सुमंगली योजना रखा है. जनज्वार के लिए यह पहली रिपोर्ट तमिलनाडु के तिरुपुर से लौटकर संतोष कुमार ने लिखी है,जो वहां मार्च महीने में गयी फैक्ट फाइंडिंग टीम के सदस्य भी रहे हैं.यह टीम मई के पहले सप्ताह में  तिरुपुर  में  काम के  हालात  और  सुमंगली योजना पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित करेगी ... मॉडरेटर

संतोष कुमार

तमिलनाडु स्थित तिरुपुर कपड़ा उद्योग का फलता-फूलता केंद्र होने के साथ-साथ भूमंडलीकृत नवउदारवादी विश्व आर्थिक व्यवस्था का मॉडल है. यहां से वालमार्ट, फिला, रीबॉक, एडीडास, डीजल जैसे नामी-गिरामी ब्रांडों को यहां से उत्पादों की आपूर्ति की जाती है.

सुमंगली मजदूर : बंधुआ मजदूरी के नए शिकार
पर इस मॉडल का एक स्याह पक्ष यह  भी है कि पिछले दो सालों (2009-2010) के दौरान यहां 1,050 से भी ज्यादा आत्महत्याएं हुई हैं, जिनमें से अधिकतर फैक्टरी मजदूरों की हैं. जिस शहर को कभी डॉलर सिटी और निटवियर (knitwear) कैपिटल कहा जाता था, उसे आज आत्महत्याओं की राजधानी के रूप में जाना जाने लगा है.अकेले 2010 में ही 565 आत्महत्याएं हुई हैं.

एक तरफ 12000  करोड़ रुपयों के साथ निर्यात का सफलतम मॉडल और दूसरी तरफ प्रतिदिन तकरीबन बीस मजदूरों द्वारा आत्महत्या या आत्महत्या करने की कोशिश. शायद यह नवउदारवादी विश्व आर्थिक व्यस्था के अमानवीय परिणाम का भी मॉडल है, जिसमें हरेक डॉलर का मुनाफा किसी मजदूर के खून से सना है.

इन सारी स्थितियों को समझने के लिए एक फैक्ट फाइंडिंग टीम ने मार्च के पहले हफ्ते में तिरुपुर का दौरा किया. टीम ने तिरुपुर में चल रही सुमंगली योजना का जायजा लिया है. इसमें पता चला कि  मजदूरों की भलाई के नाम पर चल रही यह योजना किस तरह उनके और अधिक तथा गहरे शोषण के एक औजार के रूप में काम कर रही है.

दुनियाभर में कैंप कुली लेबर व्यवस्था को मजदूरों के आवास संबंधी सवाल का सबसे बुरा रूप माना जाता है. इस व्यवस्था में मजदूरों को कारखाने द्वारा या कारखाने में उपलब्ध होस्टल में रखा जाता है. यह व्यवस्था मालिकों को बहुत प्रिय है, क्योंकि इसकी खासियत है- मजदूरों से 12 या उससे ज्यादा घंटे काम कराया जाना, कम मजदूरी की अदायगी, किसी भी तरह के मनोरंजन से वंचित रखना, बाहर निकलने या अपनी मरजी से कहीं आने-जाने या किसी से मिलने-जुलने पर पाबंदी, हर समय मजदूरों को सुरक्षा गार्डों या मालिकों के आदमियों की नजर में रखा जाना, जिससे उनकी आजादी पर ही पहरा लग जाता है. इन्हीं वजहों से बहुत सारे श्रमिक कार्यकर्ता और अध्ययनकर्ता इस व्यवस्था को जेल लेबर कैंप और बंधुआ लेबर व्यवस्था भी कहते हैं.

तिरुपुर में कपड़ा मिल मालिकों ने एक बहुत ही ’आकर्षक’ योजना के तहत 14 से 19 वर्ष की किशोरियों के लिए इसी तरह की व्यवस्था तैयार की है, जिसे सुमंगली योजना के नाम से जाना जाता है. रोचक बात यह है कि इस योजना को भारतीय समाज के एक घटिया चलन दहेज को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया है. इस योजना को 15 से 19 वर्ष की ग्रामीण और गरीब लड़कियों के लिए बनाया गया है, जो अपनी गरीबी की वजह से दहेज नहीं जुटा पातीं और उनकी शादी नहीं हो पाती.

ग्रामीणों की यह मजबूरी मिल मालिकों के लिए वरदान साबित हो रही है. मिल मालिक किशोरियों की ऊर्जा और कुशलता, जो कपड़ा उद्योग के लिए खासा महत्व रखती है, का अबाध शोषण कर अथाह मुनाफा बटोर रहे हैं. इस योजना में शामिल लड़कियों को कारखाने द्वारा उपलब्ध कराये गये होस्टल या कारखाने में ही 24 घंटे सुरक्षा गार्डों के निरीक्षण में रखा जाता है. इस योजना के तहत एक अनुबंध पर मालिकों, अभिभावकों और महिला मजदूरों के बीच हस्ताक्षर किया जाता है.

सुमंगली के लिए तमिल में लिखी लुभावनी
बातें जिसके चक्कर में महिला मजदूर फंसती हैं
कई सारी अमानवीय शर्तों वाले इस अनुबंध में सामान्यतः तीन साल के अंत में 30 से 50 हजार के बीच एक तयशुदा राशि देनी तय होती है. कारखाने में नौकरी के लिए भरती होते समय उन्हें एक पारिवारिक सामूहिक फोटो देना होता है और करार की पूरी अवधि के दौरान उस फोटो में शामिल लोगों के अलावा वे किसी से नहीं मिल सकती हैं. इसमें काम के बाद लड़कियों का होस्टल से जाना मना होता है. वे अपने अभिभावकों से भी एक नियत समय पर ही मिल सकती हैं, जो सामान्यतः महीने में सिर्फ दो घंटा होता है. इसके लिए भी पहले अभिभावकों को मालिकों से अनुमति लेनी होती है.

ये महिला मजदूर महीने में केवल चार घंटे के लिए बाजार जाकर अपनी जरूरत का सामान खरीद सकती हैं और वह भी महिला सुरक्षा गार्डों की निगरानी में, जो उनकी हर गतिविधि पर नजर रखती हैं. साल में एक बार पोंगल या दीवाली की छुट्टी में वे 4-5 दिन के लिए घर जा सकती हैं. उन्हें इस अवधि के भीतर ही वापस कारखाने लाने की जिम्मेदारी उन बिचौलियों की होती है, जिनके माध्यम से उन्हें कारखाने में नौकरी मिली होती है. तयशुदा समय में वापस न आने पर बिचौलिये का कमीशन और महिला मजदूरों की तयशुदा रकम का न दिया जाना आम बात है.

शोषण का यह खेल यहीं खत्म नहीं होता. तीन सालों की अवधि के दौरान अगर कुछ भी नियत अनुबंध से इतर होता है तो मालिक पूरी तयशुदा राशि ही हड़प लेते हैं. इसके लिए मिल मालिक अक्सर विभिन्न तरकीबें अपनाते हैं. मजदूरों और उनके परिजनों से बातचीत करने पर फैक्ट फाइंडिंग टीम  को   एक तरकीब का पता लगा जिसके तहत ढाई या पौने तीन साल होने पर मिल मालिक घर के अभिभावकों को यह पत्र लिखते हैं कि उनकी बेटी का किसी साथी पुरुष मजदूर से शारीरिक संबंध है या इसी तरह की कुछ और ऊल-जुलूल बातें. 

ऐसी चिट्ठी पाने के बाद ज्यादातर मामलों में अभिभावक अपनी बेटियों को वापस ले जाते हैं और  करार की शर्तों को तोड़ देने का बहाना बनाकर मालिक सारी राशि का गबन कर लेता है. इस योजना के बारे में मालिकों की तरफ से दावा किया जाता है कि महिला मजदूरों को अच्छा खाना, रहने की अच्छी व्यवस्था, औद्योगिक प्रशिक्षण और करार के अंत में शादी के लिए मोटी रकम और रोजाना के खर्चों के लिए अलग से स्टाइपेंड मुहैया करायी जायेगी. पर वास्तव में होता इसके बहुत उलट है. 

करार की लुभावनी दिखने वाली हवाई शर्तों की ओट में महिला मजदूरों को बोनस, ईपीएफ, ईएसआई जैसे बुनियादी अधिकारों से तो वंचित किया ही जाता है, लड़कियों को रहने के लिए मुहैया कराये गये होस्टलों में स्वास्थ्य संबंधी कोई सुविधा नहीं होती है. यह पूरी योजना अप्रेंटिसशिप योजना के तहत चलायी जाती है, जिसमें एक नियत समय के लिए ही प्रशिक्षण के बाद नौकरी का प्रावधान है.

कपड़ा बनाने की तैयारी  में मजदूर                सभी फोटो - Frontline  
सुमंगली योजना के तहत लड़कियों की भरती के लिए कारखाना मालिकों ने मजदूर बिचौलियों का एक बहुत ही मजबूत नेटवर्क फैला रखा है.यह नेटवर्क आर्थिक रूप से पिछड़े दक्षिणी तमिलनाडु के जिलों मदुरै, थेनी, दिंदुगल एवं तिरुवन्नवेली के गांवों में पोस्टर, नोटिस एवं अखबारों में विज्ञापनों एवं अपने संपर्कों के जरिये काम करता है. लड़कियों को काम के लिए तिरुपुर लाने के लिए ये बिचौलिये गांव में इस योजना को बहुत ही खूबसूरती से पेश करके अभिभावकों को झांसा देते हैं. बिचौलिये मुख्यतः उन गरीब घरों पर नजर रखते हैं, जिनमें माता-पिता में से किसी एक का या दोनों का निधन हो गया हो, जिन परिवारों में पिता शराबखोरी करता हो या वैसे गरीब परिवार जिनमें बहुत सारी बेटियां हों.इन परिवारों से लड़कियों को कारखाने में ले आना आसान होता है.

कम मजदूरी, अमानवीय कार्यदिवस, बुनियादी अधिकारों का हनन, मनोरंजन का अभाव, शारीरिक एवं मानसिक शोषण के अलावा यौन शोषण ऐसे पहलू हैं जो इस सुमंगली योजना के तहत काम करनेवाली लड़कियों का जीवन दूभर करती हैं. 13 अक्तूबर, 2010 से 16 अक्तूबर, 2010 के बीच ’न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ के चेन्नई संस्करण में सुमंगली योजना के तहत काम करनेवाली महिला मजदूरों के शारीरिक-मानसिक एवं यौन शोषण की रिपोर्टिंग विस्तृत रूप से की गयी है. इन रिपोर्टों के अनुसार 19 साल से कम उम्र की इन लड़कियों का ठेकेदारों, सुपरवाइजरों, सुरक्षा गार्डों और साथी मजदूरों द्वारा शारीरिक शोषण की बहुत सारी घटनाएं पायी गयी हैं. 

कई बार ऐसी घटनाओं में महिला मजदूरों की मौत तक हो जाती है या वे आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाती हैं. पुलिस इन मौतों को दुर्घटना का रूप देने की भरपूर कोशिश करती है. एक रिपोर्ट के अनुसार पांडिश्वरी में तिरुपुर के एक सेंटमिल में काम करनेवाली 17साल की एक महिला मजदूर (लोगों का कहना है कि वह महज 12 साल की ही थी) की 3 दिसंबर को हुई रहस्यमयी मौत के बारे में सामाजिक संगठनों ने आरोप लगाया है कि लड़की की मौत का कारण उसका लगातार यौन शोषण किया जाना था. दिंदुगल में हुए पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में भी यह सामने आया कि लड़की गंभीर यौन शोषण का शिकार हुई थी.

इस मामले से जिले में हुई आत्महत्या की अनेक घटनाओं के बारे में नये सिरे से संदेह पैदा होने लगे हैं. सामाजिक संगठनों का कहना है कि अधिकतर आत्महत्याएं कारखानों और काम की जगहों पर यौन शोषण की वजह से होती हैं. महिलाओं को दोहरा उत्पीड़न झेलना पड़ता है. जब वे इन घटनाओं का विरोध करती हैं या ठेकेदारों, सुपरवाइजरों, सुरक्षा गार्डों और साथी मजदूरों को मनमानी से मना करती हैं , तो ऐसे में  बहाना बना कर नौकरी से निकाल दिया जाना और तयशुदा रकम का न दिया जाना आम बात है. नतीजतन अधिकतर महिलाएं जो इस योजना के सुनहरे प्रचार को देखकर भरती होती हैं, वे अंत में स्वास्थ्य,आत्मसम्मान, गरिमा और इज्जत को खोकर गरीबी के उसी कुचक्र में वापस लौट जाती हैं.



श्रमिक मामलों के अध्येता और कार्यकर्ता.तिरुपुर गयी फैक्ट फाइंडिंग टीम के सदस्य हैं. उनसे   mazdoor.delhi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.