दिल्ली के रामलीला मैदान में 4/5 जून की मध्यरात्री में यु.पी.ए. सरकार द्वारा योगगुरु रामदेव के आह्वान पर भ्रष्टाचार-विरोधी मुहीम में दूर-दराज़ से आए लोगों पर रात के अँधेरे में उन्हें सोते में औचक ही सरकारी दमन का शिकार बनाना एक डरी हुई सरकार का कायराना कारनामा है. इस घटना से सरकार ने यह सन्देश भी दिया है कि वह कारपोरेट हितों के खिलाफ असली या नकली किसी भी प्रतिरोध को झेल नहीं सकती.
रामदेव की राजनीतिक महत्वाकांक्षा, उनके द्वारा संघ परिवार के नेटवर्क का इस्तेमाल और संघ द्वारा उनके इस्तेमाल का अवसरवाद , खुद रामदेव के ट्रस्ट की परिसंपत्तियों के विवादित स्रोतों के बारे में शायद ही किसी सजग व्यक्ति को भ्रम हो. दिल्ली आने से पहले से ही सरकार के साथ उनका मोल-तोल जारी था. उन्होंने लोकपाल विधेयक में प्रधानमंत्री और जजों को जांच के दायरे में शामिल न किए जाने की मांग कर नागरिक समाज द्वारा प्रस्तावित विधेयक को कमज़ोर करने और सरकार को खुश करने की भी कोशिश की थी.
हवाई अड्डे पर सरकार के कई मंत्रियों का उनसे मिलने पहुँचना , बालकृष्ण का आन्दोलन आगे न चलाने के वचन वाला पत्र , सभी कुछ सरकार और उनके बीच बहुविध लेन-देन और सौदेबाजी की तस्दीक करता है, लेकिन इसके बावजूद पुलिसिया दमन और आतंक को कहीं से भी जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. जंतर मंतर पर भी लोगों के जमावड़े पर प्रतिबन्ध लगाकर सरकार ने अपने इरादे ज़ाहिर कर दिए हैं. यह दमन राजधानी में सिर्फ रामदेव पर नहीं रुकेगा, बल्कि किसी भी आन्दोलन , धरने और प्रदर्शन के दमन का रास्ता साफ़ हुआ है.
शेष भारत में, आदिवासी इलाकों में, किसानों के आन्दोलनों पर, बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के दोहन के खिलाफ यह दमन जारी ही है. दिल्ली इसका अपवाद नहीं बनी रह सकती. लिहाजा इस घटना को अघोषित आपातकाल की एक कड़ी के रूप में ही देखना चाहिए और इसके दमनकारी अभिप्राय को नागरिक समाज को कम करके नहीं आंकना चाहिए. हम इस घटना की और इसकी ज़िम्मेदार केंद्र सरकार की घोर भर्त्सना करते हैं और आम नागरिक और बुद्धिजीवियों से भी इसके पुरजोर विरोध की अपील करते हैं.
( सांस्कृतिक संगठन जन संस्कृति मंच द्वारा जारी )
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