May 8, 2017

केजरीवाल यानी...मैं, मैं और बस मैं

उन शर्तों की आंखों देखी जो केजरीवाल की राजनीति के असल सिद्धांत बने 

केजरीवाल ने दो टूक सबको बता दिया था —  मुझे ऐसी राजनीति नहीं करनी, जहां पार्टी बनाने के बाद 10-15 साल सत्ता के लिए संघर्ष करना पड़े। सत्ता के लिए लम्बा इंतजार और स्ट्रगल, मेरे बस का नहीं, इससे बढ़िया मैं राजनीति छोड़ दूं और अपना एनजीओ चलाऊँ...

तरुण शर्मा की रिपोर्ट 


बात 2011 के बसंत के ​दिनों की है जब मैं स्वामी अग्निवेश का निजी सहयोगी हुआ करता था। दिल्ली के 7 जंतर मंतर का दफ्तर जो अन्ना आंदोलन के साथ—साथ न जाने कितने राष्ट्रीय आन्दोलनों का कैंप ऑफिस रहा। अन्ना आंदोलन का पहला फेज अभी—अभी खत्म हुआ था। केजरीवाल ने राजनीतिक पार्टी बनाने का ऐलान नहीं किया था, पर माहौल में आंदोलन को राजनीतिक पहचान देने और व्यवस्था परिवर्तन के लिए एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने की चर्चा चारो ओर थी। 

स्वामी अग्निवेश का दफ्तर और उसका बरामदा हमेशा ऐसे आंदोलनों से जुड़े लोगों के लिए धरने के बाद थोड़ा—बहुत सुस्ताने और बहस—मुबाहिशों का केंद्र रहा है जहां एनजीओ, सामाजिक आंदोलनों और वैकल्पिक राजनीति के चाहने वाले कार्यकर्ता और छोटे, बड़े नेता अक्सर डेरा डाले रहते थे।  

अन्ना आंदोलन जिसने राष्ट्रीय स्तर पर तमाम सामाजिक संगठनों, युवाओं और जन आंदोलन के अलग—अलग संघर्षशील नेताओं को एक मंच पर लामबंद किया था। अन्ना के रालेगण सिद्धि वापिस चले जाने के बाद नई राजनीतिक पार्टी के लिए इसके नेताओं में आपसी बातचीत, सलाह मशविरा शुरू हो गया। जिसमें मोटे तौर पर ये बात सामने आई कि बिना किसी नेता के चेहरे को सामने किए पूरे भारत में  जन आंदोलन  के अगुवाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को इस मुद्दे को जनता के बीच लेकर जाना चाहिए और सत्ता के विकेन्द्रीकरण के आधार पर एक नेता के बजाए स्थानीय नेतृत्व के जरिए एक सामूहिक राष्ट्रीय नेतृत्व खड़ा किया जाए। 

जाहिर तौर पर इस प्रक्रिया से पार्टी बनाने में थोड़ा वक़्त लगता। पर इन सबके बीच अन्ना आंदोलन का एक ऐसा नेता था जो यह तय कर चुका था उसे हर हाल में एक ऐसी राजनीतिक पार्टी बनानी है जिसमें सिर्फ और सिर्फ वे नेता हों और पूरी पार्टी में उनके कद का कोई और नेता न हो। 

इसी को ध्यान में रखते हुए अरविंद केजरीवाल ने बड़ी चालाकी से अपने एक सत्याग्रह और अनशन का अंत अपनी खुद की एक राजनीतिक पार्टी बनाने के ऐलान के साथ किया। मैंने जंतर— मंतर पर उस समय इनकी पार्टी में शामिल होने के इच्छुक इंडिया अगेंस्ट करप्शन के कई नेताओं को आपस में बात करते हुए सुना,देखा और गवाह रहा है कि कैसे केजरीवाल सिर्फ अपने करीबी लोगों को पार्टी के नेतृत्व में चाहते हैं और जब तक वे पार्टी का मनमाफिक ऊपरी संगठन और उसके ऊपर अपनी पकड़ नहीं बना लेते किसी भी अन्य बड़े नेता को पार्टी में शामिल नहीं होने देंगे। 

मैं, मैं और बस मैं... मेरे अलावा पार्टी में कोई और नेता ना उभरे, पार्टी बनाने के समय से लेकर अब तक केजरीवाल अपना आधा दिमाग और ऊर्जा इसी पर खर्च करते हैं। खुद को लेकर इतना बड़ा मोह और उससे उपजा डर यही केजरीवाल की सबसे बड़ी कमजोरी है, जिसके चलते उन्होंने पार्टी में एक के बाद बड़ी गलतियां की हैं। 

आम आदमी पार्टी हरियाणा के एक पूर्व नेता जिनके पास हरियाणा की एक बड़ी जिम्मेवारी थी, ने खुद बताया था कि जब योगेन्द्र यादव ने आम आदमी पार्टी को अपना समर्थन दिया और पार्टी में शामिल होने की घोषणा की, उसी समय केजरीवाल ने योगेन्द्र यादव बड़ा नेता न बन पाएं उनके खिलाफ साजिशें शुरू कर दीं। योगेंद्र यादव पार्टी में आने के तुरंत बाद समान मानसिकता के ईमानदार और संघर्षशील लोगों को पार्टी से जोड़ने के लिए पूरे भारत का दौरा करना चाहते थे, जिसकी इजाजत केजरीवाल ने नहीं दी। 

योगेंद्र यादव हरियाणा में काम कर रहे थे, तब पार्टी की हरियाणा चुनाव लड़ने की योजना थी। बाकायदा एक रणनीति के तहत हरियाणा में केजरीवाल ने अपने एक करीबी नवीन जयहिंद को योगेंद्र यादव को निपटाने के लिए लगा दिया। जिन्होंने हर शहर में कांग्रेस और दूसरी पार्टियों से सिर्फ टिकट के चाहने वाले नेताओं को पार्टी में शामिल किया और उनके जरिए एक बहस भी हरियाणा में चलाई कि हरियाणा का मुख्यमंत्री कौन हो, नवीन जयहिंद या योगेंद्र यादव। 

मेरे हरियाणा के उन्हीं मित्र ने बताया कि जब उन्होंने हरियाणा की मीटिंग में योगेंद्र यादव से पार्टी नेतृत्व की कार्यशैली से नाराजगी जताते हुए सत्ता के लिए सिद्धांतों से समझौता करने की बात कही तो जवाब में योगेंद्र यादव ने कहा क्या करें केजरीवाल ने सीधे उनको जवाब दे दिया है कि मेरे को पहली ही बार चुनाव जीतकर सरकार बनानी है, उसके लिए जो भी जरूरी होगा मैं करूँगा। 

केजरीवाल ने पार्टी के सभी आदर्शवादियों, ईमानदारी व सुचिता की राजनीति के आग्रहियों को पार्टी बनाने के कुछ महीनों के भीतर ही साफ कर दिया था कि मुझे ऐसी राजनीति नहीं करनी, जहां पार्टी बनाने के बाद 10 -15 साल सत्ता के लिए संघर्ष करना पड़े। इतना लम्बा इंतजार और स्ट्रगल, मेरे बस का नहीं। इससे बढ़िया है कि मैं राजनीति ही छोड़ दूं और अपना एनजीओ चलाऊं। फिर आप अकेले करते रहना खाली सिद्धांतों की राजनीति।   

दो राष्ट्र हैं हिंदू और दलित

दलितों में इतना परिवर्तन नहीं आया है कि वे सवर्णों की तरह खूंखार हो गए हों और वे होंगे भी नहीं क्योंकि उनके पुरखे—कबीर, रविदास और डा. आंबेडकर ने उन्हें भेड़िया बनने की शिक्षा नहीं दी है...



सहारनपुर के शब्बीरपुर घटना पर कँवल भारती की टिप्पणी 

इस विषय पर मैं काफी लिख चुका हूँ. मैं अपने मत की पुष्टि में अभी की सहारनपुर की घटना लेता हूँ, जहाँ शब्बीरपुर गाँव में ठाकुरों ने 15 दलितों पर लोहे की राड और धारदार हथियारों से जानलेवा हमला किया है, उन्होंने 22 घरों पर पेट्रोल डालकर आग लगा दी, जिससे उनके पशु, टीवी, मोटरसाइकिलें, बर्तन, बिस्तर, फर्नीचर सब जल कर राख हो गये. 

उन्होंने पूरी जाटव बस्ती में दहशत मचाई, जाति-सूचक गलियां दीं, रविदास मंदिर में तोड़फोड़ व लूटमार की, और गांव में स्थापित रविदास  की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त कर दिया. कहा जाता है कि गांव में ठाकुर राणाप्रताप की झांकी निकाल रहे थे, दलितों ने लाउडस्पीकर बंद करने को कहा, और बंद न करने पर उन्होंने जुलुस पर पथराव कर दिया. 

इससे भगदड़ मच गयी, एक ठाकुर की दम घुटने से मौत हो गयी, जिसका बदला लेने के लिए फोन करके आसपास के ठाकुरों को बुलाया गया. और सबने खूंखार तरीके से दलित बस्ती को घेर लिया. इस घटना ने देवली, साधुपुर, कफलटा, कुम्हेर, बाथे और खैरलांजी नरसंहार की याद ताजा कर दी है, जिनमें खूंखार सवर्णों ने दलितों के खून से होली खेली थी. 

इन सभी घटनाओं की तरह इस कांड की भी एकपक्षीय जाँच होगी, और सभी अभियुक्त दोषमुक्त हो जायेंगे. पर कुछ बेगुनाह दलित जेल जरूर चले जायेंगे. प्रदेश में हिन्दूवादी ठाकुरों की सरकार है. 

दलित कवि मलखान सिंह की एक कविता के अनुसार, ठाकुरों का राजा हाथी पर सवार होकर गाँव में आएगा, और दलितों को कुछ रियायतें बाँटकर चला जायेगा. यह भी हो सकता है कि राजा इसकी जरूरत भी न समझे. खैर, इस घटना को अंजाम देने में किसी भी दलित की कोई भूमिका नहीं है. इस सारे खूनी नाटक की पटकथा ठाकुरों के द्वारा ही लिखी गयी थी. 

पिछले कुछ सालों में  दलितों में इतना परिवर्तन तो आया है, कि वे अब जातीय अपमान का शाब्दिक जवाब देने लगे हैं, और कुछ पढ़लिख गए हैं. किन्तु, उनमें इतना परिवर्तन अभी नहीं आया है कि वे सवर्णों की तरह खूंखार हो गए हैं. लोगों के घरों में आग लगाने लगे हैं, घरों में घुसकर लोगों को गोलियों से भूनने लगे हैं, या गर्भवती महिला का पेट चीरकर शिशु को हवा में उछालकर गोली से उड़ाने लगे हैं. 

जिस दिन दलित इतने खूंखार हो जायेंगे, तब शायद देश एक भीषण जातिसंघर्ष में बदल जाएगा, और शायद सवर्णों के छक्के भी छूट जाएँ. लेकिन दलित इतने खूंखार बनेंगे नहीं, क्योंकि उनके पुरखे—कबीर, रविदास, और डा. आंबेडकर ने उन्हें भेड़िया बनने की शिक्षा नहीं दी है. वे लोकतंत्र में विश्वास करने वाले लोग हैं, और भूखे-नंगे रहकर और फुटपाथों पर सोकर भी उन्होंने कभी हथियार नहीं उठाये. इसलिए इस आरोप पर कभी विश्वास नहीं किया जा सकता कि उन्होंने ठाकुरों से लाउडस्पीकर बंद कराने की हिम्मत की होगी, और उनके जुलुस पर पत्थर फेंके होंगे. 

इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उस गांव के जाटव अपनी जीविका के लिए उन ठाकुरों पर ही आश्रित हैं. वे उनके खेतों में काम करते हैं. वे उन पर पत्थर कैसे फेंक सकते थे? जरूर, इसके पीछे ठाकुरों और दलितों के बीच कोई अन्य आर्थिक कारण होगा. हो सकता है कि खैरलांजी की तरह यहाँ भी कुछ दलित आर्थिक रहन—सहन में ठाकुरों की बराबरी करने लगे हों, और उन्हें जमीन पर लाने के लिए ही उनके घरों को जलाकर राख करके उन्हें सबक सिखाया गया हो.

'शूद्रों—अतिशूद्रों की फूट का फायदा हमेशा ब्राह्मणवादियों ने उठाया है'

शूद्र अतिशूद्र एकदूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं और अपने साझा दुश्मन ब्राह्मणवाद से नहीं लड़ रहे हैं. इन जातियों को आपस में लड़ाने के लिए ही जातीय अस्मिता और जातीय पहचान का इस्तेमाल किया गया है....

अशोक भारती नेशनल कन्फेडरेशन ऑफ़ दलित एंड आदिवासी राइट्स (NACDOR) के संस्थापक हैं और इस संस्था के माध्यम से भारत के 23 राज्यों में दलित आदिवासी अधिकार की लड़ाई लड़ते रहे हैं. आइईएस अधिकारी रह चुके भारती ने लंबे समय तक जमीनी काम करते हुए स्वयंसेवी संस्थाओं का एक देशव्यापी गठजोड़ निर्मित किया है. देशभर में दलित आदिवासी आंदोलनों से ये जुड़े रहे हैं और दलित आदिवासी अधिकार और विकास के मुद्दों पर राईट बेस्ड अप्रोच के साथ काम करते आये हैं. वर्तमान में दलित बहुजन राजनीति के लिए एक नया विकल्प बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं और हाल ही में इन्होने जन सम्मान पार्टी की स्थापना की है. 

अशोक भारती से संजय जोठे की बातचीत

इधर उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति की हार पर आपने अभी तक विस्तार से बात नहीं रखी, आपकी नजर में इस हार का क्या कारण है?
देखिये राजनीतिक हार या जीत के गहरे मायने होते हैं और कम से कम आज की दलित राजनीति की हार और उत्तर प्रदेश में बसपा के सफाए के बहुत गहरे मायने हैं. ये केवल एक चुनावी हार नहीं है, बल्कि ये एक विचारधारा की और एक रणनीति की हार है. बाबा साहेब अंबेडकर के नाम पर खुद अम्बेडकरी मूल्यों के खिलाफ एक तरह की राजनीति बनाई गयी है, वो कुछ समय के लिए तो चल गयी लेकिन उसका फेल होना तय था. वही हुआ है.

आपने एक शब्द इस्तेमाल किया “अम्बेडकरी मूल्यों के खिलाफ राजनीति” क्या आप इसकी विस्तार से व्याख्या करना चाहेंगे?
हाँ, हाँ, क्यों नहीं... इस बात को अब दलितों और बहुजनों के घर घर तक पहुँचाना होगा. मैं जरूर इसे विस्तार से रखना चाहूँगा. देखिये, बात दरअसल ये है कि अगर दलितों में आपस में जातियों की अलग अलग पहचान को उभारा जाएगा और उन्हें अपनी अपनी जातियों पर गर्व करते हुए दूसरी जातियों से श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास किया जाएगा तो ये सभी जातियां अपने अपने में मगन होने लगेंगी और जातियों के बीच में आपस में कोई पुल नहीं बन सकेगा. यही सबसे बड़ी भूल है. कांशीराम जी के बताये अनुसार हमने एक बार नहीं बल्कि कई बार जातियों को अपने अपने छोटे दायरों में महान बनने का पाठ पढाया, उसका फायदा ये हुआ कि हमारे समय में जातियों के भीतर ही अपनी जाति से जुड़ा हुआ अपमान और हिकारत का भाव खत्म हुआ. न सिर्फ दलित और अनुसूचित जातियों ने अपनी जातीय पहचान में गर्व लेना शुरू किया बल्कि उन्हें दूसरों से भी कुछ सम्मान मिलने लगा. ये कांशीरामजी की बड़ी सफलता रही है. इसी ने जातियों को एक राजनीतिक मोबिलाइजेशन के लिए उपलब्ध बनाया और इसी का परिणाम हम बसपा की राजनीतिक सफलताओं में देखते हैं. 

लेकिन ये सफलता अम्बेडकरी मूल्यों के खिलाफ कैसे है? आप इस पर क्या दृष्टिकोण रखते हैं?
देखिये, मेरा दृष्टिकोण एकदम साफ़ है जो मैं कई बार जाहिर भी कर चुका हूँ. बाबा साहेब आंबेडकर के लिए जाति विनाश न केवल लक्ष्य है, बल्कि वही उनकी राजनीति का मार्ग भी है. इसे थोड़ा समझना होगा हमें. अंबेडकर जाति के खात्मे के लिए राजनीति में जा रहे हैं और इसके लिए जो रणनीति बनाते हैं उसमे जातियों को एक दूसरे से दूर ले जाना उनके लिए रास्ता नहीं है बल्कि वे जातियों को एक दूसरे के निकट लाना चाहते हैं. न केवल डिप्रेस्ड क्लासेस या अनुसूचित जातियों को बल्कि वे पिछड़ों, किसानों मजदूरों को भी एकसाथ लाना चाहते थे. लेकिन दिक्कत बीच में ये हुई कि उनके समय में दलितों अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़ों की राजनीतिक चेतना अभी ठीक से विकसित नहीं हुई थी इसीलिये उनमें एक जाति के रूप में अपने ही अंदर एक आत्मसम्मान का भाव जगाने के लिए कुछ समय की जरूरत थी. 

ये समय अंबेडकर के बाद उन्हें कांशीराम जी ने दिया. इस समय का ठीक इस्तेमाल करते हुए कांशीराम जी ने इन जातियों में एक ख़ास किस्म का आत्मसम्मान भरना शुरू किया और इसी के नतीजे में जातीय अस्मिता की राजनीति परवान चढी और उसने बड़ी सफलता भी हासिल की. लेकिन मैं फिर जोर देना चाहूँगा कि ये रणनीति दूरगामी अर्थो में अम्बेडकरी मूल्यों के खिलाफ ही थी. इसका कारण ये है कि इसने जातियों के बंद दायरों के भीतर जातीय अस्मिता तो जगा दी लेकिन जातीय अस्मिता के जगते ही इसने उन सारी अलग अलग जातियों के बीच में श्रेष्ठ अश्रेष्ठ की पुरानी बहस को नए कलेवर में दुबारा खड़ा कर दिया. जो चर्मकार मित्र हैं वे चर्मकार होने में गर्व अनुभव करने लगे जाट या वाल्मीकि मित्र हैं वे अपने जाट और वाल्मीकि होने में गर्व अनुभव करने लगे. यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन इससे आगे बढ़ते हुए इनमे आपस में कोई मधुर संबंध नहीं बन सके और इसका फायदा ब्राह्मणवादी विचारधारा ने उठाया. इन उभरती अस्मिताओं को आपस में लड़ाया गया. आरक्षण के मुद्दे पर, मंदिर मस्जिद या हिन्दू मुसलमान के मुद्दे पर या लडका लड़की की छेड़छाड़ जैसे मामूली मुद्दों पर भी इन दलितों और ओबीसी को आपस में लड़ाया गया. ये लड़ाई कांशीराम की रणनीति की असफलता है. 

अगर शूद्रों और दलित जातियों में आत्मसम्मान आता है तो क्या उनका आपस में लड़ना अनिवार्य है? जैसा कि पिछले कुछ दशकों में हुआ? क्या इसे रोका नहीं जा सकता?
रोका जा सकता है बंधु, वही तो हमें समझना है अब. अब तक की राजनीतिक जय पराजय से जो सन्देश निकल रहा है उसे इमानदारी से देखने की जरूरत है. 

स जातीय अस्मिता के टकराव को कैसे रोका जा सकता है? 
ये सिद्धांत में बहुत आसान है, हालाँकि अमल में ये कठिन है, फिर भी मैं आपको बताना चाहूंगा कि जातीय अस्मिता ने जिस तरह का आत्मसम्मान एक जाति के भीतर पैदा किया है वह स्वागत योग्य तो है लेकिन उसका वहीं तक ठहरे रहना खतरनाक है. वाल्मीकि या जाटव या जाट या यादव अपनी जातीय अस्मिता में सम्मान का अनुभव अवश्य करे, लेकिन वहीं न रुक जाए. इस जातीय अस्मिता को अन्य जातियों की अस्मिता और सम्मान से जोड़कर भी देखे. सीधे सीधे कहें तो बात ये है कि चूँकि यादव, जाटव, जाट, कोरी आदि भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था में शूद्र और अतिशूद्र माने गए हैं इनका काम मेहनत का और किसानी या शिल्प का काम रहा है. जब ये अपने अपने जातियों के दायरे में अपने श्रम और अपने काम में गर्व का अनुभव कर सकते हैं तो अपने दूसरे भाइयों के काम का भी सम्मान कर ही सकते हैं. इसमें परेशानी कहाँ है? 

एक यादव या जाट जब पशु पालता है या खेती करता है तो उसी खेती के लिए लोहार, कारपेंटर से या चर्मकार से भी औजार खरीदता है ये सब एक साझे मिशन के साथी हैं. यादव या जाट अपनी खेती के लिए की गयी मेहनत में अपने लोहार, चर्मकार या कारपेंटर भाई का भी सम्मान क्यों नहीं कर सकता? मेरी नजर में बिलकुल कर सकता है. हम इन सब जातियों को एक दूसरे का सम्मान करना सिखा सकते हैं. इस तरह जातीय दायरों में सम्मान की बात को जातीय दायरों से बाहर निकालकर एक दूसरे के सम्मान से जोड़ दिया जाए तो अंबेडकर के सपनों की राजनीति शुरू हो जायेगी और एक प्रबुद्ध और समृद्ध भारत का सपना साकार होने लगेगा.

आप बार बार जातीय अस्मिता और सम्मान पर जोर दे रहे हैं क्या आप पेरियार से प्रभावित हैं?
हाँ भी और नहीं भी. हाँ इस अर्थ में कि वे बाबा साहेब की तरह ही हमारे लिए आदरणीय हैं, उनकी रणनीतियों से जो शिक्षा मिली है हम उन्हें आगे बढाना चाहते हैं. नहीं इस अर्थ में कि उनके आत्मसम्मान आन्दोलन में और मेरी सम्मान की प्रस्तावना में एक बुनियादी अंतर है. पेरियार एक व्यक्ति के आत्मसम्मान की वकालत कर रहे हैं जो उस समय बहुत जरुरी था. उस समय की हालत ऐसी थी कि हमारे शूद्र अतिशूद्र अर्थात ओबीसी, दलित, आदिवासी भाई एकदम गरीबी और गुलामी में बंधे थे, ऐसे में एक व्यक्ति के आत्मसम्मान का प्रश्न ही संभव था. उस समय पेरियार अगर जातीय अस्मिताओं को भुलाकर अंतरजातीय सम्मान आन्दोलन चलाते तो इस बात को कोई नहीं समझता.

मेरा ये मानना है कि आज के दौर में उत्तर और दक्षिण दोनों की दलित राजनीति की सफलता ने और इस बीच हुए आर्थिक उदारीकरण और औद्योगिक, शैक्षणिक विकास ने दलितों, शूद्रों, आदिवासियों में व्यक्ति और जाति के स्तर पर काफी आत्मसम्मान भर दिया है. अब इस बिंदु के बाद दो ही दिशाएँ बाकी रह जाती हैं, या तो ये आत्मसम्मान से भरी जातियों और व्यक्ति आपस में लड़कर ख़त्म हो जाएँ या फिर अपने अपने आत्मसम्मान को साथ लिए हुए ये परस्पर सम्मान का भाव सीखकर एकदूसरे को ऊपर उठने में मदद करें. अब मेरा जोर दुसरे बिंदु पर है. इसीलिये मैं आत्मसम्मान की बजाय परस्पर सम्मान या सम्मान की राजनीति के पक्ष में हूँ. आप गौर से देखेंगे तो इसमें अंबेडकर और पेरियार की शिक्षाओं का सार मौजूद है.


इस तरह की सम्मान की राजनीति शूद्रों, अतिशूद्रों आदिवासियों को आपस में कैसे जोड़ सकती है?
यही तो मुद्दा है भाई. इसे ही समझना है, बाकी सब फिर अपने आप हो जाएगा. इसे इस तरह समझिये. अभी तक जाट, यादव, जाटव, कोरी आदि के नाम पर शूद्रों, अतिशूद्रों को आपस में लड़ाया गया है. इसमें फायदा सिर्फ ब्राह्मणवादी ताकतों को हुआ है जो जीत के बाद न शूद्रों अर्थात ओबीसी के किसी काम आती है न अतिशूद्रों अर्थात दलितों के किसी काम आती है. अब मजेदार बात ये है कि इन शूद्रों और अतिशूद्रों की हालत लगभग एक जैसी है. इनकी शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा इत्यादि के मानकों पर जो हालत है उसमे बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. सच्चर कमिटी की रिपोर्ट देखिये तो आपको पता चलेगा कि ओबीसी की हालत मुसलमानों और दलितों से कोई बहुत बेहतर नहीं है. लेकिन इसके बावजूद शूद्र अतिशूद्र एकदूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं और अपने साझा दुश्मन ब्राह्मणवाद से नहीं लड़ रहे हैं. इन जातियों को आपस में लड़ाने के लिए ही जातीय अस्मिता और जातीय पहचान का इस्तेमाल किया गया है. अगर एक जाट को अपने जाट होने में गर्व है और एक वाल्मीकि को वाल्मीकि होने में गर्व है तो एक ढंग से ये बात अच्छी है लेकिन इसका नतीजा ये भी होगा कि इन्हें आपस में लड़ाया जा सकता है. और वही हम देख रहे हैं. अगर जाट और वाल्मीकि एकदूसरे का सम्मान करते हुए भाइयों की तरह एकदूसरे की मदद कर सकें तो दोनों का सम्मान कम नहीं होगा बल्कि बढेगा. आपस में मुहब्बत और दोस्ती से एकदूसरे का सम्मान बढ़ता है, कम नहीं होता. इससे समाज में एक तरह की सुरक्षा और सुकून का माहौल बनता है. इस सुरक्षा और सुकून की हमारे शूद्र और अतिशूद्र भाइयों बहनों को बड़ी जरूरत है. और ये सुरक्षा तभी बनेगी जबकि ये जातियां जातीय अस्मिता से ऊपर उठकर अंतरजातीय सम्मान और सहकार करना सीखें.

तो जैसे पेरियार ने आत्मसम्मान आन्दोलन चलाया था वैसे ही आप जन सम्मान आन्दोलन चलाएंगे?
बिलकुल चलाएंगे, अब यही रास्ता है, इसीलिये हमने “जनसम्मान पार्टी” का गठन किया है और आम भारतीय नागरिक को सम्मान दिलवाने की राजनीति करना चाहते हैं. 

आज के हालात में जहां बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण, हिंसा, भ्रष्टाचार आदि बड़े मुद्दे हैं वहां आप जन सम्मान को बड़ा मुद्दा कैसे बना रहे हैं?
देखिये ये बात सच है कि गरीबी बेरोजगारी भ्रष्टाचार आदि बड़े मुद्दे हैं. लेकिन ये मत भूलिए कि इन सबके बावजूद हमारा आम आदमी अब उतना लाचार, भूखा, कमजोर और दिशाहीन नहीं रह गया है जितना वह पचास या सौ साल पहले था. आज गरीबी है लेकिन भुखमरी नहीं है, आज बेरोजगारी है लेकिन बंधुआ मजदूरी नहीं है. कुछ हद तक हालात बदले हैं. ऐसे में एक आम भारतीय शुद्र मतलब ओबीसी और अतिशूद्र मतलब दलित के लिए रोजी रोटी और सुरक्षा के साथ साथ सम्मान भी बड़ा मुद्दा है. सम्मान के साथ शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, सामाजिक समरसता और सामान अवसर अपने आप शामिल हो जाते हैं. एक एक अक्र्के अगर हम इन छोटे छोटे मुद्दों की बात करेंगे को कोई हम न निकलेगा लेकिन सम्मान की बात आते ही ये सारे मुद्दे अपने आप इसमें शामिल हो जाते हैं. इसीलिये मैं जनसम्मान पार्टी की तरफ से जन के सम्मान की राजनीति करने के लिए भारत में निकला हूँ.

यहाँ आप जब दलितों शूद्रों और पिछड़ों को गरीब की तरह देखते हैं और उनके सम्मान के प्रश्न को एक साझा प्रश्न बनाते हैं तब क्या आप वर्ग चेतना के आईने में भी सम्मान को एक बड़े मुद्दे की तरह देख पाते हैं?
बिलकुल ही देख पाते हैं. इसे भी समझिये, असल में बाबा साहेब ने जो लक्ष्य हमारे लिए रखा है वह है जातिविहीन वर्ण विहीन और वर्ग विहीन समाज की स्थापना. इस नजरिये से चलें तो जिस तरह हमने जाति के विभाजन में सम्मान के प्रश्न को देखा उसी तरह हमें वर्ग के विभाजन में भी सम्मान के प्रश्न को देखना होगा. अब मूल मुद्दा ये है कि जाति या वर्ग दोनों से परे आम गरीब मजदूर या किसान को सम्मान कैसे दिलवाया जाए? यहाँ बाबा साहेब की बात पर गौर करना जरुरी होगा. उन्होंने कहा है कि रोटी तो कोई भी कमा लेता है, संपत्ति भी पैदा कर सकता है. लेकिन असल मुद्दा उसके सामाजिक सम्मान का है, समाज की मुख्यधारा की प्रक्रियाओं में उसकी स्वीकार्यता का है. 

आज अगर कोई दलित या अछूत उद्योगपति या बड़ा अधिकारी भी बन जाता है तो भी उसे अछूत या दलित ही कहा जाएगा. वहीं एक ब्राह्मण कितना भी गरीब या भिखारी क्यों न हो जाए समाज में उसका सम्मान एक ख़ास सीमा से नीचे नहीं गिरेगा. इसका मतलब ये हुआ कि जहां तक सम्मान का प्रश्न है व्यक्ति को वर्ग या वर्ण का सदस्य मानें या जाति का सदस्य मानें – तीनों जगहों पर उसके सम्मान का प्रश्न कमोबेश एक सा है. और यह एक गहरी बात है कि व्यक्ति के सामाजिक ही नहीं बल्कि पारिवारिक जीवन का सुख संतोष भी सम्मान पर ही निर्भर करता है. अगर हमारा आम भारतीय किसान मजदूर और गरीब अगर अपनी किसी भी पहचान के दायरे में अगर सम्मानित है तो उसकी गरीबी और जहालत से निकलने की कोशिश आज नहीं तो कल सफल हो ही जायेगी. लेकिन अगर उसके सामाजिक सम्मान को कम कर दिया गया या मिटा दिया गया तो वो अपनी स्थिति सुधारने के लिए न तो अपनी मेहनत से कुछ ख़ास कर पायेगा और न ही उसे समाज या समुदाय का सहयोग मिल सकेगा. सामाजिक सम्मान न होने का असर बहुत गहरा होता है. सम्मान से वंचित व्यक्ति और समुदाय ऐतिहासिक रूप से पिछड़ जाते हैं और संगठित प्रयास करने के लायक नही रह जाते. जाति व्यवस्था ने जो मनोवैज्ञानिक जड़ता थोपी है उसको सम्मान के इस दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए.

ये एकदम नया दृष्टिकोण है, आशा है जाति और वर्ग दोनों के प्रश्न को हम सम्मान और जाना सम्मान के नए उपकरण से हल कर सकेंगे?
हाँ, मुझे पूरी उम्मीद है कि जाति और वर्ग दोनों की संरचनाओं में दलितों अछूतों बहुजनों आदिवासियों और ओबीसी के जो प्रश्न हैं वे सम्मान के बिंदु पर आकर एक सूत्र में बांधे जा सकते हैं. और असल में वे बंधे हुए भी हैं. जरूरत है उन्हें उजागर करके उनके सामाजिक राजनीतिक निहितार्थों को ओपेरेशनलाइज करने की. इसी उद्देश्य से हमने जन सम्मान पार्टी का गठन किया है और हम इसी मुद्दे को बहुजन एकीकरण का आधार बनाने के लिए निकले हैं.

सिर्फ 'एक काबिलियत' ने बनाया कपिल को केजरीवाल का प्रिय मंत्री

देश की जनता को ईमानदारी और नए लोकतंत्र का झुनझुना थमाकर अरविंद केजरीवाल बनने तो सिकंदर चले थे, पर औकात इतनी हो पाई कि वह अपने ही पाले हुए संपोलों को बस में रख सकें। उन्हीं संपोलों में से एक हैं कपिल मिश्रा, जिनको अरविंद ने अपना दूध पिलाकर किंग कोबरा बनाया था। किंग कोबरा अब फुंफकार रहा है और अरविंद हैं कि उनको जादू—मंतर का कोई सम्मोहनी मंत्र सूझ नहीं रहा! 

दिल्ली से भूपेंदर चौधरी की रिपोर्ट 


सम्मोहनी मंत्र के अभाव में पिछले तीन दिनों से अरविंद केजरीवाल सदमे में हैं। 

हालांकि उनको सदमे में होना नहीं चाहिए, क्योंकि केजरीवाल और आरोपों—प्रत्यारोपों का रिश्ता कोई नया नहीं है। बल्कि उनकी छवि है कि वह रोज सुबह उठते ही दो—चार आरोप किसी न किसी नेता—पार्टी, व्यवसायी, पुलिस पर लगा दिया करते हैं, फिर फ्रेश होने जाते हैं। उनके नजदीकी लोग कहते हैं, फ्रेश होने में आरोप उनके लिए वही काम करता है जैसे आम जनों के लिए सिगरेट, चाय, बीड़ी, खैनी या पानी। 

पर सच यही है कि अरविंद केजरीवाल सदमे में हैं। उन पर तानाशाह, झूठा, मक्कार, कुंडलीमार, राजनीतिक काइयांपन का रणनीतिकार और यूज एंड थ्रो वाली पॉलिटिकल स्टाइल का महारथी जैसे आरोप तो लगे थे, लेकिन अभी तक अरविंद केजरीवाल की 'एमएसपी' पर ऐसी चोट किसी ने नहीं की थी कि केजरीवाल कहीं मुंह दिखाने लायक न रह जाएं। 

वह पिछले तीन दिनों से सिर्फ जवाब खोज रहे हैं कि वह अपने ही सरकार में मंत्री रहे 'कपिल भाई' के आरोपों का मीडिया के सामने जवाब देंगे? कैसे बताएंगे कि मेरा सबसे प्रिय मंत्री कपिल  मुझ पर 2 करोड़ रुपए लेने का आरोप लगा रहा है, वह सच नहीं है। वह भी कपिल के आंखों देखी को कैसे झुठलाएंगे, वह भी दूसरे प्रिय मंत्री सत्येंद्र जैन के सामने की बात कह रहा है और सबसे बड़ी बात रिश्तेदार की जमीन डील के मामले में 2 करोड़ कमीशन लिए जाने का आरोप? 

जानकार बता रहे हैं कि केजरीवाल अभी भी कोशिश में हैं कि किसी तरह मामला शांत हो और मीडिया में हीरो बने कपिल मिश्रा को हाशिए पर डाला जा सके। इसीलिए दिल्ली सरकार के मंत्री मनीष सिसोदिया 25 सेकेंड में प्रेस कांफ्रेंस करके कट लेते हैं? कपिल मिश्रा से केजरीवाल नहीं उलझना चाहते क्योंकि वह उनके गहरे राज के साथी हैं? कई गुनाहों में केजरीवाल ने कपिल का इस्तेमाल किया है? बहुत कुछ अनौपचारिक और औपचारिक कपिल केजरीवाल बारे में जानते हैं जो एक पाला हुआ संपोला ही जान सकता है।  

ये वही कपिल मिश्रा हैं जो अरविंद केजरीवाल के इशारे पर आम आदमी पार्टी के सबसे बुजुर्ग संस्थापक शांति भूषण और वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण को भरी सभा में मारने के लिए दौड़ा लिए थे।  

समय का चक्र भी कितना बलवान होता है। कब किस तरफ घूम जाए किसी को नहीं पता चलता। शायद कभी कपिल मिश्रा ने भी ये नहीं सोचा होगा कि जो खाई उन्होंने प्रशांत भूषण और शांति भूषण जैसे वरिष्ठों के लिए खोदी थी एक दिन वो खुद उसमें गिरेंगे।

यह बात साल 2015 की है। आम आदमी पार्टी दिल्ली में 67 एमएलए के साथ प्रचंड बहुमत के दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुई थी। स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव और वकील प्रशांत भूषण की अरविंद केजरीवाल को सलाह थी कि वे संयोजक पद छोड़कर बतौर मुख्यमंत्री दिल्ली पर फोकस करें। 

मगर अरविंद केजरीवाल को उनकी यह बात खटकने लगी थी। कुछ दिन बाद करनाल बाई पास के पास बने आप के एमएलए के रिसोर्ट में पार्टी की नेशनल कौंसिल की मीटिंग रखी गई। योगेंद्र यादव और प्रशांत को निकालने की साज़िश रची जा चुकी थी। जैसे ही मीटिंग शुरू हुई तो प्रशांत ओर शांति भूषण ने कुछ बोलने की कोशिश की। 

तभी केजरीवाल की तय स्क्रीप्ट के अनुसार कपिल मिश्रा भूषण बाप—बेटे को चुप रहने और बाहर निकल जाने को लेकर शोर मचाने लगे। शोर कई लोग मचा रहे थे पर कपिल सबसे आगे थे।  इस पर नेशनल कौंसिल के कुछ मेंबर ने प्रशांत से सहमति जताते हुए उनके समर्थन में बोलने की कोशिश की तो कपिल मिश्रा और एक अन्य एमएलए दोनों बाप और बेटे को मीटिंग हॉल से बाहर करने के लिए उनके पीछे मारने के लिए दौड़ पड़े। 

हालांकि लोगों ने उन्हें शांति बनाए रखने की अपील की, जिसमें मनीष सबसे प्रमुख थे। लेकिन एक बात साफ थी कि वो बस दिखावा था। पीछे से कपिल को केजरीवाल का पूरा समर्थन था। 88 साल के बुजुर्ग शांति भूषण बहुत ही लाचार दिख रहे थे। उनकी आंखों में जैसे लाचारी साफ देखी जा सकती थी। 

नेशनल कौंसिल के कुछ सदस्य इस घटना से इतने आहत थे कि उन्हें खुद अपनी बेबसी पर रोना आ रहा था। इतने बुजुर्ग आदमी को धक्के मार के बाहर निकला जा रहा था और उसकी अगुआई कपिल मिश्रा कर रहे थे। 

कपिल मिश्रा ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन उन्हें भी इस पार्टी से ऐसे ही धक्के मार के मंत्री पद से निकाल दिया जायेगा।