Jun 30, 2011

अब डॉक्टर नहीं रहे भगवान

एक जुलाई को डॉक्टर्स डे पर विशेष  
क्या सचमुच, बदलते परिवेश में डॉक्टर अब भगवान कहलाने के लायक नहीं रह गए हैं? क्या उन्हें मरीज की जिंदगी से नहीं, बल्कि रुपए से प्यार है़... 

राजेन्द्र राठौर 

भगवान के बाद धरती पर अगर कोई भगवान है तो वह है डॉक्टर। मगर पिछले कुछ वर्षों में लापरवाही की कई खबरों की वजह से यह पेशा सवालों से घिरता नजर आ रहा है। ज्यादातर डॉक्टरों ने अब सेवाभावना को त्यागकर इसे व्यापार बना लिया है। उन्हें मरीज के मरने-जीने से कोई सरोकार नहीं है। वे मरीज का ईलाज तो दूर, लाश के पोस्टमार्टम करने का भी सौदा करते हैं। उनके लिए आज पैसा ही सबकुछ हो गया है। वहीं कुछ ऐसे चिकित्सक भी है, जिन्होंने मरीजों की सेवा और उनकी जिदंगी की रक्षा को ही अपना मूल उद्देश्य बना रखा है। वे अपने इस मिशन में अकेले ही आगे बढ़ते जा रहे हैं।

इस मुद्दे पर बात इसलिए की जा रही है, क्योंकि आज यानि एक जुलाई को भारत देश में डॉक्टर्स डे मनाया जाता है। दरअसल, भारत में डॉ. बीसी रॉय के चिकित्सा जगत में योगदान की स्मृति में एक जुलाई को डॉक्टर्स डे मनाया जाता है। एक दशक पहले की बात की जाएं तो, उस समय तक डॉक्टरों को भगवान माना जाता था। धरती पर अगर कोई भगवान कहलाता था, वह डॉक्टर ही था। लोग डॉक्टर की पूजा करते थे, आखिर पूजा करते भी क्यों नहीं। डॉक्टर, जिंदगी की अंतिम सांस ले रहे व्यक्ति को फिर से स्वस्थ जो कर देते थे।

पहले डॉक्टरों में मरीज के प्रति सेवाभावना थी। मगर बदलते परिवेश में आज डॉक्टर, भगवान न रहकर व्यापारी बन गए हैं, जिन्हें मामूली जांच से लेकर गंभीर उपचार करने के लिए मरीजों से मोटी रकम चाहिए। पैसा लिए बिना डॉक्टर अब लाश का पोस्टमार्टम करने के लिए भी तैयार नहीं होते। वे परिजनों से सौदेबाजी करते हैं और तब तक मोलभाव होता है, जब तक पोस्टमार्टम की एवज में मोटी रकम न मिल जाए। 

मुझे आज भी वह दिन याद है, जब छत्तीसगढ़ के कोरबा शहर की पुरानी बस्ती निवासी एक गर्भवती महिला अपने पति के साथ गरीबी रेखा का राशन कार्ड लेकर इंदिरा गांधी जिला अस्पताल पहुंची। वहां मौजूद एक महिला चिकित्सक ने जांच करने के बाद आपरेशन करने की बात कहते हुए उस महिला के पति से 10 हजार की मांग की तथा उसे अपने निजी क्लीनिक में लेकर आने को कहा। तब महिला के पति ने रो-रोकर अपनी बदहाली की दास्तां सुनाई, लेकिन उस डॉक्टर का दिल तो पत्थर का था। उसने एक न सुनी और पैसे मिलने के बाद ही उपचार शुरू करने बात कही। इस चक्कर में काफी देरी हो गई और नवजात शिशु की दुनिया देखने से पहले ही अपनी मां के गर्भ में दम घुटकर मौत हो गयी। 

डॉक्टरों की बनियागिरी यही खत्म होने वाली नहीं है। दो दिन पहले ही उसी अस्पताल में पदस्थ एक चिकित्सक ने पोस्टमार्टम के लिए मृतक के परिजनों से सौदेबाजी की। एक दशक के भीतर ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जिनको याद करने के बाद डॉक्टर शब्द से घृणा होने लगती है। क्या सचमुच, बदलते परिवेश में डॉक्टर अब भगवान कहलाने के लायक नहीं रह गए हैं? क्या उन्हेंमरीज की जिंदगी से नहीं, बल्कि रूपए से प्यार है़? जी हां, अब डॉक्टरों में समर्पण की भावना नहीं रह गई है, इसीलिए वे मरीजों से लूट-खसोट करने लगे हैं। कई चिकित्सक तो फीस की शेष रकम लिए बिना परिजनों को मृतक की लाश भी नहीं उठाने देते।

हां, मगर कुछ चिकित्सक ऐसे भी है, जिन्होंने इस पेशे को आज भी गंगाजल की तरह पवित्र रखा हुआ है। वर्षों तक सरकारी अस्पताल में सेवा दे चुके अस्थि रोग विशेषज्ञ डॉ. जी.के. नायक कहते हैं कि  दर्द चाहे हड्डी का हो या किसी भी अंग में हो, कष्ट ही देता है। अस्थि के दर्द से तड़पता मरीज जब मेरे क्लीनिक में आता है तो मेरी पहली प्राथमिकता उसका दर्द दूर करने की होती है। दर्द से राहत मिलने पर मरीज के चेहरे पर जो सुकून नजर आता है, वह मेरे लिए अनमोल होता है। 

स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ रश्मि सिंह कहती हैं कि मरीज का इलाज करते-करते हमारा उसके साथ एक अनजाना सा रिश्ता बन जाता है। मरीज हमारे इलाज से स्वस्थ हो जाए, तो उससे बेहतर बात हमारे लिए कोई नहीं हो सकती। मरीज अपने आपको डॉक्टर के हवाले कर देता है, उसे डॉक्टर पर पूरा भरोसा होता है। ऐसे में उसके इलाज और उसे बचाने की जिम्मेदारी डॉक्टर की होनी ही चाहिए। 

डॉक्टरों द्वारा कथित तौर पर लापरवाही बरते जाने के बारे में बत्रा हॉस्पिटल के गुर्दा रोग विशेषज्ञ डॉ. प्रीतपाल सिंह कहते हैं कि इलाज के दौरान किसी मरीज की तबियत ज्यादा बिगड़ने पर या उसकी मौत होने पर हमें भी पीड़ा होती है, लेकिन हम वहीं ठहर तो नहीं सकते। वह कहते हैं ’कोई भी डॉक्टर जान-बूझकर लापरवाही नहीं करता। हां, कभी-कभार चूक हो जाती है, लेकिन मैं मानता हूं कि डॉक्टर भी इंसान ही होते हैं, भगवान नहीं।  डॉक्टर्स डे के बारे में डॉ. पी.के. नरूला कहते हैं अच्छी बात है कि एक दिन डॉक्टर के नाम है, लेकिन यह न भी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि डॉक्टरों को किसी दिन विशेष से मतलब नहीं होता। वे हर दिन तन्मयता से अपना काम करते हैं। 

खैर, राह से भटके चिकित्सकों को अपनी जिम्मेदारियों का अहसास आज भी हो जाए तो, इस पेशे को बदनाम होने से बचाया जा सकता है।


 छत्तीसगढ़ के जांजगीर के राजेंद्र राठौर पत्रकारिता में 1999से जुड़े हैं और स्वतंत्र लेखन का शौक रखते हैं. लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए 'जन-वाणी' ब्लॉग लिखते है. 



आरा में नागार्जुन जन्मशताब्दी समारोह संपन्न


नागार्जुन नहीं होते तो हमलोग नहीं होते। और खुद हमारी परंपरा में कबीर और निराला नहीं होते तो नागार्जुन भी नहीं होते...  


सुधीर सुमन

पिछले साल 25-26 जून को समस्तीपुर और बाबा नागार्जुन के गांव तरौनी से जसम ने उनके जन्म शताब्दी समारोहों की शुरुआत की और यह निर्णय किया कि इस सिलसिले का समापन भोजपुर में किया जाएगा। इसीलिए नागरी प्रचारिणी सभागार, आरा में पिछले 25 जून 2011 को नागार्जुन जन्मशताब्दी समापन समारोह का आयोजन किया गया। जनता, जनांदोलन, राजनीति, इंकलाब और कविता के साथ गहन रिश्ते की जो नागार्जुन की परंपरा है, उसी के अनुरूप यह समारोह आयोजित हुआ।

 कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए नक्सलबाड़ी विद्रोह की धारा के मशहूर कवि आलोक धन्वा ने कहा कि नागार्जुन इसलिए बडे़ कवि हैं कि वे वर्ग-संघर्ष को जानते हैं। वे सबसे प्रत्यक्ष राजनीतिक कवि हैं। आज उन पर जो चर्चाएं हो रही हैं, उनमें उन्हें मार्क्सवाद से प्रायः काटकर देखा जा रहा है। जबकि सच यह है कि नागार्जुन नहीं होते तो हमलोग नहीं होते। और खुद हमारी परंपरा में कबीर और निराला नहीं होते तो नागार्जुन भी नहीं होते। नागार्जुन की कविता बुर्जुआ से सबसे ज्यादा जिरह करती है। उनकी कविताएं आधुनिक भारतीय समाज के सारे अंतर्विरोधों की शिनाख्त करती हैं। उनकी काव्य धारा हिंदी कविता की मुख्यधारा है। उनकी जो काव्य-चेतना है, वही जनचेतना है।

विचार-विमर्श के सत्र में ‘प्रगतिशील आंदोलन और नागार्जुन की भूमिका’ विषय पर बोलते हुए जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा जिन्हें लगता है प्रगतिशीलता कहीं बाहर से आई उन्हें राहुल सांकृत्यायन, डी.डी. कोशांबी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और नागार्जुन की परंपरा को समझना होगा। हिंदी कविता में बाबा प्रगतिशीलता की नींव रखने वालों में से हैं। वे शुरू से ही सत्ता के चरित्र को पहचानने वाले कवि रहे। नामवर सिंह 1962 के बाद के दौर को मोहभंग का दौर मानते हैं, लेकिन नागार्जुन, मुक्तिबोध और केदार जैसे कवियों में 1947 की आजादी के प्रति कोई मोह नहीं था, कि मोहभंग होता।तेलंगाना के बाद साठ के दशक के अंत में नक्सलबाड़ी विद्रोह के जरिए किसानों की खुदमुख्तारी का जो संघर्ष नए सिरे से सामने आया, उसने प्रगतिशीलता और वर्ग संघर्ष को नई जमीन मुहैया की और सत्तर के दशक में जनांदोलनों ने नागार्जुन सरीखे कवियों को नए सिरे से प्रासंगिक बना दिया। बीसवीं सदी के हिंदुस्तान में जितने भी जनांदोलन हुए, नागार्जुन प्रायः उनके साथ रहे। लेकिन नक्सलबाड़ी के स्वागत के बाद पलटकर कभी उसकी आलोचना नहीं की, जबकि संपूर्ण क्रांति के भ्रांति में बदल जाने की विडंबना पर उन्होंने स्पष्ट तौर पर लिखा।

आइसा नेता रामायण राम ने नागार्जुन की कविता ‘हरिजन-गाथा’ को एक सचेत वर्ग-दृष्टि का उदाहरण बताते हुए कहा कि इसमें जनसंहार को लेकर कोई भावुक अपील नहीं है, बल्कि एक भविष्य की राजनैतिक शक्ति के उभार की ओर संकेत है। समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने कहा कि बाबा अपने भीतर अपने समय के तूफान को बांधे हुए थे। मार्क्सवाद में उनकी गहन आस्था थी। अपनी एक कविता में उन्होंने कहा था कि 'बाजारू बीजों की निर्मम छंटाई करूंगा।' उनके लिए कविता एक खेती थी, समाजवाद के सपनों की। विचार-विमर्श सत्र की अध्यक्षता डा. गदाधर सिंह, जलेस के राज्य सचिव कथाकार डा. नीरज सिंह, प्रलेस के राज्य उपाध्यक्ष आलोचक डा. रवींद्रनाथ राय और जसम के राज्य अध्यक्ष आलोचक रामनिहाल गुंजन ने की। डा.रवींद्रनाथ राय ने समारोह की शुरुआत में स्वागत वक्तव्य दिया और जनता के राजनैतिक कवि नागार्जुन के जन्मशताब्दी पर भोजपुर में समारोह होने के महत्व के बारे में चर्चा की। डा. गदाधर सिंह ने छात्र जीवन की स्मृतियों को साझा करते हुए कहा कि उनके कविता पाठ में छात्रों की भारी उपस्थिति रहती थी। वे एक स्वतंत्रचेत्ता प्रगतिशील कवि थे। उन्होंने केदारनाथ अग्रवाल, मजाज और गोपाल सिंह गोपाली पर केंद्रित समकालीन चुनौती के विशेषांक का लोकार्पण भी किया।

दूसरे सत्र की शुरुआत युवानीति द्वारा बाबा की चर्चित कविता ‘भोजपुर’ की नाट्य प्रस्तुति से हुई। उसके बाद कवि जितेंद्र कुमार की अध्यक्षता और कवि सुमन कुमार सिंह के संचालन में कविता पाठ हुआ, जिसमें अनेक कवियों ने कविता पाठ किया।

समारोह में शामिल साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने 24 जून को अपनी सांस्कृतिक यात्रा की शुरुआत बाबा नागार्जुन के ननिहाल सतलखा चंद्रसेनपुर से की थी, जहां एक सभा में उनके ननिहाल के परिजनों ने उनकी मूर्ति स्थापना, पुस्तकालय और उनके नाम पर एक शोध संस्थान बनाने के लिए एक कट्ठा जमीन देने की घोषणा की। उसके बाद साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी दरभंगा और समस्तीपुर में सभा करते हुए पटना पहुंचे और 25 जून को नागार्जुन जन्मशताब्दी समारोह में शामिल हुए।


इस समारोह में बाबा नागार्जुन की कविता पाठ का वीडियो प्रदर्शन और कवि मदन कश्यप का काव्य-पाठ भी होना तय था, लेकिन ट्रेन में विलंब के कारण ये कार्यक्रम अगले दिन स्थानीय बाल हिंदी पुस्तकालय में आयोजित किए गए। कवि-फिल्मकार कुबेर दत्त द्वारा बनाई गई नागार्जुन के काव्य पाठ के वीडियो का संपादन रोहित कौशिक ने किया है और इसके लिए शोध कवि श्याम सुशील ने किया है। करीब 13 मिनट का यह वीडियो नागार्जुन के सरोकार, कविता व भाषा के प्रति उनके विचारों का बखूबी पता देता है। बाबा इसमें मैथिली और बांग्ला में भी अपनी कविताएं सुनाते हैं।

मदन कश्यप के एकल कविता पाठ की अध्यक्षता नीरज सिंह और रामनिहाल गुंजन ने की तथा संचालन कवि जितेंद्र कुमार ने किया। उन्होंने गनीमत, चाहतें, थोड़ा-सा फाव, सपनों का अंत और चिडि़यों का क्या नामक अपनी कविताओं का पाठ किया।


बच्चों के प्रति संवेदनहीनता की महान सांस्कृतिक विरासत !

बच्चों के प्रति संवेदनहीनता हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत है। साम्राज्यवाद की विरासत का सुख भोगने वाले बुद्धिजीवियों और उनके रहबरों ने बच्चों को एक नेता के जन्म-दिन पर याद करने की वस्तु से कुछ ज्यादा नहीं समझा है...

राजेश चन्द्र

बच्चों की दुनिया एकदम अलग होती है,जिज्ञासा और निश्छलता से भरी हुई। उनमें रचनात्मक कल्पनाशीलता सबसे ज्यादा होती है,पर उनकी संवेदनशीलता को प्रेरित कर पाना आसान नहीं होता। दुर्भाग्य से हमारे यहां बाल साहित्य बहुत ही कम उपलब्ध है और बच्चों के नाटक तो नहीं के बराबर।

हमारे प्रमुख साहित्यकारों ने बच्चों के लिए लेखन को बहुत कम महत्व दिया है,पर साहित्यिक गोष्ठियों में अक्सर यह शिकायत सुनने को मिल जाया करती है कि नई पीढ़ी को न तो साहित्य और उसकी विरासत की कोई जानकारी है, न उससे कोई लगाव। हमारे गंभीर साहित्यकार भी जब बाल साहित्य की रचना करते हैं तो वे उन बच्चों की उपेक्षा करते हैं जो सामने हैं। उनकी कल्पना में आदिम युग का कोई मोगली-नुमा बच्चा तैरता रहता है, जो शायद पहली बार मनुष्यों की दुनिया में आया है। उसकी आंखों में अचरज है, पर दिमाग खाली। इसलिए हमारे साहित्यकार बच्चों के लिए लिखते समय 'एक था राजा एक थी रानी' या 'बंदर मामा पहन पाजामा' से आगे बढ़ते ही नहीं।

आज के बच्चों की मानसिकता अंतरराष्ट्रीय सीमाएं पार कर रही है। कम्प्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट ने उसके सामने सूचनाओं और मनोरंजन का ऐसा मायावी संसार खोलकर रख दिया है जिसमें उड़ने की ललक उन्हें असमय ही वयस्क बना रही है,पर हम उन्हें कुत्ता-बिल्ली या तोता-मैना के दोहे सुनाकर रोक लेना चाहते हैं। आज के शोरगुल और भागमभाग वाले दौर में बच्चे ऐसे दोराहों पर खड़े हैं, जहां आपसी संघर्ष है, होड़ है, परीक्षा का भय है, माता-पिता की महत्वाकांक्षाएं हैं, कुछ कर दिखाने का दबाव है। ढेरों अभिलाषाएं-इच्छाएं हैं और इनसे बनती-बिगड़ती प्रवृत्तियां-मनोवृत्तियां।

वे अपने अंतर्द्वंदों के साथ अकेले हैं,कोई नहीं है जो उन्हें समझे,उनकी समस्याओं का निराकरण करे। अहर्निश चलने वाले टीवी चैनलों ने बच्चों की तमाम संभावनाओं को निचोड़कर उन्हें विश्व बाजार के डरावने भीड़-भरे गलियारों में हत्यारी संभावनाओं के हवाले कर दिया है। लोरी सुनने की जिनकी उम्र है,ऐसे हजारों-हजार बच्चे चैनलों की गलाकाट प्रतियोगिता में नाच-गाकर दूसरों के लिए बसंत बुन रहे हैं और यह जानते हुए भी कि वे एक अंधी सुरंग में ढकेले जा रहे हैं,हम कुछ नहीं करते सिवाय तालियां बजाने के। ऐसे में साहित्य उनका दोस्त हो सकता था,जो उनके मनोविज्ञान को समझता और उनका मार्गदर्शन करता। पर वहां भी उनके नाम पर एक अबूझ सन्नाटा पसरा है।

वास्तव में बच्चों के प्रति संवेदनहीनता हमारे देश की सांस्कृतिक विरासत है। साम्राज्यवाद की विरासत का सुख भोगने वाले संभ्रांत वर्गों,इन वर्गों से निकले बुद्धिजीवियों और उनके रहबरों ने बच्चों को एक नेता के जन्म-दिन पर याद करने की वस्तु से कुछ ज्यादा नहीं समझा है। दूसरों की सुख-सुविधा, मुनाफा और अय्याशी के लिए जिस देश के करोड़ों बच्चे जानवरों से भी ज्यादा बदतर जिंदगी जीने को मजबूर हों, उस देश में यह उम्मीद करना कि यहां हर एक बच्चे को कभी-न-कभी रंगमंच से जुड़ने का मौका मिलेगा ताकि वह भाषा, साहित्य, सामाजिकता, सहयोग भावना, आत्मविश्वास और अनुशासन सीख सके और आगे चलकर एक बेहतर नागरिक बन सके-एक तरह की विलासिता ही लगती है।

 बाल रंगमंच गहरी कलात्मक संभावनाओं के साथ-साथ शिक्षा व्यवस्था के सर्जनात्मक रूपों से भी जुड़ा हुआ है। देश की सामान्य रंगमंचीय गतिविधि के लिए वह एक नई दिशा और नया आयाम प्रस्तुत करता है किंतु अभी वह अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही है। यह सही है कि आज देश के कई महानगरों में बच्चों का नियमित रंगमंच मौजूद है और पिछले कुछ दशकों में बाल रंगमंच के महत्व को व्यापक स्वीकृति मिली है, पर आज भी वह हमारी शिक्षा का अंग नहीं बन पाया है।

बचपन में कोमल मन पर पड़े संस्कार जीवन भर हमारे भीतर बने रहते हैं और अपनी कारगर भूमिका निभाते हैं। बाल नाटकों और रंगमंच का बच्चों की प्रतिभा के विकास के लिहाज से महत्व समझने, आज के बच्चों के भय, उलझनों और छोटी-बड़ी मुश्किलों से सीधे जुड़ने तथा बाल रंगमंच के जरिए बच्चों को नया,खुशहाल समाज बनाने के सपने और नए विचारों से खेल-खेल में जोड़ने की सबसे पहले शुरुआत करने वाली रेखा जैन का समूचा जीवन ही बाल रंगमंच को समर्पित रहा।

बच्चों के लिए उमंग का सफ़र


वर्ष 1979 में उमंग की स्थापना कर बाल रंगमंच को एक राष्ट्रीय अभियान का स्वरूप देने वाली रेखा जैन ने अपने रंग-जीवन की शुरुआत 1942-43में इप्टा आंदोलन के जन्म के साथ की थी। वर्ष 1956 में दिल्ली आने तथा 'दिल्ली चिल्ड्रंस थिएटर' से जुड़कर उन्होंने बाल रंगमंच के सर्वांगीण विकास को अपना जीवन-ध्येय बना लिया। तब से लेकर अप्रैल 2010 में शरीर त्यागने तक बाल रंगमंच के क्षेत्र में 50 से भी अधिक वर्षों के उनके समग्र योगदान को समझने की कोशिश अभी भी उसी चरण में है, जिस चरण में बाल रंगमंच को एक गंभीर रंगकर्म के तौर पर स्वीकृति देने और अपनाने की मानसिकता है।

बाल रंगमंच के महत्व और उत्कृष्टता को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से रेखा जैन ने वर्ष 2009 में उमंग बाल रंग सम्मान की स्थापना की थी। उनके निधन के बाद अब यह सम्मान रेखा जैन बाल रंग सम्मान के नाम से दिया जाता है। इस वर्ष यह सम्मान प्रख्यात लेखक और रंगकर्मी सतीश दवे को दिया गया है। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे और बंसी कौल के बाद सतीश दवे यह सम्मान पाने वाले तीसरे रंगकर्मी हैं।

'उमंग' के वार्षिक बाल रंग शिविर के समापन समारोह के अवसर पर पिछले वर्ष 15 जून को कमानी सभागार में सम्मानित सतीश दवे बाल रंगमंच के जरिए तीस वर्षों से बच्चों की सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना के विकास में मौलिक और महत्वपूर्ण योगदान के लिए चर्चित रहे हैं। इस अवसर पर उमंग ने कर्नाटक के प्रसिद्ध रंगकर्मी के.जी.कृष्णमूर्ति के निर्देशन में वैदेही का लिखा नाटक ‘गोपू गणेश-झुमझुम हाथी‘ का भव्य मंचन भी किया।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के 1994 के स्नातक कृष्णमूर्ति ने 1990 में ‘किन्नर मेला‘ की स्थापना की और बाल रंगमंच को लोक और परंपरा से जोड़ते हुए उसे एक नई रंगभाषा दी। 'गोपू गणेश-झुमझुम हाथी' एक पौराणिक मिथक के माध्यम से बच्चों को खेल-खेल में पर्यावरण के प्रति जागरूक बनाता है। नाटक में वन्य प्राणियों का सुंदर-सजीला संसार है, जिसे स्वार्थी मनुष्यों की लोलुपता लील जाना चाहती है। गोपू और झुमझुम हाथी की निष्कलंक मैत्री,गणेश और चांद की सदेह उपस्थिति तथा पुलिस की चिरपरिचित अकर्मण्यता प्रस्तुति को रोचक बनाती है। निर्देशक ने यक्षगान शैली और सुंदर गीतों के उपयोग से नाटक को अदभुत और आनंदकारी रूप दिया है।

आज के स्वकेंद्रित उपभोक्तावादी समाज में जहां बच्चे अंतर्मुखी, अकेले होकर अवसाद का शिकार हो रहे हैं, ऐसे रंग शिविरों की एक बड़ी भूमिका इस वजह से भी है कि बच्चे वहां स्वयं को अभिव्यक्त करना,दोस्त बनना-बनाना,परस्पर भागीदारी और समूह में जीने का आनंद लेना सीखते हैं। इस 'उमंग' पर हर बच्चे का हक होना चाहिए, पर काश यह बात हमारे नीति-निर्धारकों को समझ में आती।

 

स्वतंत्र पत्रकार और कला समीक्षक.





9.30 की डीटीसी बार

रात 9 बजे के बाद  डीटीसी बस 'बियर बार' में बदल जाती है. घर लौटते कई ‘मर्द’ पीछे की सीट में अपनी महफ़िल जमा लेते है और मोबाइल या एमपीथ्री पर गाना बजने लगता है...


विष्णु शर्मा

जब भी लाल रंग की डीटीसी की चर्चा होती है दोस्त बताते है कि रात के 9 बजे के बाद अक्सर इसके अंदर बियर बार सा माहौल हो जाता है.

साथियों की इस बात पर पहले तो यकीन नहीं हुआ लेकिन बाद में हमने खुद इस बात की जाँच करने का इरादा बनाया. रात 9 बजे कॉफी हाउस से निकल कर सिन्ध्या हाउस से आंबेडकर नगर जाने वाली 522 नंबर की बस में चढ गए. वहां महफ़िल जैसा कुछ नहीं था पर शराब की महक बस में भरी हुई थी. इधर उधर जांचने से लगा कि कोई दीवाना नशा करके बैठा होगा. हम पीछे जा कर बैठ गए. थोड़ी देर बाद हम देखते है कि एक साहब पेप्सी की बोतल निकाल कर गटक रहे है.लेकिन तेज महक बता रही थी कि मामला कुछ और ही है.जब दोबारा बोतल खुली और पेप्सी गटकी गई तो यकीन हो गया कि ये हरकत उन हज़रत की है.

हमने जब उनसे पुछा कि वे बस में शराब क्यों पी रहे है तो पहले वे बोतल दिखा कर कहने लगे कि पेप्सी है लेकिन जब मामला गरम होने लगा तो माफ़ी मांगने लगे. फिर उठ कर चल दिए. बस से बाहर निकल कर हमे गलियां और उतर कर आने की चुनौती देने लगे. हम नहीं उतरे. हमसे एक सीट आगे बैठी संगीता हमें बताने लगी,  ‘अरे ये तो रोज का मामला है.मेरी छुट्टी रोज 8 बजे खत्म होती है और मैं इस एहसास के साथ बस में चढती  हूँ  कि आज भी कोई शराबी मेरे साथ बतमीज़ी कर सकता है.’
हमने डीटीसी के कंडक्टर से पूछा कि वह क्यों बस में ऐसा होने देता है तो उसने बताया कि दिन में ऐसा करने की हिम्मत कोई नहीं करता क्योंकि टिकट चेक करने वाले बस में कभी भी चढ जाते है लेकिन रात में कभी चेक करने वाले नहीं आते और लोग मनमानी करने लगते है.उसने यह भी कहा कि एक दो बार शुरू में उसने हस्तक्षेप करने की कोशिश की लेकिन जब उसकी पिटाई होने लगी तो कोई बचाने नहीं आया. कंडक्टर फरीदाबाद का रहने वाला है और उसे इस बात अफ़सोस है कि दिल्ली में लोग गलत देखने पर भी उसके खिलाफ नहीं बोलते. रात में वह पिटाई के डर से टिकट भी लोगों से नहीं मांगता.

बातों- बातों में  हमें कई किस्से पता चले. राजेश, जो खानपुर का रहने वाला है, ने बताया कि सबसे ज्यादा ऐसी हरकत पंचशील और जी. के. के रहने वाले करते है. वे लोग बियर पीते है और लड़कियों के साथ बतमीजी करते है. कई बार तो ऐसी गन्दी गाली देते है कि शर्म आ जाती है.

लोग बताते है कि यह ऐसी  बस के आने के बाद बढ़ा है.ऐसा नहीं कि पहले ऐसा नहीं होता था लेकिन तब शीशे सफ़ेद होते थे और हवा के लिए खुले रखने पड़ते थे ऐसे में जब कोई ऐसा करता था तो बाहर आवाज़ लगाकर पुलिस को बुलाना आसान होता था.लेकिन रंगीन  शीशों  के कारण और दरवाज़ा बंद होने के चलते आदमी अंदर कुछ भी करे, मरे, पीटे, गाली  दे बाहर पता नहीं चलता.

संगीता बताती है कि रात में बस का सफर जोखिम भरा होता है.क्योंकि चेक करनेवाले कभी नहीं आते इस लिए लोगों में डर नहीं होता.कई बार उसे लगता है कि उसके साथ बदतमीजी होने वाली है लेकिन भगवन का शुक्र है कि ऐसा अब तक नहीं हुआ.

जब हम खानपुर से लौट रहे थे तब सच में बार जैसा माहौल था.पीछे की सीट में 5शरीफजादे बियर पी रहे थे और बीच की सीट पर नमकीन रखा हुआ था.और जैसा कि साथियों से सुना था संगीत भी बज रहा था. हमने बस के रंगीन शीशे पर नज़र दौडाई, बंद दरवाज़े को परखा फिर सोचा कुछ नहीं बोलते.