आज दैनिक हिंदुस्तान अख़बार में खुशवंत सिंह ने अपने पिता पर लग रहे आरोपों का जवाब देने की कोशिश की है. पिछले दिनों जनज्वार ने यह मुद्दा तीसरा स्वतंत्रता आन्दोलन के नेता गोपाल राय के लेख 'भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले को सम्मान' के जरिये प्रमुखता से उठाया था...
खुशवंत सिंह
खुशवंत सिंह
कुछ वक्त पहले मैंने नई दिल्ली बनाने वालों पर लिखा था। उनमें पांच लोग खास थे। मेरी शिकायत थी कि उनमें से किसी के नाम पर दिल्ली में सड़क नहीं है। तब तक मुझे नहीं पता था कि मनमोहन सिंह ने शीला दीक्षित को इस सिलसिले में एक चिट्ठी लिखी है। उनकी गुजारिश थी कि विंडसर प्लेस को मेरे पिता शोभा सिंह के नाम पर कर दिया जाए।
उसके बाद एक किस्म का तूफान ही आ गया। कई लोगों ने विरोध जताया कि मेरे पिता तो ब्रिटिश सरकार के पिट्ठू थे। मैंने उस पर कुछ भी नहीं कहा। जब कुछ अखबारों ने उनका नाम भगत सिंह की सजा से जोडा, तो मुझे तकलीफ हुई। सचमुच, उस खबर में कोई सच नहीं था।
दरअसल, शहीद भगत सिंह और उनके साथियों ने इंस्पेक्टर सांडर्स और हेड कांस्टेबल चन्नन सिंह की हत्या की थी। वे इन दोनों से लाला लाजपत राय का बदला लेना चाहते थे। लाहौर में लालाजी की हत्या में उनका हाथ था।
उसके बाद भगत सिंह और उनके साथी हिन्दुस्तान की आजादी के आंदोलन को दुनिया की नजरों में लाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने तय किया कि संसद में हंगामा करेंगे। और फिर अपनी गिरफ्तारी दे देंगे। ठीक यही उन्होंने किया भी।
ये लोग दर्शक दीर्घा में जा बैठे। वहीं मेरे पिता भी बैठे थे। संसद में बहस चल रही थी। और वह खासा उबाऊ थी। सो मेरे पिता ने अखबार निकाला और उसे पढ़ने लगे। अचानक पिस्टल चलने और बम के धमाके की आवाज सुनी। वहां बैठे बाकी लोग भाग लिए। रह गए मेरे पिता और दो क्रांतिकारी।
जब पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने आई, तो उन्होंने कोई विरोध नहीं किया। मेरे पिता का जुर्म यह था कि उन्होंने कोर्ट में दोनों की पहचान की थी। दरअसल, मेरे पिता ने सिर्फ सच कहा था। सच के सिवा कुछ नहीं। क्या सच कहना कोई जुर्म है? फिर भी मीडिया ने शहीदों की फांसी से उन्हें जोड़ दिया। सचमुच उनका क्रांतिकारियों की फांसी से कोई लेना-देना नहीं था। यह एक ऐसे आदमी पर कीचड़ उछालना है, जो अपना बचाव करने के लिए दुनिया में नहीं है।
सम्बंधित लेख - 'भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले को सम्मान'
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