Jul 31, 2011

बाजा बजाते दिग्गी राजा

मध्य प्रदेश के एक छोटे से इलाके राघोगढ़ के ठिकानेदार और चार -पांच सौ   घरों के मुखिया के रूप में जाने जानेवाले इस राजपूत नेता को आगे लाने में दिवंगत अर्जुन सिंह ने अहम भूमिका निभायी थी...

एस.के. सिन्हा  

उनकी निगाह में बाबा रामदेव एक ठग से ज्यादा कुछ नहीं हैं,भारतीय जनता पार्टी नचनियों का दल है,राष्ट्रमंडल खेलों के भ्रष्टाचार  में फंसे सुरेश कलमाडी बेकसूर हैं,कुख्यात आतंकवादी ओसामा बिन लादेन ओसामा जी हैं,और राहुल गांधी अब इतने परिपक्व हो गये हैं कि अब उन्हें प्रधानमंत्री का पद संभाल लेना चाहिए। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह का ताजा कारनामा यह बयान है कि पुलिस द्वारा पकड़ा गया हर हिंदू आतंकवादी राष्ट्र स्वयंसेवक संघ से जुड़ा हुआ है।

उन्होंने मुंबई में हुए बंमकांड के तार भी  संघ से जुड़े होने की संभावना व्यक्त की जिसके बाद भारतीय जनता पार्टी और उनके बीच घटिया आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया। कुछ भाजपाई छात्रों ने जब दिग्विजय सिंह का घेराव कर लिया था उन्होंने एक छात्र को पकड़ कर तमाचे भी  जड़ दिये।

राहुल गांधी के खास सलाहकार के रूप में उभरे दिग्विजय सिंह यानी दिग्गी राजा को विवादास्पद बयानों के कारण एक अलग पहचान मिल रही है। उनके बयानों का निशाना भले ही विपक्ष रहता हो,लेकिन अक्सर जब-तब वे अपनी ही पार्टी और सरकार के लिए मुश्किले पैदा करने से नहीं चूकते। उनके बयान कभी-कभी इतना बखेड़ा खड़ा कर देते हैं कि बचाव में खुद प्रधानमंत्री मनमोहन को बयान देना पड़ता है। यह और बात है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी या राहुल की ओर से उन्हें बयानबाजी करने के अभी तक नहीं रोका गया है।

आज दिग्विजय सिंह राहुल गांधी के मार्गदर्शक की तरह हैं। वे उन्हें राजनीति का ज्ञान दे रहे हैं। राहुल गांधी ने उन्हें उत्तर  प्रदेश की पूरी जिम्मेदारी सौंप दी है। नोएडा में राहुल की यात्रा आयोजित करवाने में उनकी खास भूमिका रही। दिग्गी राजा का राजनीतिक एजेंडा भी काफी विशाल है। वे न केवल राहुल गांधी के माध्यम से पार्टी में अपनी जगह बनाने में जुटे हैं,बल्कि देश की राजपूत राजनीति में पैदा हुई नेतृत्व की शून्यता को भी  भरना चाहते हैं।

मध्य प्रदेश के एक छोटे से इलाके राघोगढ़ के ठिकानेदार और 400-500घरों के मुखिया के रूप में जाने जानेवाले इस राजपूत नेता को आगे लाने में दिवंगत अर्जुन सिंह ने अहम भूमिका निभायी थी। अर्जुन सिंह के खेमे के मुताबिक दिग्विजय सिंह उनके यहां आने वालों को पानी पिलवाने तक का काम करते थे। लेकिन एक समय ऐसा आया कि उन्होंने अपने गुरू से ही पानी भरवा कर उन्हें राज्य की राजनीति में बेसहारा छोड़ दिया। जो स्थिति कभी अर्जुन सिंह ने राजीव गांधी के दरबार में हासिल की थी, वही आज राहुल गांधी के यहां दिग्विजय की है।

मध्य प्रदेश में लगातार दो बार सरकार बनाने के बाद जब इस इंजीनियर के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया तो उसकी सारी सोशल इंजीनियरिंग फेल हो गयी। कंप्यूटर नेटवर्क ही गांव तक को जोड़ देने वाले दिग्विजय शहरों तक को पानी,बिजली,सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाने में असफल रहे और उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा की सभा का छींका फूट गया। कांग्रेस 2003के विधानसभा चुनाव में 230 में से महज तीन दर्जन सीटे ही जीत पायी।

इस हार के बाद दिग्विजय सिंह ने दस साल तक कोई पद न लेने का ऐलान कर दिया और दिल्ली में डेरा डाल दिया। अंबिका सोनी और अशोक गहलोत की परिक्रमा करके केंद्र में महासचिव बने। अहमद पटेल ने पुराने रिश्तों को ध्यान में रखते हुए उनकी विशेष मदद की और असम का प्रभारी बना दिया। दिल्ली में आने के बाद दिग्विजय सिंह को यह भांपने  में देर नहीं लगी कि कांग्रेस का भविष्य तो राहुल गांधी के हाथों में है। वे हर रोज नोट बना कर भेजने लगे कि किस मसले पर पार्टी का क्या रुख होना चाहिए। राहुल गांधी ने उन्हें उत्तर  प्रदेश का प्रभारी बनवा दिया और संयोग से कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में अच्छी खासी सीटें मिल गयी। इसका श्रेय दिग्विजय को मिला। फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

एक समय था जबकि देश में अनेक राजपूत नेता हुआ करते थे। इनमें चंद्रशेखर,  भैरोसिंह शेखावत,अर्जुन सिंह खासे अग्रणी थे। भैरोसिंह शेखावत की राजपूतों में लोकप्रियता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि जब उन्होंने उपराष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा तो तमाम दलों के राजपूत सांसदों ने उन्हें दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर अपने वोट दिये और वे भाजपा और उनके सहयोगी दलों के अलावा 32 अतिरिक्त वोट हासिल करने में कामयाब हो गये। ये तीनों राजपूत नेता अब इस दुनिया में नहीं है।

भाजपा में राजनाथ सिंह राजपूत होने के बावजूद उत्तर प्रदेश तक में पार्टी का जनाधार बना पाने में नाकाम रहे। उन्होंने तो जानेमाने डॉन राजा भैया के  बारे में सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया था कि राजा भैया कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन देशद्रोही नहीं हो सकते। समाजवादी पार्टी से अलग होने के बाद अमर सिंह ने भी  खुद को राजपूतों का नेता साबित करने की कोशिश की, लेकिन वे दलालों के नेता होने की छवि से आज तक मुक्त नही हो पाये हैं। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि उन्होंने हर दल में अपने दुश्मन पैदा कर लिये हैं। ऐसे में दिग्विजय सिंह के लिए राजनीति का मैदान खाली पड़ा है।

कांग्रेस के बुजुर्ग नेता याद दिलाते हैं कि एक समय था जब पहले संजय गांधी और बाद में राजीव गांधी को राजपूत नेता अपने मोहपाश में जकड़ने में कामयाब हो गये थे। संजय गांधी के समय में संजय सिंह, वीरभद्र सिंह, वीर बहादुर सिंह, अर्जुन सिंह, वीपी सिंह सरीखे नेताओं का अभ्युदय हुआ। वीपी सिंह की राजीव गांधी से निकटता कितना ज्यादा थी,यह तथ्य भी किसी से छिपा नही है। यह बात अलग है कि बाद में उन्होंने ही राजीव गांधी की सरकार के पतन में अहम भूमिका अदा की। वीपी सिंह के बारे में राजीव गांधी ने वोट क्लब की रैली में कहा था कि उन्हें इस बात का खेद है कि पार्टी में ‘जयचंद’घुस गये हैं। अर्जुन सिंह को तो उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए पूरी पार्टी की ही जिम्मेदारी सौंप दी थी।

दिग्विजय सिंह को लगता है कि नेतृत्व-शून्यता वही भर सकते हैं। इसके साथ ही उनकी नजर मुस्लिम वोट बैंक पर भी  है। कांग्रेस के कुछ नेताओं का मानना है कि दिग्विजय सिंह जो कुछ कर रहे हैं,उसके पीछे सोनिया और राहुल गांधी को पूरी सहमति है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कामकाज से नाखुश यह परिवार यूपीए सरकार के लगाता घोटालों में घिरते जाने के कारण बेहद परेशान है। उनका मानना है कि अगर समय रहते कदम नहीं उठाये गये तो कांग्रेस को बहुत ज्यादा नुकसान होगा। इसलिए वे उनकी निर्भरता  दिग्विजय सिंह पर बढ़ती जा रही है।

दिग्विजय सिंह के करीबियों के मुताबिक उन्होंने हाईकमान को यह सलाह दी है कि सरकार के भ्रष्टाचार और घोटालों से ध्यान हटाने के लिए जरूरी है कि विपक्ष का ध्यान और ऊर्जा कही और केंद्रित की जाये। असली मुद्दों से विपक्ष को भटकाने के लिए ही वे ऐसे बयान दे रहे हैं,जिनसे कि विपक्ष खंडन-मंडन में ही फंस कर रह जाये। उनका दावा है कि इस काम में दिग्गी राजा को महारत हासिल है। जिस नेता ने माधव राव सिंधिया, अर्जुन सिंह, विद्या चरण शुक्ल सरीखे धुरंधरों को मध्य प्रदेश की राजनीति में धूल चटाने में कामयाबी हासिल की हो,उसके लिए विपक्ष को उलझाना कोई मुश्किल काम नहीं है। वे बताते हैं कि इसके साथ ही उनका लक्ष्य अहमद पटेल हैं। उनका मानना है कि राजनीति के शीर्ष पर पहुंचने में बड़ी उनके लिए अंतिम बाधा साबित हो सकते हैं।

द पब्लिक एजेंडा से साभार   

भगत सिंह मामले में खुशवंत सिंह की सफाई

आज दैनिक हिंदुस्तान अख़बार में खुशवंत सिंह ने अपने पिता पर लग रहे आरोपों का जवाब देने की कोशिश की है. पिछले दिनों जनज्वार ने यह मुद्दा तीसरा स्वतंत्रता आन्दोलन के नेता गोपाल राय के लेख 'भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले को सम्मान'  के जरिये प्रमुखता से उठाया था...

खुशवंत सिंह

कुछ वक्त पहले मैंने नई दिल्ली बनाने वालों पर लिखा था। उनमें पांच लोग खास थे। मेरी शिकायत थी कि उनमें से किसी के नाम पर दिल्ली में सड़क नहीं है। तब तक मुझे नहीं पता था कि मनमोहन सिंह ने शीला दीक्षित को इस सिलसिले में एक चिट्ठी लिखी है। उनकी गुजारिश थी कि विंडसर प्लेस को मेरे पिता शोभा सिंह के नाम पर कर दिया जाए।

उसके बाद एक किस्म का तूफान ही आ गया। कई लोगों ने विरोध जताया कि मेरे पिता तो ब्रिटिश सरकार के पिट्ठू थे। मैंने उस पर कुछ भी नहीं कहा। जब कुछ अखबारों ने उनका नाम भगत सिंह की सजा से जोडा, तो मुझे तकलीफ हुई। सचमुच, उस खबर में कोई सच नहीं था।
दरअसल, शहीद भगत सिंह और उनके साथियों ने इंस्पेक्टर सांडर्स और हेड कांस्टेबल चन्नन सिंह की हत्या की थी। वे इन दोनों से लाला लाजपत राय का बदला लेना चाहते थे। लाहौर में लालाजी की हत्या में उनका हाथ था।

उसके बाद भगत सिंह और उनके साथी हिन्दुस्तान की आजादी के आंदोलन को दुनिया की नजरों में लाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने तय किया कि संसद में हंगामा करेंगे। और फिर अपनी गिरफ्तारी दे देंगे। ठीक यही उन्होंने किया भी।

ये लोग दर्शक दीर्घा में जा बैठे। वहीं मेरे पिता भी बैठे थे। संसद में बहस चल रही थी। और वह खासा उबाऊ थी। सो मेरे पिता ने अखबार निकाला और उसे पढ़ने लगे। अचानक पिस्टल चलने और बम के धमाके की आवाज सुनी। वहां बैठे बाकी लोग भाग लिए। रह गए मेरे पिता और दो क्रांतिकारी।

जब पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने आई, तो उन्होंने कोई विरोध नहीं किया। मेरे पिता का जुर्म यह था कि उन्होंने कोर्ट में दोनों की पहचान की थी। दरअसल, मेरे पिता ने सिर्फ सच कहा था। सच के सिवा कुछ नहीं। क्या सच कहना कोई जुर्म है? फिर भी मीडिया ने शहीदों की फांसी से उन्हें जोड़ दिया। सचमुच उनका क्रांतिकारियों की फांसी से कोई लेना-देना नहीं था। यह एक ऐसे आदमी पर कीचड़ उछालना है, जो अपना बचाव करने के लिए दुनिया में नहीं है।



 

प्रेमचंद को याद करने के मायने


आज कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद की 131वीं जयंती है। आइए इस मौके पर कुछ ज़रूरी बातें कर लें... प्रेमचंद को याद करने का मतलब है अपने समय की सच्चाई से रूबरू होना, उनसे मुठभेड़ करना। आज के यथार्थ को उकेरना। लेकिन आज का लेखक इसी सच्चाई से मुंह चुरा रहा है। सत्ता से और ज़्यादा करीब होने की होड़ में अपना कलम गिरवी रख रहा है..

मुकुल सरल

मुंशी प्रेमचंद को याद करने का क्या मतलब है? क्या मायने हैं? क्या महज़ एक रस्म अदायगी...कुछ रोना-गाना कि हाय मुंशी जी को भुला दिया गया, कि हाय उनका स्मारक अधूरा रह गया...कि लमही में यूं न हुआ, कि गोरखपुर, प्रतापगढ़ या इलाहाबाद में यूं न हुआ। या इससे अलग कुछ और...क्या मतलब है प्रेमचंद के होने या न होने का, उन्हें याद करने का।
प्रेमचंद को याद करने का मतलब है उस ग्रामीण भारत को याद करना जो उनकी कहानियों और उपन्यासों के केंद्र में रहा। उस ग्रामीण भारत को जिसकी दशा आज भी नहीं बदली।

भूमंडलीयकरण और आर्थिक उदारीकरण के दौर में जिस गांव को बर्बाद करने की पूरी तैयारी है। उस ग्रामीण भारत को जानना, उसकी आवाज़ बनना...यही है प्रेमचंद को याद करना।

प्रेमचंद को याद करने का मतलब है अपने समय की सच्चाई से रूबरू होना, उनसे मुठभेड़ करना। आज के यथार्थ को उकेरना। लेकिन आज का लेखक इसी सच्चाई से मुंह चुरा रहा है। सत्ता से और ज़्यादा करीब होने की होड़ में अपना कलम गिरवी रख रहा है।

आज प्रेमचंद का होरी आत्महत्या कर रहा है। आज की ही ख़बर है कि बुंदेलखंड के हमीरपुर में कर्ज़ से परेशान एक किसान ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। विदर्भ का उदाहरण हम सबके सामने है ही। कमोबेश पूरे देश में यही स्थिति है। कृषि प्रधान व्यवस्था बर्बाद की जा रही है।

किसान कर्ज़ के जाल में फंस गया है। कहीं सूखे ने उसे मार डाला है, कहीं बाढ़ ने। कहीं विकास के नाम पर उसकी ज़मीन सस्ते में छीनी जा रही है और बड़े-बड़े बिल्डरों और कंपनियों को कॉलोनी और मॉल बनाने के लिए दी जा रही है। जिससे वे भारी मुनाफा कमा सकें। भट्ठा-पारसौल से लेकर टप्पल तक यही हुआ। और ये सब कौन कर रहा है हमारी सरकारें। जो गांव और किसान के नाम पर सत्ता में आती हैं।

गोबर गांव से पलायन कर रहा है। धनिया की सुध लेने वाला कोई नहीं। ऐसे दौर में प्रेमचंद को याद करना इस स्थिति के खिलाफ कलम उठाना है, कदम बढ़ाना है।

प्रेमचंद को याद करना उस सांप्रदायिक एकता को भी याद करना है जिसकी उन्होंने पुरज़ोर वकालत की। उस उर्दू-हिन्दी के एका को याद करना है जिसने उनकी कलम को बेमिसाल बना दिया। लेकिन जिसके खिलाफ आज सांप्रदायिक ताकतें बंटवारे की राजनीति कर रही हैं।

दरअस्ल प्रेमचंद को याद करना साहित्य की उस प्रगतिशील धारा की मशाल को जलाए रखना है जिसकी रौशनी में ही नये भारत का निर्माण संभव है।




मीडिया मंडी का नया माल बन गया ‘बेशर्मी मोर्चा’

मन में सवाल उठ रहा था कि राष्ट्रीय मीडिया के लिए स्लट वॉक कहीं मंडी में आया ताजा माल तो नहीं, जिसको बेचने के लिए एक-एक न्यूज चैनल से तीन-तीन पंसारी पहुंचे हुए हैं...

भूपेंद्र सिंह


महिलाओं के हक और समान अधिकार के लिए दुनिया के कई देशों में निकाली जा चुकी स्लट वॉक आज दिल्ली के जंतर-मंतर में आयोजित हुआ। पिछले कई महीनों से जिस स्लट वॉक या उसके भारतीय रूपांतरण ‘बेशर्मी मोर्चा’ को लेकर मुख्यधारा की मीडिया में खबरें आ रही थीं, आज उस बेशर्मी मोर्चा में शामिल युवक-युवतियों ने जंतर-मंतर पर एकत्रित होकर पार्लियामेंट स्ट्रीट का चक्कर लगाया।

बमुश्किल 300 लोगों के झुंड को कवर करने के लिए 30 से ज्यादा न्यूज चैनलों की ओवी वैन आयोजकों से पहले जंतर-मंतर पहुंच चुकी थीं। भीड़ देखकर ऐसा लगा कि पत्रकारों और फोटोग्राफरों की संख्या भी 300 के आसपास ही रही होगी। मन में बस यही सवाल उठ रहा था कि राष्ट्रीय मीडिया के लिए क्या यह इतना बड़ा आयोजन है कि एक-एक न्यूज चैनल से स्टल वॉक कवर करने के लिए तीन-तीन पत्रकार भेजे गये हैं। कम कपड़े में आयी लड़कियों के शरीर फोकस होते कैमरों को देख लगा कि यह मुद्दा है या मीडिया मंडी में आया ताजा माल, जिसमें मुनाफा बाइडिफाल्ट है।

आयोजक उमंग सबरवाल और एक प्रदर्शनकारी : अधिकार की लड़ाई  

यह बात परेशान करने वाली थी कि जब मीडिया के कैमरे लोगों के झुंड में उन लड़कियों को ढूंढ़ रहे हैं जिन्होंने कम कपड़े पहने हैं, तो हम ऐसे आयोजन करके समाज के लोगों की सोच में कैसे बदलाव की बात कैसे कर सकते हैं कि छोटे कपड़े पहनकर कोई लड़की सड़क पर गुजरेगी तो उसकी ओर कोई मुड़कर नहीं देखेगा या कमेंट नहीं करेगा। ऐसे में समाज में परिवर्तन की बात करना क्या बेमानी नहीं है? एक और बात जो मुझे यहां हैरान कर रही थी वह यह कि इस मोर्चे में भाग लेने के लिए लड़कियों से ज्यादा संख्या लड़कों की थी।

यह स्लट वॉक कई चैनलों के लिए अपनी ब्रांडिंग का जरिया भी था, जो जाहिर कर रहा था इनके लिए मामला तभी मुद्दा है जब वह मंडी के मुनाफे में चार चांद लगाता हो। और यह कूवततो बेशर्मी मोर्चा में है- तेज एंकरों, रिपोर्टरों और संपादकों ने ताड़ लिया है। एक न्यूज चैनल की वरिष्ठ एंकर तो बाकायदा जंतर-मंतर पर टॉक शो आयोजित करने के लिए घंटों से तैयारी में जुटी हुयी थीं और चैनल के नाम का होर्डिंग का एक घेरा बनाकर वॉक के आयोजकों का टाक शो में शामिल होने का इंतजार कर रही थी।

वहीं युवाओं के बीच यूथ चैनल के नाम से लोकप्रिय एक चैनल ने तो इस वाक में शामिल होने वाले युवक-युवतियों को टी-शर्ट पहनायी हुयी थी, जिसके पीछे बेशर्मी मोर्चा और चैनल का नाम लिखा था। एक एफएम चैनल के आरजे भी यहां पहुंचे हुए थे। कहने की जरूरत नहीं कि उनका यहां आने का मकसद अपने-अपने चैनल या एफएम की ब्रांडिंग का अवसर हाथ से न जाने देने वाला अवसर था। अंग्रेजी बोलने वाले और आईफोन इस्तेमाल करने वाले इन युवक-युवतियों ने जब अपनी वाक शुरू की तो न्यूज चैनलों के कैमरे इनकी ओर ऐसे लपके जैसे कोई शिकारी शिकार के लिए झपटता है।

मीडिया ने बेशर्म मोर्चा की रैली को इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया कि दिल्ली पुलिस के साथ-साथ सीआरपीएफ के जवान भी मौके पर तैनात करने पड़े। जिस तरह जंतर-मंतर पर मौजूद न्यूज चैनलों के रिपोर्टर कैमरे के सामने खबरें प्रस्तुत कर रहे थे उन्हें देखकर मैं यह सोचकर हैरान हो रहा था कि घर में बैठा एक आम दर्शक सोच रहा होगा कि पता नहीं कितना हुजूम उमड़ा होगा। लेकिन हकीकत में मुझे यह कुछ बड़े घरों के लड़के-लड़कियों द्वारा पश्चिमी देशों में निकाली गयी स्लट वाक से प्रभावित होकर कुछ अलग करने से ज्यादा नहीं लगा।

अब बात जरा इस मोर्चे की आयोजक की भी कर ली जाये। आयोजक उमंग सब्बरवाल सफेद टी-शर्ट और जींस में दिखीं, जबकि वाक में शामिल कुछ लड़कियां स्कर्ट और शार्ट्स पहनकर पहुंची थीं। कई दंपत्ति भी इस वाक का हिस्सा बनने पहुंचे थे। पूछने पर पता चला कि संडे का दिन था, सोचा कुछ अलग इवेंट हो रहा है तो इसमें शामिल हुआ जाये तो चले आये। दो महीने की जद्दोजहद के बाद मात्र कुछ सौ लोगों को देखकर मैं यह सोचने लगा कि यदि मीडिया ने इसे इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं किया होता तो शायद इतने लोग भी नहीं जुटते।

'खाप' का आईना देख बौखलाए चौधरी


अजय सिन्हा ने साहस करके खाप पंचायतों के क्रूर चेहरे और ऑनर किलिंग के ज्वलंत मुद्दे पर फिल्म बनाकर साहस का काम किय है। सिनेमा के व्याप्क प्रचार, प्रसार और असर से घबराई खाप पंचायते ये कभी नहीं चाहेंगी कि उनकी असलियत दुनिया के सामने आये...

आशीष वशिष्ठ

अजय सिन्हा निर्देशित फिल्म ‘खाप-ए स्टोरी ऑफ ऑनर किलिंग’ ने पिछले हफ्ते देश भर के सिनेमाघरों में दस्तक दी है। लेकिन हरियाणा में इस फिल्म को लेकर खासा विरोध चल रहा है। हरियाणा से भड़की विरोध की चिंगारी पष्चिमी उत्तर प्रदेश  के कई जिलों तक फैल चुकी है। अजय सिन्हा ने सिने दर्शकों के लिए एक मनोरंजन फिल्म बनायी है जिसमें, डांस है, ड्रामा है, रोमांस है, एक्शन है। इसमें  हर हिंदी फिल्म की तरह एक लवस्टोरी को दिखाया गया है जिसे समाज की स्वीकृति नहीं मिलती है और उस स्टोरी का दर्दनाक अंत हो जाता है।

ये तो हर प्रेम कहानी  में होता है। पिछले कई दशकों से ये ही होता आ रहा है लेकिन अजय सिन्हा की फिल्म में ऐसा क्या है जिससे हरियाणा और पष्चिमी उत्तर प्रदेश की खाप पंचायत एक दम से उखड़ गयी है। और वो इस फिल्म का विरोध और  फिल्म के षो रूकवाने पर उतारू है। लेकिन इस लो बजट की फिल्म के विरोध ने देश भर के सिनेमाघरों की सीटों को जरूर पहले शो के लिए हाउसफुल कर दिया है। फिल्म की पृष्ठभूमि दिल्ली व आसपास के इलाके पर आधारित है।

ऑनर किलिंग के विषय पर आधारित फिल्म खाप रुढ़िवादी पीढ़ियों द्वारा बनाई गयी एक प्रथा का विरोध करती है। फिल्म में दो प्रेमी दिखाये गये हैं। कहानी रिया (युविका चौधरी) ओर कुश(सरताज) के इर्द-गिर्द धूमती है जो एक-दूसरे से प्यार करते हैं। रिया के पिता मधुर (मुनीश बहल) ने 16 साल पहले अपने दोस्त के ऑनर किलिंग के नाम पर की गई हत्या के बाद गांव छोड़ दिया था। वही दूसरी तरफ खाप पंचायत का मुखिया (ओम पुरी) रिया के दादा हैं और ओम पुरी इस बात से अनजान है।

कहानी में ट्वीस्ट तब आता है जब गांव में फिर ऑनर किलिंग के नाम पर एक प्रेमी जोड़े की हत्या हो जाती है और प्रशासन इसकी जांच के लिए रिया के पिता मधुर को ही गांव भेजता है। रिया की शादी कुश से हो जाती है लेकिन दोनों ही इस बात से अनजान होते हैं कि वे एक ही खाप से संबंध रखते हैं। यहां से उनके और परिवार वालों के लिए मुश्किलें शुरू हो जाती हैं। ढ़ी भला खाप पंचायत की बातों को क्यों माने? लेकिन इस बीच ऑनर किलिंग की भयावह घटनाएं दोनों को सहमा देती हैं। खैर, फिल्म का अंत सकारात्मक है। आखिर में जीत कुश और रिया की ही होती है।

फिल्म खाप में ऑनर किलिंग जैसे मुद्दे को केंद्र में जरूर रखा गया है, परंतु इसकी अहमियत एक मसाला फिल्म जितनी ही है। फिल्म में बहुत कुछ कहने की कोशिश की गई है, लेकिन फिल्म के कथ्य के सरलीकृत स्वरूप ने दिक्कत पैदा कर दी है। हां खाप पंचायत के बारे में बहुत सारी जानकारी इससे मिल सकती है। हरियाणा, यूपी व अन्य राज्यों के गांवों में परंपरा और इज्जत के नाम पर होने वाली जघन्य हत्याओं की कहानी है फिल्म खाप। फिल्म ने गांवों में सदियों पुरानी परंपरा के नाम पर होने वाली ऑनर किलिंग को दिखाया गया है।


जिस तरह हरियाणा और पष्चिमी उत्तर प्रदेष में फिल्क का व्याप्क तौर पर विरोध हो रहा है उससे  ये संकेत मिलते हैं कि खाप को भी इस बात का अंदेशा है कि उसके फैसले कहीं ना कहीं गलत होते हैं। उसके तुगलकी फरमान से लोग को काफी तकलीफ होती है। हरियाणा की खाप पंचायत ने फिल्म की रिलीज को रूकवाने के लिए एड़ी चोटी का दम लगाया था, लेकिन लाख कोषिषों के फिल्म रिलीज हो गई।

असल में खाप पंचायतों को कहीं ना कहीं ये डर सता रहा था क कि खाप फिल्म से उसका वो घिनौना सच लोगों के सामने ना आ जाये जिसे खाप पंचायत सही मानती है। और कहीं ऐसा न हो कि फिल्म देखने के बाद लोग खाप पंचायतों के विद्रोह पर उतर आयें। गौरतलब है कि पिछले साल के रिकार्ड के मुताबिक हरियाणा में सबसे ज्यादा ऑनर किलिंग के मामले सामने आये है। जिसके लिए काफी हद तक खाप पंचायत के तुगलकी फरमान जिम्मेदार है। लेकिन खाप पर इन बातों का कोई असर नहीं होता है।

अजय  सिन्हा ने साहस करके खाप पंचायतों के क्रूर चेहरे और ऑनर किलिंग के ज्वलंत मुद्दे पर फिल्म बनाकर साहस का काम किय है। सिनेमा के व्याप्क प्रचार, प्रसार और असर से घबराई खाप पंचायते ये कभी नहीं चाहेंगी कि उनकी असलियत दुनिया के सामने आए, ऐसे में आने वाले दिनों में ‘खाप’ का विरोध तेज होगा, आखिरकर सच का सामना करने की हिम्मत हर एक में नहीं होती है। खाप पंचायते अपनी सच्चाई सिल्वर स्क्रीन के बड़े पर्दे पर देखकर हैरान, परेशान और घबराई हुई है ।

 


प्रेमचंद की प्रासंगिकता का सवाल पुराना है !

 प्रेमचंद (31 जुलाई, 1880 - 8 अक्टू्बर, 1936)
  
 भीमसेन त्यागी

प्रेमचंद की प्रासंगिकता का सवाल पुराना है। अपने जीवन काल में ही वह और उनका साहित्य विवादों के घेरे में आ गए थे और उनकी प्रासंगिकता पर प्रश्र चिह्न लगने शुरू हो गए थे। ठाकुर श्रीनाथ सिंह जैसे कई यश पीडि़त लोगों ने विवाद खड़े किए। तब से यह सिलसिला आज तक जारी है।

इस सवाल के कई चेहरे हैं। प्रेमचंद प्रासंगिक हैं या नहीं? हैं तो क्यों? किस हद तक? और नहीं तो क्यों नहीं?
प्रेमचंद के देहावसान के बाद उनके विरोध की नदी में बाढ़ आ गई। उस समय जो लेखक सृजनरत थे, उनमें से किसी का भी कद प्रेमचंद के निकट नहीं पहुंचता था। उस शिखर व्यक्तित्व के सामने खड़े रह सकने का एक ही विकल्प था यदि वे प्रेमचंद की ऊंचाई तक नहीं पहुंच सकते तो उन्हें घसीट कर छोटा बना दें!

प्रेमचंद के परवर्ती उन लेखकों में प्रमुख थे जैनेंद्र कुमार और सच्चिदानंद वात्सयायन अज्ञेय। इन दोनों और इनकी शिष्य परंपरा के अन्य लेखकों तथा समीक्षकों ने कभी अप्रत्यक्ष तो कभी प्रत्यक्ष आरोप लगाये कि प्रेमचंद कलाकार नहीं, केवल मुंशी थे। ज्यादा से ज्यादा उन्हें समाज सुधारक माना जा सकता है। उनका लेखन तात्कालिक समस्याओं पर आधारित है। उसमें स्थायित्व नहीं, शाश्वतता नहीं। ऐसा लेखन अल्पजीवी होता है। समस्याओं के समाधान के साथ-साथ अप्रासंगिक हो जाता है।

प्रेमचंद नियोजित ढंग से लिखते थे। हर बड़ी रचना का आरंभ करने से पहले उसका विस्तृत प्रारूप तैयार करते थे। जैनेंद्र ने उनकी इस रचना प्रक्रिया पर भी टिप्पणी की- इस प्रकार की सायास चेष्टा से श्रेष्ठ साहित्य नहीं लिखा जा सकता। श्रेष्ठ साहित्य तो सहज तथा स्वत: स्फूर्त होता है!

एक तरफ प्रेमचंद के परवर्ती लेखक समीक्षक उनके खिलाफ जिहाद करके उनका कद छोटा करने की कोशिश कर रहे थे और दूसरी तरफ उनकी सहज तथा आत्मीय रचनाएं विशाल पाठक समूह के गले का हार बनती जा रही थीं। परवर्ती लेखक तथा समीक्षक प्रेमचंद को खारिज करते रहे और पाठक स्वीकार करते गए। अंतत: साहित्य का निर्णायक और सृजेता का असली माई-बाप तो पाठक ही है। उनकी प्रासंगिकता पर बार-बार प्रश्रचिह्न लगाया जाना, स्वयं उनकी प्रासंगिकता का प्रमाण है। जो लेखक सचमुच प्रासंगिक नहीं बन पाता या नहीं रह जाता, समय उसे बिना किसी शोर शराबे के इतिहास के कूड़ेदान में ढकेल देता है। आज कोई यह सवाल नहीं उठाता कि जैनेंद्र प्रासंगिक हैं या नहीं ? अज्ञेय प्रासंगिक हैं या नहीं? इलाचंद्र जोशी प्रासंगिक हैं या नहीं? भगवती चरण वर्मा प्रासंगिक हैं या नहीं? मोहन राकेश प्रासंगिक हैं या नहीं? और इन सबके साथ चलने वाली समीक्षकों की कतार प्रासंगिक है या नहीं? सवाल उठता है तो सिर्फ एक प्रेमचंद प्रासंगिक हैं या नहीं?

प्रेमचंद बड़े लेखक थे। और बड़प्पन अपने साथ उदारता लाता है। प्रेमचंद ने कभी अपने विरोधियों को आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं दिया, बल्कि उनके प्रति स्नेहभाव बनाये रखा। जैनेंद्र अपनी कूट शैली में प्रेमचंद का विरोध कर रहे थे और प्रेमचंद ने जैनेंद्र के बारे में घोषणा कर की थी कि वह भारत के भावी गोर्की हैं। लेकिन समय बहुत क्रूर है। वह सबको छान देता है। प्रेमचंद की उदारताजनित भविष्यवाणी जैनेंद्र के किसी काम न आयी। अंतत: समय ने सिद्ध कर दिया कि यदि भारत के गोर्की कोई है तो केवल प्रेमचंद।

प्रश्र किसी एक लेखक की व्यक्तिगत कुंठा अथवा वैमनस्य का नहीं। यह अंतर चेतना के सूक्ष्म धरातल पर होता है। वर्ग विभाजित समाज में हर वर्ग अपनी वाणी को मुखरित करने के लिए अनायास अपने लेखक तैयार कर लेता है। या यों कहें कि लेखक का मानसिक परिवेश जिस वर्ग से जुड़ा होता है, वह अपने लेखन के माध्यम से सहज रूप से उसी वर्ग का हित साधन करता है।

मोटे तौर पर समाज में दो वर्ग हैं। एक सुविधाभोगी अथवा सुविधाकामी वर्ग है, जो अपने लिए अधिकतम सुविधाएं जुटाना चाहता है और इस नेक काम के लिए वृहत्तर समाज को खाद की तरह इस्तेमाल करता है। इस वर्ग के लिए साहित्य दिमागी अय्याशी का मयखाना होता है। इसके लेखक अपने समय के समाज से कटे हुए एकांतभोगी और अंतर्मुख होते हैं। वे अ’छी खासी सुखद स्थितियों में भी दुख खोजते रहते हैं। उनका रचना संसार स्वयं उनके भीतर की कुंठा तथा आत्मश्लाधा पीडि़त दंभ तक सीमित रहता है। अपने समय के समाज से उनका विशेष सरोकार नहीं होता है। सरोकार होता है तो सिर्फ इतना कि वे उस समाज को कैसे इस्तेमाल कर सकें। समाज उनके लिए वह दीवार होता है, जिस पर वे अपनी आत्ममुग्ध तस्वीर टांग सकें।

इसके विपरीत समाज का दूसरा वर्ग सुविधा वंचित और जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए संघर्षरत होता है। कबीर ने कहा है- ‘सुखिया सब संसार है खावै और सोबै, दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै।’ समाज का पहला वर्ग और उसके प्रतिनिधि लेखक सुखिया संसार है और दूसरा वर्ग तथा उसके लेखक दुखिया दास कबीर। प्रेमचंद कबीर की इसी औघड़ परंपरा के लेखक थे। उनका रचना संसार समाज के इस छोर से उस छोर तक फैला था। उस समाज के सारे दुख उनके अपने दुख थे। उनके भीतर न जाने कितने होरी और घीसू कुलबुला रहे थे। प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य इस दुख से साक्षात्कार का साहित्य है।

 साक्षात्कार के अतिरिक्त उस दुख के कारणों की गहरी खोजबीन समाज के विभिन्न वर्गों के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अंतर्संबधों की परख और उन्हें बेहतर बना सकने की ललक- ये सब प्रेमचंद की चिंता का विषय थे। वह शाश्वतता के पीछे न भाग कर सार्थक साहित्य के सृजन के पक्षधर थे। शाश्वतता सायास नहीं जुटायी जा सकती। समय की कसौटी पर कसा जाकर ही साहित्य शाश्वत होता है। उपरोक्त दोनों धाराएं आधुनिक हिंदी साहित्य में आरंभ से चली आ रही हैं। पहली धारा के लेखक प्रसाद, जैनेंद्र, अज्ञेय, भगवतीचरण वर्मा, निर्मल वर्मा, प्रियंवद आदि हैं तो दूसरी धारा के प्रतिनिधि लेखक हैं- प्रेमचंद, यथपाल, निराला, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, अमरकांत, भीष्म साहनी, शेखर जोशी, संजीव आदि। प्रेमचंद की परंपरा के इन लेखकों ने साहित्य को नये तेवर और नई पहचान दी है।

प्रेमचंद की एक बड़ी विशेषता यह है कि वह अपनी साहित्य यात्रा में निरंतर विकासमान रहे। ‘सेवासदन’ और ‘प्रेमाश्रम’ जैसे सुधारवादी उपन्यासों से शुरू करके ‘गोदान’ जैसे यथार्थवादी, कालजयी उपन्यास तक पहुंचे। इसी तरह कहानियों में ‘नमक का दरोगा’ जैसी आदर्शवादी कहानियों से शुरू करके ‘नशा’, ‘पूस की रात’, ‘बड़े भाई साहब’ और ‘कफन’ तक का लंबा सफर तय किया।

इसके विपरीत जो शाश्वत साहित्य को सृजन का दंभ भरते रहे, वे अपनी साहित्य यात्रा में निरंतर अधोगति को प्राप्त होते रहे। जैनेंद्र तमाम कोशिशों के बावजूद ‘त्यागपत्र’ को नहीं लांघ सके, अज्ञेय का शिखर ‘शेखर’ बन कर रह गया और भगवतीचरण वर्मा ‘चित्रलेखा’ के मोहपाश में ऐसे बंधे कि उससे बेहतर सृजन के लिए मुक्त नहीं हो सके।

प्रेमचंद का देहावसान 1936 में हुआ। उसके बाद के 18 वर्ष लेखकों तथा समीक्षकों द्वारा प्रेमचंद की घोर उपेक्षा के वर्ष थे। ‘मैला आंचल’ का प्रकाशन आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास की विस्फोटक घटना था। इसने संपूर्ण साहित्य परिदृश्य को बदल दिया। कुंठित तथा दमित व्यक्ति-मन की रचनाएं पृष्ठभूमि में चली गयीं और सामाजिक यथार्थ अपनी संपूर्ण गरिमा के साथ चर्चा के केंद्र में आ गया। यह वह बिंदु था, जहां से प्रेमचंद की प्रासंगिकता की खोज एक नये कोण से आरंभ हुई। उसके पश्चात प्रेमचंद परंपरा के लेखक निरंतर अपने समय के जलते हुए सवालों से जूझते रहे और उन्हें साहित्य में अभिव्यलक्तर करते रहे।

प्रेमचंद आम आदमी के लेखक थे और आम आदमी की तरह ही जीते थे। उनकी अपेक्षा दाल-रोटी और तोला भर घी तक सीमित थी। उनकी सादगी में ही महानता थी। ऐसा नहीं कि प्रेमचंद के जीवन में ऐसे अवसर नहीं आये कि वे सुविधाओं का भरपूर उपयोग कर सकें। लेकिन उन्होंने उन अवसरों की तरफ से आंख फेर ली। प्रेमचंद फिल्में लिखने के लिए मुंबई आये तो अच्छान-खासा कमा रहे थे। लेकिन मायानगरी का व्यावसायिक माहौल उन्हें रास नहीं आया। वह वापस बनारस लौट आये और अपने लेखन में रत हो गये।

एक तरफ प्रेमचंद की यह जीवन शैली थी और दूसरी तरफ आज का अदना से अदना लेखक वे सब सुविधाएं प्राप्त करना चाहता है, जो अमरीकी लेखक को सुलभ है।

प्रेमचंद साहित्य में ऐसे कौन से तत्व हैं, जो उसे कालजयी और आज भी प्रासंगिक बनाये हुए हैं? इस प्रश्र के मूल तक पहुंचने के लिए उन तत्वों की परख करनी होगी, जो किसी भी साहित्य को कालजयी बनाते हैं। पहला तत्व है- अपने समय की सही पहचान और उसे कलात्मक ढंग से वाणी देना। विश्व के सभी महान लेखक अपने समय के प्रति सचेत रहे। उन्होंने अपनी जनता के दुख-सुख को समझा और उसे कलात्मक अभिव्यक्ति दी। उनके समय को समझने के लिए इतिहास के शुष्क पन्ने उतनी मदद नहीं करते, जितनी कि उन महान लेखकों का साहित्य। वह साहित्य एक परंपरा के रूप में विकसित होता है और आने वाली पीढिय़ों को बीते समय से सबक लेकर अपने जीवन को ढालने और तराशने में मदद करता है। वह साहित्य शताब्दियों तक प्रासंगिक बना रहता है। इसी कारण वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, शेक्सपियर, टाल्सटाय, लू-शुन जैसे महान लेखक आज भी प्रासंगिक हैं। भारत में इस शताब्दी में वह काम जितने प्रभावी ढंग से प्रेमचंद ने किया, उतने प्रभावी ढंग से संभवत: और कोई लेखक नहीं कर सका।


(कथाकार और संपादक भीमसेन त्यागी का यह संपादकीय ‘भारतीय लेखक’ (जनवरी-मार्च, 2006) में प्रकाशित हुआ था। प्रेमचंद की प्रासंगिकता और उनके साहित्य‘ की विशेषताओं को समझने में यह सहायक है. उनका सम्पादकीय दुबारा अनुराग शर्मा के ब्लॉग 'लेखक मंच' पर प्रकाशित हुआ है. वहीँ से साभार लेकर उसका एक हिस्सा यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है. भीमसेन त्यागी अब हमारे बीच नहीं हैं.)