Jun 10, 2011

मजबूत प्रतिरोध और बदहवास सरकार

वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे ही भरने के लिए नागरिक समाज और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे से लेकर रामदेव इसी यथार्थ की उपज हैं...

कौशल किशोर

‘वे डरते हैं/किस चीज से डरते हैं वे/तमाम धन दौलत/गोला.बारूद.पुलिस.फौज के बावजूद ?वे डरते हैं/कि एक दिननिहत्थे और गरीब लोग/उनसे डरना बंद कर देंगे’- चार जून की मध्यरात्रि में देश की राजधानी दिल्ली में सरकारी दमन का जो कहर बरपाया गया, उसे देखते हुए गोरख पाण्डेय की यह कविता बरबस याद हो आती है। साथ ही यह सवाल उठ रहा है कि क्या 1975 का इतिहास अपने को फिर से दोहराने जा रहा है?

वह भी जून का महीना था। न सिर्फ मौसम का तापमान अपने उच्चतम डिग्री पर था बल्कि जनविक्षोभ की ज्वाला भी अपने चरम रूप में धधक रही थी। ऐसी ही हालत तथा वह भी काली रात थी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल लागू किया था। उस वक्त इंदिरा गाँधी के हाथ से सत्ता  फिसल रही थी और अपनी कुर्सी को बचाने के लिए उनके पास यही विकल्प बचा था कि वे जनता की आजादी छीन लें, उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का अपहरण कर ले।

आज देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी चार जून की रात की घटना पर यही कह रहे हैं कि उनके पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा था। अर्थात निहत्थी जनता के विरुद्ध रैपीड एक्शन फोर्स। यह जनता अपनी चुनी सरकार से यही तो माँग कर रही थी कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो, भ्रष्टाचारियों को मृत्यंदण्ड मिले, देश से ले जाये गये काले धन की एक.एक पाई देश में वापस आये और इसका इस्तेमाल समाज कल्याण के कार्यों में हो। जनता यही तो जानना चाहती थी कि काली कमाई जमा किये और काला धंधा करने वाले ये देशद्रोही कौन हैं ?

दरअसल जनता के इन सवालों का भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। भ्रष्टाचार, कालेधन आदि के सवाल को लेकर जो जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ है, उससे वह काफी डरी हुई।  1975 में इंदिरा गाँधी द्वारा आपातकाल का लागू किया जाना जन आंदोलनों से डरी सरकार का ही कृत्य था। आज मनमोहन सिंह भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से काफी भयभीत हैं। इसीलिए रामलीला मैदान में रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में शामिल लोगों पर दमन को एक डरी हुई सरकार की कायरतापूर्ण कार्रवाई ही कहा जायेगा।

जहाँ तक हाल के भष्टाचार विरोधी आंदोलन की बात है, इसने देश की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। हमारे संसदीय जनतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष मिलकर मुख्य राजनीति का निर्माण करते हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि ये तमाम सत्ता  की राजनीतिक पार्टिर्यों में बदल गई हैं। उसके अर्थतंत्र का हिस्सा बनकर रह गई हैं। जनता की खबर लेने वाला, उसका दुख.दर्द सुनने व समझने वाला और उसके हितों के लिए लड़ने वाला आज कोई प्रतिपक्ष नहीं हैं।

वास्तविक प्रतिपक्ष गायब है और इसने जो जगहें छोड़ी हैं, उसे ही भरने के लिए नागरिक समाज और जन आंदोलन की शक्तियाँ सामने आई हैं। अन्ना हजारे से लेकर रामदेव इसी यथार्थ की उपज हैं। इस आंदोलन में कमियाँ और कमजोरियाँ हो सकती हैं। फिर भी इनके द्वारा उठाये गये भ्रष्टाचार व कालेधन की वापसी जैसे मुद्दों ने नागरिक समाज को काफी गहरे संवेदित किया है और यही कारण है कि इनके आहवान पर बड़ी संख्या में लोग जुटे हैं।

लेकिन बाबा रामदेव का व्यक्तित्व शुरू से ही विवादित रहा है। अन्ना हजारे ने जब अपना आंदोलन जंतर.मंतर पर खतम किया, उसी समय से बाबा रामदेव की राजनीतिक महत्वकाँक्षा सिर चढ़कर बोल रही थी। इसकी अभिव्यक्ति उनके ढ़ुलमुलपन और अवसरवाद में हो रही थी। कभी तो वे सरकार के साथ मोल.तोल करने वाले बनिये से लगते थे तो कभी नागरिक समाज द्वारा प्रस्तावित विधेयक को कमजोर करने वाले सरकारी प्रतिनिधि नजर आते थे। उन्होंने लोकपाल विधेयक में प्रधानमंत्री और न्यायाधीशों को जाँच के दायरे में शामिल न किये जाने की बात करके सरकार को खुश करने की कोशिश भी की थी। जहाँ अन्ना हजारे ने अपने आन्दोलन को स्वायत बनाये रखा था तथा स्थापित राजनीतिक दलो  से इसकी दूरी थी, वहीं रामदेव ने अपने मुहिम के लिए भाजपा  और संघ परिवार के नेटवर्क का इस्तेमाल किया।

इस सबके वावजूद पुलिसिया दमन और आतंक को कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर हमले ने एक बात साबित कर दिया है कि यह सरकार कारपोरेट हितों के विरुद्ध किसी भी असली या नकली प्रतिरोध को झेल नहीं सकती। एक और बात, चार जून की कार्रवाई को मात्र रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के दमन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। अब तो सरकार ने किसी भी आंदोलन, धरना व प्रदर्शन पर दमन का रास्ता साफ कर दिया है। अपने इस कृत्य के द्वारा वह जन आंदोलनों को संदेश भी देना चाहती है कि उनसे निपटने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है।

इसीलिए दिल्ली में धारा 144 लागू कर दी गयी है और हर तरह के  धरना.प्रदर्शन पर रोक लगा दिया गया। अपना विरोध जताने और अपनी मांगों को बुलन्द करने के लिए जनता दिल्ली नहीं पहुँच सकती। यदि किसी तरह पहुँच भी गयी तो वहाँ उसके स्वागत के लिए लाठी, आंसूगैस, पानी की तेज बौछारें और जेल है। बहुत हुआ तो आप राजघाट पर उपवास कर सकते हैं। पर यह भी सरकार की इच्छा पर निर्भर है। ऐसे में चार जून की रात की घटना के दमनकारी अभिप्राय को कम करके नहीं आँका जाना चाहिए। क्या यह अघोषित आपातकाल जैसी हालात नहीं है?



जनसंस्कृति मंच लखनऊ के संयोजक और सामाजिक संघर्षों में सक्रिय.



यूनियन की मांग गुनाह


हरियाणा.मानेसर के मारुती सुजुकी इंडिया के प्लाण्ट के विगत छह दिनों से संघर्षरत कामगारों के समर्थन में कल बृहस्पतिवार दिनांक 9जून 2011को गुडगाँव-मानेसर बेल्ट के विभिन्न उद्योगों में कार्यरत मज़दूर भी आ गए.उन्होंने मारुति प्रबंधन के खिलाफ एक विशाल रैली निकाली। दुर्भाग्य से मीडिया में ब्लैकआउट के चलते इन खबरों का गला घोंट दिया गया।

प्रदर्शन करते मारुती के मजदूर
मजदूरनामा ब्लॉग  को मिले समाचार के अनुसार,  वहाँ के विभिन्न कारखानों में कार्यरत यूनियनों के पदाधिकारियों और कामगारों ने मारुती सुजुकी इंडिया के संयंत्र के मुख्यद्वार पर एकत्र होकर सत्याग्रह किया और संघर्षरत मजदूरों की निहायत ही जायज माँग को अविलम्ब माने जाने की माँग की.गुडगाँव के विभिन्न उद्योगों के मजदूरों द्वारा किया गया एकजुटता का यह इजहार एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना हैऔर इससे लड़ाकू साथियों का हौसला बुलन्द हुआ है.

दुनिया भर में चल रहे तमाम उथल पुथल के बावजूद भारतीय शासक वर्ग यह समझने को राजी नहीं है कि मेहनतकश जनता के दमन का रास्ता आखिर भीषण विस्फोट की ओर ले जाता है। भारत में श्रमिक वर्ग के साथ जो अन्याय अत्याचार हो रहा है वह अभूतपूर्व है। और यह रोष ज्वालामुखी बन चुका है। हालत यह हो गई है कि मजदूर यूनियन बनाने की मांग अघोषित तौर पर एक अवैध मांग हो चुकी है जबकि भारतीय संविधान में यह कर्मचारियों का मौलिक अधिकार माना गया है। आखिर यह देश संविधान के अनुसार चल रहा है या पूंजीपतियों के हितों के अनुसार चलाया जा रहा है।

हम आप सभी से मानेसर के संघर्षरत साथियों का हर सम्भव सहयोग और समर्थन करने की अपील करते है.हमारा प्रस्ताव है कि कि आप हरियाणा के मुख्यमंत्री,गृहमंत्री और श्रममंत्री को अधिक से अधिक संख्या में ईमेल और पत्र भेज कर संघर्षरत साथियों कि जायज माँगों को जल्द से जल्द मांगे जाने के लिए दबाव बनायें और यह सुनिश्चित करें कि कम्पनी प्रशासन उनके आन्दोलन का दमन न कर पाये.


मुख्यमंत्री
लेबर कमिश्नर
श्रम मंत्रालय



राजनीति के पहाड़ के नीचे आये रामदेव

बाबा और  बालकृष्ण ने  जिस प्रकार मीडिया के समक्ष रो-रो कर अपना अंतिम ब्रह्मास्त्र राजनीति के प्रथम पाठ के बाद चला दिया है, इससे  उनके ‘बुलंद हौसलों’ का अंदाज़ा लगाया जा सकता है...

 निर्मल रानी 

‘जब देश के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री मेरे चरणों में बैठते हों फिर आखिर  मैं प्रधानमंत्री क्यों बनना चाहूंगा’? दंभ व अहंकार भरे यह शब्द अभी कुछ ही समय पूर्व बाबा रामदेव ने बिहार के बेतिया  जि़ले में अपने एक योग शिविर में कहे। सत्ता की चूलें हिला देने तथा देश की 121 करोड़ जनता का समर्थन अपने साथ होने की बात तो वे आमतौर पर करते ही रहे हैं।  बहरहाल गत् 5 वर्षों में भगवा वस्त्र धारण कर लगभग पूरे देश में योग शिविर आयोजित करने के नाम पर घूम-घूम अपने अनुयाईयों की अच्छी-खासी फौज खड़ी कर लेने वाले योग गुरु बाबा रामदेव को ऐसा महसूस होने लगा था कि देश की यदि पूरी नहीं तो अधिकांश जनता तो उनके साथ है ही।

कुछ विपक्षी राजनैतिक दलों विशेषकर भारतीय जनत पार्टी ने अपना समर्थन देकर उन्हें और भी गलतफहमी में डाल दिया। बहरहाल गत् 4 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव का कथित योग शिविर राजनीति का अखाड़ा बन गया। और सरकार की पुलिसिया कार्रवाई के रूप में उस भयानक एवं काली रात में बाबा रामदेव ने राजनीति का वह वास्तविक व भयानक चेहरा देखा कि चंद ही लम्हों में वे उसी विशाल मंच से कूदकर भागते नज़र आए जिस मंच पर बैठकर वे तथा उनके कुछ समर्थक सरकार के घुटने टिकवाने तथा नाक रगड़वाने के दावे कर रहे थे।

राजनीति के इस सीधे साक्षात्कार ने बाबा रामदेव को मंच से अपनी जान बचाने के डर से न केवल छलांग लगाकर भागने के लिए मजबूर किया बल्कि उन्हें आत्मरक्षा के लिए महिलाओं के मध्य जाकर शरण भी  लेनी पड़ी। इतना ही नहीं बल्कि कभी सिले हुए कपड़े   न पहनने का प्रण करने वाले रामदेव ने उस रात एक महिला के सिले हुए पुराने कपड़े पहनकर लुकछिप कर व भेष बदलकर अपनी जान बचाने में ही अकलमंदी में अपनी भलाई समझी।

भ्रष्टाचार व काला धन संग्रह नि:संदेह देश के लिए एक नासूर है। विदेशों में जमा काला धन निश्चित रूप से अपने देश में यथाशीघ्र वापस आना चाहिए। सरकार को बेशक यह भी चाहिए कि वह विदेशों में जमा काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करे। काला धन संग्रह करने वालों के विरुद्ध कड़ी सज़ा का प्रावधान भी होना चाहिए। परंतु क्या किन्हीं सरकारी कार्रवाईयों को अमल में लाने के लिए सरकार पर इस प्रकार दबाव डालना उचित है कि
अपनी मांगों को मनवाने के लिए आमरण अनशन का सहारा लिया जाए? इतना ही नहीं बल्कि इस प्रकार के आयोजन के लिए सरकार की आंख में धूल झोंक कर तथा उसे गुमराह कर योग शिविर के आयोजन के नाम पर अनुमति ली जाए तथा बाद में उस योग शिविर को आमरण अनशन तथा राजनैतिक मंच का रूप दे दिया जाए?योग गुरु दरअसल अपने योग शिविर में दिए जाने वाले राजनैतिक भाषण में काला धन मुद्दे की बात कर आम लोगों की भावनाओं से खेलने का प्रयास करते हैं।

बहरहाल काला धन जमा करने वालों को फांसी हो या उम्रकैद या फिर पूर्ववत् जारी रहने वाली नाममात्र सज़ाएं, यह तो अब बाद का विषय बन गया है। फिलहाल  तो राजनीति में पदार्पण कर चुके बाबा रामदेव को  सरकार से दो-दो हाथ करने का संभवत: पहले तो खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा। कुछ समय पूर्व उनके द्वारा संचलित दिव्य फार्मेसी द्वारा तैयार की जाने वाली दवाईयों में मानवअंगों के भस्म की मिलावट के समाचार आए थे।

परंतु बाबा जी अपने रसूख के बल पर उन आरोपों से उबर गए। परंतु अब जबकि भारतीय  जनता पार्टी तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व उनके सहयोगी दलों के हाथों का खिलौना बनते हुए वे सीधे तौर पर केंद्र सरकार से टकरा रहे हैं तो ऐसे में निश्चित रूप से सर्वप्रथम उन्हें मात्र दस वर्षों में  स्थापित किए गए अपने लगभग 11,00 करोड़ रूपये के विशाल साम्राज्य का हिसाब ज़रूर देना होगा।

बहरहाल बाबा रामदेव की राजनीति में पदार्पण की पहली पारी अब शुरु हो चुकी है। इसमें जहां अन्ना हज़ारे ने रामदेव के पक्ष में खुलकर आकर तथा उनपर हुए अत्याचार के विरुद्ध राजघाट पर सफल अनशन कर जहां अपना क़द एक बार फिर उनसे ऊंचा कर लिया है वहीं राजनीति के इसी पहले पाठ ने बाबा जी को भगवा वस्त्र उतार फेंकने तथा दूसरी महिला के कपड़े पहनकर तथा भेष बदलकर अपनी जान बचाने का भी मार्ग दिखा दिया है।

बाबा तथा उनके एक परम सहयोगी जिस प्रकार मीडिया के समक्ष रो-रो कर अपना अंतिम ब्रह्मास्त्र राजनीति के प्रथम पाठ के बाद चला दिया है इससे भी उनके ‘बुलंद हौसलों’ का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। बाबा जी ने राजनीति में प्रवेश कर तथा राजनीतिज्ञों से विशेषकर सरकार से पंगा मोल लेकर अच्छा किया या नहीं यह तो या तो उनकी आत्मा बेहतर समझ रही होगी या फिर 4 जून के बाद से उनके चेहरे के भाव बता रहे हैं।



लेखिका उपभोक्ता मामलों की विशेषज्ञ हैं और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर भी लिखती हैं.