बिहार विधानसभा 2005 चुनाव के बाद 'मुख्यमंत्री मुस्लिम हो' को लेकर कई दिनों तक सियासी ड्रामा चलता रहा, जिसके पीछे लालू-पासवान की वोट बैंक की सियासत ही थी। रामविलास पासवान मुस्लिम मुख्यमंत्री का पाशा फेंककर लालू प्रसाद के मुस्लिम वोट पर काबिज होना चाहते थे।
पंकज कुमार
बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका है लेकिन उससे पहले पाटलिपुत्र के युद्ध में हर दल या मोर्चा-दूसरे मोर्चे की राजनीतिक जमीन अपने पक्ष में करने की कोशिश में जुटा है। राजनीति के इस खेल में कौन किस पर भारी पड़ेगा, इसकी कुंजी तो जनता जनार्दन के पास है। लेकिन उससे पहले नेता वोट की राजनीति को जात-पात,सामाजिक ध्रुवीकरण के इर्द-गिर्द केंद्रित करने की कोशिश में जुटे हैं।
पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में मात खाए लालू यादव और रामविलास पासवान ने राजनीतिक इच्छा व्यक्त की कि राज्य में एक मुस्लिम उपमुख्यमंत्री हो। इसका सीधा मतलब हुआ कि अगर विधानसभा चुनाव के बाद लालू-पासवान के गठजोड़ वाली सरकार बनी तो राज्य में मुख्यमंत्री के साथ दो उपमुख्यमंत्री भी होंगे। लेकिन लालू-पासवान की इस मंशा पर शक और सवाल उठना लाजिमी है।
सबसे अहम सवाल कि सत्ता में आने पर मुस्लिम उपमुख्यमंत्री ही क्यों, मुख्यमंत्री क्यों नहीं? दूसरा सवाल क्या यह मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति नहीं है? तीसरा सवाल क्या यह जनभावना है? चौथा सवाल जब संयुक्त तौर पर सीट और कुर्सी का बंटवारा हुआ उस वक्त यह घोषणा क्यों नहीं की गई? पांचवा सवाल सामाजिक ध्रुवीकरण के बदले विकास के मुद्दे चुनावी एजेंडा क्यों नहीं?
लालू-पासवान: चुनाव की यारी |
नाक की इस लड़ाई की वजह से बिहार को राष्ट्रपति शासन और साल के भीतर दूसरी बार चुनाव का सामना करना पड़ा। गौरतलब है कि पांच साल पहले पासवान ने ही मुस्लिम मुख्यमंत्री का नारा दिया, लेकिन इस बार जब भावी मुख्यमंत्री की उम्मीदवारी का मौका आया तो लालू के नाम पर सहमति दे दी। इतना ही नहीं उपमुख्यमंत्री पद पर अपने छोटे भाई पशुपति पारस की दावेदारी करने में जरा भी देरी नहीं की। इस ऐलान पर जब खलबली मची तब जाकर पासवान ने गठबंधन सरकार बनने पर मुस्लिम को उपमुख्यमंत्री बनाने का आश्वासन दिया।
बिहार विधानसभा 2005 चुनाव के बाद मुख्यमंत्री किसी मुस्लिम को बनाने को लेकर कई दिनों तक सियासी ड्रामा चलता रहा,उसके पीछे भी लालू-पासवान की वोट बैंक की सियासत ही थी। रामविलास पासवान मुस्लिम मुख्यमंत्री का पाशा फेंककर लालू प्रसाद यादव के मुस्लिम वोट पर काबिज होना चाहते थे। उनकी मंशा बिहार में लालू प्रसाद यादव से बड़े जनाधार वाला नेता के तौर पर उभरने की थी। इतना ही नहीं वह अपनी छवि दलित नेता तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे। 2005 में लोजपा प्रमुख का गुप्त एजेंडा यह था कि मुस्लिम-दलित समीकरण के जरिए राज्य के करीब 32फीसदी वोट पर सेंध लगा सके। लेकिन लालू यादव ने रामविलास पासवान के इस राजनीतिक दांव को कामयाब नहीं होने दिया। उन्होंने एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण को बनाए रखने के लिए सरकार नहीं बनाना ही बेहतर समझा और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा।
दोनों दलों के प्रमुखों का यह ऐलान उनके आत्मविश्वास में कमी, कमजोर पड़ती सियासत और चुनाव पूर्व हार के डर को भी दिखाता है। वर्ष 1990 में लालू यादव ने जब बिहार की सत्ता संभाली तो उस वक्त मुस्लिमों ने भागलपुर दंगों की वजह से कांग्रेस से दूरी बनाई और जनता दल को वोट दिया। वर्ष 1997में लालू यादव ने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) का गठन किया और अल्पसंख्यकों को बीजेपी के साम्प्रदायिक चेहरे का डर दिखाकर वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते रहे। लेकिन 2005 विधानसभा चुनाव में एनडीए ने जेडीयू नेता नीतीश कुमार का सेक्युलर चेहरा पेश किया,तो आरजेडी का एमवाई (मुस्लिम-यादव) तिलिस्म टूट गया।
लालू से मोहभंग हो चुके अल्पसंख्यकों ने न सिर्फ आरजेडी से बल्कि एलजेपी से भी किनारा कर लिया। पिछले पांच साल में नीतीश सरकार की कार्यशैली से अल्पसंख्यक समाज में रोजगारोन्मुख,भयमुक्त और गैर संप्रदायवाद का संदेश गया है। मुस्लिम वोटरों के इस रुख से लालू-पासवान की परेशानी बढ़ना लाजिमी है। यही वजह है कि दोनों नेता एमवाईडी (मुस्लिम-यादव-दलित)समीकरण का हथकंडा अपना रहे हैं।
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आरजेडी प्रमुख लालू यादव की पार्टी ने बिहार में लगातार 15 साल तक एमवाई यानी मुस्लिम-यादव समीकरण के भरोसे शासन किया, पिछड़े समुदाय के साथ-साथ अल्पसंख्यक समुदाय ने भी लालू यादव का पूरा साथ दिया। जातीय-धार्मिक भावना उभारकर आरजेडी लगातार तीन बार सत्ता में बनी रही और इस बार भी रोजी-रोटी, सामाजिक बराबरी के बदले जज्बाती सवालों पर गोलबंदी की जा रही है। अच्छा तो यह होता कि लालू-पासवान जनभावनाओं को ख्याल में रख कर रोजी-रोटी, गरीबी, बिजली, सड़क, पानी, भ्रष्टाचार, सूखा, लालफीताशाही को मुद्दा बनाते और बिहार की जनता के सामने बेहतर विकल्प पेश करते। इसमें कोई शक नहीं कि विधानसभा चुनाव में जाति का प्रभाव रहेगा ही।
दोनों नेता भले ही अक्टूबर 2005विधानसभा चुनाव की हार को आरजेडी-एलजेपी गठबंधन का टूटना और लोगों में भ्रम की स्थिति को कारण बता रहे हों, लेकिन सच यह है कि बिहार की जनता तुच्छ राजनीति से तंग आ चुकी थी और उन्हें जनता से जुड़े सरोकार वाली सरकार चाहिए थी। यही वजह है कि अक्टूबर में विधानसभा चुनाव के बाद हुए लोकसभा चुनाव में आरजेडी चार सीटों पर सिमट गई,जबकि रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा का सूपड़ा साफ हो गया। राज्य में इसके बाद हुए उपचुनाव में भी एनडीए गठबंधन को बड़ी जीत मिली। इस बीच यह जरूर हुआ कि सितंबर 2009 में बिहार विधानसभा के 18 क्षेत्रों में हुए उपचुनाव में एनडीए गठबंधन 13 सीटों पर हार गया। बटाईदारी विवाद से उत्पन्न विशेष उन्मादपूर्ण परिस्थिति में वे उपचुनाव हुए थे। तब से अब तक राज्य की राजनीतिक परिस्थिति व मनःस्थिति बदल गई लगती है।
लालू प्रसाद और रामविलास पासवान ने राजनीति के गुर समाजवादी जननेता जयप्रकाश नारायण और लोहिया जी से भले ही सीखे हों, लेकिन सत्तासुख के लालच ने दोनों नेताओं को अपने सिद्धांतों से भटका दिया है। मौजूदा राजनीति को देखकर लगता है कि आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद और लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान सामाजिक सरोकारों के मुद्दों से दूर होते जा रहे है। लालू-पासवान की जोड़ी जब से राज्य और केंद्र की सत्ता से दूर हुई है तब से दोनों कदमताल मिलाते चल रहे है। उन्हें पता है कि जब तक उनके पास संख्या बल नहीं होगा, तब तक दिल्ली और पटना में उन्हें पूछनेवाला कोई नहीं।
लेखक दूरदर्शन में 'जागो ग्राहक जागो' कार्यक्रम में बतौर सहायक प्रोडूसर
काम कर चुके हैं, फिलहाल एक पाक्षिक अख़बार में सहायक संपादक हैं इनसे kumar2pankaj@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.