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May 8, 2017

'शूद्रों—अतिशूद्रों की फूट का फायदा हमेशा ब्राह्मणवादियों ने उठाया है'

शूद्र अतिशूद्र एकदूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं और अपने साझा दुश्मन ब्राह्मणवाद से नहीं लड़ रहे हैं. इन जातियों को आपस में लड़ाने के लिए ही जातीय अस्मिता और जातीय पहचान का इस्तेमाल किया गया है....

अशोक भारती नेशनल कन्फेडरेशन ऑफ़ दलित एंड आदिवासी राइट्स (NACDOR) के संस्थापक हैं और इस संस्था के माध्यम से भारत के 23 राज्यों में दलित आदिवासी अधिकार की लड़ाई लड़ते रहे हैं. आइईएस अधिकारी रह चुके भारती ने लंबे समय तक जमीनी काम करते हुए स्वयंसेवी संस्थाओं का एक देशव्यापी गठजोड़ निर्मित किया है. देशभर में दलित आदिवासी आंदोलनों से ये जुड़े रहे हैं और दलित आदिवासी अधिकार और विकास के मुद्दों पर राईट बेस्ड अप्रोच के साथ काम करते आये हैं. वर्तमान में दलित बहुजन राजनीति के लिए एक नया विकल्प बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं और हाल ही में इन्होने जन सम्मान पार्टी की स्थापना की है. 

अशोक भारती से संजय जोठे की बातचीत

इधर उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति की हार पर आपने अभी तक विस्तार से बात नहीं रखी, आपकी नजर में इस हार का क्या कारण है?
देखिये राजनीतिक हार या जीत के गहरे मायने होते हैं और कम से कम आज की दलित राजनीति की हार और उत्तर प्रदेश में बसपा के सफाए के बहुत गहरे मायने हैं. ये केवल एक चुनावी हार नहीं है, बल्कि ये एक विचारधारा की और एक रणनीति की हार है. बाबा साहेब अंबेडकर के नाम पर खुद अम्बेडकरी मूल्यों के खिलाफ एक तरह की राजनीति बनाई गयी है, वो कुछ समय के लिए तो चल गयी लेकिन उसका फेल होना तय था. वही हुआ है.

आपने एक शब्द इस्तेमाल किया “अम्बेडकरी मूल्यों के खिलाफ राजनीति” क्या आप इसकी विस्तार से व्याख्या करना चाहेंगे?
हाँ, हाँ, क्यों नहीं... इस बात को अब दलितों और बहुजनों के घर घर तक पहुँचाना होगा. मैं जरूर इसे विस्तार से रखना चाहूँगा. देखिये, बात दरअसल ये है कि अगर दलितों में आपस में जातियों की अलग अलग पहचान को उभारा जाएगा और उन्हें अपनी अपनी जातियों पर गर्व करते हुए दूसरी जातियों से श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास किया जाएगा तो ये सभी जातियां अपने अपने में मगन होने लगेंगी और जातियों के बीच में आपस में कोई पुल नहीं बन सकेगा. यही सबसे बड़ी भूल है. कांशीराम जी के बताये अनुसार हमने एक बार नहीं बल्कि कई बार जातियों को अपने अपने छोटे दायरों में महान बनने का पाठ पढाया, उसका फायदा ये हुआ कि हमारे समय में जातियों के भीतर ही अपनी जाति से जुड़ा हुआ अपमान और हिकारत का भाव खत्म हुआ. न सिर्फ दलित और अनुसूचित जातियों ने अपनी जातीय पहचान में गर्व लेना शुरू किया बल्कि उन्हें दूसरों से भी कुछ सम्मान मिलने लगा. ये कांशीरामजी की बड़ी सफलता रही है. इसी ने जातियों को एक राजनीतिक मोबिलाइजेशन के लिए उपलब्ध बनाया और इसी का परिणाम हम बसपा की राजनीतिक सफलताओं में देखते हैं. 

लेकिन ये सफलता अम्बेडकरी मूल्यों के खिलाफ कैसे है? आप इस पर क्या दृष्टिकोण रखते हैं?
देखिये, मेरा दृष्टिकोण एकदम साफ़ है जो मैं कई बार जाहिर भी कर चुका हूँ. बाबा साहेब आंबेडकर के लिए जाति विनाश न केवल लक्ष्य है, बल्कि वही उनकी राजनीति का मार्ग भी है. इसे थोड़ा समझना होगा हमें. अंबेडकर जाति के खात्मे के लिए राजनीति में जा रहे हैं और इसके लिए जो रणनीति बनाते हैं उसमे जातियों को एक दूसरे से दूर ले जाना उनके लिए रास्ता नहीं है बल्कि वे जातियों को एक दूसरे के निकट लाना चाहते हैं. न केवल डिप्रेस्ड क्लासेस या अनुसूचित जातियों को बल्कि वे पिछड़ों, किसानों मजदूरों को भी एकसाथ लाना चाहते थे. लेकिन दिक्कत बीच में ये हुई कि उनके समय में दलितों अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़ों की राजनीतिक चेतना अभी ठीक से विकसित नहीं हुई थी इसीलिये उनमें एक जाति के रूप में अपने ही अंदर एक आत्मसम्मान का भाव जगाने के लिए कुछ समय की जरूरत थी. 

ये समय अंबेडकर के बाद उन्हें कांशीराम जी ने दिया. इस समय का ठीक इस्तेमाल करते हुए कांशीराम जी ने इन जातियों में एक ख़ास किस्म का आत्मसम्मान भरना शुरू किया और इसी के नतीजे में जातीय अस्मिता की राजनीति परवान चढी और उसने बड़ी सफलता भी हासिल की. लेकिन मैं फिर जोर देना चाहूँगा कि ये रणनीति दूरगामी अर्थो में अम्बेडकरी मूल्यों के खिलाफ ही थी. इसका कारण ये है कि इसने जातियों के बंद दायरों के भीतर जातीय अस्मिता तो जगा दी लेकिन जातीय अस्मिता के जगते ही इसने उन सारी अलग अलग जातियों के बीच में श्रेष्ठ अश्रेष्ठ की पुरानी बहस को नए कलेवर में दुबारा खड़ा कर दिया. जो चर्मकार मित्र हैं वे चर्मकार होने में गर्व अनुभव करने लगे जाट या वाल्मीकि मित्र हैं वे अपने जाट और वाल्मीकि होने में गर्व अनुभव करने लगे. यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन इससे आगे बढ़ते हुए इनमे आपस में कोई मधुर संबंध नहीं बन सके और इसका फायदा ब्राह्मणवादी विचारधारा ने उठाया. इन उभरती अस्मिताओं को आपस में लड़ाया गया. आरक्षण के मुद्दे पर, मंदिर मस्जिद या हिन्दू मुसलमान के मुद्दे पर या लडका लड़की की छेड़छाड़ जैसे मामूली मुद्दों पर भी इन दलितों और ओबीसी को आपस में लड़ाया गया. ये लड़ाई कांशीराम की रणनीति की असफलता है. 

अगर शूद्रों और दलित जातियों में आत्मसम्मान आता है तो क्या उनका आपस में लड़ना अनिवार्य है? जैसा कि पिछले कुछ दशकों में हुआ? क्या इसे रोका नहीं जा सकता?
रोका जा सकता है बंधु, वही तो हमें समझना है अब. अब तक की राजनीतिक जय पराजय से जो सन्देश निकल रहा है उसे इमानदारी से देखने की जरूरत है. 

स जातीय अस्मिता के टकराव को कैसे रोका जा सकता है? 
ये सिद्धांत में बहुत आसान है, हालाँकि अमल में ये कठिन है, फिर भी मैं आपको बताना चाहूंगा कि जातीय अस्मिता ने जिस तरह का आत्मसम्मान एक जाति के भीतर पैदा किया है वह स्वागत योग्य तो है लेकिन उसका वहीं तक ठहरे रहना खतरनाक है. वाल्मीकि या जाटव या जाट या यादव अपनी जातीय अस्मिता में सम्मान का अनुभव अवश्य करे, लेकिन वहीं न रुक जाए. इस जातीय अस्मिता को अन्य जातियों की अस्मिता और सम्मान से जोड़कर भी देखे. सीधे सीधे कहें तो बात ये है कि चूँकि यादव, जाटव, जाट, कोरी आदि भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था में शूद्र और अतिशूद्र माने गए हैं इनका काम मेहनत का और किसानी या शिल्प का काम रहा है. जब ये अपने अपने जातियों के दायरे में अपने श्रम और अपने काम में गर्व का अनुभव कर सकते हैं तो अपने दूसरे भाइयों के काम का भी सम्मान कर ही सकते हैं. इसमें परेशानी कहाँ है? 

एक यादव या जाट जब पशु पालता है या खेती करता है तो उसी खेती के लिए लोहार, कारपेंटर से या चर्मकार से भी औजार खरीदता है ये सब एक साझे मिशन के साथी हैं. यादव या जाट अपनी खेती के लिए की गयी मेहनत में अपने लोहार, चर्मकार या कारपेंटर भाई का भी सम्मान क्यों नहीं कर सकता? मेरी नजर में बिलकुल कर सकता है. हम इन सब जातियों को एक दूसरे का सम्मान करना सिखा सकते हैं. इस तरह जातीय दायरों में सम्मान की बात को जातीय दायरों से बाहर निकालकर एक दूसरे के सम्मान से जोड़ दिया जाए तो अंबेडकर के सपनों की राजनीति शुरू हो जायेगी और एक प्रबुद्ध और समृद्ध भारत का सपना साकार होने लगेगा.

आप बार बार जातीय अस्मिता और सम्मान पर जोर दे रहे हैं क्या आप पेरियार से प्रभावित हैं?
हाँ भी और नहीं भी. हाँ इस अर्थ में कि वे बाबा साहेब की तरह ही हमारे लिए आदरणीय हैं, उनकी रणनीतियों से जो शिक्षा मिली है हम उन्हें आगे बढाना चाहते हैं. नहीं इस अर्थ में कि उनके आत्मसम्मान आन्दोलन में और मेरी सम्मान की प्रस्तावना में एक बुनियादी अंतर है. पेरियार एक व्यक्ति के आत्मसम्मान की वकालत कर रहे हैं जो उस समय बहुत जरुरी था. उस समय की हालत ऐसी थी कि हमारे शूद्र अतिशूद्र अर्थात ओबीसी, दलित, आदिवासी भाई एकदम गरीबी और गुलामी में बंधे थे, ऐसे में एक व्यक्ति के आत्मसम्मान का प्रश्न ही संभव था. उस समय पेरियार अगर जातीय अस्मिताओं को भुलाकर अंतरजातीय सम्मान आन्दोलन चलाते तो इस बात को कोई नहीं समझता.

मेरा ये मानना है कि आज के दौर में उत्तर और दक्षिण दोनों की दलित राजनीति की सफलता ने और इस बीच हुए आर्थिक उदारीकरण और औद्योगिक, शैक्षणिक विकास ने दलितों, शूद्रों, आदिवासियों में व्यक्ति और जाति के स्तर पर काफी आत्मसम्मान भर दिया है. अब इस बिंदु के बाद दो ही दिशाएँ बाकी रह जाती हैं, या तो ये आत्मसम्मान से भरी जातियों और व्यक्ति आपस में लड़कर ख़त्म हो जाएँ या फिर अपने अपने आत्मसम्मान को साथ लिए हुए ये परस्पर सम्मान का भाव सीखकर एकदूसरे को ऊपर उठने में मदद करें. अब मेरा जोर दुसरे बिंदु पर है. इसीलिये मैं आत्मसम्मान की बजाय परस्पर सम्मान या सम्मान की राजनीति के पक्ष में हूँ. आप गौर से देखेंगे तो इसमें अंबेडकर और पेरियार की शिक्षाओं का सार मौजूद है.


इस तरह की सम्मान की राजनीति शूद्रों, अतिशूद्रों आदिवासियों को आपस में कैसे जोड़ सकती है?
यही तो मुद्दा है भाई. इसे ही समझना है, बाकी सब फिर अपने आप हो जाएगा. इसे इस तरह समझिये. अभी तक जाट, यादव, जाटव, कोरी आदि के नाम पर शूद्रों, अतिशूद्रों को आपस में लड़ाया गया है. इसमें फायदा सिर्फ ब्राह्मणवादी ताकतों को हुआ है जो जीत के बाद न शूद्रों अर्थात ओबीसी के किसी काम आती है न अतिशूद्रों अर्थात दलितों के किसी काम आती है. अब मजेदार बात ये है कि इन शूद्रों और अतिशूद्रों की हालत लगभग एक जैसी है. इनकी शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा इत्यादि के मानकों पर जो हालत है उसमे बहुत ज्यादा अंतर नहीं है. सच्चर कमिटी की रिपोर्ट देखिये तो आपको पता चलेगा कि ओबीसी की हालत मुसलमानों और दलितों से कोई बहुत बेहतर नहीं है. लेकिन इसके बावजूद शूद्र अतिशूद्र एकदूसरे के खिलाफ लड़ रहे हैं और अपने साझा दुश्मन ब्राह्मणवाद से नहीं लड़ रहे हैं. इन जातियों को आपस में लड़ाने के लिए ही जातीय अस्मिता और जातीय पहचान का इस्तेमाल किया गया है. अगर एक जाट को अपने जाट होने में गर्व है और एक वाल्मीकि को वाल्मीकि होने में गर्व है तो एक ढंग से ये बात अच्छी है लेकिन इसका नतीजा ये भी होगा कि इन्हें आपस में लड़ाया जा सकता है. और वही हम देख रहे हैं. अगर जाट और वाल्मीकि एकदूसरे का सम्मान करते हुए भाइयों की तरह एकदूसरे की मदद कर सकें तो दोनों का सम्मान कम नहीं होगा बल्कि बढेगा. आपस में मुहब्बत और दोस्ती से एकदूसरे का सम्मान बढ़ता है, कम नहीं होता. इससे समाज में एक तरह की सुरक्षा और सुकून का माहौल बनता है. इस सुरक्षा और सुकून की हमारे शूद्र और अतिशूद्र भाइयों बहनों को बड़ी जरूरत है. और ये सुरक्षा तभी बनेगी जबकि ये जातियां जातीय अस्मिता से ऊपर उठकर अंतरजातीय सम्मान और सहकार करना सीखें.

तो जैसे पेरियार ने आत्मसम्मान आन्दोलन चलाया था वैसे ही आप जन सम्मान आन्दोलन चलाएंगे?
बिलकुल चलाएंगे, अब यही रास्ता है, इसीलिये हमने “जनसम्मान पार्टी” का गठन किया है और आम भारतीय नागरिक को सम्मान दिलवाने की राजनीति करना चाहते हैं. 

आज के हालात में जहां बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण, हिंसा, भ्रष्टाचार आदि बड़े मुद्दे हैं वहां आप जन सम्मान को बड़ा मुद्दा कैसे बना रहे हैं?
देखिये ये बात सच है कि गरीबी बेरोजगारी भ्रष्टाचार आदि बड़े मुद्दे हैं. लेकिन ये मत भूलिए कि इन सबके बावजूद हमारा आम आदमी अब उतना लाचार, भूखा, कमजोर और दिशाहीन नहीं रह गया है जितना वह पचास या सौ साल पहले था. आज गरीबी है लेकिन भुखमरी नहीं है, आज बेरोजगारी है लेकिन बंधुआ मजदूरी नहीं है. कुछ हद तक हालात बदले हैं. ऐसे में एक आम भारतीय शुद्र मतलब ओबीसी और अतिशूद्र मतलब दलित के लिए रोजी रोटी और सुरक्षा के साथ साथ सम्मान भी बड़ा मुद्दा है. सम्मान के साथ शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, सामाजिक समरसता और सामान अवसर अपने आप शामिल हो जाते हैं. एक एक अक्र्के अगर हम इन छोटे छोटे मुद्दों की बात करेंगे को कोई हम न निकलेगा लेकिन सम्मान की बात आते ही ये सारे मुद्दे अपने आप इसमें शामिल हो जाते हैं. इसीलिये मैं जनसम्मान पार्टी की तरफ से जन के सम्मान की राजनीति करने के लिए भारत में निकला हूँ.

यहाँ आप जब दलितों शूद्रों और पिछड़ों को गरीब की तरह देखते हैं और उनके सम्मान के प्रश्न को एक साझा प्रश्न बनाते हैं तब क्या आप वर्ग चेतना के आईने में भी सम्मान को एक बड़े मुद्दे की तरह देख पाते हैं?
बिलकुल ही देख पाते हैं. इसे भी समझिये, असल में बाबा साहेब ने जो लक्ष्य हमारे लिए रखा है वह है जातिविहीन वर्ण विहीन और वर्ग विहीन समाज की स्थापना. इस नजरिये से चलें तो जिस तरह हमने जाति के विभाजन में सम्मान के प्रश्न को देखा उसी तरह हमें वर्ग के विभाजन में भी सम्मान के प्रश्न को देखना होगा. अब मूल मुद्दा ये है कि जाति या वर्ग दोनों से परे आम गरीब मजदूर या किसान को सम्मान कैसे दिलवाया जाए? यहाँ बाबा साहेब की बात पर गौर करना जरुरी होगा. उन्होंने कहा है कि रोटी तो कोई भी कमा लेता है, संपत्ति भी पैदा कर सकता है. लेकिन असल मुद्दा उसके सामाजिक सम्मान का है, समाज की मुख्यधारा की प्रक्रियाओं में उसकी स्वीकार्यता का है. 

आज अगर कोई दलित या अछूत उद्योगपति या बड़ा अधिकारी भी बन जाता है तो भी उसे अछूत या दलित ही कहा जाएगा. वहीं एक ब्राह्मण कितना भी गरीब या भिखारी क्यों न हो जाए समाज में उसका सम्मान एक ख़ास सीमा से नीचे नहीं गिरेगा. इसका मतलब ये हुआ कि जहां तक सम्मान का प्रश्न है व्यक्ति को वर्ग या वर्ण का सदस्य मानें या जाति का सदस्य मानें – तीनों जगहों पर उसके सम्मान का प्रश्न कमोबेश एक सा है. और यह एक गहरी बात है कि व्यक्ति के सामाजिक ही नहीं बल्कि पारिवारिक जीवन का सुख संतोष भी सम्मान पर ही निर्भर करता है. अगर हमारा आम भारतीय किसान मजदूर और गरीब अगर अपनी किसी भी पहचान के दायरे में अगर सम्मानित है तो उसकी गरीबी और जहालत से निकलने की कोशिश आज नहीं तो कल सफल हो ही जायेगी. लेकिन अगर उसके सामाजिक सम्मान को कम कर दिया गया या मिटा दिया गया तो वो अपनी स्थिति सुधारने के लिए न तो अपनी मेहनत से कुछ ख़ास कर पायेगा और न ही उसे समाज या समुदाय का सहयोग मिल सकेगा. सामाजिक सम्मान न होने का असर बहुत गहरा होता है. सम्मान से वंचित व्यक्ति और समुदाय ऐतिहासिक रूप से पिछड़ जाते हैं और संगठित प्रयास करने के लायक नही रह जाते. जाति व्यवस्था ने जो मनोवैज्ञानिक जड़ता थोपी है उसको सम्मान के इस दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए.

ये एकदम नया दृष्टिकोण है, आशा है जाति और वर्ग दोनों के प्रश्न को हम सम्मान और जाना सम्मान के नए उपकरण से हल कर सकेंगे?
हाँ, मुझे पूरी उम्मीद है कि जाति और वर्ग दोनों की संरचनाओं में दलितों अछूतों बहुजनों आदिवासियों और ओबीसी के जो प्रश्न हैं वे सम्मान के बिंदु पर आकर एक सूत्र में बांधे जा सकते हैं. और असल में वे बंधे हुए भी हैं. जरूरत है उन्हें उजागर करके उनके सामाजिक राजनीतिक निहितार्थों को ओपेरेशनलाइज करने की. इसी उद्देश्य से हमने जन सम्मान पार्टी का गठन किया है और हम इसी मुद्दे को बहुजन एकीकरण का आधार बनाने के लिए निकले हैं.

Apr 18, 2017

सांप्रदायिकता से 'मोह' बढ़ातीं 'माया'

जातिवादी अस्मिता वाला दलित आंदोलन किसी सेक्यूलर और धर्मनिरपेक्ष समाज के लिए नहीं, बल्कि हिन्दुत्व के ढांचे में समाहित हो सम्मानजनक स्थान पाने के लिए लड़ता है। अपने विचार में वह पहले हिन्दू है फिर दलित है। इसीलिए मौका पाने पर 'हिन्दुत्व’ की गोद में जा बैठता है...

हरे राम मिश्र

यूपी चुनाव में अपनी शर्मनाक हार के बाद अंबेडकर जयंती के मौके पर मायावती ने अपने समर्थकों को राजधानी लखनऊ में संबोधित किया। मायावती का यह पूरा संबोधन स्पष्टीकरणों और कई स्तरों पर 'कन्फ्यूजन’ से भरा हुआ था। फिर भी, दो बातें बहुत महत्वपूर्ण थीं जो कि उनके भविष्य की राजनीतिक दिशा का इशारा कर रही थीं। पहला यह कि वह यूपी में सौ मुसलमानों को विधानसभा के टिकट बांटने पर बीजेपी के यूपी को पाकिस्तान बनाने के आरोप पर सफाई दे रही थीं और उपस्थित समर्थकों को यह बता रही थीं कि वह उत्तर प्रदेश को पाकिस्तान नहीं बनने देंगी। दूसरा, ट्रिपल तलाक के मामले में उनका रुख अब एकदम बदला हुआ दिख रहा था। 

गौरतलब है कि ट्रिपल तलाक पर अब तक के अपने रुख से पलटते हुए उन्होंने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड तीन तलाक के मामले को हल करने में नाकामयाब रहा है। मायावती का तीन तलाक के मसले पर अपने पहले के रुख से इस तरह पलट जाना कई इशारे करता है। चुनाव के दौरान तीन तलाक के मामले पर मोदी सरकार की मुखालफत करते हुए वे इसे शरिया कानून और मुसलमानों के धार्मिक जीवन में सीधा हस्तक्षेप बताती थीं। 

अपने चुनावी भाषणों में इसमें किसी संशोधन के खिलाफ उन्होंने सड़क पर उतरने की बात भी कही थी। लेकिन अब, जबकि चुनाव हो चुके हैं- इस मामले में पर्सनल लाॅ बोर्ड पर ही सवाल उठाना यह संकेत करता है कि मायावती अपनी दिशा को बदल चुकी हैं और मुसलमानों के सवाल अब उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं। ट्रिपल तलाक के मसले पर मायावती की इस पलटी ने यह साफ कर दिया है कि उन्होंने सौ मुसलमानों को टिकट देकर जो प्रयोग किया, वह एक राजनीतिक गलती थी। अब वे उस गलती को पहले दुरुस्त करेंगी। यूपी को पाकिस्तान बनाने के आरोपों पर उनकी सफाई भी इसी का स्पष्टीकरण था।

हालांकि, पिछले विधानसभा चुनाव में मायावती ने दलित-मुस्लिम समाज की एकता के आधार पर सूबे की सत्ता में भागीदारी का सपना देखा था। उन्हें यह लगता था कि अगर हम मुसलमानों को बहका लें तो बाइस फीसदी दलित वोट के बदौलत बसपा उत्तर प्रदेश में सत्ता में आ सकती है। लेकिन वे भ्रम में थीं कि दलितों का बेस वोट उनके साथ है। मुसलमान मतदाताओं को साधने के लिए मायावती ने बहुत प्रयास किया। उन्होंने चुनाव के दौरान कट्टरपंथी मुसलमानों को खुश करने के लिए ट्रिपल तलाक का मुद्दा उठाया। लेकिन इस प्रयास में उनका दलित वोटर उनसे दूर चला गया। उनके चुनावी भाषणों में मुसलमानों पर ज्यादा फोकस से उनके जमीनी नेता कई बार असहज भी दिखे। 

दरअसल सिर्फ वोट के लिए, दलित-मुस्लिम एकता के नाम पर सत्ता में वापसी का सपना देखने वाली मायावती ने अपने पिछले शासनकाल में इन दोनों समुदायों को सिवाय उत्पीड़न के कुछ नहीं दिया। मुजफ्फरनगर दंगों में बेघर मुसलमानों को मायावती कभी देखने तक नहीं गईं। उन्हें यह लगता था कि सपा के घर में मचे संग्राम से मुसलमान बसपा में खुद ही शिफ्ट हो जाएगा। उनके लिए यह गृहयुद्ध दलित-मुस्लिम एकता का प्रयोग काल बनकर निकला। लेकिन भाजपा के सहयोग के उनके पिछले चरित्र को देखते हुए मुसलमानों ने मायावती पर कोई यकीन नहीं किया और बीजेपी को हराने के लिए ’टैक्टिकल’ वोटिंग कर बैठे। 

वास्तव में दलित मुस्लिम एकता का विचार एकदम अव्यावहारिक है। यह मायावती भी जानती थीं। उनकी समझ में यह एक जुआ था, जिसमें बसपा हार गई। अब मायावती घोर सांप्रदायिक दलित समाज को फिर से जातिगत रूप से इकट्ठा करके अपनी खोई ताकत और जोश पाने का शर्तिया और पुराना 'हकीमी’ नुस्खा आजमाएंगी। यह नुस्खा खुद उनकी सांप्रदायिकता को भी बेनकाब करेगा। क्योंकि एक सेक्यूलर व्यक्ति किसी सांप्रदायिक समाज को संतुष्ट ही नही कर सकता। दलितों की सांप्रदायिकता का खात्मा मायावती के कुव्वत में नहीं है। चुनावी हार के बाद मुसलमानों से उनकी दूरी इस बात को साफ करती है कि अब वह अपने पुराने ढर्रे पर लौट गई हैं।

दरअसल, उत्तर प्रदेश में मायावती का फेल होना 'बुर्जुआ’ राजनीतिक सेटअप में दलित मुस्लिम एकता के विचार का 'गर्भपात’ होना है। यह 'असफलता’ एकदम स्वाभाविक है। दलित और मुस्लिम के बीच कोई स्वाभाविक एकता हो ही नहीं सकती। जातिवादी अस्मिता वाला दलित आंदोलन किसी सेक्यूलर और धर्मनिरपेक्ष समाज के लिए नहीं, बल्कि हिन्दुत्व के ढांचे में समाहित होने और सम्मानजनक स्थान पाने के लिए लड़ता है। अपने विचार में वह पहले हिन्दू है फिर दलित है। इसीलिए वह मौका पाने पर 'हिन्दुत्व’ की गोद में जा बैठता है। 

जहां तक मायावती में आए इस बदलाव का मामला है, वह यह साबित करता है कि मायावती की राजनीति केवल मुस्लिम वोट लेने और उन्हें इस्तेमाल करने के 'विचार’ पर टिकी थी। दलित—मुस्लिम एकता के अवसरवादी प्रयोग के आधार पर वह उत्तर प्रदेश में अपना राजनीतिक उत्थान देख रही थीं जो कि फेल हो गया। इस प्रयोग में वह अपने परंपरागत वोटर्स पर बनी पकड़ भी खो बैठीं। मायावती अब यह मान गयी हैं कि दलित सांप्रदायिकता एक वास्तविक विचार है और अब हमें इसी रूप में उसका इस्तेमाल करना है। यही वजह है कि अब उन्होंने अपने रुख से पलटी मारते हुए मुसलमानों से दूरी बनानी शुरू की है।

लेकिन क्या उनका यह प्रयास उन्हें राजनीति के केन्द्र में वापस ला पाएगा? इस बात की संभावना बहुत कम है। राजनीति एक फुलटाइम और डायनमिक प्रक्रिया है। मायावती ने अपने वोटर्स को दिमागी स्तर पर विकसित नहीं किया। अगर भाजपा फासीवाद के साथ जाति और अस्मिता के सवाल को 'एड्रेस’ करती रहेगी तो फिर दलित मायावती के पास किसलिए लौटेगा? जब तक मायावती के पास भाजपा के खिलाफ कोई ठोस योजना नहीं होगी, तब तक दलितों का भाजपा से मोहभंग नहीं होगा। मायावती में ऐसी क्षमता नहीं है और न ही अभी ऐसी कोई योजना ही है। इसीलिए मायावती का भविष्य संकटग्रस्त है। 
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