Feb 20, 2010

फिर सहमा आजमगढ़

पिछले कुछ महीनों से शांत  चल रहे आजमगढ़ की आबोहवा में फिर सरगर्मी  है।  खालिसपुर के शहजाद की इनामी आतंकवादी बताकर  गिरफ्तारी, फिर पुणे धमाके में उसकी संलिप्तता   का संदेह जैसे  समाचार सुनकर आजमगढ़ की  खौफज़दा और खिसियाई जनता पूछने लगी है,  मुल्क में मुसलमानों का भी पक्ष जानने वाला कोई है या नहीं। अजय प्रकाश  की रिपोर्ट
आधे हिंदुओं और आधे मुसलमानों को मिलाकर एक पूरा गांव है खालिसपुर। पहले भी क्षेत्र में इस गांव की चर्चा हुआ करती थी लेकिन अब उसने नई जमीन तलाश  ली है। पहले लोग कहा करते थे कि इस गांव का नियाज अहमद एक नेक और ईमानदार आदमी था जो पंद्रह साल ग्राम प्रधान और पंद्रह साल निर्विरोध ब्लाक प्रमुख चुना गया। मगर अब पूछने पर 82 वर्षीय नियाज के घर का पता बताने से पहले चौराहे पर खड़े ग्रामीण, आतंकवादी होने के आरोप में खालिसपुर से पकड़े गये शहजाद का नाम जोड़ते हैं और कहते हैं 'अगवां जा पूछ लिहा केकरे इहां के लइकवा पकड़ाई रहे'।

पुलिस डायरी में १८ वर्षीय शहजाद ईनामी आतंकवादी था, जिसपर दिल्ली पुलिस ने पांच लाख ईनाम रखा था। मगर आश्चर्यजनक है कि घोषित ईनाम की जानकारी गिरफ्तारी के बाद हुई। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि शहजाद पिछले आठ महीनों से अपने घर खालिसपुर में रह रहा था। फिर पुलिस ने यह गिरफ्तारी दिग्विजय सिंह की यात्रा के ठीक पहले क्यों की. शहजाद अहमद नियाज अहमद का पोता है और सितंबर 2008में हुए बाटला हाउस इनकाउंटर से पहले दिल्ली के श्रृंखलाबद्ध धमाकों के आरोपियों में प्रमुख है.

पुलिस के मुताबिक यह आरोपी भी बाकियों की तरह इंडियन मुजाहिद्दीन से जुडा हुआ था। खुफिया एजेंसियों और पुलिस दावा है कि धमाकों की साजिश में शहजाद की प्रमुख भूमिका रही है और उसने बाटला हाउस इनकाउंटर में मारे गये दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा को गोली मारी थी। बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद शहजाद और आरिज फरार चल रहे थे जिनमें से आरिज का कुछ पता नहीं है। जबकि दो आरोपी आतिफ और साजिद मौके पर मारे गये थे और सैफ को दिल्ली में एक टीवी चैनल के दफ्तर के बाहर पुलिस ने गिरफ्तार किया गया था। बाटला हाउस इनकाउंटर के कुछ दिनों के भीतर ही सैफ की गिरफ्तारी हो गयी थी।
आजमगढ़ के मुसलमानों को झकझोर देने वाली इस घटना में गिरफ्तारियों की अगली कड़ी दो फरवरी को तब जुड़ी जब शहजाद की खालिसपुर गांव से गिरफ्तारी हुई। उत्तर प्रदेश के डीजी बृजलाल के अनुसार  'शहजाद आस्ट्रेलिया जाकर पॉयलट ट्रेनिंग कि लेने के बाद अमेरिका में हुए आतंकवादी हमले  9/11 जैसा धमाका भारत पर करना चाहता था।' लेकिन पुलिस की इस कहानी पर खलिशपुर के ग्रामीण लड्डन का सवाल है 'हाईस्कूल पास शहजाद को पायलट की ट्रेनिंग कैसे मिल सकती थी,जबकि इसके लिए न्यूनतम योग्यता तो १०+२ की होनी चाहिए जो उसके पास थी ही नहीं.'
इस बारे में भारतीय वायुसेना के पूर्व अधिकारी विंग कमांडर प्रफुल्ल बख्शी से  हुई बातचीत में पता चला कि 'पायलेट ट्रेनिंग कोर्स में प्रवेश के लिए १०+२ पास होना अनिवार्य है.' गिरफ़्तारी के अगले ही दिन उत्तर प्रदेश एसटीएफ  ने शहजाद को दिल्ली पुलिस की विशेष  जांच शाखा को सौंप दिया है और उसे तीसहजारी अदालत ने दुबारा रिमांड पर भेज दिया है।
खालिसपुर के लोग मानते हैं कि आठ महीने से गांव में रह रहा शहजाद अगर कोर्ट में पेश हो गया तो हमें राजनीतिक दलों के दोमुहेंपन का शिकार इस बार नहीं होना पड़ता। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हुआ के जवाब में, प्रदेश के प्रसिद्दध सिबली कॉलेज के प्रिंसिपल इफ्तिखार आलम कहते हैं 'पुलिस ने हमेशा 18 बाटला हाउस में शहजाद उर्फ पप्पू को भगोड़ा बताया। शायद शहजाद को ये लगता रहा होगा कि मेरा नाम जब पप्पू है ही नहीं तो मैं क्यों हाजिर होउं।' शहजाद और उसके परिवारजनों के इसी आत्मविश्वास में एक बार फिर आजमगढ़ को चर्चित कर दिया है। इतना तो साफ है कि शहजाद के गांव में होने की जानकारी एटीएफ को पहले से थी, लेकिन कार्यवाही राजनीतिक जरूरत के हिसाब से हुई। सितंबर 2008 में हुए 18 बाटला हाउस मुठभेड़ के दौरान शहजाद का पासपोर्ट बरामद हुआ था जिसे पुलिस सबूत के तौर पर पेश करती रही है।

बहरहाल यह सब दिल्ली में हो रहा है लेकिन इस मसले पर सरगर्मियां आजमगढ़ में कहीं ज्यादा तेज हैं। कारण कि आजमगढ़ के  अब तक 29 मुस्लिम नौजवानों को खुफिया और पुलिस एजेंसियों ने आतंकवादी घोषित कर रखा है. जिसमें से नौ भगे हुए हैं, 18 गिरफ्तार व 2 मारे गये हैं। लेकिन जिस तरह से बाटला हाउस इनकाउंटर ने ढेर सारे लूप होल छोड़े थे, जिसकी वजह से आज भी वह मुठभेड़ सवालों का सामना कर रहा है, उसी तरह शहजाद की गिरफ्तारी के आसपास जो घटनाक्रम हुए उससे जाहिर हो गया कि शहजाद की गिरफ्तारी राजनीतिक वर्चस्व में शह-मात देने के लिए की गयी है।

उत्तर प्रदेश  कांग्रेस प्रभारी दिग्विजय सिंह के संजरपुर और आतंकवादी होने के आरोप में गिरफ्तारों के घर जाने के कार्यक्रम की घोषणा 30 जनवरी तक सार्वजनिक हो चुकी थी कि वह तीन तारीख को आजमगढ़ पहुंचेंगे। सवाल है कि क्या दिग्विजय सिंह के संजरपुर पहुंचने से पहले कांग्रेस के दवाब में शहजाद की गिरफ्तारी हुई या फिर वजह कहीं और है। संजरपुर मसले को उठाने में खासे सक्रिय रहे तारिक कहते हैं,' दिग्विजय सिंह के आने से एक दिन पहले शहजाद की गिरफ्तारी, फिर उनका संजरपुर जाना, लेकिन किसी पीड़ित के घर जाने या सभा को संबोधित करने की बजाय सिर्फ मीडिया से मुखातिब होना और आजमगढ़ में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में सरेआम एक पार्टी कार्यकर्ता को थप्पड़ मारना जैसी कई घटनाएं एक-दूसरे से ऐसे जुड़ती हैं जो जाहिर कर देती हैं कि कांग्रेस हमें न्याय दिलाने नहीं, बल्कि मुसलमानों को भरमाने के बहाने तलाशने आयी थी। इस मसले पर सिमी  के पूर्व अध्यक्ष शाहिद बदर फलाही राय रखते हैं कि 'मुसलमानों को कांग्रेस मुर्गियों से अधिक की औकात में नहीं रखती। अब उसे फिर अहसास होने लगा है कि उत्तर प्रदेश  की सत्ता पर अगर काबिज होना है तो दड़बे से बाहर हो चुकीं मुर्गियों को घेरकर फिर कांग्रेसी दड़बे में घुसाओ'। कांग्रेस की मुसलमानों को लेकर ऐतिहासिक रणनीति देखें तो शाहिद बदर की बात जंचती है।
दूसरी तरफ प्रदेश सरकार के अंतर्गत काम करने वाली एटीएफ द्वारा शहजाद की गिरफ्तारी से इतना तो हुआ कि लोकसभा चुनावों में प्रदेश के मुसलमानों का कांग्रेस की ओर बढ़ा रूझान को एक झटका जरूर लगा है। ऐसा होने से मुसलमान वोटों में कम ही हकदार बसपा सुप्रीमो मायावती को जरूर राहत मिली है और उन्होंने कांग्रेसी 'खेल' बिगाड़ दिया है। कांग्रेस नेतृत्व पूर्नजन्म का यह खेल प्रदेश कांग्रेस प्रभारी दिग्विजय के कंधे पर रख खेल रही है और पार्टी महासचिव राहुल गांधी के एजेंडे को दिग्गी राजा आगे बढ़ा रहे हैं,यह मुसलमान बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद अच्छी तरह समझ चुके हैं, लेकिन दिग्गी राजा का संभवत:अपनी समझदारी पर अधिक भरोसा हो गया था इसलिए उन्होंने संजरपुर गांव से यह बयान दे दिया कि 'बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गये इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा के सिर पर लगी गोली किसी इनकाउंटर में संभव नहीं है।' दिग्गी के इस बयान के मद्देनजर सरकार कोई कार्यवाही करती और आतंकवादी होने के आरोप में फंसे युवकों और परिजनों को कोई भरोसा बनता इससे पहले ही दिग्गी राजा कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी से मिलने के बाद ही संजरपुर में दिये बयान से मुकर गये।

शहजाद के बाबा नियाज अहमद से पूछने पर कि 'क्या किसी पार्टी के नेता आपके पोते की गिरफ्तारी के बाद दरवाजे पर आये थे', उनका जवाब था- 'नहीं।' वह पुराने दिनों को याद कर बताते हैं कि 'एक दौर था जब हमारे दरवाजे पर इंदिरा गांधी, मोहसिना किदवई, प्रदेश  के पूर्व मुख्यमंत्री रामनरेश  यादव, चौधरी चरण सिंह जैसे तमाम लोग आया करते थे। लेकिन फिलहाल तो सिवाय नातेदारों-रिश्तेदारों के झूठे मुंह भी कोई नहीं आया।' जबकि आतंकवादी होने के शक में मारे और पकड़े गये नौजवानों के गांव संजरपुर में 2008 सितंबर के बाद आनेवालों को तांता लगा रहा। एक के बाद वहां पहुंचे तोपची नेताओं की आगलगाऊ बयानबाजियों और समस्या को छू से दूर कर देने वाले आश्श्वसनो की बाढ़ आ गयी थी। जिसमें सबसे आगे थे 'बाटला हाउस' कांड के बाद पैदा हुए संगठन उलेमा काउंसिल के नेता आमिर रशादी।
आमिर रशादी के बारे में यह ख्यात है कि वह देश के इकलौते मौलवी हैं जो मंचों से विरोधियों को सरेआम गाली देते हैं। बाटला हाउस कांड के बाद अपने को निरीह मान चुकी  आजमगढ़ी जनता को आमिर रशादी  का यह अंदाज उत्साहित किया और मात्र छ: महीने में यह संगठन इतना व्यापक असर वाला हो गया कि लोकसभा की पांच सीटों पर उलेमा काउंसिल के प्रतिनिधि खड़े हुए। प्रतिनिधियों में से एक भी संसद तक नहीं पहुंच सका लेकिन उसने बसपा और सपा के गढ़ रहे इस क्षेत्र में ऐसी सेंध लगायी की लालगंज से उलेमा काउंसिल की वजह से लालगंज से भाजपा जीत गयी। यह संसदीय चुनाव के इतिहास में पहली बार हुआ।

रामराज्य का नारा लगाने वाले हिंदुवादी संगठनों की तरह 'नारे तकबीर-अल्लाह हो अकबर'लगाने वाली उलेमा काउंसिल ने चुनाव के वक्त भाजपा के बारे में वही सांप्रदायिक बयान दिये जो शिववसेना या बजरंगदलियों की भाषा  होती है। जाहिर है फायदा फायदा भाजपा को मिला। मानवाधिकार कार्यकर्मा मसुद्दीन कहते हैं कि 'जब उलेमा काउंसिल बनी तो हमलोगों को पता चला
कि इसको पुलिस प्रशासन का संरक्षण प्राप्त है। लेकिन राजनीतिक निराशा की शिकार जनता किसी भी तरह के सेकुलर बातों पर गौर करने के लिए तैयार नहीं थी। हां आज साफ हो गया है कि किस तरह आमिर रशादी के कट्टरपंथी बयानों ने हमें व्यापक समाज से काट दिया और सांप्रदायिकता और आतंकवाद के खिलाफ व्यापक लड़ाई में समुदाय कमजोर पड़ा।' प्रसिध्द हड्डी रोग विषेशज्ञ और उलेमा काउंसिल के आजमगढ़ से संसद उम्मीदवार रह चुके डाक्टर जावेद कहते हैं कि 'पहले लोग मुझसे कहते थे लेकिन अब मैंने मान लिया है कि उलेमा काउंसिल और उसके नेताओं का तौर-तरीका एक लोकतांत्रिक देश  में काम करने जैसा नहीं है। कहने के लिए मुझे काउंसिल से निकाल दिया गया है, लेकिन सच है कि  छह महीने पहले ही मैं निष्क्रिय  हो गया था।' उल्लेखनीय है कि डाक्टर जावेद का बेटा भी बम विस्फोट में आरोपी है और भगोड़ा घोषित है।

शहजाद की गिरफ्तारी के बाद कार्यवाही चाहे जो हो स्थानीय लोग इसे एक राजनीतिक खेल मानते हैं। साथ ही उलेमा काउंसिल की चुप्पी और बिखराव ने साफ कर दिया है कि बाटला हाउस के बाद एकाएक पैदा हुए इस मंच ने  मुसलमानों की व्यापक लड़ाई को कमजोर ही किया है.

'द पब्लिक एजेंडा'  से साभार