पिछले दिनों छपे आशीष वशिष्ठ के लेख ' आरक्षण’ के विरोध में उतरे आरक्षित' पर प्रतिक्रिया
जेपी नरेला
जनज्वार पर प्रकाशित आशीष वशिष्ठ का लेख ‘आरक्षण के विरोध में उतरे आरक्षित’ पढ़ा। हमने यह फिल्म जिसकी उन्होंने चर्चा की है, तो नहीं देखी है क्योंकि यह अभी रिलीज ही नहीं हुयी है। मुझे लगता है इन्होंने भी नहीं देखी है, क्योंकि इन्होंने फिल्म की समीक्षा नहीं है, केवल आरक्षण के सवाल पर अपनी राय रख दी है। अब आरक्षण के सवाल पर जो इनकी राय है, उस पर मैं अपनी राय रख रहा हूं।
एक तौ मैं पहले यह बताना आवश्यक समझता हूं कि आरक्षण का एक सामाजिक आधार है। जब यह लागू किया गया तो उसका मतलब यह था कि भारत के जातिगत, सामाजिक विकासक्रम में निचली जातियां सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तौर पर पिछड़ गयी हैं, इसलिए इनको मुख्यधारा में लाने के लिए आरक्षण लागू किया गया था। यह दूसरी बात है कि यह एक पर्याप्त हल नहीं है, लेकिन इससे कुछ 2.3 प्रतिषत निचली जातियों के लोग ऊपर गये हैं। हां, इसको लागू करवाने में दलित आंदोलन का भी राज्य मषीनरी पर एक दबाव रहा था।
जब मैं आपका लेख पढ़ रहा था तो मैंने आपका नाम और आगे लगे टाइटल पर ध्यान नहीं दिया था। लेख को पढ़ने के क्रम में जब मुझे लगा कि यह तो आरक्षण के विरोध में लग रहा है तो मेरे दिमाग में जिज्ञासा हुयी कि लेखक है कौन? जरा नाम देखूं, तो मैं इनके नाम पर वापिस गया। फिर लगा कि यह तो वशिष्ठ यानी पंडित जी हैं, तो पंडित जी यह आपका दोष नहीं है। आपकी जाति का दोष है, यदि आप बाल्मिकी या चमार जाति के घर पैदा होते तब आपको आरक्षण का मतलब समझ में आता। अभी आपको समझ में नहीं आयेगा या फिर जो आरक्षण से लाभान्वित हुए हैं उनसे जाकर पूछिये कि आपको आरक्षण से क्या लाभ हुआ है, जिसको आप समाप्त करने की बात कर रहे हैं। आपको शायद सही उत्तर मिल जायेगा।
आप अपना इतिहास भूल गये, जिसको बनाने में ब्राह्मणों का अच्छा-खासा योगदान रहा है और अपने लिये विशेषाधिकार सुरक्षित कर लिया था कि षूद्रों का कार्य ब्राह्मणों और क्षत्रियों की सेवा करना है। उत्पादन षूद्र करेंगे और ब्राह्मण एवं क्षत्रिय हराम का खायेंगे। यह अन्याय ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने निचली जातियों के साथ सदियों तक किया है और इन्होंने इस शोषण और अत्याचार को झेला है। इनको शिक्षा से दूर रखा गया। गांव के बाहर इनको बस्तियों में रहने पर मजबूर किया। आपके घरों में मैला उठाने के बाद रोटियां आले-दिवालों में रख दी जाती थीं, ताकि भंगी वहीं से उठा लें। उनको नारकीय जीवन जीने को मजबूर किया गया। यह इतिहास आपको याद रहना चाहिए। उसी क्रम में आज वर्तमान में हम खड़े हैं और जाति व्यवस्था आज भी समाज में यानी षैक्षिक संस्थाओं, सरकारी राज्य मषीनरी, मीडिया, राजनीति में मजबूती के साथ व्याप्त है।
आपने लेख में कहा है कि पूरा देष आरक्षण को लेकर बंटा है। तो सच यह है कि देश तो सदियों से बंटा हुआ है। उस बंटे हुए को लेकर ही जो निचली जातियों की गति हुयी, उसी वजह से आरक्षण लागू हुआ। कुल भारत की लगभग 121 करोड़ की आबादी में करीब 30 प्रतिशत हिस्सा दलित समुदाय में भरता है, बाकी पिछड़ा षामिल करने से 50 फीसदी से ऊपर जाता है। मैं लगभग की बात कर रहा हूं। मेरे पास कोई एथैनटिक आंकड़ा नहीं है कि इनमें से अभी तक कितने फीसदी कुल आबादी में से लाभान्वित हुए हैं। यह तथ्य ठीक से आप जान लीजिये। हवा में बात करने से कोई नहीं मानता। दोनों ही बातें हैं लाभान्वित कुल आबादी का एक या दो प्रतिषत के लगभग लाभान्वित हुए हैं, मगर लाभान्वित हुए हैं।
आपने लिखा है कि ‘1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री बीपी सिंह ने आरक्षण के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों का बंडल खेलकर जो नादानी की थी, उसका हश्र सारे देश को याद है....’ आगे है... ‘असल में देष के अंदरूनी ढांचे, व्यवस्था, परम्पराओं और संविधान की गति-नीतियों में जमीन-आसमान का अंतर है...’
बीवी सिंह ने जो मण्डल कमीषन लागू किया था उसका समर्थन हमने उस समय भी किया था और आज भी करते हैं। कारण मैंने ऊपर बता भी दिया है कि समाज में जब तक गैर बराबरी रहेगी, यह आरक्षण की व्यवस्था लागू रहनी चाहिए। उस समय का आरक्षण विरोधी आंदोलन एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन था, जो समाज को पीछे ले जाने की बात कर रहा था कि जैसी स्थिति में दलित और पिछड़े हैं उसी स्थिति में बने रहने चाहिए। हमारी नौकरियों, षिक्षा में इनके लिए आरक्षण की व्यवस्था इनको हमारी बराबरी में बैठा दे रही है।
हमारा भारत की तमाम जमीन पर पुष्तैनी कब्जा है, एक इंच भी जमीन नहीं देंगे, यही मतलब था उस आंदोलन का। एक चीज तो उस आंदोलन ने पुनः उजागर कर दी थी कि भारत में जाति और जातीय भेदभाव जबर्दस्त तरीके से विद्यमान है। इसको बरकरार रखने के लिए जलकर मरना भी मंजूर है। चूंकि संपूर्ण भारतीय सिस्टम ही जाति व्यवस्था से ग्रसित है, इसलिए वीपी सिंह भारतीय राजनीति में भी इस मुद्दे की वजह से हाषिये पर धकेल दिये गये। आरक्षण की व्यवस्था के बावजूद आज भी देष में 95 फीसदी से ज्यादा पदों पर और उत्पादन के तमाम साधनों पर, स्वास्थ्य संस्थानों में, देष के तमाम संस्थानों में उच्च जाति के लोग ही काबिज हैं। मजबूर तबका ज्यादातर निचली जातियों से आता है, ऐसा क्यों?
आपने आगे लिखा है कि ‘... देष के अंदरूनी सामाजिक ढांचे, व्यवस्था, परम्पराओं और संविधान की रीति-नीतियों में जमीन आसमान का अंतर है।’ वह अंतर क्या है, यह स्पष्ट करें। फिर आगे बात होगी। आपका तात्पर्य तो आपकी भाषा से पता लग रहा है।