विदेशों में जमा काले धन के मुद्दे को लेकर भारत में मची हाय-तौबा की आड़ में तमाम नेता,राजनीतिक दल तथा राजनीति में पदार्पण करने की इच्छा पालने वाले कई नए चेहरे इस विषय पर कुछ ज्यादा ही दलीलें पेश कर रहे हैं...
तनवीर जाफरी
भारतीय अर्थव्यवस्था,यहां व्याप्त गरीबी एवं बेरोज़गारी,कायदे-कानून तथा अपनी ज़रूरत के लिए विदेशी बैंकों से समय-समय पर कर्ज लेते रहने जैसे हालात नि:संदेह किसी भी भारतीय को इस बात की इजाज़त नहीं देते कि वह अपने धन को देश के बजाए विदेशी बैंकों में जाकर जमा करे। वह भी केवल इसलिए कि उसने नाजायज़ और गलत तरीके से धन इकट्ठा किया है। ऐसे लोग उस धन को दुनिया की नज़रों से सिर्फ इसलिए छुपाकर रखना चाहते हैं कि एक तो उनका धन सुरक्षित रह सके दूसरा,वह भारतीय वित्तीय कानूनों से बचे रह सकें और तीसरा,वह स्वयं को बदनामी से बचा सके।
पश्चिमी देशों के काला धन जमा करने वाले इन बैंकों में गोपनीयता बरकरार रखने के इतने ऊंचे पैमाने निर्धारित किए गए हैं कि अभी तक स्पष्ट रूप से किसी भी खातेदार का नाम और उसकी कुल जमाराशि का खुलासा नहीं हो पाया है। कल को विकीलीक्स जैसी वेबसाईट या खोजी पत्रकारिता के चलते कुछ नाम उजागर हो जाए तो यह अलग बात है। ऐसे बैंक 'काला धन'शब्द को भी अपने तरीके से परिभाषित करते हैं। भारत में पिछले कुछ महीनों से विदेशी बैंकों में जमा काले धन का मुद्दा बहुत गरमाया हुआ है। इससे ऐसा लगता है गोया इस विषय पर शोरगुल और हंगामा बरपाने वालों को इस बात का पता चल चुका हो कि किस व्यक्ति का कितना धन किस देश के किस बैंक में जमा है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत के आर्थिक हालात ऐसे नहीं हैं कि इस प्रकार के नकारात्मक आर्थिक वातावरण का सामना किया जा सके। इस विषय पर पूरी गंभीरता से काम किया जाना चाहिए तथा विदेशों में जमा काला धन यथाशीघ्र देश में वापस लाने के प्रयास करने चाहिए। इतना ही नहीं, ऐसे गैरकानूनी कामों में लिप्त लोगों को चाहे वह कितनी ही ऊंची हैसियत रखने वाले क्यों न हों उन्हें कानून के अनुसार सख्त सज़ा भी दी जानी चाहिए।
इनके नाम यथाशीघ्र उजागर किए जाने चाहिए, ताकि आम जनता यह समझ सके कि नेता, अभिनेता, अधिकारी, समाजसेवी या धर्मगुरु अथवा व्यापारी का लबादा ओढ़े हुए ये लोग वास्तव में वैसे नहीं है जैसे दिखाई देते हैं। साधु के भेष में छपे ये शैतान देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं। अवैध धन की जमाखोरी करने वाले यही वे लोग हैं जिनके कारण भारत को गरीब देश कहा जाने लगा है।
विदेशों में जमा काले धन के मुद्दे को लेकर भारत में मची हाय-तौबा की आड़ में तमाम नेता, राजनीतिक दल तथा राजनीति में पदार्पण करने की इच्छा पालने वाले कई नए चेहरे इस विषय पर कुछ ज्यादा ही दलीलें पेश कर रहे हैं। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने की कोशिशें हो रही हैं। इससे विदेशों से काला धन वापस लाने जैसा गंभीर मुद्दा मुख्य विषय से भटकता हुआ दिखाई देने लगा है। साफ ज़ाहिर होने लगा है कि इस मुद्दे को लेकर किए जाने वाले शोर-शराबे का मकसद विदेशों से काले धन की वापसी कम,राजनीतिक रूप से व्यक्ति विशेष या दल विशेष को बदनाम करना अधिक है।
अफवाह फ़ैलाने वाले लोग भलीभांति जानते हैं कि साधारण जनता अफवाहों पर जल्दी विश्वास कर लेती है। वर्ष 1986-1987 के मध्य का वह दौर राजनीतिज्ञों के लिए एक उदाहरण बन चुका है, जब स्वीडन की बोफोर्स तोप सौदे में कथित रूप से ली गई दलाली के मुद्दे पर केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार की चूलें हिल गई थीं। आरोप जडऩे तथा दूसरों को बदनाम करने में महारत रखने वाले तत्कालीन महारथियों ने राजीव गांधी, अमिताभ बच्चन, अजिताभ बच्चन सहित कई लोगों को अपने अनर्गल आरोपों के घेरे में ले लिया था। परिणामस्वरूप कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। भारत में गठबंधन सरकार का दौर उसी दुर्भाग्यशाली समय से ही शुरू हुआ।
लग रहा है कि आगामी संसदीय चुनावों से पूर्व एक बार फिर परोपेगंडा महारथियों द्वारा देश में वैसे ही हालात पैदा करने की कोशिश की जा रही है। मुख्य विपक्षी भारतीय जनता पार्टी बार-बार न केवल केंद्र पर यह आरोप लगा रही है कि वह काला धन मुद्दे पर कोई कार्रवाई नहीं करना चाह रही है, बल्कि इस विषय में छानबीन के लिए उसने एक टॉस्क फोर्स का गठन भी किया है।
भाजपा की इस टॉस्क फोर्स ने दावा किया था कि पूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी तथा कांग्रेस अध्यक्ष तथा यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गाँधी स्वयं विदेशों में काला धन जमा करने जैसे गंभीर और गैरकानूनी मामलों में लिप्त हैं। उनके कई विदेशी बैंकों में खाते हैं। यह टॉस्क फोर्स इस बात का पता करने का काम कर रही है कि किन-किन लोगों का किन-किन देशों के किन-किन बैंकों में कितना-कितना धन जमा है।
इस सिलसिले में अपना तथा स्व. राजीव गांधी का नाम लिए जाने पर सोनिया गाँधी ने भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को पत्र लिखा तथा अपने और अपने परिवार के ऊपर भाजपाईयों द्वारा लगाए जाने वाले इन आरोपों पर कड़ी आपत्ति जताई। सोनिया ने आडवाणी को लिखे पत्र में स्पष्ट रूप से लिखा कि किसी भी विदेशी बैंक में उनका कोई खाता नहीं है। सोनिया के पत्र के जवाब में आडवाणी ने भी शिष्टाचार का परिचय देते हुए उन्हें जवाबी पत्र लिखकर इस बात के लिए खेद जताया कि ''इस मामले में आपके परिवार का जि़क्र किया गया, इसके लिए मुझे खेद है। गांधी परिवार की ओर से इस तरह की सफाई पहले दी गई होती तो अच्छा रहता।''
आडवाणी का सोनिया गांधी से माफी मांगना या भाजपा द्वारा उनके विरुद्ध किए गए दुष्प्रचार के लिए खेद जताना तो निश्चित रूप से एक शिष्ट राजनीति का एक हिस्सा माना जा सकता है। शीर्ष नेताओं के बीच इस प्रकार की वार्ताओं, पत्रों और टेलीफोन पर होने वाली वार्ताओं की बातें कभी-कभी प्रकाश में आती रहती हैं। मगर बिना किसी ठोस प्रमाण, आधार या सूचना के इस प्रकार सोनिया गांधी, स्व. राजीव गांधी या किसी भी अन्य व्यक्ति को दुष्प्रचारित करना कहां की नैतिकता है। इसे किस प्रकार की राजनीति कहा जाना चहिए?
लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafri1@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.