Jul 12, 2011

भारतीय रेल-कितनी सुरक्षित ?

इलाहाबाद रेल मंडल के अंतर्गत होने वाले उपरोक्त दोनों ही हादसे इसलिए और भी अधिक चौंकाने वाले हैं क्योंकि इलाहाबाद रेल मंडल,रेल ट्रैक के रख रखाव के मामले मे कई बार अन्य रेल मंडलों में सबसे अग्रणी रह चुका है...

निर्मल रानी

मात्र 48घंटे के भीतर तीन रेल दुर्घटनाएं घटित होने के बाद रेल यात्रियों को लेकर बड़े सवाल उठ खड़े हुए हैं. पहली घटना 7 जुलाई को देर रात उस समय घटी जबकि छपरा-मथुरा एक्सप्रेस ट्रेन ने इटावा के समीप एक फाटक रहित रेलवे क्रासिंग पर एक खचाखच भरी यात्री बस को रौंद डाला। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार रेलगाड़ी इस यात्री बस को आधा किलोमीटर दूर तक-अपने साथ खींच कर ले गई। नतीजतन 37बस यात्री दुर्घटना में मारे गए जबकि अनेक बस यात्री बुरी तरह ज़ख्मी हो गए।  हादसे के दूसरे दिन गोवाहाटी-पुरी एक्सपे्रस पटरी से उतरकर दुर्घटनाग्रस्त हो गई।

इस हादसे में आतंकवादी कार्रवाई होने का भी संदेह व्यक्त किया जा रहा है। और इस दुर्घटना के मात्र कुछ ही घंटों बाद हावड़ा-कालका मेल इलाहाबाद रेल संभाग के अंतर्गत पडऩे वाले मलवां रेलवे स्टेशन के पास एक बड़े हादसे का शिकार हो गई। तीव्र गति से जा रही कालका मेल के 14 डिब्बे अचानक रेल पटरी से नीचे उतर गए और काफी दूर तक रगड़ते हुए चले गए। इस दर्दनाक हादसे में 80 लोगों के मारे जाने का समाचार है, जबकि 100 से अधिक लोग घायल बताए जा रहे हैं।

ग़ौरतलब है कि इलाहाबाद रेल मंडल के अंतर्गत होने वाले उपरोक्त दोनों ही हादसे इसलिए और भी अधिक चौंकाने वाले हैं क्योंकि इलाहाबाद रेल मंडल,रेल ट्रैक के रख रखाव के मामले मे कई बार अन्य रेल मंडलों में सबसे अग्रणी रह चुका है। बेशक आज भारतीय रेल, शताब्दी, दूरंतो,संपर्क क्रांति तथा स्वर्ण शताब्दी एक्सप्रेस जैसी कई तीव्रगामी रेल गाडिय़ों से आने रास्ता है.दिल्ली से हावड़ा तथा दिल्ली से मुंबई आने जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस रेलगाडिय़ों में से दिल्ली-हावड़ा-दिल्ली राजधानी मेल इसी इलाहाबाद मंडल के रेल ट्रैक को अपनी तीव्रगति से पार करती थी, परंतु इस प्रकार का हादसा इस ट्रैक पर कभी सुनने को नहीं मिला था.

रेल हादसों के बाद तो रेल सुरक्षा विभाग को ऐसे उपाय करने चाहिए कि भविष्य में इस प्रकार के हादसे पेश न आएं परंतु इसके बजाए लगभग प्रत्येक हादसे के बाद यही देखा जाता है कि रेल विभाग के कर्मचारी तथा इसके अंतर्गत् आने वाले अलग-अलग सेक्शन के लोग एक-दूसरे पर जि़म्मेदारियां मढऩे का काम करने लग जाते हैं।

बेशक रेल विभाग, रेल डिब्बों,माल गाडिय़ों के डिब्बों तथा रेल इंजन के रखरखाव की व्यवस्था करता है। परंतु लंबी दूरी पर चलने वाली रेलगाडिय़ों के रैक की मशीनी व तकनीकी देखभाल के लिए तथा उसकी गड़बडिय़ों की जांच करने हेतु रास्ते में कोई व्यवस्था नहीं की जाती। सिवाए इसके कि कहीं-कहीं स्टेशन पर ट्रेन के ब्रेक शू केवल नज़रों से चैक किये जाते हैं अथवा वैक्यूम पाईप या बिजली या पानी जैसी आपूर्ति के बाधित होने संबंधी शिकायतें दूर की जाती हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक दो डिब्बों के जोड़ तथा कमानी व व्हील एक्सेल आदि की जांच पड़ताल की कोई व्यवस्था स्टेशन पर नहीं होती। लंबी रेलगाड़ी होने के नाते बोगियों में अथवा डिब्बों के नीचे होने वाली गैर ज़रूरी आवाज़ की भी जानकारी ड्राईवर अथवा गार्ड को चलती गाड़ी में नहीं मिल पाती।

उदाहरण   के तौर पर यदि कोई तेज़ रफ्तार ट्रेन किसी एक स्टेशन से छूटकर अगले निर्धारित स्टेशन पर पहुंचने के लिए अपना सफर तय करती है उस दौरान इस यात्रा के बीच के किसी ऐसे रेलवे स्टेशन पर उस समय जांच की जानी चाहिए जबकि वह अपनी निर्धारित तीव्र गति से स्टेशन को पार कर रही हो। उस समय तेज़ रफ्तार से आने वाली इस ट्रेन के दोनों ओर तैनात कुशल तकनीशियन द्वारा दूर से आ रही रेलगाड़ी की चाल उसकी लहर व उसके नीचे से निकलने वाली अवांछित आवाज़ों तथा ईंजन व गार्ड के मध्य के सभी डिब्बों के बीच के झटकों व उनके परस्पर खिंचाव आदि पर पैनी नज़र रखनी चाहिए।

साथ ही साथ जिस ट्रैक से वह तीव्र गति ट्रेन गुज़र रही हो उस पर भी पूरी चौकस नज़र रखी जानी चाहिए और यदि इस रेल के गुज़र जाने पर यह कुशल रेल तकनीशियन यह महसूस करते हैं कि इस रेलगाड़ी में कुछ तकनीकी खराबी होने का संदेह है तो इसकी सूचना अगले उस स्टेशन को दे देनी चाहिए जहां अमुक रेलगाड़ी को रुकना है। इतना ही नहीं बल्कि कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि ट्रेन के प्लेटफार्म पर पहुंचने व रुकने से पहले ही रेल तकनीशियन उस प्लेटफार्म पर पहुंच जाएं जहां वह ट्रेन रुकने वाली है। फाल्ट के संबंध में ट्रेन ड्राईवर को भी अवश्य बता देना चाहिए।

लाखों कलपुर्जे तथा हज़ारों टन वज़न लेकर दौडऩे वाली यह रेलगाड़ी जहां यात्रियों को उनकी मंजि़लों तक पहुंचाती है तथा पूरे देश में लगभग सभी प्रकार की मानव की ज़रूरतों संबंधी सामग्रियां इधर-उधर पहुंचाती है वहीं यह व्यवस्था पूरी ईमानदारी,समर्पण,चौकसी,पूरी जि़म्मेदारी,भरपूर कौशल तथा उच्च श्रेणी के निरंतर तकनीकी रखरखाव की भी मोहताज है। लिहाज़ा यदि भारतीय रेल को विश्व स्तरीय रेल का तमगा देना ही है तो सुरक्षा व्यवस्था जैसे सबसे ज़रूरी मानदंडों पर भी इसे विश्वस्तरीय ही बनाना होगा।



थानों में सिपाही कहाँ ?


हमें वारदात क्षेत्र में जाने के लिए आज भी साइकिल भत्ता मिलता है और थानाध्यक्ष को महीने दिन में तीन सौ रूपया।  तीन सौ रुपये के भत्ते वाला थानेदार महीने दिन तक 10-20 किलोमीटर के इलाके में कैसे दौरा कर सकता है...

अजय प्रकाश

लखनउ-बरौनी की सीधी रेल लाइन पर यूपी का अंतिम थाना तो बनकटा है,लेकिन जहां एक्सप्रेस गाड़ियां आमतौर पर रूकती हैं,वह भाटपाररानी है। भाटपानरानी नयी तहसील है और इसमें तीन थाने हैं। उन्हीं में से एक थाने में राइफल थामे पहरे पर खड़ा सिपाही पूछता है, ‘अच्छा ये बताइये कभी हम पुलिस वाले पीड़ित नजर नहीं आते आपलोगों को।’ उसके बाद अपने थाने को मिलने वाली सुविधाओं,भत्तों और जिम्मेदारियों को जब वह पुलिसकर्मी गिनाने लगता है तो एकबारगी लगता है कि अत्याचारी कहे जाने वाले इन थानों पर भी कम अत्याचार नहीं हो रहा है।

वह पुलिसकर्मी बार-बार नाम नहीं उल्लेख करने का आग्रह करते हुए कहता है-सच है कि बहुत सारे पुलिसकर्मी अपराधी हैं और गिरोहों से सांठगांठ रखते हैं, लेकिन जो काम करना चाहते हैं उनके लिए सुविधाएं क्या हैं। हमें वारदात क्षेत्र में जाने, रोजाना इलाके में दौरा करने के लिए आज भी साइकिल भत्ता मिलता है और थानाध्यक्ष को महीने दिन में तीन सौ रूपया।  तीन सौ रुपये के भत्ते वाला थानेदार महीने दिन 10-20 किलोमीटर के इलाके में कैसे दौरा कर सकता है.


किसी आरोपी को अदालत ले जाने पर बस, और ट्रेन का किराया नहीं मिलता है। थाने में पुलिस इतनी कम है कि कई बार एक आदमी को तीन-तीन दिन लगातार ड्यूटी करनी पड़ती है। मैं अबतक सात थानों में रह चुका हूं और कह सकता हूं कि किसी थाने में जरूरत के मुताबिक पुलिसकर्मी और अधिकारी नहीं हैं। इसलिए पुलिस वालों को सिर्फ दोषी कहने की बजाय आपलोग सरकार से सुविधा मुहैया कराने का कोई उपाय क्यों नहीं कराते,जिससे कि पुलिस व्यवस्था में सुधार हो।

उक्त पुलिसकर्मी की बताई हालत न सिर्फ उसके  थाने में है ,बल्कि कमोबेश जिले  के सभी थानों की यही हालत है। जिले के मदनपुर थाने में 160  गांव हैं और इनमें कानून व्यवस्था बनाये रखने के जिम्मेदारी 50 सिपाहियों, दो सबइंस्पेक्टर और एक थानाध्यक्ष पर है। दो नदियों के विशाल पाट के बीच फैले इस इलाके में तीन गांव पर एक सिपाही अपराधों पर कैसे अंकुश लगाता होगा,इसको आसानी से समझा जा सकता है।

इसके बगल का थाना एकौना है और वहां 51  गांवों के देखरेख का जिम्मा 20 पुलिसकर्मियों पर है। मदनपुर थाने के थानाध्यक्ष विजय पांडेय बताते हैं,‘हमारे थाने में तो फिर भी दो सबइंस्पेटर हैं, भटनी में तो एक ही सबइंस्पेक्टर है।’गौरतलब है कि भटनी बड़ा थाना क्षेत्र है और वह बिहार बार्डर से जुड़ा है।

उत्तर प्रदेश पुलिस भर्ती और पदोन्नति बोर्ड के एक उच्चाधिकारी के मुताबिक थानों में 40  से 50 फीसदी पुलिसकर्मियों की कमी है। इस कमी को दूर करने के लिए पहली बार उत्तर प्रदेश में पुलिस भर्ती बोर्ड बना है और संभव है इस समस्या का समाधान हो सके। बोर्ड ने 35 हजार भर्तियां कर ली हैं और करीब 80 हजार और भर्तियां होने वाली हैं। इसी के साथ तीन हजार सबइंस्पेक्टरों की सीधी भर्ती और 55  सौ सिपाहियों को पदोन्नति के जरिये सबइंस्पेक्टर में बहाली होनी है।

लेकिन कुछ अधिकारियों का मानना है कि सिर्फ यह भर्ती ही एक सक्षम पुलिस बल को नहीं खड़ा कर सकती है। उत्तर प्रदेश में हुए खाद्यान्न घोटाले की जांच में शामिल रहे एसआइटी के एक इंस्पेक्टर की राय में,‘उत्तर प्रदेश पुलिस को तकनीकी,आधुनिक और नैतिक बनाने की एक संपूर्ण प्रक्रिया ही एक नयी छवि वाले पुलिस महकमें का भ्रुण तैयार कर सकती है।’

पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों के शिकायतों  और सुझावों के मद्देनजर देखा जाये तो अपराध प्रदेश की छवि हासिल करते जा रहे इस प्रदेश की सूरत फिलहाल बदलने वाली नहीं है। कारण कि जिनपर अपराध रोकने की जिम्मेदारी है उनमें से बहुतेरे माफियाओं के सिपहसालार हैं और जो थोड़े पुलिसकर्मी काम करना चाहते हैं उनके पास साधन की कमी का वाजिब कारण है।

झांसी में एक हिंदी दैनिक के क्राइम रिपोर्टर बीके कुशवाहा कहते हैं,‘प्रदेश की मुखिया चाहे जितनी उठक-बैठक कर लें,अपराध पर कोई अंकुश लगती नहीं दिख रही है। हां अगर प्रदेश की मुखिया और पुलिस के आला अधिकारियों ने बढ़ते अपराधों से सबक लेते हुए पुलिस महकमें में सुधार की प्रक्रिया की शुरू कर दी तो राज्य इस छवि से उबरने में आने वाले वर्षों में जरूर कामयाब होगा।’


सरकार अब निजी हथियार बांटने की फ़िराक में !


राजनीतिक नेतृत्व को इस माहौल का सदुपयोग कर के  शांति स्थापना के लिए कुछ और कदम तुरंत उठाने चाहियें.सेना को वापिस बुलाने का फैसला लिया जा सकता है.उजड़े हुए आदिवासियों को दुबारा उनके गावों में बसाने का काम शुरू किया जा सकता है...

हिमांशु कुमार

सर्वोच्च न्यालय ने 5 जुलाई के फैसले में लोकतंत्र, लोग, सरकार, हिंसा आदि विषयों पर एक ऐसा फैसला दिया है,जिसका असर देश में अनेकों वर्षों तक होता रहेगा.इस फैसले से सबसे ज्यादा नुकसान नक्सलियों को होगा जो ये सिद्ध करना चाहते थे कि ये व्यवस्था अब गरीबों की सुनेगी ही नहीं,इसलिए अब बन्दूक उठा लेना ही एकमात्र रास्ता है.साथ ही इस फैसले ने इस नकली होते जा रहे लोकतंत्र और सरकार को थोडा सा जीवन दान और दे दिया.वरना लोकतंत्र की बाकी संस्थाओं ने तो अपने स्तर पर लोकतंत्र की हत्या करने में कोई कसर नहीं छोडी.

आज लोकतंत्र की हरेक संस्था पर से लोगों का विश्वास समाप्त हो गया है.पुलिस पर किसी को भरोसा नहीं है, सरकार पर किसी को भरोसा नहीं है! निचले स्तर की अदालतों पर अब जनता का भरोसा नहीं रहा.ऐसे में अगर सर्वोच्च न्यायालय ने ये फैसला आदिवासियों के विरुद्ध दे दिया होता तो उसका सबसे अधिक फ़ायदा नक्सलियों को ही होता क्योंकि सरकार आदिवासियों पर जितना ज्यादा हमला करेगी आदिवासी जान बचाने के लिए उतना अधिक नक्सलियों के करीब जायेंगे.

लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को अपना अपमान मान रही है और भाजपा ने तो बाकायदा इस फैसले के खिलाफ बयान भी दे दिया है.ये कैसी राष्ट्रवादी पार्टी है जो अपने राष्ट्र के सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान नहीं करती.छत्तीसगढ़ सरकार ने तो इस फैसले के पुनर्विचार के लिए याचिका दायर करने का भी निर्णय किया है,जो कि सभी प्रचलित परम्पराओं के विरद्ध है.इस बीच बलात्कार के आरोपी और फरारी सलवा जुडूम नेता इस समय भाजपा सरकार के प्रवक्ता बन कर सलवा जुडूम के पक्ष में बयान दे रहे हैं.एक खबर के अनुसार गृहमंत्री पी चिदंबरम और छत्तीसगढ़ के मुख्मंत्री श्री रमन सिंह ने एसपीओ का नाम बदल कर इस फैसले से बचने के भी संकेत दिए हैं.रमन सिंह ने इन एसपीओ को प्राइवेट हथियार देने के विकल्प पर भी विचार करने का संकेत दिया है !

सरकार की इस प्रकार की हठधर्मिता से अपना ही नुकसान करेगी.सलवा जुडूम के बाद हिंसा 22 गुना बढ़ गयी और नक्सलियों की संख्या में 125 गुना की वृद्धि हुई है.अभी भी सरकार अगर इस मुर्खता और जिद को नहीं छोड़ेगी तो वह लोकतंत्र बहुत नुकसान करेगी.अगर हम ध्यान से देखें तो इस फैसले के आने के बाद अहिंसा और शांती की दिशा में एक सकारात्मक माहौल बन रहा है . नागरिक समाज के इस कदम के बाद माओवादियों ने एसपीओ पर हमला ना करने की घोषणा की है.इस समय राजनीतिक नेतृत्व को इस माहौल का सदुपयोग कर के शांती स्थापना के लिए कुछ और कदम तुरंत उठाने चाहियें.सेना को वापिस बुलाने का फैसला लिया जा सकता है.उजड़े हुए आदिवासियों को दुबारा उनके गावों में बसाने का काम शुरू किया जा सकता है.

अगर अभी भी सरकार ने ये क्रूरता जारी रखी और बड़ी कंपनियों के फायदे के लिए गरीबों पर हमला करना जारी रखा तो उसका परिणाम यही होगा की नक्सलियों के प्रति इस देश के गरीबों के साथ साथ बुध्धिजीवियों का भी समर्थन और अधिक बढ़ जाएगा.इसलिए अगर नक्सलियों से छुटकारा चाहती है तो सर्वोच्च न्यायालय का फैसला लागू करे वरना इसके बाद सरकार को बचाने कोई नहीं आएगा.



दंतेवाडा स्थित वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख और सामाजिक कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार का संघर्ष,बदलाव और सुधार की गुंजाईश चाहने वालों के लिए एक मिसाल है.