भूमि सुधार की मांगों को लेकर 2007 में मध्य प्रदेश के ग्वालियर से 25 हजार किसान पदयात्रा कर दिल्ली पहुंचे थे,जिसे ‘जनादेश’यात्रा कहा गया। एकता परिषद के बैनर तले हुई जनादेश यात्रा के बाद सरकार ने भूमि सुधारों को सामयिक बनाने के लिए ‘भूमि सुधार परिषद्’ का गठन किया था। हाल ही में एकता परिषद् के अध्यक्ष पीवी राजगोपाल दिल्ली दौरे पर थे। उनसे कई मसलों पर विस्तृत बातचीत हुई थी, पेश है प्रमुख अंश...
पीवी राजगोपाल से अजय प्रकाश की बातचीत
कालेधन के खिलाफ दिल्ली में अनशन कर रहे बाबा रामदेव और उनके सहयोगियों पर हमला कर सरकार ने आखिर क्या संदेश देना चाहा है?
कालेधन के खिलाफ दिल्ली में अनशन कर रहे बाबा रामदेव और उनके सहयोगियों पर हमला कर सरकार ने आखिर क्या संदेश देना चाहा है?
तानाशाही और धोखे की यह सरकारी नीति बहुत दिन तक कारगर नहीं होगी। अगर देश की जनता लाइन लगाकर सरकारों को बना सकती है तो वह सरकार की चूलें भी हिला सकती है। हमारी सरकार अहमक है और उसे हिंसा पसंद है। पहले सरकार कश्मीरी युवकों को गोली मारती है फिर बात करती है, किसानों पर गोली दागती है फिर मांगें मानती है, उल्फा के युवाओं को तबाह करने के बाद शांतिवार्ता करती है। यहां तक कि अहिंसा में विश्वास करने वाले संगठनों को सरकार पहले हिंसक घोषित करती है,फिर वार्ता की तरफ बढ़ती है। हमारी हिंसाप्रेमी सरकार को अपनी जनता के प्रति इस व्यवहार को जितनी जल्दी हो सके बदल लेना चाहिए।
छत्तीसगढ़ में एकता परिषद् पर माओवादियों से संबंध और उस पर प्रतिबंध की खबरों की क्या सच्चाई है?
यह सरकार के उसी अभियान का हिस्सा है ,जिसके तहत वह अहिंसक संगठनों को हिंसक करार देने पर तुली है। दरअसल, आदिवासी इलाकों के जल, जंगल और जमीन की लूट का निर्णय सरकार कर चुकी है। अब वह सिर्फ लूट के समर्थकों को ही राज्य हितैषी मानती है और बाकियों को दुश्मन। इस लूट के खिलाफ पहला मोर्चा आदिवासियों ने संभाला है इसलिए सरकार के वे सबसे बड़े दुश्मन हैं। सरकार आदिवासियों और उनके संघर्षों के साथ खड़े विभिन्न संगठनों-समूहों को सबक सिखाने के लिए तैयार बैठी है। सबक सिखाने के लिए वह नक्सलवाद से निपटने के बहाने आदिवासियों के पक्ष में खड़े हो रहे लोगों को नक्सली करार देकर दमन के एक ही डंडे से सबका आसान शिकार कर रही है। आसान इसलिए है कि जिनका नक्सलवाद में विश्वास नहीं है,जो संगठन अहिंसा के रास्ते आदिवासियों की लूट का पुरजोर विरोध कर रहे हैं, उनको भी राज्य नक्सली बताकर आदिवासियों के संघर्षों से अलग कर देना चाहता है। उसी के नतीजे के तौर पर एकता परिषद पर भी प्रतिबंध की खबरें उड़ाई जा रही हैं।
छत्तीसगढ़ में एकता परिषद् पर प्रतिबंध की खबर के बाबत राज्य प्रशासन से संगठन की कोई बात हो पायी है ?
छत्तीसगढ़ के एक दैनिक में पीयूसीएल के प्रतिबंध लगाने संबंधी समाचार छपा था। उसी में एकता परिषद की गतिविधियों को संदिग्ध और प्रतिबंध लगाये जाने की खबर थी। इस बाबत परिषद के कुछ साथी राज्य के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन से मिले थे। महानिदेशक ने ऐसी किसी कार्यवाही से इनकार किया और अनभिज्ञता जाहिर की। दरअसल, इसमें मुझे राजनीतिक खेल ज्यादा लगता है।
कैसा राजनीतिक खेल?
छत्तीसगढ़ के ज्यादातर जिलों में एकता परिषद् का मजबूत जनाधार होने के कारण राज्य की भाजपा सरकार और आरएसएस समय-समय पर हमारे खिलाफ दुष्प्रचार करते रहते हैं। पहले आरएसएस ने एकता परिषद् पर क्रिश्चियन धर्म फैलाने का आरोप लगाया और अब माओवादियों से संदिग्ध संबंध होने की अफवाह फैला रहे हैं। एकता परिषद् पर यह आरोप दिग्विजयसिंह जब मुख्यमंत्री थे तब भी लगता था, और अब भी लग रहा है। जो मुद्दों से भटकाने की साजिश है। मैंने सभी मंत्रियों को पत्र लिखा कि पुलिस,फॉरेस्ट गॉर्ड कब से माओवाद और समाजवाद के ज्ञाता हो गये,जो सबको माओवादी बताते रहते हैं। मैंने मंत्रियों से पूछा कि क्या इन गार्डों को गांधी दर्शन और माओ दर्शन का पाठ पढ़ाया गया है।
दरअसल, इन्हें चुनौती हमारे अहिंसात्मह आंदोलन से है, जिसको किसी आसान रास्ते ये किनारे लगा देने की फिराक में हैं। वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में जनता को सही राजनीति की तरफ मोड़ना, अधिकारियों को जिम्मेदार बनने के लिए मजबूर करना राजनीतिक पार्टियों के लिए मुख्य खतरा है। वह ऐसे किसी संगठन को जनता के बीच पैठ नहीं बनाने देना चाहते, जो सही मायने में जनता को लोकतंत्र में भागीदारी के लिए उत्तेजित करे।
कुछ महीनों पहले आपने सरकार और माओवादियों से बातचीत में मध्यस्थ की भूमिका निभाने की बात कही थी, क्या सरकार ने कोई दिलचस्पी दिखायी ?
हमने इच्छा इसलिए जाहिर की,क्योंकि चंबल क्षेत्र में डाकुओं को समर्पण कराने का एक अनुभव हमारे पास है। हम जानते हैं कि हिंसा में भरोसा करने वाले संगठनों से कैसे वार्ता की जाये, लेकिन यह वार्ताएं आदिवासी हितों को ताक पर रखकर संभव नहीं हैं। कौन नहीं जानता कि आदिवासी इलाकों में जारी अन्याय,अत्याचार और शोषण को रोककर माओवादियों को पसरने से रोका जा सकता है, मगर सरकार मदद नहीं लेना चाहती क्योंकि वह हिंसा को खत्म नहीं करना चाहती। अगर मैं पत्रकार पी.साईनाथ की किताब के शीर्षक ‘एव्रीबॉडी लव ड्रॉट्स’की तर्ज पर कहूं तो आदिवासी इलाकों में ‘एव्रीवन लव कंफ्लिक्ट’।
मतलब हिंसा को जान-बूझकर कायम रखा जा रहा है?
बिल्कुल। इसका सबसे बड़ा फायदा खनन कंपनियों को है। किसी ने 50एकड़ की लीज ली और खुदाई 100 एकड़ में हो रही है। कौन उसकी तहकीकात करने वाला है? अगर जनता लूट पर ऐतराज करती है तो उसे राज्य माओवादी समर्थक या उनका जासूस बताकर सारी जिम्मेदारी से ही बच जाता है। संघर्ष का इलाका है,सुरक्षा बल और नक्सली एक दूसरे को मार रहे हैं,आदि का बहाना बनाकर सरकारी कर्मचारी कभी सुचारू रूप से काम नहीं करते । जबकि संघर्ष के इन इलाकों में कर्मचारियों को सामान्य क्षेत्रों से अधिक भत्ता मिलता है। तीसरे हैं ठेकदार जो इस इलाके में बहुत खुश हैं। उन्होंने सड़क,पुल,स्कूल बनाये या नहीं, कोई पूछने वाला नहीं है। कहीं से कोई सवाल उठे तो इस क्षेत्र में एक ही जवाब है नक्सली समस्या।
ऐसा नहीं कि माओवादियों को इसमें कोई नुकसान है। राज्य के अत्याचारी रवैये से लगातार उनके कॉडरों की भर्ती हो रही है और उन्हें अवैध खनन से भरपूर टैक्स मिल रहा है। मैं नक्सलियों से पूछना चाहता हूं कि अगर वे हथियार से ही देश की तकदीर बदलने में भरोसा करते हैं तो उन्होंने कभी किसी मित्तल, टाटा या एस्सार जैसों को शिकार क्यों नहीं बनाया? माओवादी अगर खनन के विरोध में हैं तो कभी किसी खनन मालिक और माफिया को क्यों नहीं बंधक बनाते। मेरी राय में आदिवासियों की जीत एक अहिंसक मजबूत आधार वाले जनांदोलन के जरिये ही हो सकती है।
कई बार सरकार जनता के दबाव में कुछ कानून बनाने के लिए तैयार हो भी जाती है, लेकिन उसका अमल कैसे सुनिश्चित हो?
जिन अधिकारियों के कारण क्षेत्र में काम पूरा नहीं हुआ है,जब तक उन्हें सजा देने का कड़ा प्रावधान नहीं होगा, तब तक सही ढंग से कानून के लागू किये जाने की उम्मीद बेमानी है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ को लीजिए। वहां पिछले 63 वर्षों में दस से अधिक आइएएस और आईपीएस मुस्तैद हुए होंगे। उनकी मुस्तैदी के परिणाम के तौर पर सरकार अब स्वीकार करती है कि आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है। फिर इन अधिकारियों की सजा क्यों नहीं है?अगर किसी नौकर के रहते घर में चोरी हो जाये तो माना जाता है कि वह अपने काम के काबिल नहीं है। उसी तर्ज पर इन अधिकारियों की पेंशन क्यों नहीं बंद होती, सस्पेंड क्यों नहीं किये जाते।
ऐसी हालत क्यों है?
आपातकाल के दौर में मेरे यहां केरल में एक नाटक होता था। उसमें राजा का आदेश था कि जब वह सोया हो तो किसी तरह का शोर नहीं होना चाहिए। एक दिन रात में चोर आया तो कुत्ते भोंकने लगे। चूंकि राजा का आदेश शोर नहीं करने का था, इसलिए सभी कारिंदे कुत्तों की ओर दौड़े। चोरों ने इत्मीनान से लूट का सामान बांधा और चलते बने। कुछ ऐसी ही स्थिति हमारे देश की है। शांति और न्याय की बात करने वाले लोग देश के दुश्मन होते जा रहे हैं और कॉरपोरेट डकैत सरकार के हितैषी बने बैठे हैं।
इसे हम भी शिद्दत से महसूस करते हैं,इसलिए एकता परिषद् की कोशिश है कि छोटे-मोटे अंतरविरोधों को छोड़, व्यापक एकता की ओर बढ़ा जाये।
गरीबों के बीच भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई माहौल क्यों नहीं बन पाता है?
गरीबों के बीच असल मुद्दा तो जल,जंगल और जमीन का ही है। मगर ऐसा नहीं है कि गरीबों में भ्रष्टाचार के खिलाफ रोष नहीं है। भ्रष्टाचार को लेकर देश में कई संघर्ष हुए हैं,बेशक उसकी व्यापकता अन्ना हजारे के मध्यवर्गीय आंदोलन की तरह नहीं रही है।
तो क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ मध्यवर्ग और गरीब एक मंच पर आ सकते हैं?
पहले आजादी,फिर जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के जरिये यहां के मध्यवर्ग ने अपने हिस्से में बढ़ते भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाईयां तो लड़ीं,मगर जैसे ही मामला गरीबों के ऊपर किये जा रहे भ्रष्टाचार का आया तो ये बिदक गये। कारण कि गरीबों के लिए पहले भ्रष्टाचारी (ज्यादातर)यही लोग थे, जो अन्ना के साथ संघर्ष में भ्रष्टाचार के खिलाफ दिख रहे थे।
मध्यवर्ग अपने लिए बेहतर लोकतंत्र चाहता है,लेकिन अपने से नीचे के तबके के लिए वह भी शोषक है। वह क्षणभर भी कोक और पेप्सी या दूसरी कंपनियों के उत्पादन से जुड़े भ्रष्टाचार को, कामगारों पर हो रहे भ्रष्टाचार को नहीं सुनना चाहता। वह नहीं चाहता कि किसान उसको कोल्ड ड्रिंक त्यागने के लिए कहे और बताये कि उसके खेत और पारिस्थिकी कैसे इन कंपनियों ने बर्बाद कर रखे हैं। इसलिए अन्ना के आंदोलन को पूरा समर्थन देते हुए भी एकता परिषद् की कोशिशरहेगी कि मध्यवर्ग और देश के गरीबों को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक साथ खड़ा किया जाये। शुचिता और त्याग की भावना वाले जुझारू युवा ऐसा कर सकते हैं और उसी कीमत पर भ्रष्टाचार के खिलाफ मुकम्मल लड़ाई संभव हो सकती है।
क्या यह एकता संभव होगी। खासकर तब जबकि दोनों वर्गों की जरूरतें अलग-अलग हैं?
इस देश के नब्बे फीसदी आंदोलन जल, जंगल, जमीन और जीवन जीने के संसाधनों की मांग को लेकर हैं। ऐसे में जरूरी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली से शुरू हुए आंदोलन को व्यापक पहुंच वाला बनाया जाये और समाज के सभी तबकों को साथ लाया जाये। इस मसले पर तमाम संगठनों की बैठक हुई है और शीघ्र ही अन्ना हजारे के हस्ताक्षर से देशभर के संगठनों को चिट्ठियांजायेंगी और एक राष्ट्रव्यापी बैठक की तैयारी है।
लोकपाल मसौदा समिति में शामिल अन्ना हजारे की टीम को चुनावी पार्टियों ने चुनाव लड़ने की चुनौती दी है, इस बारे में आप क्या कहते हैं?
इस बहस में दम नहीं है। देश का हर आदमी जानता है कि हमारे देश के ज्यादातर जनप्रतिनिधि गुंडई, पैसा और जातिगत आधार पर चुने जाते हैं। दूसरी बात कि अगर चुनावी दल नागरिक समाज के लोगों के लिए चुन के आने की पात्रता की शर्त रखते हैं तो पहला सवाल देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और योजना आयोग की उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहुलवालिया पर उठता है,जो बिना चुने ही इस देश की तकदीर का फैसला कर रहे हैं। ऐसे में मेरी राय है कि जो देश आजादी के 63 साल बाद जनता को बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराने में अक्षम रहा हो,उस देश के शासकों को जनता की ओर से उठ रहे सवालों पर चिढने और तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाने की बजाय संयत हो समाधान खोजना चाहिए।