Jan 18, 2017

प्राकृतिक संसाधनों की असीमित लूट की हवस ने ली दर्जनों मजदूरों की जान

ललमटिया खदान हादसा

डेंजर जोन घोषित किए जाने के बावजूद महालक्ष्मी खनन कंपनी को खनन की अनुमति क्यों दी गयी? दूसरा सवाल यह कि इसीएल के सीएमडी व प्रबंधक ने अपने दो-तीन दिन पहले किये गये निरीक्षण में यहां और अधिक खनन की अनुमति क्यों दी.......

रूपेश कुमार सिंह

झारखंड के गोड्डा जिलान्तर्गत कोल इंडिया की सहायक कंपनी इसीएल की राजमहल परियोजना के ललमटिया में भोड़ाय कोल माइंस साइट में 29 दिसंबर की रात में खदान धंसने से हाहाकार मच गया था। खदान धंसने की खबर जंगल में आग की तरह चारों तरफ फैल गई। अगल-बगल के गांवों के हजारों लोग घटनास्थल पर पहुंचे, लेकिन घटना की भयावहता ने सबको हिलाकर रख दिया। 

घटनास्थल के आसपास खदान में दबे मजदूरों को निकालने की कोई भी सुविधा न होने के कारण लोग उद्वेलित भी हुए, लेकिन उनके पास आक्रोश के अलावा और कुछ भी नहीं था, जिससे वे खदान में दबे मजदूरों को बाहर निकाल सकते थे।

गौरतलबब है कि इसीएल राजमहल परियोजना की ललमटिया के भोड़ाय साइट में पिछले 10 सालों से खुदायी का काम चल रहा था, इसलिए इसे डीप माइनिंग के नाम से भी जाना जाता था। खदान में पहले ही काफी खनन कार्य हो चुका था। चारों ओर से खदान खंडहर हो गया था, इसमें और अधिक खनन साफ तौर पर मौत को दावत थी। फिर भी आश्चर्यजनक यह है कि 27 दिसंबर को इसीएल के सीएमडी आर आर मिश्रा राजमहल परियोजना का निरीक्षण करने आए थे। उन्होंने भोड़ाय साइट का भी निरीक्षण किया। निरीक्षण के बाद भोड़ाय साइट को बंद करने के बजाय यहां से और अधिक खनन का निर्देश दिया व साथ ही साथ भोड़ाय गांव को हटाने का भी निर्देश दे दिया। इन घटनाक्रम से स्पष्ट हो जाता है कि इसीएल प्रबंधन की ज्यादा से ज्यादा खनन की हवस ने ही इस भयानक हादसे को निमंत्रण दिया।

सुपरवाइजरों, ड्राइवरों व मजदूरों की मानें तो वहां छोटे से जगह में फंसे कोयले को निकालने के लिए 29 दिसंबर को शाम 4 बजे ब्लास्ट किया गया। उस वक्त नीचे 80 मशीन व पे लोडर कार्यरत थे। उन लोगों को ब्लास्टिंग के बाद स्लाइडिंग का आभास हुआ, फलस्वरूप कई कर्मी जबरन वहां से मशीन लेकर भाग गए। एक रोचक बात ये भी है, अगर वहां काम कर रहे कर्मियों की मानें तो तीन दिन पहले खदान के निचले हिस्से में दरार आ जाने के कारण काम बंद कर दिया गया था। 

29 दिसंबर यानी हादसे के दिन इसीएल के प्रबंधक प्रमोद कुमार कंपनी के कैंप में आए और वहां काम करने की अनुमति दी, साथ ही साथ उन्होंने कर्मचारियों को धमकी दी कि काम नहीं करने पर पदमुक्त कर दिया जाएगा। मजबूरन काम शुरु करना ही पड़ा। जो लोग भाग गए, वे तो बच गए लेकिन जो रोजी-रोटी के वास्ते काम पर ही डटे रहे, वे मलबे में तब्दील हो गए। वहां काम कर रहे कंपनी के लोगों के अनुसार घटना के वक्त करीब 41 लोग अंदर काम कर रहे थे और साथ में 35 हाइवा, 4 पे लोडर व 1 डोजर भी काम कर रहा था। सब के सब खदान धंसने से 300 फीट गहरी खाई में समा गया।

नए साल की खुशियां मनाने के बदले 41 परिवार मातम में डूब गए। खद्दरधारी नेताओं के घड़ियाली आंसू बहने शुरु हो गए और झूठी सांत्वना का दौर भी। आरोप-प्रत्यारोप का खेल भी जारी हो गया। फटाफट कोल इंडिया ने भी हाई पावर कमेटी का गठन कर दिया और इसका जिम्मा दिया गया सीएमपीडीआइ के सीएमडी शेखर शरण के नेतृत्व में गठित टीम को। कमेटी एक माह में अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। कमेटी दुर्घटना के कारण, लोगों की गलती, क्या दुर्घटना रोकी जा सकती थी आदि पहलूओं की जांच करेगी। कोल इंडिया ने तो कमेटी गठित कर व मृतकों को मुआवजे की घोषणा कर पल्ला झाड़ लिया, लेकिन कई सवाल आज भी अनुत्तरित हैं। आखिर इन सवालों के जवाब कौन देंगे?

सवाल उठता है कि इस जोन को वर्षों पहले डेंजर जोन घोषित किया गया था, इसके बावजूद 2012 में यहां महालक्ष्मी खनन कंपनी को खनन की अनुमति क्यों दी गयी? दूसरा सवाल यह कि इसीएल के सीएमडी व प्रबंधक ने अपने दो-तीन दिन पहले किये गये निरीक्षण में यहां और अधिक खनन की अनुमति क्यों दी?

मामला साफ है कि इन सवालों के जवाब कभी नहीं मिलेंगे, क्योंकि इसके जवाब में कोल प्रबंधन व कोल माफिया दोनों फंसेंगे और सरकार पर भी फंदा कसेगा। हैरतनाक है कि दुर्घटना घटने के 24 घंटे बाद पटना व रांची से रेस्क्यू टीम पहुंची, क्योंकि वहां कोई रेस्क्यू टीम मौजूद ही नहीं था। इसीएल प्रबंधन व महालक्ष्मी खनन कंपनी ने दुर्घटना के बाद डीजीपी व मुख्य सचिव के दुर्घटनास्थल के दौरे की सूचना पाकर घटनास्थल से मलबा हटाने के बजाय रातोंरात वहां सड़क बना दी। 30 दिसंबर को डीजीपी व मुख्य सचिव जिस जगह पर खड़े होकर मुआयना कर रहे थे, वहां नीचे मलबे में 41 कर्मी और मशीनें दबी हुई थी।

रेस्क्यू टीम के द्वारा लगातार मलबा हटाने के बाद भी मात्र 16 लाशें ही मिल पाई और 25 लाशें अब तक भी नहीं मिल पाई है, प्रबंधन लीपापोती में लगी हुई है। 12 जनवरी 2017 को झारखंड हाईकोर्ट ने इसीएल (इस्टर्न कोल फील्ड लिमिटेड) की राजमहल कोल परियोजना के ललमटिया खदान हादसे को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पूछा कि— 1. इस हादसे में कितने कर्मियों की मौत हुई है? 2. कितने शव बरामद किये गये हैं? 3. कितने कर्मियों को खदान के अंदर भेजा गया था? 4. कितने कर्मी अब तक लापता हैं? 5. अब तक क्या-क्या दस्तावेज जब्त किए गए हैं और क्या कार्रवाई की गई है? 6. रेस्क्यू आॅपरेशन की क्या स्थिति है? 

कोर्ट ने डायरेक्टर जनरल आॅफ माइंस शेफ्टी (डीजीएमएस) को शपथ पत्र दायर कर विस्तृत जवाब देने का निर्देश दिया है। इससे पूर्व डीजीएमएस की ओर से मौखिक रूप से बताया गया कि ललमटिया खदान का कोई माइनिंग प्लान स्वीकृत नहीं था। इसके लिए कोई अनुमति नहीं दी गई थी। कार्यस्थलों पर सुरक्षा मानकों का उल्लंघन किया जा रहा था।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि प्राकृतिक संसाधनों की असीमित लूट की हवस का परिणाम है ललमटिया खदान हादसा। देश में नयी आर्थिक नीति लागू होने के बाद से कोयला उद्योग में बड़े पैमाने पर आउटसोर्स का दौर शुरु हुआ। कोल इंडिया में वर्तमान में भूमिगत एवं खुली खदानों की कुल संख्या 452 है। फिलहाल 90 फीसदी खदानों में कोयला उत्पादन व ओबी रिमूवल का काम आउटसोर्सिंग कंपनियां कर रही हैं। 

खदानों में सुरक्षा को लेकर समय-समय पर दिखावटी रूप से सुरक्षा समिति की बैठक जरूर होती है, लेकिन किसी भी खदान में सुरक्षा नियमों का पालन नहीं होता है। अत्यधिक कोयला उत्पादन की हवस ने माइंस को मौत का कुआं बना दिया है। ललमटिया खदान हादसा एक चेतावनी है कि प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन मत करो, अन्यथा इसके परिणाम भुगतने होंगे। लेकिन सरकारों से अत्यधिक दोहन न करने की आशा करना मूर्खता ही है। प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन को जल-जंगल-जमीन को उनके परंपरागत मालिकों को सौंपकर ही रोका जा सकता है और ललमटिया जैसे हादसों से भी छुटकारा पाया जा सकता है।

मित्रों! एनडी तिवारी प्ले व्वाय नहीं, नेता हैं

आप फेसबुक को एक तरफ से खंगाल लीजिए। बारी—बारी से सबकी वॉल देख लीजिए। आपको गिनती के लोग नहीं मिलेंगे जो एनडी तिवारी की भाजपा में जाने पर राजनीतिक आलोचना कर रहे हों और पूछ रहे हों कि राष्ट्रवादी यजमानी खाये बिना कब्र में शांति नहीं मिलेगी क्या पंडीजी? 

सभी उनके 'सेक्स कांड' की चर्चा कर रहे हैं? इस चर्चा में जाति—धर्म—लिंग—संप्रदाय की दीवारों को तोड़कर लोग समवेत स्वर में सेक्स के शॉट्स से लेकर तस्वीरें शेयर कर रहे हैं।

भरे—पुरे चुनावी मौसम में यह सब देख ऐसा लग रहा है मानो एनडी तिवारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि 'राष्ट्रवादी प्ले ब्वॉय' रहे हों और उन्होंने लखनउ और देहरादून में राज्य की मुखिया की नहीं, बल्कि कोठे के मालिक की भूमिका निभाई हो।

उनकी प्ले ब्वाय की छवि और लोगों का बड़े पैमाने पर फेसबुक पर चल रहा 'पोर्नवादी' आनंद बताता है कि चुनावों में मुद्दा और मुद्दे की राजनीति सामाजिक कार्यकर्ताओं की जुगाली, अखबारों के संपादकीय और टीवी के पकाउ डिबेट्स की चीज बनकर रह गयी है।

अन्यथा जो आदमी उत्तर प्रदेश का तीन बार और उत्तराखंड का एक बार मुख्यमंत्री रह चुका हो उसको लेकर सबसे लोकप्रिय और जनप्रिय सवाल उसका सेक्स कांड ही क्यों बनता? ​वह भी वह सेक्स कांड जिसमें कोई शिकायतकर्ता नहीं है, सिवाय कि किसी ने चोरी से वीडियो बना लिया।