बैंकों से लेकर नीति आयोग तक किसानों को कर्ज देने के मसले पर नाक—भौं सिकोड़ रहे हैं, पर सरकार और रिजर्व बैंक 70 हजार करोड़ से अधिक डकार जाने वाले डिफॉल्टरों का नाम बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहे...
राजेश रपरिया
भारतीय स्टेट बैंक की प्रमुख अरूंधति भट्टाचार्य के किसानों की कर्जमाफी से वित्तीय अनुशासन बिगड़ने के बयान से तूफान आ गया है। उन्होंने कहा कि चुनावों के वक्त किसानों का कर्ज माफ करना सही नहीं है। अगर ऐसा होता है तो हर चुनाव में कर्ज माफी की उम्मीद की जाएगी। इस बयान ने किसानों के गहरे जख्मों पर नमक तो छिड़का ही है, बल्कि बैंकिंग उद्योग को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है।
बैंको की बढ़ती अनर्जक आस्तियों (नॉन परफार्मिंग एसेट्स —एनसीए) से अर्थव्यवस्था और केंद्र सरकार की परेशानियां बढ़ गयी हैं, जबकि प्रमुख सरकारी बैंक की मुखिया अपने बयानों में ऐसे पेश आ रही हैं मानो देश की बढ़ती आर्थिक मुश्किलों का मुख्य कारण किसान ही हों। मार्च 2016 तक बैंकों की कुल कर्जराशि 70 लाख करोड़ रुपए थी, जिसमें उद्योग की हिस्सेदारी 41.71 फीसदी और कृषि कर्ज 13.49 फीसदी थी।
जाहिर है बड़े लोगों और कारोबारियों पर ही बैंकों का सबसे ज्यादा कर्ज फंसा हुआ है। पिछले 15 महीनों में बैंकों का एनपीए दोगुने से ज्यादा हो गया है। सितंबर 2015 में एनपीए 3 लाख 49 हजार 556 करोड़ रुपए के थे, जो सितंबर 2016 में बढ़कर 6 लाख 68 हजार 825 करोड़ रुपए के हो गए। विश्वविख्यात अंतरराष्ट्रीय वित्त कंपनी 'स्टैंडर्ड एंड पुअर्स' का अनुमान है कि इस वित्त वर्ष में एनपीए बढ़कर 9 लाख करोड़ रुपए के पार कर जाएंगे। रिजर्व बैंक का तर्क है कि आर्थिक हालात खराब होने से कर्ई बार कर्जदार समय से कर्ज नहीं चुका पाता है। पर आर्थिक विकास दर में सुधार आने से एनपीए में कमी आएगी और रिकवरी बढ़ जाएगी।
लेकिन विडंबना यह है कि रिजर्व बैंक और अन्य बैंक इस तरह के लाभ किसानों को देने को तैयार नहीं हैं। फिर विलफुल डिफॉल्टरों (जो कर्जदाता जानबूझ कर कर्ज वापस नहीं करते, जबकि कर्ज वापस करने की उनकी हैसियत होती है) का आंकड़ा और नाम क्यों छुपाया जाता है, इसका कोई वाजिब तर्क न रिजर्व बैंक के पास है और न ही केंद्र सरकार के पास। यह कर्जदार गलत हथकंडों और सांठगांठ से भारी मात्रा में बैंकों से कर्ज पाते हैं, जो बैंकों, बड़े लोगों और राजनेताओं के कारनामों का जीता—जागता पुराण है। जनता के पैसों पर यह डिफॉल्टर बेनामी संपत्तियां बनाते हैं और विलासिता में करोड़ों—करोड़ रुपए उड़ा देते हैं। गौरतलब है कि 10 बड़े कॉरपोरेट समूहों पर 5 लाख 73 हजार 682 करोड़ रुपए का कर्ज है। यह जानकारी राज्य सभा में वित्त राज्यमंत्री संतोष गंगवार ने दी है।
अपनी रिपोर्टों के लिए चर्चित न्यूज वेबसाइट न्यूज लॉन्ड्री ने इन डिफॉल्टरों के नाम उजागर किए। समाचार साइट फर्स्ट पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार 7129 बैंक खातों को डिफॉल्टर घोषित किया गया है, जिन पर 70 हजार 540 करोड़ का कर्ज है। इस साइट पर 18 बड़े कर्जदारों के नाम भी हैं। मोटा अनुमान है कि तकरीबन एक लाख करोड़ रुपए ये डकार गए हैं। इनमें विजय माल्या का नाम जगजाहिर है। पर उषा इस्पात समूह के 17 हजार करोड़ रुपए के कर्ज डकारने की पूरी दास्तान जानकर न केवल किसी के होश उड़ जाएंगे, बल्कि गुस्सा भी आएगा कि एक छोटा—सा कर्ज देने के लिए बैंक कितने चक्कर लगवाता है, दस्तावेज मांगता है। पर इन डिफॉल्टरों को कर्ज पर कर्ज देने में इन्हें कोई परेशानी नहीं आती है। सच तो यह है कि इन बड़े आदमी के आगे बैंकों की बोलती बंद हो जाती है। ऐसा तब है जबकि रिजर्व बैंक बताता है कि कृषि कर्ज में किसान कर्ज ही नहीं कृषि कारोबार कर्ज भी शामिल रहता है ।
नवंबर 2016 में वित्त राज्यमंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने राज्यसभा में बताया कि सितंबर 2016 तक कुल कृषि कर्ज 12 लाख 60 करोड़ रुपए थे। इनमें से 7.75 लाख करोड़ के कृषि ऋ़ण थे और 4.84 लाख करोड़ रुपए के दीर्घकालिक कर्ज। उन्होंने यह भी साफ किया कि कृषि कल्याण कोष में किसानों की कर्ज अदायगी का कोई इरादा सरकार का नहीं है। कागज पर पिछले 15 सालों में कृषि कर्ज 8 गुना से ज्यादा बढ़े हैं, लेकिन उस अनुपात में किसानों खासकर छोटे, लघु और सीमांत किसानों के कर्ज नहीं बढ़े हैं।
बजट भाषण में किसान
किसानों के लिए 10 लाख करोड़ के कृषि कर्ज का लक्ष्य रखा गया है, जो लगभग बैंकों के संभावित कुल एनपीए के बराबर है।
रिजर्व बैंक के आंकड़ों पर मूलत: आधारित आर. राम कुमार और पल्लवी चौहान का शोधपत्र साफ बताता है कि बैंकिंग सेवा के भारी विस्तार और लक्ष्यों के बावजूद सीमांत किसानों की कर्ज निर्भरता सूदखोरों पर बढ़ी है। देश में 95 फीसदी सीमांत, लघु और छोटे किसान हैं जिनके पास एक, दो या पांच हेक्टेयर या उससे कम खेत हैं। देश की कुल कृषियोग्य भूमि का 68.7 फीसदी हिस्सा इन किसानों के पास है। इन किसानों के लिए अरसे से किसानी घाटे का सौदा बन गयी है। बाजार और मौसम की मार से उन्हें कोई कारगर सुरक्षा प्राप्त नहीं है।
सरकार नहीं जानती किन पूंजीपतियों के कर्ज माफ हुए
बैंकों ने बड़े कर्जदारों के 1.14 करोड़ रुपए के कर्ज तीन सालों 2013—2015 के कर्ज को बट्टे खाते में डाल दिए। राजनीतिक बयानबाजी में इसे कर्जमाफी कहा जाता है। वित्त राज्यमंत्री संतोष गंगवार ने राज्य सभा में बताया है कि 2015—2016 में भी 59 हजार 547 करोड़ रुपए बैंकों ने बट्टे खाते में डाले हैं। पर आश्चचर्य यह है कि जिन बड़े कर्जदारों के कर्ज बट्टे खाते में डाले गए हैं, इसकी जानकारी न रिजर्व बैंक के पास है न ही केंद्र सरकार के पास है।
पिछले कुछ सालों में सवा 2 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 2015 में 8 हजार 7 किसानों ने आत्महत्या की। यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। इससे साफ जाहिर है कि देश में किसानों की आर्थिक हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। तमिलनाडु में सदी का सबसे भयंकर सूखा पड़ा है। वहां के किसान 60 फीसदी सूद पर कर्ज लेने को मजबूर हैं, जबकि केंद्र सरकार का निर्देश किसानों को 7 फीसदी पर कर्ज देने का है। वहीं केरल में 115 साल बाद का सबसे भयंकर सूखा पड़ा है, जिसके लिए केंद्र सरकार से 1000 करोड़ रुपए की मदद चाहिए। बैंकों ने पिछले 10—15 सालों में सवा 3 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा बट्टे खाते में डाल दिए हैं तो किसानों का कर्ज क्यों नहीं माफ किया जा सकता है। केंद्र सरकार को छोटे, सीमांत और लघु किसानों की कर्ज अदायगी के बारे में संजीदगी से सोचने का वक्त है। उत्तर प्रदेश में फसली ऋणों की घोषणा अपने भाषणों में कर सकते हैं, तो बाकि देश के किसानों ने क्या गुनाह किया है।
एनपीए का नुकसान छोटे कर्जदारों और किसानों को
बैंकों के एनपीए पिछले कुछ सालों से बेहिसाब बढ़े हैं। बढ़ते एनपीए से बैंकों की कर्ज देने की क्षमता कम होती है और कर्ज की ब्याज दरें अनावश्यक रूप से ज्यादा बनी रहती हैं। इसका असली खामियाजा छोटे बचतकर्ताओं और कर्जदारों को भुगतना पड़ता है। बैंक की भाषा में छोटे कर्जदारों को 'स्मॉल ब़रोअर' कहा जाता है। 1991 में शुरू हुए उदारीकृत अर्थव्यवस्था के दौर से छोटे कर्जदारों की हिस्सेदारी 63 फीसदी से घटकर 32 फीसदी रह गयी है। टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंसेज के आर रामकुमार और पल्लवी चौहान के शोधपत्र में पुख्ता ढंग से यह बात सामने आयी है कि बैंकिंग उद्योग किसानों से दूर केवल बड़े लोगों और कारोबारियों का बन कर रह गया है।
(राजेश रपरिया वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार हैं। यह लेख दैनिक भास्कर से साभार।)