May 27, 2011

प्रचंड ! कल की सुबह साँझ की या उजाले की

मोहन वैद्य  का पक्ष  है कि यहाँ से नेपाल की राजनीती को आगे ले जाने का रास्ता खुलता है. वे इसे अवसरों से भरी चुनौती मानते है जबकि प्रचंड इसे प्राणघाती समझते है...

विष्णु शर्मा

नेपाल की संविधान सभा का कल  28  मई को पूरा हो रहा कार्यकाल बढ जाना तय है,लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि   यह किन शर्तो पर होता है. हालत लगभग पिछले साल जैसी ही है.सत्ता पक्ष कार्यकाल बढाना चाहता है और विपक्ष इसके लिये  तैयार नहीं है. फर्क 'सिर्फ' इतना है कि इस बार कांग्रेस प्रतिपक्ष में है.

ये शहादतें अब किस सपने के लिए                            फोटो - अजय प्रकाश

कांग्रेस की शर्त है कि माओवादी अपने लड़ाकुओं के समायोजन का एक निश्चित प्रस्ताव पेश करें  और साथ ही तात्कालिक तौर पर हथियारों को सरकार के सुपुर्द कर दें. लड़ाकुओं के समायोजन का कांग्रेस का प्रस्ताव वही है जो हाल में सेना ने प्रस्तुत किया था. इसके तहत पुलिस, सेना और माओवादी जनसेना की एक मिलेजुले दस्ते का निर्माण किया जायेगा और इस दस्ते को आंतरिक विकास कार्य का जिम्मा दिया जाएगा. दस्ते में माओवादी लाड़ाकों की संख्या अभी तय नहीं की गयी है लेकिन माना जा रहा है कि यह संख्या 5000 से 8000 के बीच होगी.

इसका मतलब है कि लगभग 15000 लाड़ाकों को माओवादी पार्टी को छोड़ना होगा. माओवादी पार्टी के अध्यक्ष प्रचंड के पिछले कुछ समय के बयानों को देखे तो ऐसा लगता है कि वे इस प्रस्ताव से सहमत है,लेकिन पार्टी के दुसरे बड़े नेता और उपाध्यक्ष मोहन वैद्य  इसके खिलाफ लगातार बोलते रहे है.उनका मानना है कि माओवादी सेना की कमांड पार्टी के हाथ में होनी चाहिए और साथ ही इसका जिम्मा सीमा सुरक्षा का होना चाहिए.प्रचंड के सामने मुश्किल यह है कि यदि वे कांग्रेस के प्रस्ताव को मान लेते है तो वह पार्टी को नहीं बचा सकते. और यदि वे नहीं मानते तो संविधान सभा को.

प्रचंड के लिए संविधान सभा पार्टी से ज्यादा अहम है और इस आशय का बयान उनके निकट माने जाने वाले केंद्रीय सदस्य हरिबोल गुजुरेल ने दिया भी है जब उन्होंने कहा कि 'अध्यक्ष जोखिम भरा निर्णय ले सकते है'. ऐसे में सवाल यह है कि अगर कार्यकाल नहीं बढता तब नेपाल का राजनीतिक भविष्य का क्या होगा? माना जाता है कि ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति सत्ता अपने हाथ में ले सकते है. चूँकि अंतरिम संविधान में ऐसी किसी स्थिति का उल्लेख नहीं है इसलिए राष्ट्रपति के इस कदम को 'कू' के रूप में देखा जाएगा. यह स्थिति  माओवादियों पर अधिक असर डालेगी और  उन्हें इसके खिलाफ आन्दोलन में जाना पड़ेगा.यानि वे शांति समझौते के पहले जैसी स्थिति में पहुँच जायेंगे और ठीक यही वह परिस्थिति है जिस पर माओवादी नेतृत्व में विवाद है.

मोहन वैद्य  का पक्ष  है कि यहाँ से नेपाल की राजनीती को आगे ले जाने का रास्ता खुलता है. वे इसे अवसरों से भरी चुनौती मानते है जबकि प्रचंड इसे प्राणघाती समझते है.उनका मानना है कि इस तरह अब तक  प्राप्त की गई उपलब्धियां संकट में पड़ती है और पार्टी के सामने वैधता का संकट पैदा होता है.लेकिन वे इस बात का उत्तर नहीं देते कि पार्टी को किसकी वैधता चाहिए? यदि उनका इशारा पश्चिम के अपने पडोसी भरता की ओर है तो फिर नेपाल के दस साल के जनयुद्ध का औचित्य नहीं रह जाता.

सवाल यह भी है कि अगर  वैधता इतनी जरूरी चीज़ है तो फिर राजतन्त्र और गणतंत्र में फर्क क्या रह जाता है?  इस लिहाज़ से आज नेपाल की माओवादी पार्टी के सामने राजनीतिक और वैचारिक संकट दोनों है. कांग्रेस और अन्य दलों के लिए अपनी बात मनवाने का यह सबसे अच्छा समय है और वे यहाँ चुकेंगे ऐसा नहीं लगता.चाहे जो भी हो इस बार का 28मई माओवादियों की असल हार को (यदि वे कांग्रेस की शर्तों को स्वीकार करते है) दिखा ही देगा, जिसे वे अब तक छिपाते आये है.




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