May 16, 2011

सीपीएम के 'मर्दाना' वामपंथी

पश्चिम बंगाल में सीपीएम के नेता  बीनॉय कोनार के अपने पुरुष कैडर को निर्देश दिया था कि  जब मेधा पाटकर नंदीग्राम आये तो उनके सामने अपनी पैंट खोल दे. उस समय चुनाव नजदीक नहीं थे इसलिए सीपीएम ने ना इस बयान की निंदा की और ना ही इसके लिए माफ़ी मांगी...

 कविता कृष्णन

पश्चिम बंगाल की सत्ता में 34 वर्षों तक रही पार्टी सीपीएम के नेता अनिल बासु ने हाल ही में बीते विधानसभा चुनाव की एक  रैली को संबोधित करते हुए, कोलकाता के  रेड-लाइट एरिया- सोनागाछी का जिक्र किया और कहा-  'ममता के पास पैसा कहाँ से आ रहा है? किस भतार  (बंगाली भाषा का शब्द जो उस पुरुष के लिए इस्तेमाल किया जाता है,जिसका किसी औरत के साथ नाजायज सम्बन्ध हो) ने उसे चुनाव खर्च के लिए 24 करोड़ दिए?'

ममता बनर्जी : गलियां रहीं बेअसर

उन्होंने आगे कहा कि सोनागाछी  की वेश्या 'छोटे ग्राहकों की तरफ तब देखती भी नहीं जब  उन्हें कोई बड़ा ग्राहक मिल जाता है'.बासु ने कहा कि तृणमूल को अमेरिका जैसे बड़े ग्राहक चुनाव के लिए धन दे रहे हैं, इसलिए अब उसे चेन्नई, आंध्र प्रदेश  और दूसरी जगह के अपने छोटे ग्राहकों में कोई दिलचस्पी नहीं है.इससे पहले  सिंगुर प्रतिरोध के समय बासु ने , कहा था कि "यदि उनका बस चलता तो वे ममता के बाल पकड़ कर उसे कालीघाट के उसके मकान में पटक देते ना कि उसे टाटा फैक्ट्री के सामने प्रदर्शन करने देते".गौरतलब है कि घोर स्त्री विरोधी  राजनीति में डूबे सीपीएम नेता  अनिल बासु  आरामबाग से सात बार सांसद रह चुके है.इसी तरह पश्चिमी मिदनापुर के गरबेटा विधानसभा से सीपीएम प्रत्याशी और पूर्व मंत्री सुशांत घोष ने ममता बनर्जी के शादीशुदा न होने पर कहा कि  'जिस औरत की मांग में लाल सिंदूर नहीं हैं,वह स्वाभाविक तौर पर  लाल  रंग देखकर क्रोधित होगी .'  

जरूरी नहीं कि हम ममता बनर्जी या सीपीएम की राजनीति के समर्थक हों तभी इस बात को समझें कि सीपीएम के  अनिल बासु की स्त्री विरोधी गाली उस पितृसत्तात्मक अपमान का सबूत है जिसे सार्वजानिक जीवन में एक महिला को बार-बार झेलना पड़ता है. भले ही बासु ने  प्रकाश करात के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी से सात बार चुनाव जीता हो, लेकिन उन्होंने यह साबित कर दिया कि जब महिलाएं राजनीति में प्रवेश करती हैं तो वे राजनीति को राजनीति की तरह नहीं ले पाते. जब भी उन्हें महिला प्रतिद्वंदी का सामना करना पड़ता है तो वे तुरत राजनीतिक मुद्दों को एक और पटक देते है और आसान पितृसतात्मक गालियों का सहारा लेने लगते है -उनकी स्त्रीत्व पर हमला करते है,उन्हें वेश्या कहते हैं. साफ़ पता चलता है सीपीएम के यह नेता एक महिला प्रतिद्वंदी के प्रतिरोध का सामना मिथकीय दुशासन के तरीके से जो पितृसत्तात्मकता का प्रतीक भी है,के अलावा किसी अन्य तरीके से नहीं कर सकते.

हालांकि पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे बुद्धदेव भट्टाचार्य  ने कहा था  कि जिस भाषा का प्रयोग बासु ने किया है वह 'अक्षम्य'है और उन्होंने सीपीएम को बासु के खिलाफ चेतावनी जारी करने कोभी कहा था. संभवतः बासु ने भी अपनी 'लापरवाह' टिप्पणी के लिए पछतावे का बयान जारी भी कर दिया था. लेकिन सवाल यह है कि यदि इस तरह की मौखिक हिंसा,जो महिला को सार्वजानिक जीवन में अपमानित करती है, सीपीएम के लिए 'अक्षम्य' है तो कैसे चेतावनी या माफ़ी इसके लिए पर्याप्त है. उन्हें सीपीएम से अभी तक निष्कासित क्यों नहीं किया गया? क्या अनिल बासु को स्त्री-विरोधी द्वेष पूर्ण टिपण्णी  के लिए सजा नहीं मिलनी  चाहिए ?

पहले भी कई अवसरों पर  सीपीएम नेताओं ने इस तरह की पितृसत्तात्मक तानों  और गलियों का इस्तेमाल किया है.दिवंगत सुहास चक्रबर्ती ने तृणमूल  कांग्रेस  की नेता ममता बनर्जी  के नारे माँ-माटी-मानुष का यह कह कर मजाक बनाया था और कहा था कि 'जो औरत खुद बांझ  है वह माँ का मतलब क्या समझेगी?'सीपीआइएम के ही बीनॉय कोनार के अपने पुरुष कैडर को निर्देश दिया था की जब मेधा पाटकर नंदीग्राम आये तो उनके सामने अपनी पैंट खोल दें.उस समय चुनाव नजदीक नहीं थे इसलिए सी पीआई एम ने ना इस बयान की निंदा की और ना ही इसके लिए माफ़ी मांगी.

सीपीएम को सोनागाछी  की उन गरीब स्त्रियों से भी माफ़ी मांगनी चाहिए जिन्हें  इस व्यवस्था ने मरने के लिए हाशिए पर धकेल दिया है और जिनका कुसूर सिर्फ इतना है की वे जीना चाहतीहै. क्यों उन्हें एक गाली समझा जाये? इसमें उनका क्या कुसूर है? बासु को इसका कोई हक़ नहीं है के वह उनके आत्म-सम्मान को ठेस पहुचाये जबकि वे और उनकी पार्टी को इस बात का जवाब देने चाहिए कि क्यों सीपीएम के तीन दशको के शासन के बाद भी सोनागाछी  की औरतें बेबस जिन्दगी जीने को मजबूर है.
अनुवाद-  विष्णु शर्मा


जेएनयु छात्र संघ की पूर्व संयुक्त सचिव और सीपीआइएमएल (लिबरेशन) की केंद्रीय समिति सदस्य. फिलहाल लिबरेशन के महिला संगठन एपवा की  राष्ट्रीय  सचिव .


चंद सवाल रह गए थे बादल दा !

बादल दा, मुझे दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आप अपने नाटकों में आम लोगों के लिए वही कुछ गिने-चुने ही समाधान छोड़ते थेः वह जहर खा ले, फांसी लगा ले, पागल हो जाए, या कम से कम क्रांतिकारी रास्ते से भटक ही जाए. और आदमी यह सब इसीलिए करे कि उससे आम आदमी की समस्याओं को मान्यता मिलेगी...

ब्रह्म प्रकाश
बादल दा, जब अनायास ही एक साइट पर आपकी मृत्यु का समाचार पढ़ा तो थोड़ी देर के लिए भरोसा ही नहीं हुआ. भरोसा इसलिए भी नहीं हो पा रहा था क्योंकि आपसे करने के लिए चंद सवाल जो रह गये थे. हां, बादल दा एक इच्छा थी कि आपसे एक दिन जरूर मिलूंगा और मिल कर कुछ अटपटे और अनसुलझे सवाल करूंगा.वे सवाल जो असल में अनसुलझे नहीं थे,बल्कि आपने उन्हें उलझा कर रख दिया था.

आपके वो उलझे सवाल हम जैसे बहुतों के मन में होंगे. खास कर जब भी आपका कोई नाटक देखा, सवाल करने की इच्छा उतनी ही तीव्र हुई. परंतु जब भी आपको लिखने के लिए सोचा, थोड़ी झिझक ने मुझे रोक लिया. यह जानते हुए भी कि आप नहीं रहे आज वे सवाल पूछ रहा हूं. सवाल इसलिए भी जरूरी हैं कि आपकी विरासत तीसरा रंगमंच (Third Theatre) के रूप में जिंदा है. आपके लिखे गये उन अनगिनत नाटकों में के रूप में. सवाल आप से भी हैं और आपके उन शागिर्दों से भी जो आपके नाटकों के गुणगान करते नहीं थकते. वैसे कुछ मामलों में, खास कर तीसरा रंगमंच को लेकर तो मैं खुद ही आपका गुणगान करता हूं.

रंगकर्मी बादल सरकार
आपसे और आपके तीसरे रंगमंच के बारे में मेरा पहला परिचय जेएनयू में तब हुआ जब मैं कैंपस आधारित नुक्कड़ नाटक समूह जुगनू से जुड़ा था. परिचय क्या था, प्रेरणा थी. तब आपके तीसरा रंगमंच का प्रशंसक हो गया था मैं. आप जिस खूबी से स्पेस का इस्तेमाल किया करते थे, अपने नाटकों में आपने जिस बारीकी से अभिनेताओं की देह (body) का इस्तेमाल किया था और उसमें एक नयी जान फूंक दी थी, वह पहली नजर में बहुत प्रभावशाली लगता था. जब चाहा आपने उसे पेड़ बना दिया, जब चाहा एक लैंप पोस्ट. खास कर जिस तरह से आपके एक चरित्र दूसरे चरित्र में बदल जाते थे और दूसरे चरित्र को आत्मसात कर लेते थे, वह काबिले तारीफ था. स्पेस और बॉडी का ऐसा मेल आधुनिक भारतीय रंगमंच में शायद ही किसी ने किया हो. आप सिर्फ रंगमंच को सभागार (auditorium) से बाहर ही नहीं लाये, आपने नुक्कड़ों और सड़कों को ही मंच (स्टेज) बना दिया. बुर्जुआ रंगमंच के सभागार को तो आपने ध्वस्त कर दिया. आपने यह साबित कर दिया कि पैसे और सभागारों से रंगमंच नहीं चलता, रंगमंच के लिए अभिनेता की देह, न्यूनतम स्पेस और दर्शक की कल्पनाशक्ति काफी है.

आपका वह सवाल कि ‘थिएटर करने के लिए कम से कम क्या चाहिए’, नाट्यकर्मियों के लिए आज भी प्रेरणास्रोत है. एक चुनौती है. आपने जिस तरह से वस्त्र सज्जा (कॉस्ट्यूम) और साज सज्जा (मेक अप) को गैरजरूरी बना दिया और इस तरह कुल मिला कर नाटक के अर्थशास्त्र को बदल कर रख दिया वह हमारे समाज के संदर्भ में रेडिकल ही नहीं क्रांतिकारी भी था. आपने बुर्जुआ रंगमंच और रंगकर्मियों को उनकी सही औकात बता दी थी. इसके लिए देश के नाट्यकर्मी आपके कायल हैं. खास कर हमारे जैसे देश में आपके प्रयोग और भी अहम हो जाते हैं, क्योंकि यूरोप और अमेरिका की तरह रंगमंच अब भी यहां उद्योग नहीं है. कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़ कर रंगमंच की कमान अब भी आम लोगों के हाथों में है. वही आम लोग जो बड़े बड़े थिएटर हॉलों में किए गए नाटकों पर घास भी नहीं डालते. आज भी उनके लिए थिएटर गांव के मेलों में शहर की गलियों और चौराहों पर है. उन्हें आनेवाले दिनों में भी मुफ्त का थिएटर ही चाहिए होगा, जो उनका वाजिब हक है.

ऐसे रंगमंच के लिए आपका योगदान बहुत बड़ा है. उसे जितना भी सराहा जाए वह कम है. आपके रूप में हमें एक आगस्टो बोअल मिल गया था. असल में आपके कामों से ही हमने ऑगस्टो बोअल को जाना.तब तक आपका नाटक देखने भी लगा था और पढ़ने भी लगा था. जैसे-जैसे आपके नाटकों से परिचय होता गया आपके नाटकों को लेकर बेचैनी बढ़ने लगी. चंद सवाल उठने लगे थे. पहले तो कुछ समझ में नहीं आया लेकिन जबसे कुछ समझने लगा तो आप पर गुस्सा भी आने लगा था. आपने अपने नाटकों में कथ्य (कंटेंट) पर ज्यादा महत्व देने की बात कही थी, क्या कथ्य को महत्व देने भर से हर नाटक क्रांतिकारी हो जाता है? बल्कि वह तो इस बात पर निर्भर करता है कि आपके नाटक का कथ्य क्या है. और वैसे भी आपके नाटकों का कंटेंट क्या था बादल दा?

उलझा हुआ आम आदमी जो अपनी उलझनों में फंस कर रह जाता है, उनसे बाहर नहीं निकल पाता और निकल भी नहीं पायेगा. आपका वह आम आदमी मध्यवर्ग से लेकर दलित और आदिवासी भी था. वह कोलकाता की सड़कों से लेकर झारखंड के जंगलों तक फैला हुआ था. एक ऐसा आम आदमी जिसकी कहानी मौत, हताशा और खुदकुशी के ईर्द-गिर्द घूमती रहती है और वहीं खत्म हो जाती है (याद कीजिए कि एवम इंद्रजीत, बाकी इतिहास और पगला घोड़ा नाटक खुदकुशी के आसपास ही घूमते हैं, वहीं मिछिल, भूमा और बासी खबर पर मौत के ईर्द-गिर्द घूमते हैं). आम लोगों को लेकर आपकी इतनी निराशावादी सोच क्यों थी बादल दा? आपको लोग हमेशा अंधेरे में ही क्यों दिखते थे. आमलोगों के बारे में यह एकतरफा सोच कोई बुर्जुआ ही रख सकता है. और यह बात भी सही है कि आपने आमलोगों पर बुर्जुआ समस्याओं और उसकी मानसिकता (साइकोलॉजी) को थोप दिया था.

जो लोग आपके नाटकों को क्रांतिकारी साबित करने पर तुले हुए हैं उन्हें क्या समझ में नहीं आता कि आपके नाटक असंगति (एब्सर्डिटी), घिनौनेपन (सॉरडिडनेस) और भ्रम (कन्फ्यूजन) की बेतरतीब जोड़-तोड़ पर टिके हुए हैं (जो आप भी कुछ हद तक स्वीकार करते थे). ऐसा भ्रम जिसमें सार्थक जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती. बिना सार्थक और सुंदर जीवन की कल्पना किए हुए कोई क्रांति के बारे में कैसे सोच सकता है? बेतरतीब जोड़-तोड़ भ्रम पैदा करती है, क्रांति नहीं लाती बादल दा.

हां, आपके नाटक जुलूस (मिछिल) में कुछ क्रांतिकारी-सा दिखा था, जब आम आदमी जुलूस से जुड़ता है. लेकिन उस जुलूस की विडंबना तो यह है कि आपका आम आदमी जुलूस में क्रांति के लिए नहीं जुड़ता, बल्कि उसकी खोज एक सच्चे आत्म तक सीमित कर दी जाती है. आपका जुलूस एक मरी हुई प्रतिमा जैसा है, जो न तो हमला करती है और न ही उसे किसी वर्ग शत्रु से कोई लेना देना है.

आखिर आपका जुलूस किसके खिलाफ था? उससे भी बड़ी विडंबना है- जुलूस के लिए इंतजार करना. आपका आम आदमी जुलूस के लिए इंतजार करता है, सैमुअल बेकेट के वेटिंग फॉर गोदो की तरह. मिछिल ने मुझे यह भी आभास करा दिया था कि आप एक ही साथ में बोअल और बेकेट थे. जब मैंने देखा कि आपका चरित्र खोका, राज्य की एजेंसियों द्वारा बार-बार मारे जाने के बाद उठ कर लड़ने के बजाय जीने की आशा ही छोड़ देता है तो आम लोगों को लेकर आपकी अंधेरी और गहरी निराशा साफ दिखी. उसमें एक बूढ़े का प्रकट होना और खोका से कहना कि वह सच्चे आत्म की तलाश करे- यह क्रांतिकारी कम और किसी पुरोहित का उपदेश ज्यादा लगता है. वैसे भी आपके नाटक ईसाइयों के पाप प्रायश्चित करनेवाले नाटकीय कर्मकांडों से ज्यादा प्रभावित लगते हैं. अन्याय का भुक्तभोगी उत्पीड़ित कोई पापी नहीं होता, जिसके लिए उसे अपने ऊपर प्रायश्चित करना पड़े.

आपका आम आदमी हमेशा अपने आपको कोसता हुआ मर जाता है, या पागल हो जाता है. एक हद तक जबरन मान भी लूं कि कुछ चीजों के लिए आम आदमी जिम्मेवार है, लेकिन सब कुछ उसी पर डाल देना कहां तक उचित था? कब तक आम आदमी आपके बेहूदे सवाल ‘मैं कौन हूं’ और ‘मैं क्यों हूं’ की जद्दोजहद में जीता रहेगा? जबकि उसे पता है कि वह कौन है, उसका वर्ग क्या है और उसका (वर्ग) दुश्मन कौन है. शासक वर्ग कौन है. क्या मैं जान सकता हूं आपके आम आदमी का वर्ग क्या था बादल दा? क्या आपने भोमा पर अपने खुद के वर्ग की मानसिकता (साइकोलॉजी) और विचारधारा नहीं थोप दिया था? यह कौन-सी नीतिपरकता थी?

मुझे आपके नाटक की बुनावट बहुत अच्छी लगती थी. वह काफी निजी और अपने में दर्शक को रमा लेने वाली होती थी. लेकिन मुझे निराशा तब होती है जब आपकी सारी राजनीति इस रमा लेने के आकर्षण में ही खत्म हो जाती है. क्रांति खिलवाड़ में खत्म हो जाती है. आपके यहां आकर्षण एक विमर्श बन कर रह जाता है. मुझे आज भी लगता है कि आप चाहते तो इसे एक शानदार और क्रांतिकारी दिशा में मोड़ सकते थे. लेकिन आपको जटिलता की सनक थी. आपको किसी भी क्रांतिकारी समाधान से परहेज था. आपने अपने नाटकों को इस तरह बुना कि उनसे क्रांति की हर एक गुंजाइश खत्म हो जाए. यहां पर कुछ लोग कहेंगे कि समाधान देना रंगमंच का मकसद नहीं होना चाहिए, लेकिन लोगों को भारी भ्रम और हताशा में डालना, लोगों को निराश बना कर छोड़ देना और हर क्रांतिकारी समाधान की संभानवाओं को नाटकों में से खत्म कर देना कैसी क्रांतिकारिता और नीतिपरकता है? और फिर, क्या एक क्रांतिकारी समाधान नहीं देना भी अपने आप में समाधान देना नहीं है? दुख की बात तो यह है कि आपके द्वारा दिये गये समाधान लोगों को अपने विनाश और पीड़ा की एक अनंत और अंधेरी कोठरी में बंद कर देते हैं.

बादल दा, मुझे दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आप अपने नाटकों में आम लोगों के लिए वही कुछ गिने-चुने ही समाधान छोड़ते थेः वह जहर खा ले, फांसी लगा ले, पागल हो जाए, या कम से कम क्रांतिकारी रास्ते से भटक ही जाए. और आदमी यह सब इसीलिए करे कि उससे आम आदमी की समस्याओं को मान्यता मिलेगी. बचपन में एक कहानी पढ़ा करता था कि कैसे अपने बारे में अखबार में छपवाने के लिए आदमी कार के नीचे आ गया था. आपके नाटक हर बार उस कहानी की याद दिला देते हैं. फांसी लगा लेना या खुदकुशी करने से राज्य आम लोगों की समस्याओं को मान्यता नहीं दे देता. और मान्यता मिल जाने से समस्या का हल नहीं हो जाता. ऐसा ही होता तो हमारे देश के किसानों की समस्याएं कब की हल हो गयी रहतीं. हो सकता है कि आप मध्यवर्ग से उन समस्याओं की मान्यता दिलवाना चाहते थे, यह जानते हुए भी कि आपका भद्रलोक मध्यवर्ग नाटक के चरित्र को मान्यता तो दे सकता है कि लेकिन वह ‘अभद्र’ आम आदमी के अस्तित्व को ही नहीं स्वीकारता. और वैसे भी आप कमोबेश 40 साल में किस वर्ग की किस समस्या को मान्यता दिलवा पाए? विषय को मान्यता दिलवाने का आपका यह तरीका हास्यास्पद ही नहीं, अनैतिहासिक भी था.

आपके नाटक के बारे में कहा जाता है कि आपके नाटक क्रांतिकारी थे, राज्य विरोधी और सत्ता विरोधी थे. जब राज्य और सत्ता विरोधी ही थे तो उनके खिलाफ आम लोगों के खड़े होने की आपने हिमायत क्यों नहीं की. कौन-सा क्रांतिकारी रंगमंच या सौंदर्यशास्त्र इसकी इजाजत नहीं देता? और फिर जो लोग सत्ता विरोधी थे, राज्य विरोधी थे, उनसे आपने अपने नाटकों में लगातार पश्चाताप क्यों करवाया है? नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान या उसके पहले के इतिहास में लोगों ने ऐसी कौन-सी गलती की थी, ऐसा कौन-सा पाप किया था, जिसका पश्चाताप उनको पूरे नाटक के दौरान करना पड़ता था. अपने आपको छोटी-छोटी गलतियों के लिए कोसते रहना पड़ता था. और अगर वह पश्चाताप आत्मालोचना थी तो उसका उत्तर लोगों का संघर्ष और क्रांति क्यों नहीं थी बादल दा?

अगर आपके नाटकों का दार्शनिक विश्लेषण किया जाए जो वह दो तरह के दर्शन का नेतृत्व करता है. पहला तो अस्तित्ववाद है, जिसका कुछ लोगों ने उल्लेख किया है. लेकिन आपका अस्तित्ववाद सार्त्र और सिमोन द बोउवार का अस्तित्ववाद नहीं बल्कि सैमुएल बेकेट और नीत्शे का अस्तित्ववाद है. आपके नाटकों का दूसरा दर्शन उत्तर आधुनिकता है, जो उसी अस्तित्ववाद का विस्तार है और रिचर्ड शेसनर (Richard Schechner) से प्रभावित है. बाद में इसकी अधिक पुष्टि तब हो गयी जब पता लगा कि आपका काम उसी उत्तर आधुनिक परफॉर्मेंस स्टडीज के विद्वान रिचर्ड शेसनर से प्रभावित था.

आपने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘बहुत लोगों को लगता है कि मेरा नाटक ब्रेख्त से प्रभावित है, लेकिन मेरा नाटक ब्रेख्त से प्रभावित नहीं है.’ बता नहीं लोगों को आपके नाटक के बारे में ऐसा भ्रम क्यों था. शायद ऐसा उन्हीं को लगता होगा जो आपको क्रांतिकारी मानते हैं. आपका काम ब्रेख्त से दूर दूर तक प्रभावित नहीं लगता. आपका मिछिल हमेशा वेटिंग फॉर गोदो की याद दिलाता रहा और भोमा रिचर्ड शेसनर के एब्सर्ड थिएटर की. आप भारत के बेकेट थे और भारतीय रंगमंच के सभी उत्तर आधुनिकतावादियों के पितामह थे. दूर-दूर तक आप ब्रेख्त नहीं थे.

बादल दा, आपकी कुछ-कुछ निजी प्रतिबद्धताएं बहुत अच्छी लगी थीं. आपने जिस तरह पद्म विभूषण लेने से इनकार कर दिया था, आप ऐसे समय कोलकाता में रंगमंच करते रहे जब इप्टा मुंबइया सिनेमा का भर्ती दफ्तर बन गया था और बहुत सारे प्रगतिशील कलाकार व्यावसायिक उद्योग की ओर रुख कर रहे थे. कलाकार कारपोरेट के पैसे के लिए हाथ फैलाये खड़े थे, तब आपने जमीन से जुड़ाव और सादगी का परिचय देते हुए भारतीय रंगमंच का सिर ऊंचा किया. आपका सरोकार तब और भी अच्छा लगा जब बहुत सारे भद्रलोकी कलाकार ऐतिहासिक रूप से बेशर्म, पथभ्रष्ट और फासीवादी वामपंथ के साथ खड़े थे और पूरी बेशर्मी से भारतीय राज्य द्वारा शुरू किए गए ऑपरेशन ग्रीन हंट का समर्थन कर रहे थे, तब आप क्रांतिकारी गदर के साथ जुलूस में खड़े थे. आपका ऐसे कई जुलूसों में शामिल होना ही साबित करता है कि लोग जुलूस का इंतजार नहीं करते, लोग जुलूसों का नेतृत्व करते हैं. आपके जीते जी इतिहास ने आपके नाटकों को बार-बार गलत साबित कर दिया था बादल दा. क्या अपनी वह ऐतिहासिक भूल आप समझ पा रहे थे बादल दा?

इस बार फरवरी में जब मैं लंदन लौटने की तैयारियां कर रहा था, तो दिल्ली में आपका एक नाटक अंत नहीं देखा. कुछ लोग कह रहे हैं कि आपका जाना एक युग का अंत है. मैं इसे क्या समझूं बादल दा, ‘अंत नहीं’ या ‘एक युग का अंत’? देखो, इस बार कन्फ्यूज करने की कोशिश नहीं करना बादल दा. वैसे भी मैं आपके कन्फ्यूजन से बाहर आ गया हूं.

क्या अब मैं आपके जवाब का इंतजार करूं?

जेएनयू में आरसीएफ से जुड़े एक सक्रिय रंगकर्मी .लंदन विश्वविद्यालय से जन कलाओं पर शोध कर रहे हैं और इसे पूरा करने की व्यस्तता के बावजूद उन्होंने हाशिया ब्लॉग के अनुरोध पर यह लेख भेजा है. इसे वहीं से साभार प्रकाशित किया जा रहा है.