Apr 14, 2016

6 लाख गावों के देश में क्या एक गांव हैं जहां दलितों के साथ छुआछूत नहीं होती

देश के आखिरी आदमी के नेता आंबेडकर की इतनी ऊँची बोली पहली बार लगी है। जिसे देखो वही आंबेडकर को अपनी ओर घसीट रहा है। समझ में नहीं आ रहा कि राजनीतिक पार्टियों का यह ह्रदय परिवर्तन उनको बाजार में नीलाम करने लिए है या फिर मंशा कुछ और है। 

ऐसे में मैं इस आशंका से उबरने के लिए एक जानकारी चाहता हूँ कि क्या आप 6 लाख गावों के इस देश में छह गांव भी ऐसा सवर्णों का जानते हैं जहाँ दलितों के साथ भेदभाव और छुआछूत नहीं होती। छह छोड़िये एक ही बता दीजिये। अगर नहीं तो आंबेडकर को अपने-अपने पाले में घसीटना छोड़कर पहले एक ऐसा गांव बनाइये और भरोसा रखिये वहां आंबेडकर खुद चलकर आ जायेंगे, आपको ईंट पर खड़ा होकर खुद को आंबेडकरवादी होने की बांग नहीं देनी पड़ेगी। 

तीन दिन पहले दिल्ली के कॉफी हाउस में मिले एक मित्र आंबेडकर जयंती से जुड़ा एक किस्सा सुनाने लगे। बताया कि तीन—चार साल पहले इलाहाबाद में आंबेडकर जयंती पर एक कार्यक्रम था। कार्यक्रम खत्म हो गया तो हमलोग कार्यक्रम के आयोजक के घर चाय—पानी और समीक्षा बैठक के लिए पहुंचे। हमलोग कमरे में अंदर बैठे थे और आयोजक का ड्राईवर बाहर ओसारे में था। 

पर उसे हम कमरे से साफ देख सकते थे। हमने देखा कि आयोजक का नौकर जैसे ही चाय लेकर ड्राईवर के पास आया, ड्राईवर तत्काल खड़ा हुआ, ड्राईवर ने दिवार के बीच बने झरोखों में हाथ डाला, एक कप निकाली, नौकर को रूकने को बोला, दौड़कर नल पर पहुंचा, कप धोई, चाय लिया, चाय पी और फिर कप धोकर वापस झरोखों में रख दिया।

किस्सा सुनाने वाले मित्र थोड़ा रूककर बोले, 'यह कमरे के बाहर का सीन था और अंदर आयोजक लगातार हमलोगों को आंबेडकर दृष्टि अपनाने पर जोर दे रहे थे।'

Apr 13, 2016

अधिक पैसा मिला तो आधा किलो दाल ​खरीदूंगा

अजय प्रकाश

उत्तर प्रदेश के रामपुर से बरेली जाने के रास्ते में शीशगढ़ बाजार में हमारी मुलाकात राजेश लोध से एक किराने के दुकान पर हुई। वह बाजार के बगल के एक भट्टे पर काम करते हैं। परिचय के बाद उन्होंने अपने परिवार की हालत कही और बताया कि रोज वह सौ—सवा सौ रुपए कमा लेते हैं। पर ईंट लादने—उतारने में कई बार चोट लग जाती है या किसी दिन बहुत हरारत होती है तो काम पर नहीं जा पाते। 
राजेश लोध के मुताबिक, 'मैं आठ बरस की उम्र से काम कर रहा हूं। पहले भट्टे पर मिट्टी देने का काम करता था, फिर पाथने का काम किया और अब ईंट लादने का करता हूं। लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि हम इस किराने की दूकान के कर्जदार नहीं रहे हों।'
दूकानदार, 'अरे तुम हमें क्यों बदनाम कर रहे हो!'
राजेश, 'बदनाम नहीं कर रहा अपनी हालत बता रहा हूं। मेरी इतनी कभी कमाई नहीं हुई कि पेट से आगे बढ़ पाएं।'
मैं, 'मगर सरकार की मनरेगा स्कीम आप जैसे गरीबों के लिए ही है। वहां क्यों नहीं कर लेते काम।'
राजेश लोध, 'मतलब नरेगा। अब बंद है। मैंने बहुत दिनों से नाम नहीं सुना उसका। पर वहां भी काम किया और पेमेंट के लिए तरस गया। नरेगा के खाते में पैसा हफ्ते भर में भी नहीं आता। पता नहीं कितने महीने लग जाते हैं पैसा आने में। तबतक कैसे जिएं। इसका भी उपाय बताना चाहिए। हमलोग रोज पेमेंट वाले हैं। नहीं मिलेगा तो स्वर्ग सिधार जाएंगे। अकेले होता फिर कोई बात नहीं थी पर तीन बच्चों और बीवी के साथ ऐसा करना पाप ही होगा। आखिर उनका आसरा मैं ही हूं न।'
मैं, 'अच्छा मान लीजिए आपकी कमाई अभी से अच्छी होने लगे फिर आप जीवन का कौन सा पहला बकाया काम पूरा करेंगे। कौन सी इच्छा पूरी करेंगे।'
राजेश लोध, 'इस सेठ के यहां से आधा किलो सफेद उड़द की दाल खरीदेंगे। बीबी से बोलेंगे अच्छे से तड़का लगाकर बनाओ और उस दिन भरपेट दाल खाएंगे। उसी भी खिलाएंगें, बच्चे तो खाएंगे ही।'
मैं, 'क्या आप अभी दाल नहीं खरीदते।'
राजेश लोध, 'ऐसा भी नहीं है। खरीद लेते हैं महीने में एकाध—बार। पर सौ—डेढ़ सौ ग्राम। आधा किलो की बात ही कुछ और होगी। वैसे तो पांच आदमी के परिवार में पाव भर दाल भी बहुत है पर आधा किलो में छक कर खाएंगे और तान कर सोएंगें।'
मैं, 'आपने कबसे दाल नहीं खाई है।'
राजेश लोध, 'पिछले साल जेठ में मेरे भाई के साले की शादी थी। बरेली—मीरगंज पड़ता है न, वहीं पे। उसी के यहां दो—तीन दिन तक रोज खाया था। अपने घर में लाते हैं मगर इतना लाते नहीं कि सबका हो सके। आप मेरे घर चलिए और देखिए बच्चे दाल को कैसे साफ करते हैं। जबतक खतम नहीं होती तबतक क्या मजाल तीनों में से कोई मुंड उठा ले।'
इतना कहने के बाद राजेश पैर को मिट्टी पर रगड़ने लगते हैं और मेरी ओर इशारा कर कहते हैं, 'इस प्सासी मिट्टी को देखिए। इस पर आसमान के चार बूंद पानी गिरा देने से इसकी तपिश कम होगी क्या, अलबत्ता भभका ही छोड़ेगी। साहब... कभी—कभार मेरी मेहरी बच्चों के खाने के बाद बर्तन में लगी दाल को आगे बढ़ा देती है। उससे यह तो है कि मुझे दाल का स्वाद याद है पर पता नहीं मेरी मेहरी को याद है भी या नहीं। साले की शादी के बाद उसने कभी बर्तन भी नहीं पोछा रोटी से।'
मैं, 'उसी में से मेहरी को भी कह देते पोछने के लिए। मिलजुल के पोछ लेते।'
राजेश लोध, 'हा...हा। उसमें कुछ होता भी है जो उसको पोछने के लिए दूंगा। मैं उसकी खुशी के लिए पोंछ लेता हूं। मेरे इतना कर देने भर से उसको बड़ा संतोष मिलता है। नहीं तो रोटी मुझे लार से ही गटकनी पड़ती है।'