Apr 25, 2011

मिलिये मौलाना बिनायक सेन से


मैंने उनसे पूछा कि आपने ये हुलिया क्यों बनाया हुआ है कि लोग आपको मुसलमान समझते हैं? तो उनका जवाब था, दरअसल मैं मुसलमान की तरह इसलिए दिखना चाहता हूँ ताकि समझ सकूं कि हमारे अपने देश में अल्पसंख्यक होने का मर्म क्या होता है...

महताब आलम

पिछले शुक्रवार को सर्वोच्य न्यायालय ने देशद्रोह के आरोप में सजा काट रहे मशहूर नागरिक अधिकार कार्यकर्ता एवं चिकित्सक, डॉक्टर बिनायक सेन को ज़मानत पर रिहा करने का आदेश सुनाया है और वो सोमवार को रिहा भी हो गए हैं.उन पर आरोप है कि उन्होंने देश की सत्ता और संप्रभुता के खिलाफ माओवादियों के साथ मिलकर षडयंत्र रचा और राष्ट्रद्रोही गतिविधियों में शामिल रहे. इन्हीं सब आरोपों के आधार पर पिछले वर्ष दिसंबर में छत्तीसगढ़ की एक निचली अदालत ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.

बीते तीन-चार वर्षों में डॉक्टर बिनायक सेन के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा गया है-- सकारात्मक और नकारात्मक दोनों. वर्ष 2007 के मई महीने में पहली बार गिरफ़्तारी के बाद मीडिया में विशेषकर 'मुख्यधारा' में जो चीजें आई वो ज़्यादातर नकारात्मक ही थी. लेकिन धीरे-धीरे ये सिलसिला रुका और सकारात्मक रूप लेने लगा. हाँ,ये और बात है कि छत्तीसगढ़ की मीडिया बिनायक को आज भी 'नक्सली डाकिया' ही मानती और लिखती है.

बिनायक के बारे में जो कुछ भी लिखा या कहा गया है उससे ये बात सामने उभरकर आती है कि डॉक्टर बिनायक सेन का  काम और उनकी सोच छत्तीसगढ़ या अविभाजित मध्य प्रदेश और आदिवासी समुदाय तक सीमित है.जो कि सरासर ग़लत है. ये सही है कि बिनायक छत्तीसगढ़ और वहां आदवासी समुदाय से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहे हैं लेकिन उन्हें फ़िक्र सारी दुनिया की रहती थी, खासतौर पर शोषित और अल्पसंख्यक वर्गों की.

बिनायक सेन पर आई एक नयी किताब "ए डॉक्टर टु डीफेंड : दी स्टोरी आफ बिनायक" में इसका प्रमाण भी मिलता है. इस किताब में ऐसी कई घटनाओं का ज़िक्र मिलता है जिनसे न सिर्फ उनके राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय व्यक्तित्व का पता चलता है, बल्कि उनके व्यक्तिगत जीवन के कई अनकहे और अनसुने पहलू मालूम पड़ते हैं,जो बुनियादी तौर उनकी छोटी से छोटी चीज़ के लिए संवेदनशीलता एवं प्रतिबद्धता को दिखाते हैं.

ये महज़ इत्तेफाक नहीं था कि बिनायक स्वास्थ्य का काम करते-करते मानवाधिकार का काम करने लगे, बल्कि ये उन्होंने सोच-समझकर किया था. इस समझ का कारण वो ये बताते हैं कि बहुत कम उम्र में ही उनको पता चल गया था कि स्वास्थ्य की एक पॉलिटिकल इकॉनोमी भी होती है और उसको संबोधित किये बिना स्वास्थ्य के मसलों को हल नहीं किया जा सकता.

यही नहीं, उनके दाढ़ी बढाने और कुरता-पायजामा पहने का भी खास कारण था. उनके मित्र डॉक्टर योगेश दीवान बताते हैं कि एक बार वे बिनायक के साथ पुरुलिया जा रहे थे. दोनों सेकेण्ड क्लास डब्बे में सफ़र कर रहे थे. तभी एक सज्जन ने आकर बिनायक से पूछा- "मौलाना साहब, क्या टाइम हुआ है ?" डॉक्टर योगेश आगे कहते हैं, 'बाद में जब मैंने उनसे पूछा कि आपने ये हुलिया क्यों बनाया हुआ है कि लोग आपको मुसलमान समझते हैं? तो उनका जवाब था, ’दरअसल मैं मुसलमान की तरह इसलिए दिखना चाहता हूँ ताकि समझ सकूं कि हमारे अपने देश में अल्पसंख्यक होने का मर्म क्या होता है.'

अभी हाल की एक मुलाकात में उनकी पत्नी प्रोफेसर इलीना सेन ने मुझे बताया कि ’जब बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का मामला जोरों पर था तो हम सपरिवार अयोध्या गए थे. वहां पहुँचने पर जब हमने अन्दर जाना चाहा तो सबको जाने दिया गया, लेकिन बिनायक को रोक दिया. जब हमने पूछा कि वो ऐसा क्यों कर रहे हैं? तो उनका जवाब था 'हम बेहतर जानते हैं कि किनको अन्दर जाने देना है और किनको नहीं.' मतलब ये था कि बिनायक अन्दर इसलिए नहीं जा सकते हैं क्योंकि वो 'मुसलमान' हैं!’

किताब में इस बात का भी उल्लेख है कि पिछली बार जब वो जेल में थे और ग़ाज़ा में निहत्थे फिलिस्तीनियों के मारे जाने की खबर रेडियो पर सुनते थे, तो वहां के हालात को छत्तीसगढ़ के हालात से जोड़कर देखते थे. मुझे ऐसा लगता है जब वो इस बार जेल में थे और अरब देशो में हो रहे परिवर्तन के बारे में उनको खबर मिलती रही होगी तो वे ज़रूर इस पर सोच रहे होंगे कि इसके सकारात्मक असर दक्षिण एशिया पर क्या और कैसे पड़ेंगे? मुझे याद है कि पिछले वर्ष अगस्त के महीने जब मेरी उनसे राउरकेला में एक कार्यकम में मुलाकात हुयी तो बहुत देर तक झारखण्ड के हालात के बारे में मालूम करते रहे. वो वहां के हालात को लेकर खासे चिंतित थे.

इस सोमवार कोजेल से रिहाई के बाद अपनी पहली प्रेस कॉन्फ़्रेंस में भी बिनायक ने ’शांति और न्याय’ के लिए लोगों को आगे आने का आह्वान किया. जेल से छूटते ही उनका पहला वाक्य था, “खुली हवा में सांस लेना अच्छा लग रहा है.” साथ ही उन्होंने यह भी आगाह किया कि भले ही ’राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय अभियानों और लोगों के सक्रिय समर्थन से वे रिहा हो गए हैं, लेकिन अभी भी छत्तीसगढ़ और देश के अन्य दूसरे हिस्सों में सैकड़ों-हज़ारों लोग उनकी ही तरह के फ़िल्मी और बेबुनियाद आरोपों के आधार पर क़ैद हैं, और हमें उन सभी लोगों की रिहाई के लिए इस अभियान के दायरे को बढ़ाना होगा.’

उपरोक्त तथ्य बिनायक की चिंताओं से रू-ब-रू तो कराते ही हैं, ये छत्तीसगढ़ सरकार के ’देशद्रोह’ के तुच्छ, वैमनस्य भरे और आपराधिक आरोपों की कलई भी खोलते हैं. जब बिनायक कहते हैं कि ’मैं अपने दिल से जानता हूं कि मैंने इस देश और देश की जनता के साथ कोई गद्दारी नहीं की’ तो उनकी इस बात पर अविश्वास करने के रत्ती भर भी कोई कारण नहीं है.अगर कोई सरकारों की ’आधिकारिक लाइन’ और उसके समर्थन में दी जाने वाली हास्यास्पद दलीलों का आलमबरदार हो तो तब की बात कुछ और है.


(लेखक  मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनसे activist.journalist@gmail.com     पर संपर्क किया जा सकता है.)



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