Sep 6, 2007
विदर्भ के किसानों पर रिपोर्ट
कज्र के कब्रगाह में दफन किसान
अजय
विदर्भ की मिटटी अभी काली है जो हजारों किसानों की मौतों के बाद भी लाल नहीं हुई। इस वर्ष के बीते मात्र तीन महीनों में महाराष्टृ के विदर्भ से जिन 250 किसानों के मरने की सूचना है उन्होंने संविधान सम्मत भाषा में 'आत्महत्या ही की है। इसी के मददेनजर प्रधानमंत्री ने पिछले वर्ष कोलसरी गांव का दौरा कर 3750 करोड रूपये के विशेष पैकेज की घोषणा की। किन्तु किसानों की आत्महत्यायें रूकी नहीं, उल्टे घोषणा के बाद हजार से भी जयादा किसानों ने मौत को गले लगा लिया। जिसके बाद राज्य सरकार पैकेजों की पुर्नसमीक्षा करने के बजाय बयान देते फिर रही है कि विदर्भ के किसान आर्थिक कारणों से नहीं मनोवैज्ञानिक वजहों से आत्महत्या कर रहे हैं। सच यह है कि संसद में पेश किये गये सरकारी आंकडों के अनुसार 11,886 लोग आत्हत्या कर चुके हैं। सरकार भी मोटे तौर पर मानती है कि कर्ज और सूदखोरी आत्महत्याओं की मुख्य वजह है।
हाल ही में महाराष्टर में सम्पन्न हुए जिला परिषद चुनावों पर विदर्भ के किसानों की आत्महत्या के कांग्रेसी सरकार पर घातक असर को नकाते हुए मुख्यमंरी विलासराव देशमुख ने कहा था कि परिषदीय चुनावों पर आत्महत्या की घटनाओं का कोई असर नहीं होगा। लेकिन परिणाम आ चुके हैं और कांग्रेस को मुंह की खानी पडी है। मुख्यमंत्री के अनुसार विदर्भ में किसान आत्महत्याओं की जो खबरें आ रही हैं वह कुछ लोगों की साजिश और विरोधियों की चाल है। वैसे तो सरकार के बयानों में यह पूरा घटनाक्रम ही एक साजिश है जिसे आत्महत्या का नाम दिया जा रहा है। मुख्यमंत्री बिलासराव के हिसाब से किसान आत्महत्यायें आर्थिक कारणों से नहीं मनोवैज्ञानिक वजहों से कर रहे हैं। यही वजह है कि मुख्यमंत्री किसानों को योगासन करने तक की शिक्षा दे डालते हैं। अपनी सोच को कार्यरूप में तब्दील करने की फिराक में मुख्यमंत्री मां अमरतामयी के चरणों में पहुंच जाते हैं। मां अमरतमयी विदर्भ के किसानों को 200 करोड रूपये देने की घोषणा करती है। बदले में अमरतमयी कुछ नहीं चाहिए ऐसा भी नहीं है। अमरतमयी को अपना मठ बनाने के लिए जमीन की दरकार कहां है यह बात उजागर नहीं हो पायी है किन्तु पूर्व में संत रविशंकर की अमरावती के वरूण क्षेत्र में तथा यवतमाल के जरी ताल्लुके में बाबा आम्टे को सरकार ने जमीन दी है। बताया जाता है कि मुख्यमंत्री इन्दौर के भयू जी महाराज के अनन्य भक्त हैं। इतना ही नहीं हर साल राज्य सरकार औपचारिक-अनौपचारिक तरीके से संतों की यात्राओं में करोडों खर्च करती है और किसान हाय-हाय करके मरते हैं।
विदर्भ में प्रतिदिन हो रही तीन से चार किसानों की मौतें मुख्य रूप से बैंकों और सूदखोरों से लिये गये कर्ज को न चुका पाने की असंभव स्थिति के चलते हो रही है। आंकडों से पता चलता है कि बीते माह यानी मार्च में अब तक की सबसे ज्यादा आत्महत्यायें हुई हैं। विदर्भ में कुल ग्यारह जिलों में इन ज्वलंत तथ्यों को हकीकत न मानने वाली कांग्रेसी सरकार की बयानबाजियां तब फरेब लगती हैं जब सालाना बजट पेश होने की तारीख 22 मार्च को अमरावती और भण्डारा जिलों के तीन किसान आत्महत्या करते हैं। आत्महत्या करने वाले तीनों किसान दलित थे। इससे ठीक चार दिन पहले महाराष्टर के प्रमुख पर्व गुडीपाडवा के दिन भी यवतमाल और गुढना जिले के 6 किसानों ने आत्महत्या की थी। एक सर्वेक्षण के अनुसार आत्महत्या करने वालों में 95 प्रतिशत गरीब किसान हैं, इनमें भी बहुतायात संख्या दलितों की है।
अमरावती जिले से नांदगांव तहसील की तरफ बढते हुए रास्ते में सूखी मिटटी, बिना पानी के गडढे और दूर-दूर तक परती पडे खेतों ने उपरी तौर पर आभास करा दिया कि क्षेत्र में किसान आत्महत्याएं क्यों कर रहे हैं। मगर हकीकत जानने दि संडे पोस्ट संवाददाता गांवों में पहुंचा तो क्षेत्र में पानी की कमी आंशिक समस्या जान पडी और कर्ज आत्महत्याओं के मुख्य कारणों में सालों पहले शुमार हो चुका था।धवडसर गांव का दिलीप महादेव देवतडे पिछले साल अगस्त माह में ही विधुर हुआ है। उसके तीनों बच्चों में से सबसे छोटा 6 वर्षीय मनीष अभी भी अपनी मां का इंतजार कर रहा है कि उसकी मां मामा के गांव से हरबरा 'चना' लेकर आयेगी। हमारे पीछे-पीछे आये कुछ बच्चे तो कानाफूसी कर रहे थे कि तुम्हारे मामा आये हैं क्या। हम उस तालाब की तरु नजर दौडाते हैं जिसके किनारे टूट जाने के कारण देवतडे की पत्नी मंदा देवी को 4 एकड फसल बह गयी। मंदा सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकी उसने जहर खाकर खेत की मोड पर ही दम तोड दिया। देवतडे की मां बताती है कि फसल अच्छी होने के चलते पूरी उम्मीद थी कि दो साल पहले लिये गये 60 हजार के कर्ज में से कुछ वापस हो जायेगा। इसी भरोसे मौजूदा वर्ष में मंदा के कहने पर देवतडे ने कर्ज लिया था, जिसमें 15 हजार को आपरेटिव बैंक का है बाकी सूदखोरों का। गांव वालों के अनुसार 60 प्रतिशत किसान जहां सूदखोरों से कर्ज लेते हैं वहीं मात्र 40 प्रतिशत किसानों को ही बैंक कर्ज मुहैया कराते हैं।
चांदूर रेलवे तहसील के राजौरा गांव की सरपंच चन्दा रामदास चाकले बताती है कि बैंकों की नीतियां सूदखोरों के हित साधती है किसानों की नहीं। जिला सहकारी समिति के अनुसार एक एकड कपास पैदा करने में मात्र पांच हजार लागत आती है जबकि ग्राम पंचायत सदस्य राजेश वासुदेव निम्बरते बताते हैं कि यह लागत 10 हजार है। ऐसे में किसान पांच हजार बैंक से लेता है तो पांच हजार उसको साहूकार से लेना पडता है। व्यावहारिक सच्चाई यह है कि जिन किसानों ने बैंकों से पहले कर्ज ले रखा है उन्हें बैंक कर्ज देते ही नहीं हैं, जिस कारण सूदखोरों के चक्रव्यूह में फंसे रहना और न चुका पाने की स्थिति में खुद को समाप्त कर लेना ही किसानों के पास अंतिम विकल्प रह जाता है।इसी विकल्प को चांदूर रेलवे तहसील के मांझरखेड गांव के निवासी भीमराव यादवराव सोण्टके ने आजमाया।
सूदखोरों के यंगुल में फंसे किसान तडप रहे हैं और सरकार घोषणाओं से काम चला रही है। विदर्भ क्षेत्र में पिछले दो वर्षों से हो रहे घाटे के मददेनजर भीमराव ने जमीन ही बेच दी। जमीन के बदले मिले 80 हजार रूपये में बडे बेटे के लिए भीमराव ने एक आटो इस लालच में खरीदा कि कर्ज की भरपाई हो जायेगी। हाथ से जमीन जाने की चिंता, पुनाना कर्ज वसूलने के लिए सूदखोरों की बढती दबिश और आटो से अपेक्षित आमदनी न होने के कारण भीमराव तनाव में रहने लगा था। जब एक दिन 14 हजार रूपये वसूलने के लिए बैंक ने अपने कारिंदों को भेजा तो उनकी बात सुनकर भीमराव दहशतजदा हो गया। हमलोगों की घर में मौजूद बहू से हुई बातचीत से साफ हो गया कि सोण्डके ने आत्हत्या बैंक वालों की धमकी के चलते की।आत्महत्या के इस कारण को देखकर यह समझ में आ जाता है कि गरीब किसान अपनी छोटी-मोटी खेती छोड कोई नया धंधा शुरू करना चाहते हैं तो पुराने कर्ज जानलेवा साबित हो रहे हैं।
यह गौर करने लायक तथ्य है कि दि संडे पोस्ट संवाददाता ने विदर्भ के उन दो जिलों अमरावती और यवतमाल के चौदह गांवों का दौरा किया जहां दवा ही जहर बन रही है। मरने वाले ज्यादातर किसान जहर खाकर मर रहे हैं। हां इतना जरूर है कि आत्महत्या करने वाली महिलाओं की बडी संख्या जहां कुंए में कूदकर मरती है, वहीं तीस साल से कम के युवा आमतौर पर गले में फांसी लगाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर रहे हैं। मरने के लिए जहर खरीदना नहीं पडता बल्कि कपास और सोयाबीन के खेतों में डाला जाने वाला कीटनाशक, खरपतवार नाशक ही मौत का काम आसान कर देता है जो विदर्भ के हर किसान के घर में सहज उपलब्ध है।
चांदूर रेलवे तहसील के भूईखेड गांव में किनोलफास और मोनोक्रोटोफास खाकर पिछले चार सालों में तीन लोग मर चुके हैं। फिनोलफास कपास में डाला जाता है तथा मोनोक्रोटाफास सोयाबीन से लगने वाली सफेद मक्खी के खात्मे की दवा है। किसानों को खतरपतवार नाशकों और कीटनाशकों का प्रयोग इसलिए भी अधिक करना पडता है क्योंकि मासेण्टो और कारगिल बीज कंपनियों से पिछले दशकों में भारत सरकार ने जो गेहूं के बीज आयात किये उनके साथ विभिन्न तरह के खरपतवार आये।
निम्बा गांव के मनोहर मानिकराव देशमुख ने बीटी कॉटन की खेती की। बीटी काटन बोते ही खेती में निराई गुडाई का खर्च बढ गया क्योंकि पूरे खेत को गाजरगौंत नामक घास ने अपने आगोश में ले लिया था। देशमुख के बेटे माणिकराव निकटराव देशमुख ने बताया कि एक एकड कपास बोने में 4500 से 4700 रूपये की लागत आयी थी। किसान बताता है कि बीटी काटन बीज की खरीद 18 सौ रूपये किलो पडता है। इतना ही नहीं बीटी काटन अपने साथ तरह-तरह के खरपतवार लेकर आ रहा है जिसके चलते लागत की राशि बिक्री से भी ज्यादा पडती है। इलाकों के ज्यादातर किसानों से बातचीत में यह स्पष्ट ढंग से उभरकर सामने आया कि बीटी काटन की खेती करने वाले किसानों की आत्हत्याओं का प्रतिशत सवार्धिक है। परंपरागत बीजों से खेती करने वाले किसान इसलिए भी कम मरते हैं क्योंकि बीज की कीमत 400 से 600 के बीच ही होती है। तीन वर्षों से बीटी काटन बो रहे निम्बा गांव के मनोहर बागमोर इस बात का ज्वलंत उदाहरण है जिन्होंने इण्डोसल्फास खाकर आत्हत्या कर ली। बीटी काटन जहां एक तरफ महंगा पड रहा है वहीं वह परंपरागत बीजों के संरक्षण को तो नष्ट कर ही रहा है अपने को उत्पादित करने वाली मिटटी की उर्वरता को भी समाप्त कर रहा है बावजूद इसके सरकार ने बीटी काटन को प्रतिबंधित नहीं किया है।
अब तक हुयी आत्महत्याओं में 62 प्रतिशत अमरावती और यवतमाल जिले के किसान हैं। आत्महत्याओं का सिलसिला 1994 95 से शुरू हुआ जो आज सामूहिक का रूप ले चुका है। उल्लेखनीय है कि मरने वाले ज्यादातर किसान कपास और सोयाबीन पैदा करने वाले हैं। वैसे तो तुवर और गेहूं, ज्वार की भी खेती होती है किन्तु तत्काल मुनाफा देने वाली फसल कपास बोने का प्रचलन तेजी के साथ बढा है। प्रचलन बढने का एक कारण क्षेतर में लगातार विकराल होती पानी की समस्या है। कपास, सोयाबीन ऐसी फसलें हैं जिनका काली मिटटी से ज्यादा उत्पादन होता है और पानी की जरूरत बाकी फसलों के मुकाबले कम होती है। सरकार विदर्घ्भ को लेकर कितनी लापरवाह है इसका अंदाजा पिछले बारह सालों से लंबित बांधों की योजनाओं से लगाया जा सकता है। यह अलग पहलू है कि बांधों के बचने के बाद भी विदर्भ की बीस प्रतिशत जमीन असिंचित रहेगी। कारण कि उतनी उंचाई पर पानी पहुंचना फिलहाल की तैयारियों के हिसाब से असंभव होगा। अभी भी विदर्भ में 57 प्रतिशत खेती योग्य जमीन का ही उपयोग हो पाता है। यहां जितनी बारिश होती है उससे मातर पांच प्रतिशत भूमि ही सिंचित हो सकती है। रहा सवाल नलकूपों, कुओं या पंपिंगसेटों का तो कम से कम अमरावती और यवतमाल में असंभव जान पडता है क्योंकि यह क्षेतर वर्षों से रेन फेडेड घोषित है। हालांकि विदर्भ में नदियां भी हैं किन्तु बेमडा जैसी नदियां पानी की कमी के चलते साल के छह महीने सडक के रूप में इस्तेमाल होती है। इसके अलावा वर्धा, वैगंगा, कोटपूर्णा नदियों को नहरों से न जोडे जाने के कारण किसानों को लाभ नहीं पहुंच पाता।
इन तथ्यों पर ध्यान दें तो किसान जहां एक तरफ सिर के बल खडी सरकारी नीतियों के कारण आत्हत्या करने को मजबूर हैं वहीं मोसेन्टो और कारगिल जैसी कंपनियों के बीजों से भी तरस्त हैं। यह सच्चाई किसी से छुपी नहीं है कि गाजारगौंत, पहुनिया, हराड, गोण्डेल, लालगाण्डी, वासन, लई, केन्ना और जितनी भी किस्मों की घासों के नाम गिना लें यह सभी विदेशी बीजों और खादों के प्रयोग के बाद से ही पनपनी शुरू हई।
आत्महत्या रोकने के सरकारी प्रयासों में एक है सब्सिडी का प्रावधान। सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी के बावजूद किसानों को सरकारी खरीद महंगी पड रही है, जो कि सरकारी नीतियों की पोल खोलती है। पिछले वर्ष विदर्भ के सहकारी केन्द्रों पर चने का बीज 1260 रूपये प्रति किलाे के हिसाब से बिक रहा था और दुकानदार 760 रूपये प्रति किलो के हिसाब से बेच रहे थे। सरकारी कारस्तानी का खुलासा तो तब हुआ जक तीन हॉर्स पावर के विजय डीजल पंप की कीमत खुले बाजार में 6680 रूपये थी जबकि को आपरेटिव बैंक उसे दस हजार रूपये में बेच रहा था। ध्यान रहे कि उक्त कीमत छूट के बाद थी, सरकार ने उसका न्यूनतम मूल्य पन्द्रह हजार रूपये निर्धारित किया था। यह मामला मीडिया में भी उछला ािा। हद तो तब हो गयी जब महाराष्टर के अकोला संसदीय क्षेतर के आरपीआई सांसद प्रकाश अंबेडकर के सुप्रीम कोर्ट में डाले गये केस के जवाब में महाराष्टर सरकार ने अंबेडकर के सुप्रीम कोर्ट में डाले गये केस के जवाब में महाराष्टर सरकार ने बयान बदला। हुआ यह कि सांसद प्रकाश अम्बेडकर ने विदर्भ में पैकेजों की घोषणाओं की असलियत जानने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। न्यायालय ने सुनवासी के दौरान राज्य सरकार से जानना चाहा कि प्रधानमंतरी ने जो पैकेज दिया था वह किसानों में बंटा कि नहीं। राज्य सरकार ने कोर्ट में जवाब दिया कि केन्द्र से पैसा मिला ही नहीं। किन्तु ठीक चार दिन बाद सरकारी सचिव ने हलफनामा दायर किया और न्यायालय में सफाई दी कि यह एक क्लर्कियल मिस्टेक थी। सरकार के सच झूठ में गर्दन किसान की फंसी हुई है।
बहरहाल, इन विवादों को यदि छोड भी दिया जाये तो जारी हुए पैकेज किसानों को और अधिक कर्ज में फंसाने के ही उपक्रम साबित हो रहे हैं। किसानों की मांग है कि सरकार कर्ज माफ करे जबकि सरकार ने कर्ज का दायरा बढा दिया है। पहले मातर सात प्रतिशत किसानों को सरकारी कर्ज उपलब्ध हो पाता था जिसका बजट 7000 करोड का था। अब उसे बढाकर 1800 करोड कर दिया गया है। इसका दायरा 20 प्रतिशत किसानों को अपने यंगुल में ले लेगा। चंगुल में इसलिए क्योंकि नये कर्जों को देना आत्महत्या रोकने का माकूल उपाय नहीं हो सकता। कम से कम प्रधानमंतरी के कोलसरी दौरे के बाद 950 किसानों की हुई आत्मत्याओं ने इसको स्वत साबित कर दिया है। दूसरी तरु मुआवजे का सच है कि पैकेज का सबसे बडा हिस्सा 910 करोड बैंकों ने किसानों द्वारा पिछले वर्षों में लिए गए कर्जों के बदले रख लिया। किन्तु इससे यह कतई समझने की जरूरत नहीं है कि किसानों के माथे सरकारी कर्ज का भार उतर चुका है।
जमीनी सच्चाई तो यह है कि अभी भी सिर्फ ज्यादातर किसानों का ब्याज ही माफ हो पाया है। इसके अलावा यह भी हो रहा है कि किसान फिर नये कर्ज के चंगुल में फंस रहे हैं।
विदर्भ जनांदोलन समिति के नेता किशोर तिवारी ने बताया कि क्षेतर के 80 प्रतिशत किसान सूदखोरों के चंगुल से उबर नहीं पाये हैं। वैसे सरकार ने आत्महत्याओं के बढते प्रतिशत के दबाव में आदेश जारी किया है कि सूदखोर किसानों से सूद न वसूलें। किन्तु इस पर गरीब किसानों के बीच अमल नहीं हो रहा है। उल्टे सूदखोरी और बढ रही क्योंकि रकारी बैंक ज्यादातर कर्जदार किसानों को कर्ज देने से बच रहे हैं। आत्महत्याओं के खिलाफ इलाके में जागरूकता फैला रहे किशोर तिवारी का कहना है कि अप्रैल 2006 से जून तक 17 लाख किसानों पर कराये गये सरकारी सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार विदर्भ के 75 प्रतिशत किसान अवसादग्रस्त हैं। बावजूद इसके सरकार नये'नये सर्वेक्षण करा रही है जिसमें लाखों रूपये बर्बाद किये जा रहे हैं।
कर्जदार की नियति मौत है
चौबीस मार्च के दिन अमरावती के ब्राहमण वाडा थाडी गांव का गरीब किसान देवीदास तयाडे अपनी मंझली बेटी ज्योति को विदा कर हा था। बेटी को चौहददी के बारह भी नहीं छोड पाया कि उसका दम चौखट पर ही निकल गया। दूसरी बेटी के विवाह के खातिर लिये गये कर्ज के दबाव में पीये गये जहर ने आशीर्वाद देने की बारी भी नहीं आने दी।
उस बेटी का क्या गुनाह था जिसके सुहागन होते ही मां बेवा हो गयी। उसने अपनी डोली उठने से पहले पिता की अर्थी जाते देखी। तयाउे ने कर्ज ही लिया था तो फिर उसने जहर क्यों खाया क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि कर्जदार की नियति मौत है। जिस तरह देश का हर आदमी 22,000 रूपये का कर्जदार है ऐसे में मातर 12 हजार का कर्जदार तयाडे ही क्यों आत्महत्या करे। फिर वह ही अकेला ऐसा इंसान नहीं है बल्कि दहेज से संबंधित मामलों में अब तक विदर्भ क्षेतर में 4500 लोग आत्महत्या कर चुके हैं।
देहातों में दहेज के बढते प्रचलन की मजबूरी में तयाडे दो बेटियों पूनम और ज्योति की शादी तक तीन एकड जमीन बेच चुका था। जमीन बिक जाने के बाद यह सोचकर अवसादग्रस्त था कि छोटी बेटी वर्षा की शादी किस भरोसे होगी। बेटे मनोज को पढाने की जिम्मेदारी दीगर थी। यहां तक कि 30 जून 2006 में प्रधानमंतरी द्वारा की गयी 3750 करोड की घोषणा भी तयाडे के किसी काम न आ सकी। काम आ भी नहीं सकती थी क्योंकि घोषणा के कई महीनों बाद भी मातर 10 प्रतिशत किसानों को ही योजना का लाभ मिल सका है, वह भी अप्रतयक्ष रूप से।
मौत की ऐसी ही वारदात चांदूर रेलवे तहसील के बग्गी गांव में भी हुई। फर्क सिर्फ इतना था कि बारात अभी आने वाली थी, आत्महत्या से वहां कोई विधवा नहीं हुई, विधुर हो गया। गुलाबराव खडेकर की पत्नी को शादी की तय तारीख तक दहेज जुटाने के कोई आसार नहीं दिख रहे थे क्योंकि इससे पहले भी बेटे की शादी में खडेकर बीस हजार का कर्जदार बन चुका था। खडेकर की पत्नी भांप चुकी थी कि दहेज पूरा न देने पर दरवाजे पर क्या बावेला होगा। दरवाजे पर बाल मुडवाये बैठे विधुर हो चुके तीन बच्चों के पिता ने बताया कि पिछले दो वर्षों से बारिश न होने के कारण कपास में घाटा हो रहा था। घाटा बीटी कॉटन बोले की वजह से हुआ। खेती में घाटे का एक महत्वपूर्ण कारण कपास की कम कीमत होनातो है ही साथ ही सरकारी खरीद में होने वाली अराजकता भी इसके लिए जिम्मेदार मानी जाती है। कपास का सरकारी रेट जहां पिछले अटठारह सौ रूपये प्रति क्िवंटन था बावजूद इसके किसानों ने कपास साहूकारों को बेचा। क्योंकि वे किसानों को नगद भुगतान कर रहे थे।
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