वैसे में सवाल अब यह उठता है कि जनज्वार ने बालकृष्ण मामले में अपनी खोजी रिपोर्ट को अब जारी करने की जरूरत क्यों समझी। तो जवाब है, ‘सिर्फ इसलिए कि बालकृष्ण को लेकर जो धुंध और धंधा फैलाने की कोशिश हो रही है, उसके सच को सामने लाया जाये, जिससे बालकृष्ण सच का सामना करने को मजबूर हों न कि गुण्डा और अपराधी होने के फर्जी आरोपों की सांसत झेलने में उलझें।
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बालकृष्ण के चाचा के लड़के और स्कूल |
भारत की सोनौली सीमा से नेपाल के बुटवल के रास्ते काठमांडू की ओर बढ़ने पर पोखरा जिले से पहले स्यांजा पड़ता है। बालकृष्ण योगी का घर स्यांजा जिले के भरूआ गांव में है और वह स्कूल गांव के ऊपर,जिसके रजिस्टर में बालकृष्ण के चौथी तक पढ़ने का साक्ष्य दर्ज है।
इस सिलसिले में हमारी पहली मुलाकात बालकृष्ण के चाचा के लड़कों से होती है जो अपने नामों के पीछे सुवेदी लगाते हैं। वालिंग कस्बे में दुकान चला रहे बालकृष्ण के चाचा के लड़कों से पता चलता है कि भरूआ गांव ब्राह्मणों का है और वहां सुवेदी ब्राह्मणों की तादाद ज्यादा है। उनमें से एक जो फोटो में सबसे किनारे है, वह बालकृष्ण के साथ ही पढ़ा होता है, लेकिन जब मैं उससे दुबारा उसका नाम पूछता हूं तो उसको मुझ पर संदेह होता है और वह हंसते हुए नाम बताने से इंकार कर देता है।
मैं हाथ में डायरी नहीं निकालता, क्योंकि अपना परिचय उनको मैंने बालकृष्ण के दोस्त के रूप में दिया होता है और रिकॉर्डर तो बिल्कुल भी नहीं। मुझे ऐसा इसलिए करना पड़ता है कि जिनके जरिये यहां मैं पहुंचा हुआ होता हूं उन्होंने हिदायत दे रखी थी कि ऐसी कोई गलती मत करना जिससे तुम गांव न जा सको, जहां वह स्कूल है। तस्वीर में दिख रहे दो लोग जिनकी उम्र ज्यादा है, वह बताते हैं कि जब बालकृष्ण चौथी कक्षा के बाद भारत चले गये थे तो भी वह बाबा रामदेव के साथ आया करते और जंगलों में जड़ी-बूटियां ढूंढ़ा करते थे। उनसे ही पता चला कि पिछले दस-बारह वर्षों से बालकृष्ण यहां नहीं दिखे, हां उनकी कमाई से वालिंग में बनवाई गयी आलीशान कोठी जरूर दिखती है, जो इसी साल तैयार हुई है.
बालकृष्ण के चाचा के उन दुकानदार लड़कों से मैं कहता हूं कि उस कोठी तक हमें ले चलो, शायद आप लोगों की वजह से हमसे उनके परिवार के लोग बात कर लेंगे, लेकिन वह नहीं जाते हैं। पते के तौर पर वे बस इतना कहते हैं कि जो कोठी दूर से दिखे और कस्बे में सबसे सुंदर हो उसी में घुस जाना।
कोठी का गेट खटखटाने पर हमारी आवभगत के लिए दो बच्चे आते हैं। उन दोनों से मैं हाथ मिलाता हूं और गेट के अंदर दाखिल होता हूं। उनमें से एक फर्राटेदार हिंदी बोलता है और बताता है कि वह बालकृष्ण का सबसे छोटा भाई नारायण सुवेदी है। फिर साथ के लड़के के बारे में पता चला है कि वह मौसी का लड़का है। अब हम उनके डायनिंग रूम में होते हैं जहां बड़े स्क्रीन की टीवी लगी होती है। हमें लड्डू खाने को दिया जाता है। उस समय मैं बच्चों को अपना परिचय बालकृष्ण के दोस्त के रूप में देता हूं और बताता हूं कि मैं तुम्हारे गांव चलना चाहता हूं। गांव जाने की बात सुन नारायण खुश होता है और आत्मीयता से कहता है ‘गांव यहां से चार किलोमीटर दूर है और पैदल ही पहाड़ियों पर चलना होता है, इसलिए इस समय चलना खतरनाक होगा, कल सुबह यहां से निकल लेंगे।’
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बालकृष्ण का स्कूल और भरुआ में उनका घर |
तभी अधेड़ उम्र की एक महिला दिखती है। उसको नमस्कार करने के बाद नारायण बताता है कि वह उसकी मौसी है और मां गांव में है। वह महिला थोड़ी देर तक मुझे देखती है और फिर करीब घंटे भर बाद किसी पवन सुवेदी को लेकर आती है, जो खुद को बालकृष्ण की मौसी का बेटा बताता है। वह मुझसे कुछ रुष्ट दिखता है वह इशारे से बच्चों को अपने पास बुलाता है, जिसके बाद बच्चे वहां नहीं दिखते। थोड़ी देर बाद पवन सुवेदी एक नयी कहानी बताता है कि बालकृष्ण के माता-पिता तीर्थ करने काठमांडू गये हैं और पंद्रह दिनों बाद आयेंगे। मैं फिर भी गांव जाने की बात कहता हूं तो वह शुरू में तो इंकार करता है, फिर कहता है ‘ठीक है सुबह देखेंगे।’ लेकिन वह साफ कह देता है कि इस घर में आप रात नहीं गुजार सकते।
तब तक करीब रात के आठ बज चुके होते हैं और मैं कहीं दूसरी जगह जा पाने में खुद को असमर्थ बताता हूं तो वह मुझे कस्बे के एक होटल में ले जाता है, जहां मैं दो सौ नेपाली रुपये में एक कमरे के बीच तीन लोगों के साथ सोता हूं। होटल कैसा था इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि मैंने सुबह उसके शौचालय में जाने के मुकाबले खेत में जाना पसंद किया था।
अब मेरी अगली चिंता एक ऐसे आदमी की तलाश की होती है जो मुझे भरूआ गांव ले जाये, क्योंकि सुबह बालकृष्ण की आलीशान कोठी में बड़ा ताला जड़ा होता है। बहरहाल, मुझे एक कुरियर मिल जाता है जो मुझे गाँव तक ले जाता है। कुरियर कहता है पहले गांव चलते हैं और लौटते हुए स्कूल। मेरे दिमाग में आता है कि अगर गांव में बात बिगड़ गयी तो स्कूल से मिलने वाली जानकारी से हम लोग चूक जायेंगे।
हम पहले स्कूल के मास्टर से मिलते हैं जो हमें बताता है कि वह नया आया है। वह आगे बताता है कि बालकृष्ण ने बचपन में यहीं पढ़ाई की है। उसके बाद हम मास्टर की मदद से रजिस्टर खोजने में लग जाते हैं। कई वर्षों का रजिस्टर खंगालने के बाद हमें पता चलता है कि बालकृष्ण नाम का कोई छात्र ही नहीं है। हम बालकृष्ण के पिता जयबल्लभ सुवेदी के नाम से खोजते हैं तो एक नाम डंभर प्रसाद सुवेदी का मिलता है, जिसमें पिता के तौर पर जयबल्लभ सुवेदी नाम दर्ज होता है। बालकृष्ण का असल नाम डंभरदास सुवेदी है, यह इसलिए भी पक्का हो जाता है क्योंकि बालकृष्ण के चाचा के लड़कों ने भी बालकृष्ण का यही नाम बताया होता है। दूसरा प्रमाण यह भी रहा कि बालकृष्ण का चौथी कक्षा के बाद नाम रजिस्टर से कट जाता है, जो अगली कक्षाओं के उपस्थिति रजिस्टरों में नहीं दिखता है। जबकि जयबल्लभ सुवेदी के दूसरे बेटों का नाम रजिस्टर में है.
जब यह साफ हो जाता है कि बालकृष्ण सुवेदी उर्फ डंभर प्रसाद सुवेदी ही जयबल्लभ सुवेदी के चार लड़कों में से एक हैं और उनका गांव घाटी में स्थित भरूआ है, तो हम उनके मां-बाप से मिलने भरूआ की ओर चल देते हैं। करीब दो घंटे पैदल चलने के बाद हम बालकृष्ण के घर पहुँचते हैं और हमारी मुलाकात उनकी मां से होती है। अभी हम उनकी मां से कुछ पूछते उससे पहले ही आलीशान कोठी में मिले नारायण सुवेदी और उसकी मौसी का लड़का एक साथ नेपाली में चिल्ला पड़ते हैं और वह औरत घर में घुसकर खुद को अंदर से बंद कर लेती है, लेकिन इस बीच कैमरे ने अपना काम कर लिया होता है और हम बालकृष्ण की मां का फोटो खींच लेते हैं।
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रजिस्टर में ६३ नम्बर पर डंभर प्रसाद सुवेदी है ,
और गाँव में उनकी माँ
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घर में छुपी मां से बाहर आने को कहा तो कुरियर ने बताया कि वह गाली दे रही है और कैमरा छिनवाने की बात कह रही है। कुरियर ने आगे कहा कि बालकृष्ण की मां अपने छोटे बेटे नारायण सुवेदी को पिता और भाइयों को बुला लाने की बात कह रही है। दूसरे ही पल हमने देखा कि खेतों में काम कर रहे कुछ लोगों की ओर नारायण बड़ी तेजी से घाटी में उतरता जा रहा है और कुछ चिल्लाता जा रहा है।
हमने कुरियर से पूछा अब क्या करें?उसने कहा कि वह गाँव में कई लोगों को जानता है और उसकी अच्छी साख है, इसलिए कोई मारपीट तो नहीं कर सकता, लेकिन कैमरा छीन लेंगे। मैंने पूछा ऐसा क्यों? कुरियर का कहना था कि यहां गांव की परंपरा के हिसाब से कोई औरत का फोटो नहीं खींच सकता।
फिर हमने कुरियर के बताये अनुसार निर्णय लिया कि यहां से भागना चाहिए। लेकिन हम घाटी से पहाड़ी पर उस रास्ते से नहीं जा सकते थे, जो सामान्य रास्ता था या जिस रास्ते से आये थे। पकड़ से बचने के लिए हमें जंगल के रास्ते वालिंग कस्बे का रास्ता तय करना पड़ा। हमने दिन के 11 बजे चलना शुरू किया था और दुबारा वालिंग कस्बे में पोखरा के लिए गाड़ी पकड़ने के लिए 4 बजे पहुंच पाये थे।