सर्वोच्च न्यायालय के भ्रष्ट न्यायाधीशों की सूची उजागर करने के बाद अदालत की मानहानि का मुकदमा झेल रहे वरिष्ठ वकील और मानवाधिकारकर्मी प्रशांत भूषण देश में प्रत्यक्ष लोकतंत्र के जरिये तंत्र में सुधार की कुछ गुंजाइश देख रहे हैं। सरकार, न्यायालय, भ्रष्टाचार , काला धन, आर्थिक सुधार और निजीकरण जैसे पहलुओं पर उनसे बातचीत के अंशः
प्रशांत भूषण से अजय प्रकाश की बातचीत
सरकार भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ सख्त कदम की बात कर रही है?
सरकार भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ सख्त कदम की बात कर रही है?
सरकार काले धन और भ्रष्टाचार की समस्या से जिस तरह निपटना चाहती है, वह जनता को भरमाने का एक नया भ्रष्टाचार है। जिसे सरकार काला धन कह रही है, वह दरअसल काली कमाई है जो देश के संसाधनों की लूट के जरिये हुई है और विदेशी बैंकों में जमा की गयी है। इसलिए मात्र 35 फीसद टैक्स के साथ उसकी वापसी बेमानी है। वह जनता का पैसा है और उसे पूरी तरह से देश के विकास में लगाया जाना चाहिए और साथ ही खाताधारकों पर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए।
उसे लेकर अदालत की अवमानना का मुकदमा चल रहा है। मेरे पिता और वरिष्ठ वकील शांतिभूषण ने सर्वोच्च न्यायालय के 16जजों के नाम अदालत में पेश किये थे। हमारा दावा था कि इनमें आठ भ्रष्ट और छह ईमानदार थे, जबकि दो के बारे में जांच की मांग की गयी थी। न्यायाधीश कृष्णा अय्यर ने लिखा है कि इसकी ग्रैंड ज्यूरी से जांच होनी चाहिए। यह तो साफ है कि जजों के बारे में कोई जांच नहीं की जाती। रिटायरमेंट के पहले तो जजों की जांच मुख्य न्यायाधीश की इजाजत के बगैर हो भी नहीं सकती।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश सब्बरवाल के खिलाफ सीबीआइ और सीवीसी को लिखित शिकायत की गयी थी। मगर कुछ नहीं हुआ। न्यायाधीश आनंद पुंछी के खिलाफ महाभियोग लाने की कोशिश हुई, लेकिन मामला आगे नहीं बढ़ सका। पिछले वर्ष सेवानिववृत्त हुए मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन के खिलाफ बहुत कुछ छप रहा है, मगर कोई कार्रवाई अब तक नहीं हुई है। बालकृष्णन का मामला तो उपराष्ट्रपति ने सीबीआइ तक को सौंपा था।
इस समस्या से निपटने का कोई ठोस विकल्प है?
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे लोगों ने एक ग्यारह सदस्यीय समिति बनाने की मांग की है जिसे हमने ‘लोकपाल विधेयक’ कहा है। सरकार ने जो लोकपाल विधेयक का प्रस्ताव रखा है उससे हम असहमत हैं, क्योंकि इसमें तीन रिटायर्ड जज होंगे जिनकी नियुक्ति सरकार करेगी। अगर सरकार की नीयत इस समस्या का समाधान करना है तो वह एक चयन समिति का गठन करे और उसके कामकाज में पारदर्शिता रखे। फिर चुने हुए लोगों को पूरा अधिकार दिया जाये,जो हर तरह के भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई कर सकें।
क्या आपलोग जमीनी कार्रवाई की भी सोच रहे हैं?
हमलोग कुछ जमीनी कार्रवाई की भी पहल हम करने वाले हैं। इसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्षरत लोग अपने शहर के पांच सबसे भ्रष्ट लोगों को चुनेंगे। उनमें से हरेक भ्रष्टाचारी के बर्खास्त होने तक जनता आंदोलन करेगी। इस संघर्ष में हमारे साथ देश की जनता होगी।
आप राजनीतिक पार्टियों भी जुड़ेंगे?
बेशक, इस काम में कुछ संगठन और पार्टियां भी हमारे साथ आयेंगी, मगर हम किसी पार्टी से नहीं जुडेंग़े। सत्ता में आते ही पार्टियां भ्रष्ट हो जाती हैं या फिर भ्रष्ट होने के बाद सत्ता में आती हैं। अपवादों को छोड़ दें तो पूरी चुनावी प्रक्रिया एक भ्रष्ट प्रतिनिधि को ही संसद या विधानसभा में पहुंचा सकती है। भविष्य में जनप्रतिनिधित्व वाला कोई नेतृत्व उभरा तो उसमें शामिल होने से हमें कोई गुरेज नहीं होगा। ऐसे में हम लोग डाइरेक्ट डेमोक्रेसी यानी प्रत्यक्ष लोकतंत्र की मांग कर रहे हैं।
प्रत्यक्ष लोकतंत्र के जरिये क्या इन समस्याओं से निपटना आसान होगा?
क्यों नहीं?हमारे देश में ‘रिप्रजेंटेटिव डेमोक्रेसी’(प्रतिनिधिक लोकतंत्र)की अब कोई जरूरत नहीं है। इलाके से सांसद या विधायक आकर जनता की बात करें,उससे बेहतर यह होगा कि सीधे गांवों, मुहल्लों और कस्बों में जनता अपनी राय मोबाइल,इंटरनेट या किसी और माध्यम से भेजे और उसके आधार पर निर्णय हो। इससे जनप्रतिनिधि के नाम पर दलालों के रखने की जरूरत खत्म हो जायेगी।
वैसे भी ये प्रतिनिधि आर्थिक सुधारों के नाम पर निजीकरण को प्रोत्साहित कर भ्रष्टाचार की जकड़बंदी ही बढ़ा रहे हैं। प्रतिनिधिक लोकतंत्र की कल्पना उस समय की गयी थी, जब जनता सीधे अपनी बात नहीं पहुंचा सकती थी। अब तो परमाणु सौदे से लेकर गांव में पुल बनाने जैसे सार्वजनिक और राष्ट्रहित के मसलों पर जनता सीधे अपनी राय संबंधित संस्था को पहुंचा सकती है। तब करोड़ों रुपये खर्च कर बिचौलियों को क्यों सहें?
आज हालत यह है कि परमाणु समझौते जैसे संवेदनशील मसले को बहस के लिए संसद में भी नहीं ले जाया जाता है और बिल पास हो जाता है। आदिवासी क्षेत्रों में जिस तरह पेसा कानून लागू है, उसी तरह की कोई व्यवस्था होनी चाहिए। पेसा में ग्राम प्रधान के पास अधिकार केंद्रित नहीं होते, बल्कि सभी ग्रामीणों की सहमति होती है। इसी तर्ज पर सूचना अधिकार नेता अरविंद केजरीवाल और दूसरे लोगों ने नगर राज्य बिल बनाया था ताकि शहरों में भी लोग मिलकर तय करें कि क्या बदलाव हो या न हो।
‘आर्थिक सुधारों के नाम पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है’-यह कहने का आपका आधार क्या है?
सरकार आर्थिक सुधारों के नाम पर चोर दरवाजों से भ्रष्टाचार का लगातार रास्ता खोल रही है। जैसे, मॉरीशस में कंपनी खोल कर हिंदुस्तान या बाहर की कंपनियां कोई टैक्स नहीं दे रही हैं। ऐसा भारत और मॉरीशस के बीच एक संधि के चलते है जिसका फायदा उठाने के लिए ये धूर्त कंपनियां मॉरीशस में एक पोस्ट बॉक्स कंपनी खोल देती हैं और भारत में करोड़ों के टैक्स से बच जाती हैं।
सरकार के मुताबिक,यह विदेशी व्यापार को आकर्षित करने के लिए किया जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि सरकार वित्तीय कानूनों में बदलाव क्यों नहीं करती। चोर दरवाजा किसलिए खुला रखा गया है?क्या सरकार इस पर जनमत संग्रह की हिम्मत कर पायेगी?अगर नहीं तो प्रतिनिधिक लोकतंत्र सिर्फ दलाली के लिए ही तो होगा। सरकार अब जनवितरण प्रणाली के तहत मिलने वाले अनाज और मिट्टी के तेल के बदले पैसा देने की तैयारी में लगी है कि इससे भ्रष्टाचार कम होगा। लेकिन यह एक नये तरह का भ्रष्टाचार होगा। पीडीएस में पैसे का वितरण देश में भुखमरी तो बढ़ायेगा ही, निजीकरण का मार्ग भी खोलेगा।
आम राय यह है कि निजीकरण से भ्रष्टाचार कम होता है?
निजी निकायों की सफलता का ढोल पीटने वाली सरकार को समझ लेना चाहिए कि देश में निजीकरण की वजह से भ्रष्टाचार कई गुना बढ़ गया है। तेईस फरवरी को अदालत में एक मामला आया जिसमें दिल्ली की प्राइवेट बिजली कंपनियों के अधिकारियों ने बिजली दरों की नियंत्रक कंपनी डीइआरसी के सरकारी अधिकारियों को कुछ लाख रुपये घूस देकर दो रुपये प्रति यूनिट के हिसाब से बिजली शुल्क बढ़ाने का तरीका सुझाया था। इस शुल्क वृद्धि से उन कंपनियों को 20हजार करोड़ रुपये का फायदा होता।
नोबल पुरस्कार विजेता और प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलिट्ज ने सन् 2002में लिखी अपनी किताब ‘ग्लोबलाइजेशन एंड इट्स कंटेंट’ के ‘हू लॉस्ट रशा’ शीर्षक अध्याय में इस बारे में कुछ अहम बातें कही हैं। रूसी मूल के इस अर्थशास्त्री ने साफ कहा है कि रूस सन् 2002तक भ्रष्टाचार से बजबजा गया, जिसकी शुरुआत सन् 1990 में हुई।
उन्होंने भ्रष्टाचार का बुनियादी कारण निजीकरण को माना है। सन् १९९० में रूस में निजीकरण की शुरुआत हुई थी। इसलिए सरकार अगर विदेशों में जमा काले धन और भ्रष्टाचार को लेकर संजीदा है तो उसे शासन में जनता की सीधी भागीदारी तय करनी होगी और निजीकरण के विकल्प को हतोत्साहित करना चाहिए।
(द पब्लिक अजेंडा से साभार)