धार्मिक मान्यताओं, वोटबैंक की राजनीति से उठकर सबको ये मानना होगा कि तीन तलाक और निकाह हलाला जैसी मान्यताएं और चलन महिलाओं की गरिमा और उनके हक के खिलाफ हैं, इन पर जितनी जल्दी हो सके रोक लग जानी चाहिए.....
मनोरमा
तीन तलाक और हलाला का मसला इन दिनों सुर्खियों में है, खासतौर से हाल ही में इसके विरोध और मुस्लिम महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने के संदर्भ में दिए गए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बयान के बाद से।
मुस्लिम पर्सनल लॉ में बदलाव मौजूदा सरकार की प्राथमिकताओं में से एक रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के संविधान पीठ द्वारा ग्यारह मई को तलाक, हलाला और बहु-विवाह की संवैधानिक स्थिति पर सुनवाई होने वाली है, ऐसे में इन मसलों पर बहस और चर्चा का बाजार पूरे देश में गर्म है। बहुत संभावना है कि जल्द ही सरकार की ओर से मुस्लिम पर्सनल लॉ में आवश्यक बदलाव लाकर तीन तलाक को खत्म कर दिया जाएगा।
लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है। देश की पूरी राजनीति का इन दिनों इसके समर्थन और विरोध में ध्रुवीकरण हो चुका है। राजनीतिक दलों के अपने एजेंडे हैं और उनका कोई भी रुख मुस्लिम महिलाओं और समाज की बेहतरी से ज्यादा अपने वोटबैंक की चिंता में है। दूसरी ओर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और ऐसे ही तमाम संगठन जहां अब भी मुस्लिम शरीआ कानूनों में दखलअंदाजी के खिलाफ हैं, वहीं मुसलमान महिलाओं का एक बड़ा तबका तीन तलाक और हलाला जैसे प्रावधानों को खत्म किए जाने के पक्ष में है।
बहरहाल, तीन तलाक और निकाह हलाला पर चल रही बहस ने एक खास मानसिकता के लोगों को धार्मिक आधार पर टिप्पणियां करने, मुस्लिम औरतों का उपहास और भौंडा मजाक करने का भी मौका दे दिया है, क्योंकि हलाला उनके लिए मजा लेने की चीज है। तीन तलाक मसले पर बहस के बाद से सोशल मीडिया पर हलाला को लेकर ऐसी ही उपहास करने वाली हलाला सेवा मुफ्त में देने के प्रस्तावों के साथ ढेरों टिप्पणियां पढ़ी जा सकती हैं।
गौरतलब है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला से अगर उसका पूर्वपति फिर से शादी करना चाहता है तो उसे निकाह हलाला करना होता है, जिसके तहत महिला को पहले किसी दूसरे पुरुष से निकाह करना होता है,शारीरिक संबंध बनाना होता है और फिर उससे तलाक मिल जाने पर उसका पहला पति उससे दुबारा शादी कर सकता है। बहुत से मामलों में दूसरे पति के तलाक नहीं देने पर मामला बिगड़ भी जाता है इसलिए इसके तोड़ में 'हुल्ला' प्रथा का प्रचलन हुआ है, जिसके तहत मौलवी उसी पुरुष से विवाह करवाते हैं जो निश्चित तौर पर तलाक दे देता है।
इन दिनों 'हुल्ला' के तहत विवाह करने वाले पुरुष इंटरनेट पर भी उपलब्ध हैं, सोशल मीडिया पर उनके पेज हैं और ये उनकी कमाई का भी जरिया है। दरअसल, निकाह हलाला का प्रावधान इसलिए बनाया गया था ताकि कोई भी पुरुष सोच—समझकर तलाक दे, गुस्से में नहीं, लेकिन ये कबीलाई और पुरुष बर्चस्ववादी मानसिकता के तहत ही था जिसमें औरत और उसका जिस्म पुरुष की संपत्ति और उसकी इज्जत होता है।
हलाला के तहत किसी की पत्नी का अन्य पुरुष से विवाह और शारीरिक संबंध उनके लिए एक सजा के तौर पर ही था। जाहिर है आधुनिक समाज के मानकों पर इस तरह की प्रथाएं बहुत त्रासद हैं, इन्हें जितनी जल्दी हो सके खत्म किया जाना चाहिए।
इस मामले में केन्द्र सरकार की काउंसिल माधवी दीवान ने स्पष्ट किया है कि बहुविवाह का किसी विशेष धार्मिक मान्यता से कोई लेना देना नहीं है, यह एक सामाजिक चलन रहा है और सदियों पहले से ग्रीक, रोमन, हिंदू, यहुदियों, पारसी सभी धार्मिक समुदाय में प्रचलित था। तीन तलाक और हलाला प्रथा भी अपने समय का सामाजिक चलन थी और उस समय के सुविधा के अनुसार विकसित व प्रचलित हुई थी। इसलिए संविधान की धारा 25 या धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के तहत इनके संरक्षण का तर्क नहीं दिया जा सकता, ये दोनों अलग बातें हैं।
हालांकि कहा जाता है कि इस्लाम में औरतों को बराबरी का दर्जा हासिल है और शादी से लेकर तलाक तक उनके हकों की पूरी तरह से हिफाजत की गई है। मसलन, औरत की रजामंदी के बगैर निकाह नहीं हो सकता, उनकी आर्थिक सुरक्षा के लिए मेहर का प्रावधान है और तलाक के जवाब में औरतों के पास खुला का विकल्प है जिसके तहत वो काजी के पास जाकर तुरंत अपनी शादी से मुक्त हो सकती हैं, खुला में इद्दत जैसी अवधि का भी पालन नहीं करना पड़ता है।
इसके अलावा तलाक के बाद भी औरतों को लगभग तीन महीने की अवधि बगैर किसी अन्य पुरुष के संपर्क में आए बिताना होता है ताकि इस अवधि में उसके गर्भवती होने का पता चला तो संतान को उसका हक मिल सके। लेकिन जमीनी सच कुछ और है और पुरुषों के अनुकूल है उन्हें ‘तलाक-उल-सुन्नत’ और ‘तलाक-ए-बिदात’ का हक हासिल है। पहले प्रावधान के तहत तलाक के बाद तीन महीने इद्दत की अवधि होती है जिसमें पति पत्नी 40 दिन तक साथ ही रहते हैं, सुलह नहीं होने पर फिर तलाक दिया जाता है और फिर 40 दिन साथ रहने की अवधि होती है इसके बाद भी सुलह नहीं होती तो अंतिम तलाक मुकर्रर हो जाता है। जबकि ‘तलाक-ए-बिदात’ के तहत एक मुस्लिम पति अपनी पत्नी को तीन बार ‘तलाक’ शब्द बोलकर तलाक दे सकता है, ज्यादातर मामलों में पुरुषों द्वारा इसी का फायदा उठाया जाता है।
शायद यही वजह है कि शाहबानो से लेकर अब शायराबानो ने इंसाफ के लिए अदालत के दरवाजे पर दस्तक दी है, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पास नहीं। तीन तलाक कैसे मुस्लिम महिलाओं के जीवन के साथ खिलवाड़ है, इसे हाल के कुछ मामलों से समझा जा सकता है। इसी महीने आगरा में एक महिला को दो बेटियों को जन्म देने के कारण फोन पर तलाक मिल गया और एक ताजा मामले में राष्ट्रीय स्तर की नेटबॉल खिलाड़ी शुमेला जावेद को उसके पति ने फोन पर केवल इसलिए तीन बार 'तलाक' कह दिया क्योंकि उन्होंने एक बच्ची को जन्मक दिया है।
अमरोहा में अपने माता पिता के साथ रह रही शुमेला ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से इस मामले की जांच करने और कार्यवाही करने का अनुरोध किया है। इसी तरह के एक और मामले में गाजियाबाद की दो बहनों ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को फोन पर तलाक मिलने के बाद मदद की गुहार की है, सउदी अरब में काम करने वाले उनके पतियों ने भी उन्हें फोन पर ही तलाक दे दिया था। शाहजहांपुर की एक लड़की को पहले फेसबुक पोस्ट पर तीन बार तलाक लिखकर तलाक दिया गया, फिर बाद में बाद में एसएमस के जरिए।
तलाक का ये तरीका न सिर्फ देश के संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है, बल्कि लैंगिक बराबरी के आधुनिक मूल्यों के भी। पूरे विश्व के 25 से ज्यादा इस्लामी देशों में तलाक शरीया कानूनों के तहत मान्य नहीं है, बल्कि इसके लिए अलग से कानून बनाया गया है। भारत में कानूनी बहस के दायरे में यह मुद्दा पिछले साल फरवरी में तब आया जब जब तीन तलाक की एक पीड़िता शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके तलाक, बहुविवाह और निकाह हलाला की प्रथा पर रोक लगाने का अनुरोध किया था।
उल्लेखनीय है कि इससे पहले 1985 में शाहबानो मामले ने तीन तलाक के मसले को राष्ट्रीय बहस के दायरे में लाया था, जब बासठ साल की उम्र में पांच बच्चों की मां शाहबानो को उनके वकील पति ने 1978 में तलाक दे दिया था। तीन साल बाद शाहबानो ने सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर किया, सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 1985 में उनके पति को अपनी 69 वर्षीय पत्नी को प्रति माह 179 रुपये 20 पैसे गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था।
तत्कालीन सरकार ने अगर वोटबैंक की राजनीति से हटकर मुस्लिम समाज पर दूरगामी असर करने वाला दूरदर्शी फैसला लिया होता, तो आज ये नौबत ही नहीं आती। सामाजिक और राजनीतिक दोनों लिहाज से वो दौर आज से ज्यादा अनुकूल था ऐसे फैसलों के लिए, लेकिन मुस्लिम समुदाय के यथास्थितिवादियों को अदालत का फैसला मंजूर नहीं था और युवा व आधुनिक विचारों वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी डर गए। उन्होंने आरिफ मोहम्म्द खान जैसे नेताओं की अनदेखी कर कांग्रेस के बाकी हिंदू मुसलमान नेताओं के साथ मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड की बात मानना ज्यादा अनुकूल समझा और 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण) अधिनियम पारित करके सु्प्रीम कोर्ट के 23 अप्रैल, 1985 के उस ऐतिहासिक फैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत परित्यक्त या तलाकशुदा महिला को पति से गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है, यह मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होता है क्योंकि सीआरपीसी की धारा 125 और मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधानों में कोई विरोधाभास नहीं है।
जाहिर है यह कितनी बड़ी भूल या गलती थी आज तीस साल बाद इसका मूल्यांकन बेहतर किया जा सकता है। कोई आश्चर्य नहीं कि आज देश भर की हजारों मुस्लिम महिलाएं इसके विरोध में सरकार पर दबाव बना रही हैं, इस प्रथा को खत्म करने की मांग पर मुखर होकर बोल रही हैं और देशभर में हस्ताक्षर अभियान चला रही हैं।
दरअसल, धार्मिक स्वतंत्रता की पैरोकारी के बावजूद आधुनिक समाज के लिए नियम कानून आधुनिक समय के तकाजों के अनुसार ही होने चाहिए। मसलन, धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर सती प्रथा, बहुविवाह, बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं को चलते रहने नहीं दिया जा सकता था और अंतरजातीय, अंतरधार्मिक व प्रेमविवाह को अमान्य नहीं किया जा सकता था, इसलिए आजादी से पहले और बाद में भी आवश्यक संशोधन करके हिन्दू विवाह अधिनियम में कुप्रथाओं को हटाकर आधुनिक मूल्यों को शामिल किया गया, जिसमें कानूनी तलाक का प्रावधान भी शामिल है।
शादी के तौर तरीके, रीति रिवाजों किसी भी समुदाय की धार्मिक मान्यताओं के तहत होना ठीक है, लेकिन तलाक लेने या देने के लिए एक ही जैसा कानून होना चाहिए। साथ ही धार्मिक मान्यताओं, वोटबैंक की राजनीति से उठकर सबको ये मानना होगा कि तीन तलाक और निकाह हलाला जैसी मान्यताएं और चलन महिलाओं की गरिमा और उनके हक के खिलाफ हैं, इन पर जितनी जल्दी हो सके रोक लग जानी चाहिए।