जिस सरकार ने झूठे मामलों में मुस्लिम युवकों को आतंकवादी करार देने में ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाया हो,वह सरकार कहे कि बाबा का आंदोलन सांप्रदायिक था,क्या यह बात बेतुकी नहीं है...
अजय प्रकाश
दिल्ली के रामलीला मैदान में कालेधन के खिलाफ जारी आंदोलन के साथ कांग्रेसी सरकार ने जो लीला खेली है, उसे पूरा देश देख चुका है। कालेधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुकम्मिल चोट करने को तैयार बाबा रामदेव और उनके समर्थकों के साथ कैसा सुलूक किया गया,उसे भी देश लगातार देख रहा है। देश,देख उन कांग्रेसी मसखरों को भी रहा है जो केंद्र सरकार के इशारे पर 5 मई की मध्यरात्रि में दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशनकारियों पर किये गये नृशंश हमले को उचित ठहराने की नापाक कोशिश में बेताब हैं और रामदेव को देश का ठग बताने के तिकड़म में जुटे हैं। बाबा रामदेव को लेकर कांग्रेसी नेताओं की मसखरी और निराशा में की गयी पुलिसिया कार्रवाई ने अब रामदेव को बाबा से नेता बना दिया है, जिसका ऐतिहासिक श्रेय कांग्रेस की तानाशाहीपूर्ण रवैये को ही जायेगा।
वरिष्ठ गांधीवाधी नेता अन्ना हजारे के दिल्ली के जंतर-मंतर पर चले अनशन के बाद 4जून से रामलीला मैदान में कालेधन समेत आठ सूत्री मांगों के पक्ष में भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के बैनर तले, बाबा रामदेव के नेतृत्व में आमरण अनशन होना तय था। यह घोषणा बाबा ने महीने पहले कर रखी थी। बाबा की इस घोषणा के पीछे माना जा रहा था कि भ्रष्टाचार के मसले पर अन्ना के मुकाबले उनका पिछड़ना है। साथ ही लोकपाल विधेयक के लिए बनी लोकपाल मसौदा समिति में बाबा रामदेव को किनारे किये जाने की खुन्नस को भी कारण के तौर देखा जा रहा था। इतना ही नहीं ‘परवल को सीताफल समझने’की आम समझ रखने वाले कुछ बुद्धिजीवियों ने इसे सरकार प्रायोजित आंदोलन कहा और माना कि डील तो पहले ही हो चुकी है, बस घोषणा होनी बाकी है।
बहरहाल, सच 5मई की मध्यरात्रि में रामलीला मैदान में दिखा। इस नृशंश सच को देख पूरा देश एक स्वर में अब कह रहा है कि कांग्रेस सरकार पगला गयी है। हालांकि कांग्रेस का यह पागलपन मिर्गी के दौरे की तरह झटके में आया है या फिर भगंदर की तरह एक सिलसिले में,इसका मुकम्मिल जवाब किसी के पास नहीं है,आशंकाएं और संभावनाएं जरूर हैं। खासकर लोगों को यह बात नहीं समझ आ रही कि जिस केंद्र सरकार के चार मंत्री बाबा को दिल्ली हवाई अड्डे पर स्वागत करने पहुंचते हैं,उन्हीं की सरकार 72घंटे के भीतर एकदम उलट जाती है और रात डेढ़ बजे ऑपरेशन खदेड़ो शुरू कर देती है। आखिर पेंच क्या है?बात यह भी समझ से परे है कि कालेधन के खिलाफ चले रहे इस अनशन में सरकार अनशनकारियों के लिए पानी,दवा,बिजली समेत वह तमाम व्यवस्थाएं सुचारू रूप से करती है जो सरकारी रिवाज के हिसाब से अन्य आंदोलनों में (अन्ना आंदोलन को छोड़कर)नहीं होता। यानी सब कुछ गुडी-गुडी चल रहा था, इसी बीच सरकार की हिस्टिरियानुमा कार्रवाई भारतीय जनमानस के लिए अब अपचनीय हो रही है।
बाबा के आंदोलन पर किये गये अत्याचार के खिलाफ इस वक्त पूरा देश एकजुट है। इसी एकजुटता के बीच आंदोलन की रूख और तैयारियों को लेकर आलोचनाएं भी की जा रही हैं। अनशन के पहले दिन 4जून को रामलीला मैदान में जनता को संबोधित करने पहुंची सांप्रदायिक पहुंच की नेता साध्वी रितंभरा के बाद बहुतों ने मान लिया कि बाबा का आंदोलन हिंदूवादियों और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की गिरफ्त में है। माना गया कि लोकपाल मसौदा समिति के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर चला अन्ना हजारे के आंदोलन में जो सांप्रदायिक भावना पर्दे के पीछे थी,वह यहां खुलकर सामने आ गयी। हालांकि इसी के साथ यह भी रहा कि सांप्रदायिक राजनीति को ही राष्ट्र निर्माण की बुनियाद मानने वाले नेताओं में चाहे वह हिंदू रहे हों या मुस्लिम किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वे खुले तौर हिंदूवाद या अल्पसंख्यक अतिवाद की पैरवी करें । बेशक आतंकवादियों को फांसी दिये जाने या आजीवन कारावास दिये जाने की बातें, सांप्रदायिक पहुंच के नेताओं ने जरूर कहीं, लेकिन किसी ने रूपक में भी मुसलमानों या हिंदुओं का नाम लिया। जाहिर है यह अनुशासन बाबा रामदेव का मंच होने की वजह से ही बरता गया होगा।
बाबा के आंदोलन को सांप्रदायिक कहने वालों में कुछ को इस बात से भी ऐतराज है कि आंदोलन के समर्थन में हिंदू महासभा,विश्वहिंदू परिषद् और हिंदूवादी राजनीति के समर्थन वाले आर्यसमाजियों की बहुतायत थी और अल्पसंख्यक नहीं के बराबर थे। इसमें ठोस बात अल्पसंख्कों के नाममात्र होने की है। वैसे में सवाल यह है कि क्या अन्ना आंदोलन में अल्पसंख्यकों की बड़ी भागीदारी थी। या फिर राष्ट्रीय फलक पर उभरी पार्टियों में कोई ऐसी है जिसमें अल्पसंख्यकों की तादाद ज्यादा है और भागीदारी बड़े स्तर पर होती है। अन्यथा इस सवाल का इस मौके पर क्या मतलब।
गौरतलब है कि बाबा रामदेव एक हिंदू संत हैं और वह हिंदू धर्म के तमाम मानदंडों को खुद जीते हैं और दूसरों को जीने के लिए प्रेरित करते हैं। संभव है उनके योग को सीखने कुछ अल्पसंख्यक आते हों,इसके अलावा उनके बीच अल्पसंख्यकों की भागीदारी का कोई दूसरा दायरा नहीं बनता। बावजूद इसके बाबा के मंच पर अल्पसंख्यक नेता जिसमें मुस्लिम,क्रिश्चियन,सिख और जैन चारों हैं, उपस्थित थे। सवाल है कि दूसरी सभी पार्टियां जिसमें कांग्रेस प्रमुख है,उसके यहां अल्पसंख्कों की भागीदारी का प्रतिशत क्या शर्मशार करने वाला नहीं है?किसी को सफेद और भगवा कपड़ों में देख हिंदूवादी करार दिया जाना,क्या सांप्रदायिकता और अल्पसंख्यक हित के नाम पर कांग्रेसी जिलेबी चांपने की वही पूरानी परंपरा नहीं है, जो आजादी के बाद से चली आ रही है।
सवाल यह भी है कि जिस सरकार ने झूठे मामलों में मुस्लिम युवकों को आतंकवादी करार देने में ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाया हो,वह कांग्रेसी सरकार कहती है कि बाबा का आंदोलन सांप्रदायिक था, क्या यह बात बेतुकी नहीं लगती? क्या इससे भी ज्यादा हतप्रभ कर देने वाला उन कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों का तर्क नहीं है जो यह कह रहे हैं कि भाजपा जब हिंदू आतंकवाद मामले में घिरती गयी तो उसने भ्रष्टाचार का दामन थाम लिया। क्या वाद में वाम और दामन में कांग्रेसी होने का यह क्लासिकल उदाहरण नहीं है जो सांप्रदायिकता की आड़ में कांग्रेस की हर कार्यवाही को जायज ठहराने को तैयार रहते हैं?
दूसरा सवाल बाबा के आंदोलन में भागीदारों को लेकर रहा। कई बुद्धिजीवियों ने अन्ना हजारे के अनशन और रामदेव के कालेधन के खिलाफ जारी मुहिम को आंदोलन नहीं मानने के बावत बातें कहीं। अन्ना को लेकर कहा कि इसमें सुविधाभोगी भ्रष्ट वर्ग भागीदार रहा तो दूसरी तरफ रामदेव का माहौल धार्मिक रहा। अब उन्हें कौन बताये कि रामदेव के आंदोलन में भागीदारों की सबसे बड़ी संख्या गांव के किसानों,छात्रों और घरेलू महिलाओं की थी। ऐसे में इन बुद्धिजीवियों से पूछना चाहिए कि सुविधाभोगियों ने सरकार को लोकपाल बिल मसौदा समिति बनाने को मजबूर किया,बाबा रामदेव के धार्मिक समूह ने सरकार के लिए मुश्किल खड़ी की, लेकिन आप भले मानुसों ने कौन सी राजनीतिक डोर थाम रखी है जो सिवाय बतकूचन के कुछ और करती ही नहीं।
बाबा पर उठ रहे इन तमाम सवालों के बीच देश का बहुतायत बाबा के नेतृत्व में खड़े हुए कालेधन के खिलाफ आंदोलन में उनके साथ है और अत्याचार के विरोध में तरह-तरह से भागीदार है। संभव है कि इस वर्ष शुरू हुए ये दोनों आंदोलन आने वालों वर्षों में कोई नयी उम्मीद ले आयें और भ्रष्टाचार की सड़ांध में लिपटी पार्टियों के मुकाबले कोई नया राजनीतिक विकल्प उभरे।