May 31, 2011

ऐसी मुठभेड़ें तो चलती रहेंगी !

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने पुलिस को ललकारा और कहा कि 'अगर वे एक मारें तो आप चार मारें।' उनके इस बयान के बाद सोनभद्र, चन्दौली और मीरजापुर में मुठभेड़ों की बाढ़ आ गयी... किस्त- 3

सोनभद्र से विजय विनीत 


मानवाधिकार संगठनों के दबाव के चलते ही भवानीपुर काण्ड की मानवाधिकार आयोग द्वारा जांच की गयीलेकिन दुर्भाग्यवश अभी तक यह रिर्पोट ज़ारी नहीं की गयी है। इसी बीच मारे गये देवनाथ और लालब्रत ने भी नौगढ़ में अपने को जिन्दा होने का दावा कर दिया। आज तक पुलिस यह बताने में नाकाम है कि देवनाथलालब्रतसुरेश बियार की जगह जो लोग मारे गये वे कौन थे। इसे मानवाधिकार संगठनों ने नरसंहार करार दिया और तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराते हुए पीयूसीएल ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की।

दुर्भाग्यवश यह याचिका उच्च न्यायालय ने यह कहकर स्वीकार नहीं की कि 'इस याचिका में कुछ खास नहीं है।' पुलिस ने भवानीपुर मुठभेड़ का जश्न मनाया। तत्कालीन डीजीपी एम.सी.द्विवेदी ने इस मुठभेड़ को जायज़ ठहराया और कहा कि ऐसी मुठभेड़ें तो होती रहेंगी। वहीं वाराणसी के आईजी वी.के.सिंह ने पुलिसकर्मियों को बधाई दी, जो कि स्वयं भवानीपुर में मुठभेड़ के दौरान मौजूद थे।

भवानीपुर हत्याकाण्ड ने प्रदेश स्तर पर तमाम मानवाधिकार संगठनों, प्रगतिशील ताकतों और बुद्धिजीवी वर्ग को लामबंद किया। इस हत्याकाण्ड के विरोध में कई कार्यक्रम हुए। सोनभद्र के मुख्यालय राबर्ट्सगंज में इस फर्जी मुठभेड़ को लेकर पीपुल्स यूनियन फार ह्यूमन राइट्स ने दो दिवसीय मानवाधिकार सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें पूर्व न्यायाधीश इलाहाबाद उच्च न्यायालय वी.के.मेहरोत्रा और पूर्व न्यायाधीश पंजाब राजेन्द्र सच्चर समेत पीयूसीएल के उपाध्यक्ष चितरंजन सिंह, पूर्व जिला जज भगवन्त सिंह, पूर्व शिक्षा निदेशक उत्तर प्रदेश डा. कृष्णा अवतार पाण्डेय, सम्पादक अरूण खोटे अखिलेन्द्र प्रताप सिंह, सलीम समेत कई मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल हुए।

पूर्व न्यायाधीश राजेन्द्र सच्चर ने भवानीपुर की घटना को पंजाब से जोड़ा और कहा कि वर्षों पूर्व बसों से उतारकर छः निर्दोष युवकों की हत्या कर दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई से करायी गयी जांच में मुठभेड़ फर्जी पायी गयी। ठीक यहीं स्थिति भवानीपुर की है। उन्होंने इस घटना का सबसे दुःखद पहलू इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा इन फर्जी मुठभेड़ों पर याचिका को स्वीकार न करना बताया। राजेन्द्र सच्चर द्वारा उत्तर प्रदेश में हो रहे मानवाधिकार हनन के मामले के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय को भेजे गये पत्र पर ही उच्चतम न्यायालय ने मानवाधिकार आयोग को भवानीपुर काण्ड की जांच करने के आदेश दिये।

सीबीआई जॉंच भी लम्बित है, लेकिन लगभग दस वर्ष बाद भी जॉंच रिपोर्ट सार्वजनिक न होना केंद्र और राज्य सरकारों की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़ा करती है। साथ ही यह भी आभास होता है कि सरकारें आज भी पूरी तरह सामन्ती व्यवस्था के तहत संचालित हैं और उन्हें दलितों और निर्दाषों के मुद्दे से कोई लेना-देना नहीं। भवानीपुर हो चाहे सोनभद्र का करहिया अथवा चन्दौली में हुई मुठभेड़े।

ऐसी हिंसा की शुरूआत क्यों हुई, इसके पीछे के कारणों पर गौर किया जाये तो उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह इस नरसंहार के लिये कहीं न कहीं जरूर दोषी हैं। राज्य द्वारा हिंसा का यह क्रूर खेल तब शुरू हुआ जब 13 अक्टूबर 2000 को सोनभद्र के करमा थाना क्षेत्र में रात में मुठभेड़ के दौरान चन्दौली के नौगढ़ थानाध्यक्ष ओ.पी. सिंह और सिपाही वेदप्रकाश की कथित माओवादियों की गोली लगने से मौत हो गयी। इस पर मृत थानाध्यक्ष और सिपाही को श्रद्धांजलि देने पहुंचे राजनाथ सिंह ने पुलिस को ललकारा और कहा कि 'अगर वे एक मारें तो आप चार मारें।' उनका यह बयान इस समूचे आदिवासी इलाके के लिए शोषण उत्पीड़न व दमन का कारण बन गया। उनके इस बयान के बाद सोनभद्र, चन्दौली और मीरजापुर में मुठभेड़ों की बाढ़ आ गयी।

भवानीपुर की घटना में शामिल तो इन तीनों जिलों की पुलिस थी, लेकिन पदोन्नति और पुरस्कार सिर्फ मिर्ज़ापुर पुलिस को मिली। सोनभद्र तथा चन्दौली पुलिस ने भी मिर्ज़ापुर पुलिस की तरह पदोन्नति व पुरस्कार पाने के लालच में माओवादियों के नाम पर दलितों-आदिवासियों की हत्या का अभियान शुरू कर दिया।

मई 2001 में करमा थाने की पुलिस ने टिकुरिया गॉंव निवासी राजेन्दर हरिजन को मार गिराया। राजेन्दर क्षेत्र में अपनी बिरादरी के स्वाभिमान, सम्मान और हक़ की आवाज़ उठाने लगा था। इसे भी पुलिस ने नक्सली की सूची में शामिल कर दिया था। इसी वर्ष जुलाई के प्रथम सप्ताह में पन्नूगंज पुलिस ने बगौरा गॉंव निवासी बचाउ हरिजन को मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया, जबकि रामगढ़ बाजार के तमाम लोगों का कहना था कि पुलिस ने उसे बाजार में खरीददारी करते वक्त पकड़ा। इसी तरह सितम्बर और नवम्बर में भी एक-एक दलित युवकों की पुलिस ने हत्या की।



विजय विनीत उन पत्रकारों में हैं,जो थानों पर नित्य घुटने टेकती पत्रकारिता के मुकाबले विवेक को जीवित रखने और सच को सामने लाने की चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी निभाते हैं.





विनायक के बाद अब पीयूष गुहा को मिली जमानत


पीयूष  की चिंता में मां-बाप दोनों मर गये। 2007  में हुई गिरफ्तारी के एक साल बाद पिताजी और फिर उसके एक साल बाद मां मर गयी। पीयूष को बड़ा दुख होगा कि उसके कारण मां-बाप मर गये...

अजय प्रकाश    

मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉक्टर विनायक सेन के सहअभियुक्त और आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे कोलकाता के व्यापारी पीयूष गुहा को आज सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत दे दी। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीष जीएस सिंघवी और सीके प्रसाद की एक अवकाश  प्राप्त खंडपीढ ने पीयूष गुहा के आजीवन कारावास की सजा को रद्द करते हुए उन्हें रिहा करने का आदेश दिया है। गौरतलब है कि इस मामले के तीसरे आरोपी और वरिष्ठ  माओवादी नारायण सान्याल अभी भी छत्तीसगढ़ की जेल में बंद हैं।

छत्तीसगढ़ सरकार ने 2007 में पीयूष गुहा को माओवादियों के संवदिया होने के आधार पर यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया था। सरकार के इस आरोप को सही मानते हुए 2010में पहले छत्तीसगढ़ की निचली अदालत और फिर उच्च न्यायालय ने इस मामले के तीनों अभियुक्तों बिनायक सेन,पीयूष गुहा और नारायण सान्याल की आजीवन कारावास की सजा बरकरार रखी थी।
बिनायक सेन और नारायण सान्याल

सरकार का आरोप था कि पीयूष गुहा,विनायक सेन और जेल में बंद वरिष्ठ माओवादी नेता नारायण सान्याल के बीच की कड़ी थे,जो माओवादी पार्टी की अंदरूनी फैसले और जानकारी को विनायक सेन के जरिये नारायण सान्याल तक पहुंचाते थे। सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के फैसले को खारिज करते हुए दो लाख की जमानत और एक-एक लाख रूपये के मुचलके भरने के आदेश  के साथ पीयुश गुहा रिहा करने का आदेष दिया है। मानवाधिकार संगठन पीयूडीआर के सदस्य और असमिया प्रतिदिन के ब्यूरो चीफ आशीष  गुप्ता इसे सचाई की जीत मानते हुए कहते हैं,‘भविष्य में ऐसे गलत फैसले देने  की प्रवृति पर रोक लगेगी।'

अदालत में मौजूद रहे पीयूष गुहा  के भाई ओरूह गुहा  से जनज्वार  की  बातचीत

आजीवन कारावास की सजा काट रहे आपके भाई पीयूष  गुहा को सर्वोच्च न्यायालय से मिली जमानत पर आप क्या कहना चाहेंगे?

मेरे और परिवार के लिए बड़ी ख़ुशी  की बात है,लेकिन इस बात का दुख है कि एक निराधार मामले में हमें जमानत के लिए सर्वोच्च न्यायलय तक आना पड़ा। न्याय पाने की इस लंबी प्रक्रिया में परिवार को बड़ी मुसीबतें झेलनी पड़ीं।

कैसी मुसीबतें?
पीयूष  की चिंता में हमारे मां-बाप दोनों मर गये। 2007 में हुई गिरफ्तारी के एक साल बाद पिताजी और फिर उसके एक साल बाद मां मर गयी। पीयूष  को बड़ा दुख होगा कि उसके कारण मां-बाप मर गये।

इस बीच परिवार की माली हालत कैसी रही?

हमलोगों का धंधा तेंदुपत्ता और बीड़ी बेचने का था,जो पश्चिम  बंगाल के मुर्शिदाबाद  के सागोर पाड़ा गांव से चलता था। लेकिन पीयूष  की गिरफ्तारी के बाद व्यवसाय पूरी तरह बर्बाद हो गया क्योंकि उसे चलाने वाला कोई नहीं रहा।

आप इस जीत में किन लोगों का योगदान मानते हैं?

मानवाधिकार संगठन पीयूडीआर, पीयूसीएल और कोलकाता एपीडीआर अगर नहीं होते तो शायद हम अपने भाई को जमानत नहीं दिला पाते। प्रशन भूषण  और वृंदा ग्रोवर का बतौर वकील पीयूष के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय में खड़ा होना भी बेहद महत्वपूर्ण रहा।

क्या आपके भाई का माओवादियों के साथ कोई संबंध रहा है?

मैं ऐसा नहीं कह सकता,लेकिन जिस तरह सरकार माओवादियों को आतंकवादी बताने पर तुली है, हम ऐसा नहीं मानते।

जनता की भाषा में हो कविता - मैनेजर पांडेय

शमशेर की कविता को समझने के लिए जिंदगी को समझने पर जरुरत है. शमशेर की कविता की कुछ आलोचनाएँ  रहस्यवादी हैं और आलोचना  में रहस्यवाद बहुत घातक है...

कौशल किशोर

सुप्रसिद्ध आलोचक एवं जनसंस्कृति मंच के अध्यक्ष प्रो मैनेजर पांडेय ने कहा है कि कोई भी कविता तब जनतांत्रिक होती है जब वह संवेदना, संरचना व भाषा के स्तर पर जनता के लिए, जनता के बारे में और जनता की भाषा में बात करे। बड़ी  कविता वह है जो संकट के समय लोगों  के काम आए। नागार्जुन के काव्य लोक व्यापक विविधताओं का है तो शमशेर की कविता को जानने के लिए प्रकृति, संस्कृति और जिंदगी को समझना जरूरी है।

मैनेजर  पाण्डेय

प्रो पांडेय रविवार को जन संस्कृति मंच द्वारा हिन्दी के प्रसिद्ध कवियों शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन के जन्मशती समारोह के मौके पर ‘काल से होड़ लेती कविता’आयोजन में व्याख्यान दे रहे थे। यह आयोजन जयशंकर प्रसाद सभागार कैसरबाग में किया गया था। प्रो पांडेय ने कहा कि नागार्जुन एक ओर भारत के काश्मीर से मिजोरम के बारे में कविता लिखते हैं तो दूसरी तरफ अपने समय के लगभग सभी राजनैतिक व्यक्तियों पर कविता के जरिए सच कहने का साहस दिखाते हैं। उन्होंने प्रकृति पर जितनी कविताएं लिखी उतनी कविताएं शायद ही किसी कवि ने लिखी है। उनकी काव्य भाषा के विविध रूप और स्तर हमें चकित करते हैं।

प्रो पांडेय ने शमशेर की कविता को समझने के लिए जिंदगी को समझने पर जोर दिया। उन्होंने शमशेर की कविता की कुछ आलोचनाओं को रहस्यवादी आलोचना बताते हुए कहा कि आलोचना में रहस्यवाद बहुत घातक है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि यदि कविता लोगों की स्मृति में नहीं है तो वह किसी काम की नहीं है। जो कविता याद रहेगी वह काम करेगी। उन्होंने शमशेर और नागार्जुन को अपनी कविताओं में सभी कलाओं का इस्तेमाल करने वाला कवि बताया।

इसके पूर्व युवा आलोचक सुधीर सुमन ने केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं पर बोलते हुए कहा कि केदारनाथ अग्रवाल देशज आधुनिकता के कवि हैं जिनकी कविताएं अपनी परम्परा,प्रकृति और इतिहास से गहरे तौर पर जुडी हुई है। उनके जीवन और कविता में जनता के स्वाभिमान,संघर्ष चेतना ओर जिंदगी के प्रति एक गहरी आस्था मौजूद है। पूंजीवाद जिन मानवीय मूल्यों और सौन्दर्य को नष्ट कर रहा है और उस पूंजीवादी संस्कृति और राजनीति के प्रतिवाद में केदार ने अपनी कविताएं रचीं। उनकी कविताओं में जो गहरी उम्मीद है किसान, मेहनतकश जनता के जीत के प्रति वह आज भी हमें  उर्जावान बनाने में सक्षम है।

कार्यक्रम का आरम्भ शमशेर की कविता ‘काल तुझसे होड़ है मेरी: अपराजित तू - तुझमें अपराजित मैं वास करूँ‘के पाठ से हुआ। इस मौके पर भगवान स्वरूप कटियार ने शमशेर की कविता ‘बात बोलेगी’ तथा ‘ निराला के प्रति’ का भी पाठ किया। ‘जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है/तूफानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है/जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है/जो रवि के रथ का घोड़ा है/वह जन मारे नहीं मरेगा/नहीं मरेगा’केदार की इस कविता का पाठ किया ब्रहमनारायण गौड़ ने। उन्होंने केदार की कविता ‘मजदूर का जन्म’ व ‘वीरांगना’ भी सुनाईं। सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने नागार्जुन की दो कविताओं का पाठ किया।  

जन्मशती समारोह में मैनेजर पाण्डेय ने चन्द्रेश्वर के कविता संग्रह ‘अब भी’’का लोकार्पण किया। आयोजन के अन्तिम सत्र में ‘हमारे सम्मुख शमशेर’ के अन्तर्गत शमशेर के कविता पाठ की वीडियो फिल्म दिखाई गई। इस फिल्म के माध्यम से लोगों ने शमशेर के मुख से उनकी कविताएँ सुनीं। कार्यक्रम के अन्त में मार्क्सवादी आलोचक चन्द्रबली सिंह को दो मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि दी गई।
 
 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष : लूट, पैसा और पॉवर

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा  कोष नाम तीसरी दुनिया के देशों  पर यूरोपीय व अमेरीकी धौंसपट्टी व वित्तिय कब्जा करने के संस्थान के रूप में जाना जाता रहा है। यहां उनके हिटमैन बैठते हैं जो इथोपिया से लेकर भारत व चीन तक के राजनीतिक संस्थानों की बांह उमठने की नीति बनाते व अमल करते हैं...

अंजनी कुमार

डॉमिनिक स्ट्रॉस  केन यानी डीएसके पर अमेरीका के न्यूयार्क में बलात्कार के आरोप, गिरफ़्तारी व कोर्ट में पेशी  की खबर अंतर्राष्ट्रीय वित्त व राजनीतिक संस्थानों के लिए एक बड़ी खबर थी। खबर इसलिए बड़ी थी कि इससे डीएसके का जाना तय हो गया था। खबर के शेष  हिस्से में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे इस खबर का बाजार मूल्य इसे अखबारों के मुखपृष्ठ  तक ले आता।

डीएसके के ऊपर पैसा व पॉवर का प्रयोग कर महिलाओं को गिरफ्त  में लेने व उत्पीड़न करने के आरोप पहले भी लगते रहे हैं। न्यूयार्क शहर वित्तिय संस्थानों का शहर माना जाता है। मंहगे होटल, विलासिता व अपराध वहां के जीवन का हिस्सा है। न्यूयार्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार जिस तीन हजार डॉलर प्रति रात सूइट वाले होटल में डीएसके ने महिला उत्पीड़न किया वहां इस तरह की घटनाएं आम हैं। डीएसके की इस घटना को चटपटी और सनसनीखेज बनाकर छापा गया। जिससे कि डीएसके का जाना तय हो गया। न्यूयार्क टाइम्स ने संस्थान के अध्यक्ष को हथकड़ी लगाकर पेश करने की अमेरीकी कार्यवाई को इस कारण से आलोचना रखी कि इससे वित्तिय संस्थानों व उनके कर्मचारियों के कार्य व्यवहार पर अनावश्यक  दबाव पड़ेगा।

न्यूयार्क की चिंता होटल व्यवसाय और वित्तिय संस्थान के पदाधिकारीयों के विलाषितापूर्ण जीवन को बचाए रखने की ही मुख्य है। द इकोनॉमिस्ट ने इसे ‘यूरोपीय मर्दाना व्यवहार’ बताकर अमेरीकी लोगों की गैरवाजिब ‘नैतिकता पर जोर’ बताकर इसके पीछे की कटु सच्चाई को मसालेदार बनाकर पेष किया। दरअसल यह अमेरीका की यूरोपीय हितों के मामले में एक गंभीर हस्तक्षेप है। मुद्रा कोष  के कर्मचारी इस बात से वाकिफ हैं। उन्होंने जब तय किया कि डीएसके के बाद किसी मर्द के बजाय महिला को ही इसका अध्यक्ष बनाया जाय तो उनका इशारा फ़्रांसिसी वित्त मंत्री क्रिस्टीना  लेगार्द की ओर था।

आमतौर पर मुद्रा कोष  का नाम तीसरी दुनिया के देशों  पर यूरोपीय व अमेरीकी धौंसपट्टी व वित्तिय कब्जा करने के संस्थान के रूप में जाना जाता रहा है। यहां उनके हिटमैन बैठते हैं जो इथोपिया से लेकर भारत व चीन तक के राजनीतिक संस्थानों की बांह उमठने की नीति बनाते व अमल करते हैं। ये तीसरी दुनिया के प्रधानमंत्री व वित्तमंत्री तक का चुनाव और उनके कार्यव्यहार तक को तय करते हैं। भारत के संदर्भ में देखें तो यहां का गृहमंत्री, प्रधानमंत्रीए वित्त मंत्री और योजना आयोग के अध्यक्ष-उपाध्यक्ष इसी कोष  की पैदाइश  हैं। वित्तिय नौकरषाहों की फौज का आयात अलग से किया गया है जिनकी घुसपैठ देष के हरेक संस्थान में  है। चाहे वह शिक्षा विभाग हो या टट्टी की साफ सफाई हो।

जो काम सेना नहीं कर पाती है उसे यहां के हिटमैन करते हैं और किसी भी देश  के संरचनागत बदलाव को अंजाम देकर उसे धीरे धीरे गुलामी व मौत के मुंह में ढ़केल देते हैं। लेकिन यूरोपीय व अमेरीकी मामले में इनका रूख एकदम भिन्न होता है। जरूरत पड़ने पर ये अपने हितों के लिए कोष की जेब तक पलट सकते हैं। डीएसके इसी मुद्रा कोष  के अध्यक्ष थे और अपना कार्यकाल समाप्त कर फ़्रांस  के अगले चुनाव में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने वाले था। डीएसके का नाम पिछले दिनों मुद्रा कोष में काम करने वाली एक अर्थशास्त्री पीरोस्का नैगी ने भी डीएसके पर उत्पीड़न करने का आरोप लगाया था।

डीएसके ने नैगी की प्रस्तावित योजना को काफी तवज्जो दी और उसके साथ मिलकर यूरोप के चार देषों पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बेलआउट देने की एक बड़ी योजना पर अमल करना तय किया। अकेले पुर्तगाल को 110 बिलियन डालर देने की योजना बनाई गई जिसमें से 36.8 बिलियन डालर का बेलआउट तत्काल मंजूर कर लिया गया। ग्रीस को यूरोपीय यूनियन व मुद्रा कोष  ने लगभग 145 बिलियन डालर का  बेलआउट देना तय किया। इस मद का आधा हिस्सा दिया जा चुका है। खबर है कि मुद्रा कोष इसकी आगामी किस्त रोक देने की फिराक में है। यूरोप में मंदी का जोर काफी है और वहां वित्तिय संकट लगातार बना हुआ है जिसके चलते वहां आंदोलनों का जोर बढ़ता जा रहा है और सरकारें किसी तरह राहत हासिल करने की फिराक में हैं।

पिछले दिनों पूरे यूरोप में काम के घंटे, पेंषन, वेतन और रोजगार को लेकर बड़े बड़े प्रदर्शन  हुए है। ग्रीस के युवाओं का 40 प्रतिशत हिस्सा बेरोजगार है और बिमार होने का अर्थ है नौकरी खो देना। स्पेन में युवाओं 45 प्र्रतिषत हिस्सा बेरोजगार है। वहां के हालात मिस्र  जैसा विस्फोटक है। स्थानीय निकाय चुनाव में 13 में से 11 सीट हार जाने के बाद सत्तासीन सोशलिस्ट पार्टी ने लोगों के इकठ्ठा होने की पाबंदी लगा दिया जिसके खिलाफत में देश  के 50 शहरों के सरकारी केंद्रों पर लोगों ने प्रतीकात्मक   कब्जेदारी कर इस आदेष का खुलकर माखौल उड़ाया गया। जर्मनी व इटली में मजदूर आंदोलन का जोर पिछले दो सालों से काफी बढ़ गया है।

खुद फ़्रांस  इन हालातों का षिकार है जहां डीएसके राष्ट्रपति बनने की उम्मीदवारी तय कर रखा था। पिछले साल के सितंबर- अक्टूबर में 60 लाख मजदूर सड़क पर उतर आए थे। अमेरीकी व यूरोप में मंदी से निपटने के तरीकों में सहमती नहीं है। खुद अमेरीका पर ऋण भार 14.3 tri लियन डालर हो चुका है। जिसके चलते बेघर व बेरोजगारों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। यूरोप में कम्युनिस्ट व समाजवादी आंदोलनों के चलते वहां की सरकारों पर सामुदायिक खर्च की जिम्मेदारी का दबाव है। इसमें कटौती करने का अर्थ राजनीतिक सामाजिक दबावों व आंदोलनों का सामना करना है। इसका दूसरा असर यूरोपीय समाज में फासिस्ट प्रवृत्तियों का उभार भी है। यूरोपीय वित्तीय गुट इस संकट से निकलने की छटपटाहट में हैं। और वे अमेरीका के सामुदायिक मदों पर खर्च के प्रस्ताव को स्वीकार करने के बजाय मुद्रा कोष  जैसे वित्तीय संस्थानों से बेलआउट के आधार पर मंदी से उबर आने  पर जोर लगाए हुए हैं।

यूरोपीय गुट की मुद्रा कोष  की सांगठनिक संरचना पर पकड़ भी है। जाहिर सी बात है कि  अमेरीका यूरोप से वैसे ही नहीं निपट सकता जैसा वह तीसरी दुनिया के देशों  के साथ निपटता रहता है। वह फिलहाल तो पैसा ताकत व सेक्स के इस बाजार में  नैतिकता पर जोर देकर ही डीएसके को बाहर जाने का दरवाजा दिखा सकता था। मगर अगले अध्यक्ष के चुनाव में अब भी यूरोपीय नाम ही प्रमुखता से उभरकर आया है। फ़्रांस  की वित्त मंत्री क्रिस्टीना  देगार्द डीएसके की तरह ही दक्षिणपंथी है। शायद यह नाम अमेरीका को रास आए। पर तीसरी दुनिया के देशों को यह नाम नहीं रूच रहा है।

देश  के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह रूस, चीन, ब्राजील व अन्य देशों  के साथ मिलकर यह सवाल उठा रहे हैं कि हर बार मुद्रा कोष  का अध्यक्ष यूरोप से क्यों हो?  साथ ही यह बयान देकर रास्ते को खुला छोड़ दिया कि इसकी सांगठिन संरचना में बदलाव एक बार में नहीं हो सकता फिर भी तीसरी दुनिया के देशों  के हितों व दावों का ध्यान रखा जाय। इस कमजारे व लिजलिजे तर्क का निहितार्थ यही है कि देगार्द को अध्यक्ष बनने दिया जाय। क्रिस्टीना  देगार्द जी-20 की अध्यक्ष रहीं हैं। साम्राज्यवादियों के इस मंच से उन्होंने वैष्विक मंदी से निपटने के लिए तीसरी दुनिया, खासकर भारत, ब्राजील व चीन के बाजार की ओर रूख करने की नीति पर जोर दिया था। प्रणव मुखर्जी व वाणिज्य और उद्योगमंत्री आनंद शर्मा ने फ़्रांस  के इस उम्मीदवार को अनौपचारिक स्वीकृति दे दी है। क्रिस्टीना  देगार्द फ़्रांस में दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री मानी जाती हैं। जब फ़्रांस  आर्थिक तंगी से गुजर रहा था और मजदूरों व कर्मचारियों पर पूरा भार डालकर मंदी से उबरने के प्रयास चल रहे थे उस समय उन्होंने एक व्यापारी बनार्ड तेइपी को 285 मिलियन यूरो एक बैंक से उठाकर दे दिया। जिसका मामला वहां की कोर्ट में है।

सारकोजी व उनकी सरकार अपने दक्षिणपंथी रूख के लिए जानी जाती है। देगार्द का नाम न केवल यूरोपीय देशों बल्कि अमेरीका को भी रास आ जाएगा। और उनके  हितों के लिए वह बढ़िया हिटमैन साबित होगी। पैसा पॉवर व सेक्स के इस बाजार व संस्थान का खामियाजा आमजन व तीसरी दुनिया के देषों को ही उठाना है। लूट के इन विष्व संस्थानों में हिटमैनों की उठापटक हाथियों की धमाचौकड़ी ही है। फिर भी इससे इतना तो पता चलता ही है कि वहां विष्व मंदी से निपटने के लिए कितनी मारामारी मची हुई है। बहरहाल, डीएसके को ढ़ाई लाख डालर व अन्य मिलने वाली सुविधाओं के साथ मुद्रा कोष  से विदाई हो चुकी है। साथ ही महिला उत्पीड़न का मामला भी खात्मे की ओर बढ़ चुका है। साम्राज्यवादी लूट का नया चेहरा उन्हें मंदी से किस हद तक उबारेगा, यह देखना बाकी रहेगा। इस चेहरे का नाम जो भी हो हम इस देश  के लोग लूट के विद्रूप चेहरे को रोज ही देख रहे हैं।



स्वतंत्र पत्रकार व राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता.फिलहाल मजदूर आन्दोलन पर कुछ जरुरी लेखन में व्यस्त.







May 30, 2011

सिटी मजिस्ट्रेट के नौकर की हत्या या आत्महत्या


सिटी मजिस्ट्रेट के यहां उसे मात्र 2500 रुपये महीना मिलता था और वह काफी दिनों से वह उनके यहां से काम छोडऩा चाहता था। मगर मेम साहब (सिटी मजिस्ट्रेट की बीवी) ऐसा करने पर उसे चोरी के इल्जाम में जेल भेजने की धमकी देती थीं...

रजनीश पाण्डेय

उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के सिटी मजिस्ट्रेट मनोज कुमार सिंह के घरेलू नौकर मिंटू ने कम तनख्वाह और अमानवीय व्यवहार से तंग हो 25 मई को सल्फास की गोली खाकर आत्महत्या कर ली थी.मिंटू ने मजिस्ट्रेट के घर काम के दौरान होने वाले अमानवीय  व्यवहारों   और बंधुआ मजदूर की तरह काम लेने के कारण आत्महत्या की है.  ये बातें मीडिया से जिला अस्पताल में इलाज के दौरान अंतिम सांसे गिनते हुए मिंटू खुद कहीं थीं.

शहर के सामाजिक और मानवाधिकार संगठन भी इसे उत्पीडन से तंग आकर की गयी आत्महत्या मान रहे हैं और इस मामले में जाँच की मांग कर रहे हैं.लेकिन मजिस्ट्रेट साहब इस मामले को नौकर की गरीबी और जाति का फायदा उठाकर दबा देने के तिकड़म में लगे हैं और वे इसे प्रेम प्रसंग की निराशा में की गयी, आत्महत्या का मामला बनाने पर तुले हैं. मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और बरेली कॉलेज के  शिक्षक जावेद ने कहा कि,'इस मामले में अगर रसूखदारी चली तो मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल इसके खिलाफ व्यापक मुहीम चलाएगा.'

गौरतलब है कि मिंटू बिजनौर के गांव डटिया का रहने वाला था और सिटी मजिस्ट्रेट मनोज कुमार सिंह की ससुराल भी इसी गावं में है. मनोज कुमार की जाति राजपूत हैं और मिंटू की गुर्जर. मनोज की जाति और परिवार दोनों ही डटिया में  ताकतवर हैं और मिंटू की का यह दोनों पक्ष कमजोर है, जिसका फायदा उठाने की लगातार कोशिश में मनोज कुमार हैं. इसी का असर है कि मिंटू का कोई भी परिजन इस मामले में मीडिया से मुखातिब होने को तैयार नहीं है.
 


जाहिर है ससुराली जान- पहचान की वजह से मिंटू ,मजिस्ट्रेट के यहां चार साल पहले काम पर लगा और वह जजी (जज)कालोनी में सिटी मजिस्ट्रेट के घर के आउट हाउस में रहने लगा. 25 मई की सुबह  सवा नौ बजे उसने सल्फास की गोलियां खा लीं तो  हालत बिगडऩे पर सिटी मजिस्ट्रेट के अर्दली महेंद्र ने उसे जिला अस्पताल में भर्ती कराया। वहां इलाज से मिंटू की हालत में कोई सुधार नहीं दिखने पर उसे रूहेलखंड मेडिकल कॉलेज ले जाया गया। दोपहर में करीब एक बजे  जिला अस्पताल में भर्ती कराए जाने के कुछ देर बाद तक मिंटू होश में था।

इस दौरान उसने मीडिया को बताया कि 'सिटी मजिस्ट्रेट के यहां उसे मात्र 2500 रुपये महीना मिलता था और वह काफी दिनों से वह उनके यहां से काम छोडऩा चाहता था। मगर मेम साहब (सिटी मजिस्ट्रेट की बीवी) ऐसा करने पर उसे चोरी के इल्जाम में जेल भेजने की धमकी देती थीं। इन्ही धमकियों से तंग आकर  मैंने  जहर खा लिया।' मिंटू ने आगे कहा कि, '23 मई  को मैंने अपने घर बिजनौर जाने की बात कही और मेमसाहब से कहा हिसाब कर दो। इस बात पर सिटी मजिस्ट्रेट की पत्नी (मेमसाहब) ने मिंटू को चोरी के इल्जाम में जेल भिजवाने की धमकी दी। मंगलवार शाम को उन्होंने छह लाख रुपये की नगदी और गहने चोरी करने का इल्जाम लगा दिया।

डर के मारे वह बिजनौर नहीं गया, मगर पूरी रात उसे नींद नहीं आई। उसे घबराहट और बेचैनी हो रही थी। इसी तनाव के चलते उसने सल्फास खा लिया। मामला सिटी मजिस्ट्रेट से जुड़ा होने की वजह से पूरा प्रशासनिक और पुलिस का अमला सतर्क हो गया है। 25मई की दोपहर बाद मिंटू के बहनोई और बिजनौर में हल्दौर इलाके में सुल्तानपुर गांव के रहने वाले भागेश समेत कई लोग बरेली आ गए। पुलिस प्रशासन ने उन्हें मीडिया से दूर रखा।

मिंटू के बयान की रेकार्डिंग मीडिया के हाथ लगने के कारण प्रशासनिक अमले में खलबली है.  दूसरी तरफ सिटी मजिस्ट्रेट के दबाव के कारण  सुरक्षा में लगे होमगार्ड धर्मेंद्र की ओर से कोतवाली में मिंटू के खिलाफ आत्महत्या की कोशिश करने की रिपोर्ट दर्ज कराई गई है। इसमें कहा गया है कि मिंटू पारिवारिक कारणों से काफी तनाव में था, जिस वजह से उसने सल्फास खा लिया।


May 28, 2011

आत्मसमपर्ण की कीमत पर बना संविधान किसका होगा ?

आज 28 मई को नेपाल की संविधान सभा का दूसरा कार्यकाल समाप्त हो रहा है. संविधान सभा का गठन 2008 में हुआ था, जिसमें नेपाल की माओवादी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है. सभा ने अपनी पहली बैठक में नेपाल को गणराज्य घोषित किया था. सभा का उद्देश्य नेपाल गणराज्य का संविधान लिखना था और माओवादी पार्टी के साथ हुए  समझौते के तहत शांतिप्रक्रिया को पूरा करना था. लेकिन ऐसा अब तक नहीं हो सका है. पिछली बार ऐसी ही परिस्थितियों में इस विश्वास के साथ संविधान सभा के कार्यकाल को बढाया गया था कि वहां की पार्टियाँ आपसी सहमती से एक वर्ष के अन्दर संविधान लिख लेंगी, मगर  ऐसा नहीं हो सका. इसका मुख्य कारण अन्य पार्टियों  का माओवादी पार्टी पर भरोसा न करना रहा. हालाँकि इस पार्टी ने वह सब किया जिसका भरोसा इसने दिलाया था. फिर भी माओवादियों पर  राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर दवाब बनाया गया. इस दवाब ने पार्टी के भीतर विवाद को पैदा किया और पार्टी ‘दबाव में झुकने वाले’ और ‘न झुकने वाले’ दो गुटों में बंट  गई. पार्टी के अध्यक्ष प्रचंड साल भर दो ध्रुवों के बीच झूलते रहे. प्रस्तुत लेख पार्टी के भीतर चली इस बहस से रूबरू करता है और माओवादी पार्टी की आगामी कार्यदिशाको समझने का  प्रयास करता है. जनज्वार में हमारी कोशिश रही है  कि  हम दोनों पक्षों को प्रस्तुत करने का प्रयास करें  ताकि हमारे पाठक अपने पड़ोसी  देश के राजनीतिक हालत से परिचित होकर अपना नजरिया बना सकें... मॉडरेटर  

बहुमत भले ही प्रचण्ड के साथ हो पर वे नहीं चाहते कि खुले रुप से आत्मसमर्पण का सन्देश पार्टी और पीएलए में जाये । उससे उनकी ही लाइन के समर्थक भी पार्टी और पीएलए के लोगों के भड्कने का खतरा है....

लक्ष्मण पन्त

कम्युनिस्ट  पार्टियों के भीतर रणनीति को लेकर कोई मतभेद नहीं होते, पर रणकौशल या टैक्टिस को लेकर कई बार गहरे मतभेद होते हैं । रणकौशल के भीतर भी तात्कालिक कार्य योजना को लेकर बहस तीखा होता है । माओवादी  विचारधारा को मानने वाली सभी पार्टियाँ निर्विवाद रुप से जनवाद को अपना न्युनतम कार्यक्रम और समाजवाद को अधिकतम कार्यक्रम मानती हैं और उसे हासिल करने के लिए सशस्त्रसंघर्ष, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व और निरन्तर क्रान्ति के तीन सिद्धान्तों को स्वीकार करती है। सशस्त्र संघर्ष की तैयारी और शुरुआत पार्टी के रणकौशल और उस पर आधारित तात्कालिक कार्य योजना का प्रमुख हिस्सा हो या फिर आत्मगत तयारी के लिए एक स्तर तक संसदीय दायरे मे सुधारवादी आन्दोलन को प्रधान कार्यभार बनाया जाये और स्थिति अनुकुल होने पर लोकयुद्ध छेडा जाये  – इस बात पर भी माओवाद मानने वाली पार्टियों मे मतभेद रहे हैं ।

नेपाल में 1996 में जनयुद्ध आरम्भ होने से पहले इन सारे सवालों पर तीखी बहस हुई  । पार्टी का एक तबका मानता था कि सशस्त्र संघर्ष को स्वीकारना , लेकिन उसे पार्टी के व्यावहारिक काम का प्रधान हिस्सा न बनाना छद्म संशोधनवाद है ।  इसलिए पार्टी को आरम्भ से ही जनयुद्ध की तैयारी में लगना चाहिए और गावों को अपने काम का आधार बनाना चाहिए । दूसरा हिस्से का मानना था कि नेपाल में दिर्घकालीन जनयुद्ध के जरिये नहीं बल्कि आम सशस्त्र विद्रोह के जरिये क्रान्ति होगी ।  उसके हिसाब से पार्टी को अपने काम का आधार गाँव नही बल्कि शहर को बनाना चाहिए  और संविधान के दायरे में रहकर एक स्तर तक जन आन्दोलनों को आगे बढाना चाहिए । यह दूसरी लाइन पार्टी में अल्पमत में थी । पार्टी का बहुसंख्यक हिस्सा जनयुद्ध के पक्ष में था । इसके बाद 1996 से औपचारिक रुप से जनयुद्ध का आरम्भ हुआ ।

जनयुद्ध का मकसद केवल राजतन्त्र का खात्मा ही नहीं था । उसका उद्देश्य जनवादी क्रान्ति सम्पन्न कर समाजवाद की ओर प्रस्थान था । संविधान सभा और राजतन्त्र के खात्मे के बाद गणतन्त्र की स्थापना का नारा पार्टी का रणकौशलात्मक नारा था जिसके जरिये जनवादी क्रान्ति को सम्पन्न  किया जाना था । यह नारा  २००५ की पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की  चुनवाङ मीटिंग ने पास किया था । इसका उद्देश्य था :  शहरिया मध्यवर्ग को आकर्षित करना, क्रान्तिके घेरे का  विस्तार करना और निरंकुश राजशाही का अन्त कर जनवादी क्रान्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करना । इस तात्कालिक राजनैतिक कार्ययोजना को अमल मे लाने के लिए पार्टी ने युद्ध विराम घोषित किया । शान्ति वार्ता में पार्टी आगे बढी । आगे चलकर जनमुक्ति सेना को शिविरों मे रखा गया ।

तब पार्टी के भीतर यह बहस कड़ी हुई   कि फौजी हिसाब से रणनीतिक प्रत्याक्रमण को  सफल कर देश के बाकी बचे भूभाग पर कैसे क्रान्तिकारी काबिज होंगे । ध्यान रहे कि पार्टी ने 2008 में ही जनयुद्ध ‘रणनैतिक प्रत्याक्रमण’ याने अपने अन्तिम चरण मे प्रवेश होने की घोषणा की थी ।  ‘पीठ पर सवार होकर सर पर वार करने’  की सैन्य योजना में  प्रवेश करने की बात की थी । इस तरह संविधान सभा और गणतन्त्र पार्टी का तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम था  और ‘जनयुद्धमें शहरिया जनविद्रोह का समायोजन कर रणनैतिक प्रत्याक्रमण को सफल करना’ पार्टी का फौजी कार्यक्रम था  । नेतृत्व की ओर से उस समय होनेवाले प्रशिक्षणों मे लगातार इसी बात पर जोर दिया जाता रहा । पार्टी  शान्ति प्रक्रिया को जनयुद्ध की ही निरन्तरता में देखती थी ।

इस बीच अप्रैल 2008 में संविधान सभा हासिल हुई ।  उसी साल राजतन्त्र का खात्मा हुआ । तब से पार्टी के भीतर संविधान सभा को साधन के बजाये साध्य समझने और लोकतान्त्रिक गणतन्त्र को जनवादी गणतन्त्र के रुप मे पेश करने की प्रवृत्ति उभरने लगी ।  यह प्रवृत्ति ढाईसाल पहले सम्पन्न पार्टी की खरीपाटी प्लेनम मे क. प्रचण्ड की ओर से  लाइन के रुप में पेश हुई । क. किरण ने खरीपाटी प्लेनम मे दूसरा दस्तावेज पेश किया जिसमें जनविद्रोह के जरिये जनवादी गणतन्त्र  हासिल करने पर जोर दिया गया । खरीपाटी ने चुनवांग की कार्यदिशा बदल दी और जनविद्रोह के जरिये जनता का संघीय गणतन्त्र हासिल करना पार्टी का आधिकारिक लाइन बन गया ।  

पार्टी ने लोकतान्त्रिक गणतन्त्र को बुर्जुवा और प्रतिक्रियावादी गणतन्त्र घोषित किया । क. किरण की इस लाइन पर, से ही सही  प्रचण्ड और बाबुराम सहमत दीखे ।  बीते ढाई साल में पार्टीके भीतर का अन्तरविरोध इस बात पर केन्द्रित था कि क्रान्तिकारी कार्यदिशा तय होने के बावजुद उसका व्यवहार में अमल क्यों नहीं हो पा रहा है  । पार्टी के मुख्यनेता में हावी  सार संग्रहवादी चिन्तन का ही परिणाम था कि एक तरफ तो विद्रोह, क्रान्ति और वर्ग संघर्ष  की बात होने लगी  वहीं दूसरी ओर  व्यवहार में सुधार और वर्ग समन्वय पर जोर दिया जाने लगा.  यानी पार्टी के मुख्य नेतृत्व की कथनी कुछ और करनी कुछ होती रही  । नेतृत्व के शब्द और कर्म में कोई तालमेल नहीं दिखा ।

खरीपाटी प्लेनम के ठीक दो साल बाद  नवम्बर २०१० में पार्टी का छठवा प्लेनम पालूंडटार में   हुआ। इस प्लेनम में किरण, प्रचण्ड और बाबुराम ने अलग अलग दस्तावेज पेश किये ।  बाबुराम के दस्तावेज में  शान्ति और संविधान पर जोर दिया गया था । कहा गया कि आज की ‘राष्ट्रिय और अन्तर्राष्ट्रिय वर्ग और राजनीतिक सन्तुलन’  की स्थिति में जनविद्रोह की बात करना आत्मघाती होगा । किरण ने जनयुद्ध और  जनविद्रोह के समायोजन के जरिये ‘चार तैयारी’  और ‘चार आधार’  निर्माण और नये ढंग की पार्टी निर्माण  करते हुए आगे बढने की बात रखी  । किरण की धारणा थी कि जनयुद्ध की नींव पर और गांवो को आधार बनाकर ही शहरी आम विद्रोह सम्पन्न हो सकता है। उन्होने माओवादी पार्टी और  राजनीतिक दलों  और सरकार के साथ हुए विस्तृतशान्ति समझौते  में ‘जनयुद्ध के अन्त होने’ की घोषणा, ‘स्थानीय सत्ता के विघटन’ की घोषणा को भी गलत बताते हुए चुनवाङ की लाइन की समीक्षा की मांग  उठाई । उल्लेखनीय है कि चुनवाङ मीटिंग के दौरान किरण भारतीय जेल में थे । 

प्रस्तुत दस्तावेज में उन्होंने  राष्ट्रियता के पक्ष में संघर्ष का विकास करने और विद्रोह की तैयारी के लिए शान्ति और संविधान का फ्रण्ट भी उपयोग करने पर जोर दिया ।  किरण ने कहा कि देश में विद्यमान राजनीतिक संकट को क्रान्तिकारी संकट की ओर ले जाने के लिए सचेत प्रयास जरुरी है ।  बाबुराम  का मानना था कि ‘शान्ति और संविधान’  को सफल बनाकर नेपाल मे ‘मौलिक तरीके’ से शान्तिपुर्ण ढंग से क्रान्ति होने की सम्भावना है । प्रचण्ड ने शान्ति,  संविधान और विद्रोह दोनों कार्यभारों को अपने दस्तावेजमें  गोलमोल भाषा में पेश किया ।  अर्थात् दस्तावेज में उनकी कोई अपनी सुस्पष्ट लाइन नहीं थी ।   प्लेनम के आखिर आखिर में बोलते हुए  प्रचण्ड ने कहा था कि बाबुराम की कार्यदिशा पार्टी को सुधारवाद की ओर ले जायेगी ।  उनका यह भी कहना था कि किरण और उनके विचार एक दूसरे से मिलते है । इस तरह पालुङटार प्लेनम ने जनविद्रोह की लाइन पर मोहर लगा दी । बाबुराम अल्पमत में  आ गए ।

प्रचण्ड के जनविद्रोह की लाइन स्वीकारने के बावजुद यह सवाल ज्यों का त्यों बना रहा कि  क्या उन्होंने  इस  लाइन को गम्भीरता से आत्मसात किया है ? दो साल पहले खरीपाटी प्लेनम में भी उन्होंने ‘जनपक्षीय लोकतान्त्रिक गणतन्त्र’ का अपना पोजिशन बदलकर ‘जनता का संघीय गणतन्त्र’ का  किरण का पोजिशन लिया था और सशस्त्र जनविद्रोह के जरिये उसे हासिल करने पर वे सहमत हुए थे, पर उस कार्य योजना के अमल में वे उदासीन दिखे । पालुङटार के बाद भी प्रचण्ड का दोहरे मानक लगातार प्रकट हुए  । एक ओर  तोवे पार्टी के एक हिस्से के साथ  ‘विद्रोह को किसी भी कीमत पर सफल बनाने’की  बात करते रहे और दूसरे हिस्से के साथ  ‘शान्ति औरसंविधान को हर हाल में पूरा करने’  की  बात करते रहे ।  इसीबीच वे १६ मार्च को अचानक सिंगापुर के लिए रवाना हुए ।

अप्रैल में  प्रचण्डने आनन फानन में पार्टी की पोलित  ब्यूरो की बैठक बुलाई । उन्होंने  बैठक में  अपना एक डाकुमेंट पेश किया ।  दस्तावेज में उन्होंने ‘सेना समायोजन कर शान्तिप्रक्रिया को पुरा करने’  और ‘कांग्रेस और एमाले से मिल कर संविधान का एकीकृत प्रारुप जारी करने’ पर जोर दिया  । उनका यह कहना था कि ऐसा न करने पर संविधान सभा भंग होगी, सेना या राष्ट्रपति अपने हाथ में शासन ले लेंगे , प्रतिविद्रोह होगा और क्रान्ति की उपलब्धियाँ समाप्त हो जायेंगी । इसके कारण में  उन्होंने लिखा कि २८ मई तक देश में विद्यमान राजनीतिक संकट का क्रान्तिकारी संकट मे बदलने के कोई आसार नहीं है, पार्टी के भीतर विभाजन है इन हालातों मे प्रचण्ड का कहना है कि विद्रोह सम्पन्न नही हो सकता। इसलिए सेना समायोजन करने और  मिलकर संविधान लिखनेके आलावा  कोई विकल्प नहींहै  । यानी  क्रान्ति की उपलब्धियों की रक्षा के  नाम पर क्रान्ति की सबसे बडी उपलब्धि – जनमुक्ति  सेना और हथियार– का प्रतिक्रियावादियो के हाथों सौंप देना! यह  क. प्रचण्ड का गजब का मार्क्सवाद है जो आत्मसमर्पण को  रक्षा मान बैठते हैं । प्रचण्ड के प्रस्ताव के पक्ष में लगभग 95 केंद्रीय समिति सदस्यों ने अपना समर्थन दिया ।

किरण ने मीटिंग में अपना अलग दस्तावेज पेश किया । किरण ने कहा कि प्रचण्ड का प्रस्ताव पार्टी को दक्षिणपन्थी संशोधनवाद और राष्ट्रीय  आत्मसमर्पणवाद की ओर ले जायेगा । किरण को 50 के करीब केंद्रीय समिति सदस्यों का समर्थन मिला । कहने की जरुरत नहीं कि प्रचण्ड के इस प्रस्ताव की भारत की सत्ता के गलियारों मे काफी वाहवाही हुई । नेपाली कांग्रेस और एमाले के कुछेक नेताओं ने तो यहाँ तक  कह डाला  कि  ‘प्रचण्डका कदम एक साहसिक कदम है अगर वे इस पर कार्यान्वयन करते है तो उनको सरकार का जिम्मा देने में कोई हिचक नहीं होना चाहिए ।’

अपना प्रस्ताव पारित होने के तुरन्त बाद प्रचण्ड ने पत्रकारों से कहा कि उन्होने बहुत बडा जोखिम मोल कर यह प्रस्ताव लाया है । काठमाडौं में  अमेरिकी राजदुत स्काट डेलीसी ने क. बाबुराम भट्टाराई   से पार्टी की केंद्रीय समिति बैठक खत्म होने के तुरन्त बाद  २९ अप्रेल को  भेंट की । उन्होंने बताया कि अमेरिका माओवादियों को आतंकवादियों की सुची से हटाने पर विचार कर रहा है । प्रत्युत्तर में  भट्टाराई ने कहा कि उनकी पार्टी अन्य राजनीतिक दलों से सहमति कायम कर आगे बढेगी। बाबुराम – डेलिसी भेंट के बारे में  यह बात भी चर्चा में रही  कि डेलिसी ने बाबुराम को प्रचण्ड को अपनी लाइन मे सहमत करवाने मे सफल होने के लिए धन्यवाद दिया ।

प्रचण्ड का  प्रस्ताव केन्द्रीय समिति में बहुमत से पारित हुआ । उसके कुछ दिनों बाद सीसी की स्थायी कमेटी की बैठक ने १६: ५ के भारी अन्तर से जनमुक्ति सेना को नेपाली सेना के मातहत समायोजन करनेका निर्णय ले लिया । वैसे पार्टी की नीति सेना समायोजन के बारे मे यह रही है कि जन सेना   और नेपाली सेना को मिलाकर राष्ट्रीय सेना का निर्माण किया जायेगा ।  सेना समायोजन और संविधान लिखने का काम एक साथ सम्पन्न किया जायेगा । पार्टी की नीति रही है कि पीएलए का आत्मसमर्पण नही होने दिया जायेगा  बल्कि विद्रोह और क्रान्तिको सम्पन्न करने के लिए  उसका एक मुख्य साधन के रुप मे विकास किया जायेगा। सेना का समायोजन तब तक नहीं  होगा जब तक उसका नेतृत्व पीएलए के पास नहीं होगा । अब कांग्रेस और एमाले का जोर इस बात पर है कि पीएलए के हथियार तुरन्त आज  28 मई तक नेपाली सेना को सौंप दें  ।

संविधानसभा का एक वर्ष के लिए बढाया गया कार्यकाल आज यानी  28 मई को समाप्त हो रहा है । अन्तरिम संविधान में  दो तिहाई के समर्थन से ही संविधानसभा की अवधि बढाई जा सकती है । एमाले के नेतृत्व में बनी वर्तमान माओवादी सम्मिलित  सरकार के पास दो तिहाई का आंकडा नहीं  है ।नेपाली कांग्रेस सहित अन्य १७ पार्टियाँ सरकार के विपक्ष में है । नेपाली कांग्रेस और अन्य दलों ने संविधान सभा का कार्यकाल बढाने के लिए    पीएलए के हथियारों को 28 मई कल तक सरकार को सौंपने की मांग  माओवादियों  के सामने रखी है । वैसे तो पार्टी स्थायी समिति के बहुमत ने पीएलए को नेपाली सेना के नेतृत्व में सौपने का निर्णय ले ही लिया है । किरण सहित अन्य पाँच स्थायी समिति मेम्बर्स ने उसमे अपनी असहमित दर्जकी है ।

बहुमत भले ही प्रचण्ड के साथ हो पर वे नहीं चाहते कि खुले रुप से आत्मसमर्पण का सन्देश पार्टी और पीएलए में  जाये । उससे उनकी ही लाइन के समर्थक भी पार्टी और पीएलए के लोगों के भड्कने का खतरा है । आज से पाँच साल पहले विस्तृत शान्ति समझौते   में जनयुद्धके अन्त और स्थानीय सत्ता के विघटन करने के समझौते   में प्रचण्ड बाबुराम ने हस्ताक्षर किए थे । पर आज के हालातों मे वे मनमर्जी के समझौते करने के पोजिशन में नहीं हैं ।  नीचलेस्तर पर पार्टी और सेना में क्रान्तिकारियों का बहुमत है । पार्टी के भीतर क्रान्तिकारियों के सामने पार्टी को बचाने या क्रान्ति को बचाने दो विकल्प  ही बचे हैं । जाहिर है कि आखिर में क्रान्तिकारी हिस्सा क्रान्ति को ही बचाने का फैसला लेगा ।




नेपाली जनाधिकार सुरक्षा समिति (भारत)  के पूर्व अध्यक्ष.




May 27, 2011

अग्निवेश की बात दूर तलक गयी

दो वर्ष पूर्व ग्लोबल वार्मिंग के चलते जब श्री अमरनाथ गुफा में यात्रा के समय प्राकृतिक रूप से शिवलिंग निर्माण नहीं हो सका फिर वहां नकली शिवलिंग बनाने की क्या ज़रूरत थी...

निर्मल रानी 
पिछले दिनों सामाजिक कार्यकर्ता और  बंधुआ मज़दूर मुक्ति आंदोलन के अगुवा स्वामी अग्निवेश  ने जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेता सैय्यद अलीशाह गिलानी से हुई एक मुलाकात के दौरान अमरनाथ यात्रा पर अमर्यादित टिप्पणी कर डाली। उस  टिप्पणी   का  नतीजा  इस  रूप  में सामने आया   कि   गुजरात के अहमदाबाद  शहर  में  नित्यानद  नाम  के  संत  ने  उन्हें सरेआम  चांटा  मारा  और  उनकी  पगड़ी  उछाल  दी. संत नित्यानंद अग्निवेश की अमरनाथ यात्रा पर की गयी टिप्पणी से विचलित था.  

स्वामी अग्निवेश  ने अमरनाथ यात्रा को पाखंडपूर्ण आयोजन कऱार दिया था । उनका तर्क था कि दो वर्ष पूर्व ग्लोबल वार्मिंग के चलते जब श्री अमरनाथ गुफा में यात्रा के समय प्राकृतिक रूप से शिवलिंग  निर्माण नहीं हो सका फिर वहां नकली शिवलिंग बनाने  की क्या ज़रूरत थी? अग्निवेश ने इसे पाखंड का ही एक रूप  बताया।

इसमें कोई शक नहीं कि शिवलिंग की संरचना चाहे वह पत्थरों की हो या बर्फ की यह सभी आकृतियां प्राकृतिक रूप से ही गढ़ी जाती हैं। लिहाज़ा शिवलिंग अथवा किसी अन्य देवी-देवता की आकृति के निर्माण में प्रकृति के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन  प्रश्न यह है कि जिस जनमानस का गहन विश्वास अमरनाथ गुफा में बनने वाले शिवलिंग से जुड़ा  है उसे जागरुक करने के नाम  पर  भड़काने  की क्या  आवश्यकता है ?

ऐसे में जहां देश के लाखों श्रद्धालू अमरनाथ यात्रा के प्रति इतना भावुक, गंभीर व समर्पित रहते हों वहां स्वामी अग्रिवेश की अमरनाथ यात्रा के प्रति की गई टिप्पणी पर उन भक्तजनों का आक्रोशित होना स्वाभाविक है। अग्निवेश   की इस अमर्यादित एवं आपत्तिजनक टिप्पणी ने कई अतिवादियों को भी प्रचारित होने को मौका दे दिया है। ऐसे ही किसी व्यक्ति ने अग्निवेश  का सिर क़लम किए जाने तथा ऐसा काम करने वाले को इनाम दिए जाने का फतवा भी दे दिया है। अदालतों में भी अग्निवेश के विरुद्ध इसी मुद्दे को लेकर मुकद्दमे दर्ज किए जाने के भी समाचार हैं।
धार्मिक यात्राओं के दौरान यदि आप वैष्णोंदेवी, बद्रीनाथ, केदारनाथ,अमरनाथ, गंगोत्री अथवा यमनोत्री जैसे प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित धार्मिक स्थलों की ओर जाएं तो आप देख सकते हैं   कि कई भक्तजन दंडवत करने जैसी अति कष्टदायक मुद्रा में ही सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय कर अपने परम ईष्ट के समक्ष शीर्ष झुकाने पहुंचते हैं।

इसी  तरह  कहीं किसी समुदाय के लोग तलवारों व बर्छियों से अपनी छाती तथा पीठ पर वार कर इस कद्र लहू बहाते हैं कि पूरी ज़मीन रक्तरंजित हो जाती है। ईरान, इराक,पाकिस्तान तथा भारत जैसे कई देशों में शिया समुदाय के लोग दसवीं मोहर्रम के दिन अपने इमाम हज़रत इमाम हुसैन की याद में पूरी दुनिया में सैकड़ों टन खून बहा देते हैं। देखने वाला हो सकता है उनकी इस कुर्बानी को अंधविश्वास की संज्ञा दे।
लेकिन इस प्रकार सडक़ों पर खून बहाना,हुसैन की याद में खुद को घायल करना तथा रोना-पीटना व मातमदारी करना  हज़रत हुसैन के प्रति उनकी गहन श्रद्धा व भक्ति का एक अहम हिस्सा है। बेशक इस प्रकार के खतरनाक  तथा लहूलुहान कर देने वाले आयोजन में कई लोग अपनी जान भी गंवा बैठते हैं। परंतु इसके  बावजूद आस्थावानों का यही विश्वास होता है कि इस प्रकार से मरने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से स्वर्ग का ही अधिकारी है।

इसी प्रकार अन्य समुदायों व कबीलों में कोई लोहे की छड़ को अपनी जीभ के आर-पार  कर देता है तो कोई लोहे की छड़ों से अपने दोनों गालों को भेद डालता है। शरीर पर चोट व कष्ट पहुंचाने वाले इस प्रकार के सैकड़ों रीति-रिवाज पूरे विश्व में सदियों से प्रचलित हैं। यहां तक कि इन समुदायों व रीति-रिवाजों से जुड़े लोगों की यही ख्वाहिश होती है कि उनकी यह परंपराएं,रीति-रिवाज तथा धार्मिक विरासतें आगे भी हमेशा $कायम रहें। ऐसे लोग जो अपनी ऐसी धार्मिक परंपराओं के प्रति इस हद तक समर्पित हों वे आखिर  अपनी इन्हीं धार्मिक परंपराओं व रीति-रिवाजों के विरुद्ध एक भी शब्द कैसे सुन सकते हैं?

दुनिया अक्सर देखती रहती है कि कभी कुरान शरीफ को जलाए जाने की घटना को लेकर विश्वव्यापी विरोध प्रदर्शन किए जाने की खबरें आती हैं तो कभी कुछ सिरफिरे लोग पैगम्बर का कार्टून बनाकर मुस्लिम समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का काम करते हैं। पिछले दिनों आस्ट्रेलिया में एक फैशन शो में भारतीय देवी-देवताओं के चित्रों को  लेडीज़ बिकनी,ब्रा व चप्पलों पर उकेरा हुआ देखा गया। ऐसी घटनाएं पहले भी कई बार हो चुकी हैं। मकबूल फि़दा हुसैन जैसे प्रतिष्ठित भारतीय पेंटर स्वयं धार्मिक भावनाएं भडक़ाने वाली एक पेंटिंग को लेकर विवादों में घिर चुके हैं। क्या किसी भी विश्वास व धर्म के लोगों की भावनाओं को इस प्रकार से ठेस पहुंचाने को हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहकर ऐसी बातों को दरगुज़र या नज़रअंदाज़ कर सकते हैं?

पिछले दिनों अन्ना हज़ारे ने जनलोकपाल विधयेक संसद में लाए जाने की मांग को लेकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध जब आंदोलन छेड़ा उस समय स्वामी अग्रिवेश को पूरे देश ने अन्ना हज़ारे के खास सहयोगी के रूप में देखा। इसके पूर्व भी अग्निवेश  को पूरा देश एक समर्पित,गरीबपरवर, मज़दूरों व दीन-दुखियों के हितैषी तथा एक वास्तविक त्यागी के रूप में जानता, मानता व पहचानता है। अंधविश्वास का विरोध करने वालों के रूप में भी उनकी पहचान बन चुकी है। परंतु किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली टिप्पणी कर अग्निवेश   विवादों में घिर गए हैं  और  उनपर  गुजरात  के  एक महात्मा  ने  हमला  किया  है . 

बेहतर होता यदि अग्निवेश  जैसा साफ-सुथरी तथा बेदाग छवि का व्यक्ति ऐसी अमर्यादित टिप्पणी न करता. और यदि उन्होंने ऐसा कह भी दिया है तो एक योगी होने के नाते उन्हें स्वयं ऐसी अशोभनीय टिप्पणी के पर क्षमा मांग लेनी चाहिए.


 लेखिका उपभोक्ता मामलों की विशेषज्ञ हैं और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर भी लिखती हैं.


प्रचंड ! कल की सुबह साँझ की या उजाले की

मोहन वैद्य  का पक्ष  है कि यहाँ से नेपाल की राजनीती को आगे ले जाने का रास्ता खुलता है. वे इसे अवसरों से भरी चुनौती मानते है जबकि प्रचंड इसे प्राणघाती समझते है...

विष्णु शर्मा

नेपाल की संविधान सभा का कल  28  मई को पूरा हो रहा कार्यकाल बढ जाना तय है,लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि   यह किन शर्तो पर होता है. हालत लगभग पिछले साल जैसी ही है.सत्ता पक्ष कार्यकाल बढाना चाहता है और विपक्ष इसके लिये  तैयार नहीं है. फर्क 'सिर्फ' इतना है कि इस बार कांग्रेस प्रतिपक्ष में है.

ये शहादतें अब किस सपने के लिए                            फोटो - अजय प्रकाश

कांग्रेस की शर्त है कि माओवादी अपने लड़ाकुओं के समायोजन का एक निश्चित प्रस्ताव पेश करें  और साथ ही तात्कालिक तौर पर हथियारों को सरकार के सुपुर्द कर दें. लड़ाकुओं के समायोजन का कांग्रेस का प्रस्ताव वही है जो हाल में सेना ने प्रस्तुत किया था. इसके तहत पुलिस, सेना और माओवादी जनसेना की एक मिलेजुले दस्ते का निर्माण किया जायेगा और इस दस्ते को आंतरिक विकास कार्य का जिम्मा दिया जाएगा. दस्ते में माओवादी लाड़ाकों की संख्या अभी तय नहीं की गयी है लेकिन माना जा रहा है कि यह संख्या 5000 से 8000 के बीच होगी.

इसका मतलब है कि लगभग 15000 लाड़ाकों को माओवादी पार्टी को छोड़ना होगा. माओवादी पार्टी के अध्यक्ष प्रचंड के पिछले कुछ समय के बयानों को देखे तो ऐसा लगता है कि वे इस प्रस्ताव से सहमत है,लेकिन पार्टी के दुसरे बड़े नेता और उपाध्यक्ष मोहन वैद्य  इसके खिलाफ लगातार बोलते रहे है.उनका मानना है कि माओवादी सेना की कमांड पार्टी के हाथ में होनी चाहिए और साथ ही इसका जिम्मा सीमा सुरक्षा का होना चाहिए.प्रचंड के सामने मुश्किल यह है कि यदि वे कांग्रेस के प्रस्ताव को मान लेते है तो वह पार्टी को नहीं बचा सकते. और यदि वे नहीं मानते तो संविधान सभा को.

प्रचंड के लिए संविधान सभा पार्टी से ज्यादा अहम है और इस आशय का बयान उनके निकट माने जाने वाले केंद्रीय सदस्य हरिबोल गुजुरेल ने दिया भी है जब उन्होंने कहा कि 'अध्यक्ष जोखिम भरा निर्णय ले सकते है'. ऐसे में सवाल यह है कि अगर कार्यकाल नहीं बढता तब नेपाल का राजनीतिक भविष्य का क्या होगा? माना जाता है कि ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति सत्ता अपने हाथ में ले सकते है. चूँकि अंतरिम संविधान में ऐसी किसी स्थिति का उल्लेख नहीं है इसलिए राष्ट्रपति के इस कदम को 'कू' के रूप में देखा जाएगा. यह स्थिति  माओवादियों पर अधिक असर डालेगी और  उन्हें इसके खिलाफ आन्दोलन में जाना पड़ेगा.यानि वे शांति समझौते के पहले जैसी स्थिति में पहुँच जायेंगे और ठीक यही वह परिस्थिति है जिस पर माओवादी नेतृत्व में विवाद है.

मोहन वैद्य  का पक्ष  है कि यहाँ से नेपाल की राजनीती को आगे ले जाने का रास्ता खुलता है. वे इसे अवसरों से भरी चुनौती मानते है जबकि प्रचंड इसे प्राणघाती समझते है.उनका मानना है कि इस तरह अब तक  प्राप्त की गई उपलब्धियां संकट में पड़ती है और पार्टी के सामने वैधता का संकट पैदा होता है.लेकिन वे इस बात का उत्तर नहीं देते कि पार्टी को किसकी वैधता चाहिए? यदि उनका इशारा पश्चिम के अपने पडोसी भरता की ओर है तो फिर नेपाल के दस साल के जनयुद्ध का औचित्य नहीं रह जाता.

सवाल यह भी है कि अगर  वैधता इतनी जरूरी चीज़ है तो फिर राजतन्त्र और गणतंत्र में फर्क क्या रह जाता है?  इस लिहाज़ से आज नेपाल की माओवादी पार्टी के सामने राजनीतिक और वैचारिक संकट दोनों है. कांग्रेस और अन्य दलों के लिए अपनी बात मनवाने का यह सबसे अच्छा समय है और वे यहाँ चुकेंगे ऐसा नहीं लगता.चाहे जो भी हो इस बार का 28मई माओवादियों की असल हार को (यदि वे कांग्रेस की शर्तों को स्वीकार करते है) दिखा ही देगा, जिसे वे अब तक छिपाते आये है.




और दलित बध का सिलसिला कभी नहीं थमा


मैंने पत्रकारों द्वारा किये जा रहे इस कृत्य का विरोध किया, लेकिन मेरी ज़बान और कलम दोनों को रोक दिया गया। पत्रकारों और पुलिस के इस बेमेल गठजोड़ ने दो परिवारों के घरों की खुशियां चन्द मिनट में ही छीन लीं...  किस्त 2

सोनभद्र से विजय विनीत  

गौरतलब है कि यह घिनौना और नृंशस कार्य केवल पुलिस की ही उपज नहीं थी  । इसके लिये जिले के पत्रकारों के एक वर्ग ने पुरज़ोर तरीके से पुलिस का साथ दिया था। यह सच इस फैसले के बाद उजागर हुआ है। पुलिस अधीक्षक ने मुठभेड़ के पहले रेनुकूट के एक अतिथिगृह में कुछ पत्रकारों के साथ बैठक कर उनसे मुठभेड़ में इन दोनों युवकों को मारने के लिये सहयोग की अपील की थी। इनमें से कुछ पत्रकारों ने दोनों युवकों को गोली मारने की हामी भी भरी थी।

इस घटना का मैं खुद चश्मदीद गवाह हूं। मैंने पत्रकारों द्वारा किये जा रहे इस कृत्य का विरोध किया, लेकिन मेरी ज़बान और कलम दोनों को रोक दी गयी. पत्रकारों और पुलिस के इस बेमेल गठजोड़ ने दो परिवारों के घरों की खुशियां चन्द मिनट में ही छिन लीं। वह कलम जो अन्याय का विरोध करने की क्षमता रखती थी, स्वयं खूनी बन गयी। तब मुझे लगा था कि हमारे जैसे लोगों के हाथ में रहते हुए पहली बार कलम हार गयी थी। चाहकर भी किसी बड़े अखबार ने घटना की सच्चाई उजागर नहीं की थी। फिर भी पत्रकारों के इस घिनौने कृत्य को इलाहाबाद से छपने वाले एक साप्ताहिक अखबार ' न्यायाधीश' ने मेरी रिर्पोट को छापा।

यह पहली बार हुआ है कि रनटोला मामले में सत्र न्यायालय द्वारा दिए गए इतने अहम फैसले के बाद मानवाधिकार संगठनों,  बुद्धिजीवियों,  प्रगतिशील समुदायों की तरफ से यह मांग उठाई जा रही है कि उन पत्रकारों को भी तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के साथ सह अभियुक्त बनाया जाये, जिन्होंने उस बैठक में हिस्सा लिया था जहां दो मासूमों की हत्या करने का फैसला हुआ। तत्कालीन पुलिस अधीक्षक वर्तमान में सोनभद्र के पड़ोसी जिले मीरजापुर में तैनात है। मगर इस मुद्दे पर वह मीडिया से कोई बात नहीं करना चाहते।

मृतक प्रभात के पिता लल्लन श्रीवास्तव इस फैसले पर खुश हैं,लेकिन इसे वह आधी जीत बताते हैं। उनका कहना है कि जब तक तत्कालीन एसपी को सज़ा नहीं होगी तब तक वे चैन से नहीं बैंठेगे, न ही उनके बेटे की आत्मा को शांति मिलेगी। इस मुठभेड़ में दोषी अधिकारियों और पत्रकारों को सज़ा मिलने से लल्लन प्रसाद के बेटे की आत्मा को तो शांति मिलेगी, लेकिन जिले के ही   ऐसे सैकड़ों मां-बाप को कब शांति मिलेगी जिनके बच्चों को भी यहां की पुलिस ने बेरहमी से मुठभेड़ दिखा मौत के घाट उतार दिया।

रनटोला मुठभेड़ तो मात्र एक नमूना है सोनभद्र पुलिस के चाल, चलन और चरित्र का। इस इलाके में इस तरह की ऐसी पचासों मुठभेड़ें  हुई हैं, जिनमें  पुलिस ने दलितों और आदिवासियों  को गोलियों से भून डाला। यह हत्यायें अति नक्सल प्रभावित सोनभद्र,चन्दौली और मीरजापुर जिले में तथाकथित माओवादियों को मार गिराने के नाम पर हुई हैं। इन तीनों जिलों में आदिवासी -दलित काफी संख्या में हैं। एक समय में इन जंगलों पर जिन आदिवासियों का राज हुआ करता था,आज वही शोषण, उत्पीड़न के  शिकार हैं।

इस इलाके में जितनी संख्या दलित-आदिवासियों की है,उससे कहीं अधिक संख्या उनके उत्पीड़न, शोषण और अन्तहीन दुःख-दर्द की है। जब इस शोषण,उत्पीड़न और अपने हकों को लेकर दलित-आदिवासी अपनी आवाज़ बुलंद करने लगे तो उन्हें नक्सली करार देकर उनके तमाम हकों को छीनने और जनवादी ताकतो को समाप्त करने का काम किया गया।

पिछले एक दशक से इस समूचे आदिवासी इलाके में हजारों निरीह सत्तापोषित कुचक्र का शिकार बने हैं। उत्तर प्रदेश में सिर्फ सरकारें बदलती रहीं, उनका नजरिया और कार्यप्रणाली एक जैसे रहे। प्रदेश की बागडोर भाजपा, सपा व बसपा के बीच हस्तांतरित होती रही। मुख्यमंत्री के रूप में रामराज की बात करने वाले राजनाथ सिंह,दलितों की शुभचिंतक मायावती और समाजवाद के पोषक मुलायम सिंह प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते रहे। मगर किसी भी सरकार के कार्यकाल में दलित बध का सिलसिला रूका नहीं।

इसके साथ ही अनेक परिवारों पर नक्सलियों का शरणदाता होने का आरोप लगा। किसी घर में अगर हथियारबन्द दस्ते के लोगों ने जबरिया घुसकर खाना खाया तो वह भी जेल गया। इन सरकारों के कार्यकाल में पुलिसिया कार्यप्रणाली में कोई बदलाव नहीं आया। जिसने पुलिस की मुखबिरी नहीं की, उसके परिवार की महिलाओं और लड़कियों  को नक्सली बताकर जेल भेजा गया। शायद सोनभद्र प्रदेश का पहला ऐसा जिला होगा,  जहाँ जनवादी तरीके से हक-हकूक की बात करने वाली महिलाओं पर रासुका और गैंगेस्टर की कार्यवाही हुई।

फर्जी मुठभेड़ों का यह सिलसिला वर्ष 2001 से शुरू हुआ। सोनभद्र पुलिस ने 21 जनवरी 2001 को पन्नूगंज थाना क्षेत्र के खदरा गांव से रामेश्वर नामक दलित युवक जो अपनी ससुराल आया था,को उठाकर धंधरौल बांध के पास गोली मार दी। इस पर भाकपा (माले) ने एक पखवाड़े तक जिला मुख्यालय पर क्रमिक अनशन किया। उस समय बहुजन समाज पार्टी ने भी इस मुद्दे पर खूब  हो-हल्ला मचाया। अभी यह शोरगुल थमा भी नहीं था कि सोनभद्र पुलिस ने चन्दौली के एक किसान नेता गुलाब हरिजन को चुर्क पहाड़ी पर 8 फरवरी 2001 को मुठभेड़ में मार गिराया।

गुलाब के मारे जाने से सोनभद्र, चन्दौली और मीरजापुर के लोग भौचक्के रह गये। गुलाब इन जिलों में जनवादी किसान नेता के रूप मे जाने जाते थे। वह जिला पंचायत का चुनाव भी लड़ चुके थे। पुलिस ने उनका सम्बन्ध माओवादी संगठन से होना बताया। इस पर भाकपा (माले) के तत्कालीन राज्य सचिव कामरेड अखिलेन्द्र प्रताप सिह ने पुलिस को माओवादियों और गुलाब के सम्बन्ध उजागर करने की चुनौती दी थी। बसपा सरकार के वर्तमान मंत्री इन्द्रजीत सरोज राबर्ट्सगंज सदर तहसील में आयोजित इस धरने में शामिल हुये थे।

वर्तमान विधायक सत्य नारायण जैसल, पूर्व विधायक परमेश्वर दयाल, भदोही के पूर्व सांसद नरेन्द्र कुशवाहा, रमेश वर्मा, जिलाध्यक्ष बसपा समेत तमाम कार्यकर्ताओं ने रामेश्वर की मुठभेड़ को हत्या बताया था और इस सम्बन्ध में मुख्यमंत्री के नाम पत्र लिखकर पूरे घटनाक्रम  की सीबीआई जॉंच की मांग की गयी थी। लेकिन तत्कालीन भाजपा सरकार द्वारा इन मुठभेड़ों की जांच करने की कोई भी कार्यवाही में नहीं की गई। इसके बाद तो मानो  पुलिस को फर्जी मुठभेड़ों को अंजाम देने लाईसेंस मिल गया। 

वर्ष 2002 में मीरजापुर के भवानीपुर में तीनों जनपदों की पुलिस ने होलिका दहन के दिन 16 दलितों और आदिवासियों को नक्सली बताकर उनके खून से होली खेली। जिन डेढ़ दर्जन लोगों को पुलिस ने निर्ममता से गोली मारी उसमें एक 11वर्षीय बालक कल्लू भी था। मारे गये लोगों में पुलिस रिकार्ड में खूंखार नक्सली के रूप में देवनाथ और लालब्रत का भी नाम शामिल था। पुलिस ने सभी शवों का आनन-फानन में मीरजापुर में परीक्षण कराया। इसलिये शव परिजनों को न सौंपकर गंगा नदी के हवाले कर दिये गये।

सके बाद पुलिस ने दस मृतकों के नामों की सूची जारी की और शेष को अज्ञात बताया। इस सूची मे जिस सुरेश बियार को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था, उसने घटना के एक सप्ताह बाद यानी  14 मार्च 2002 को मीरजापुर कचहरी में भवानीपुर हत्याकाण्ड के विरोध में बुलाई गयी सभा में उपस्थित होकर पुलिस को अपने जिन्दा होने का सबूत दिया। इसके बाद तो पीयूसीयूएल ,पीयूएचआर ,पीयूडीआर जैसे मानवाधिकार संगठनों ने इस मुठभेड़ की परतें और पुलिस की बखिया उधेड़नी शुरू कर दी थी। 


विजय विनीत  उन पत्रकारों में हैं,जो थानों पर नित्य घुटने टेकती पत्रकारिता के मुकाबले विवेक को जीवित रखने और सच को सामने लाने की चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी निभाते हैं.





किस्त 1 -  फर्जी मुठभेड़ के 14 बहादुरों को आजीवन कारावास