Oct 21, 2010

मुकदमा मालिकाने का था जज साहब !


विवादित स्थल पर राम मंदिर बने या न बने,इस पर न्यायालय को कोई निर्णय ही नहीं करना था। जिन बिन्दुओं पर न्यायालय से निर्णय की अपेक्षा थी,उन पर कोई निर्णय न देकर वह अपने कार्यक्षेत्र ये बाहर जाकर कुछ निर्णय सुना रही है।

 
संदीप पाण्डेय

 
अयोध्या मामले पर फैसला आ चुका है। चारों तरफ सराहना हो रही है कि बहुत अच्छा फैसला है। किसी को निराश नहीं किया। सबसे बड़ी बात कि जो शांति व्यवस्था भंग होने का खतरा था व शासन-प्रशासन की किसी भी स्थिति से निपटने की पूरी तैयारी थी,वैसी कोई अप्रिय घटना नहीं घटी। शांति व्यवस्था बनी रही। लोगों ने बड़ी संजीदगी से फैसले को सुना और मामले की नजाकत को समझते हुए जिम्मेदारी का परिचय दिया।

सभी मान रहे हैं कि फैसला आस्था के आधार पर हुआ है। न्यायाधीशों की यह मंशा थी कि विवाद का हल निकल आए। यह फैसला सभी पक्षकारों को समाधान हेतु प्ररित करने की दृष्टि से तो बहुत अच्छा है, किंतु यदि संविधान की भावना या कानून की दृष्टि से देखेंगे तो इस फैसले में दोष हैं। इस फैसले का एक खतरनाक पहलू यह भी है कि भविष्य में इस किस्म के नए विवाद खड़े होने की सम्भावना पैदा हो गई है।

 
भारत के संविधान में भारत को स्पष्ट रूप से एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में परिभाषित किया गया है। हम किसी एक धर्म को मानने वालों की भावनाओं को किसी अन्य धर्म को मानने वालों की तुलना में अधिक महत्व नहीं दे सकते,किंतु अयोध्या विवाद फैसले में ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दुओं की आस्था,कि भगवान राम ठीक बाबरी मस्जिद की बीच वाली गुम्बद के नीचे पैदा हुए थे, को ही फैसले का आधार बना लिया गया है।


कानून की दृष्टि से तथ्य हमेशा महत्वपूर्ण होता है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में खड़ी बाबरी मस्जिद जिसको 6 दिसम्बर, 1992, को सबने ढहते देखा और जिसमें 1949 तक नमाज अदा की जाती रही हो, को हिन्दुओं की आस्था के मुकाबले कम महत्व दिया गया है।

एक तरफ प्रत्यक्ष बाबरी मस्जिद थी तो दूसरी तरफ आस्था के अलावा न्यायालय के आदेश पर 2003 में विवादित स्थल पर करवाई गई खुदाई में निकले एक मंदिर के कुछ अवशेष। वैसे पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिर्पोट में मंदिर के अवशेषों के अलावा भी खुदाई में पाई गई तमाम चीजों का जिक्र है। किंतु निष्कर्ष में मस्जिद निर्माण के पहले इस स्थल पर एक मंदिर होने की बात कही गई है, जो पूर्वाग्रह से ग्रसित लगती है।

वैसे यदि मान भी लिया जाए कि बाबरी मस्जिद बनाए जाने के पहले उस स्थल पर एक मंदिर था,फिर भी ठीक यही जगह राम जन्मभूमि ही है,इस बात का क्या प्रमाण हो सकता है?न्यायालय ने भी इस बात को आस्था के आधार पर ही माना है। किन्तु सवाल यह है कि क्या किसी न्यायालय का फैसला आस्था के आधार पर हो सकता है?

                                                                                                               साभार: बीबीसी
 अपने देश में यह व्यवस्था है कि आजादी के दिन जो धार्मिक स्थल जैसा था,उसे वैसा ही स्वीकार किया जाए। लेकिन अयोध्या विवाद के फैसले में करीब 500वर्षों से भी पहले बने एक मंदिर, जिसके सबूत अस्पष्ट ही हैं, को हाल तक अस्तित्व में रही मस्जिद की तुलना में ज्यादा तरजीह दी गई है

एक न्यायाधीश महोदय ने तो अपने फैसले में यहां तक कह दिया है कि अब विवादित भूमि पर राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। ज्ञात हो कि मूल विवाद स्वामित्व का है। न्यायालय को २२-23 दिसम्बर, 1949, की रात जो रामलला की मूर्तियां राम चबूतरे से मस्जिद के अंदर रखी गईं, उस पर भी निर्णय सुनाना था।

विवादित स्थल पर राम मंदिर बने या न बने,इस पर न्यायालय को कोई निर्णय ही नहीं करना था। वैसे भी राम मंदिर बनाने की बात तो अस्सी के दशक में पहली बार की गई थी। यह कितनी मजेदार बात है कि जिन बिन्दुओं पर न्यायालय से निर्णय की अपेक्षा थी,उन पर कोई निर्णय न देकर वह अपने कार्यक्षेत्र ये बाहर जाकर कुछ निर्णय सुना रही है।

विवादित स्थल पर राम मंदिर बनाने की बात कर न्यायाघीश महोदय ने 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की कार्यवाही, जिस पर अभी एक आपराधिक मुकदमा चल रहा है, को एकाएक जायज ठहरा दिया है। क्योंकि यदि न्यायालय यह मानती है कि हिन्दुओं की आस्था के अनुसार विवादित स्थल ही राम जन्म भूमि है तथा एक न्यायाघीश को यह लगता है कि वहां राम मंदिर भी बनना चाहिए तो यह राम मंदिर वहां से बाबरी मस्जिद को बिना हटाए तो बन नहीं सकता। यह रोचक होता,यदि बाबरी मस्जिद अभी भी खड़ी होती तो न्यायाघीश महोदय क्या फैसला देते?
इस फैसले से भविष्य में नए विवाद खड़े हो सकते हैं।आस्था के आधार पर कोई गैरकानूनी कार्यवाही कर किसी जगह पर दावा कर सकता है। ऐसी कार्यवाही सामूहिक हो और विशेषकर बहुसंख्यक सामाज का समर्थन उसे हासिल हो तो न्यायालय के लिए उचित निर्णय लेना मुश्किल हो जाएगा। फिर अयोध्या फैसला तो एक नजीर बन जाएगा।

इस विवाद ने देश की राजनीति को बहुत पीछे ढकेल दिया है। महंगाई,खाद्य निगम के गोदामों में सड़ता अनाज, कृषि मंत्री का यह कहना कि भले ही यह अनाज सड़ जाए, किंतु गरीबों को नहीं दिया जा सकता, पहले आई.पी.एल. घोटाला, फिर राष्ट्रमण्डल खेलों में शर्मनाक घोटाला,जम्मू-कश्मीर में लोगों का असंतोष और भारत सरकार की स्थिति से निपटने में नाकामी,कॉरपोरेटीकरण के दौर में जगह-जगह छिड़े लोगों के अपनी जमीनों को बचाने के संघर्ष,सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों का भ्रष्टाचार-ऐसे सारे मुद्दे जिनसे इस देश की जनता का सरोकार है दब गए। जनमानस में अयोध्या फैसले कर भय व्याप्त रहा। यह तथ्य कि फैसला आने से ही शांति भंग की आशंका थी, साबित करता है कि इस मुद्दे में हिंसा के बीज छुपे हैं। पहले ही देश इस मुद्दे की वजह से हुई हिंसा से काफी खामियाजा भुगत चुका है।

असल में बाबरी मस्जिद के बीच वाले गुंबद के ठीक नीचे राम जन्मभूमि बताना ही झगड़ा खड़ा करने वाली बात है। यदि आम हिन्दू जिसकी आस्था के नाम पर फैसला हुआ है,से पूछा जाए तो शायद वह यह कहे कि उसका कोई ऐसा दुराग्रह नहीं है और न ही वह कोई झगड़ा चाहेगा। यदि हिन्दुत्ववादी संगठन राम मंदिर बनाने को इतना ही इच्छुक हैं तो वे इस मंदिर को अयोध्या स्थित विश्व हिन्दू परिषद् के स्वामित्व वाली कारसेवकपुरम की भूमि पर क्यों नहीं बना लेते?क्या भगवान राम को इस बात का मलाल रहेगा कि उनका भव्य मंदिर ठीक जन्मभूमि वाले स्थान पर नहीं बना? या इसे हिन्दुओं की आस्था, जो फिलहाल हिन्दुत्ववादी संगठनों ने अपहृत कर ली है, में कोई कमी माना जाएगा?मुख्य सवाल यह है कि धर्म के नाम पर राजनीति को भारत के आधुनिक लोकतंत्र में कितनी जगह दी जाएगी? यह बात हम कब कहेंगे कि धर्म और राजनीति का घालमेल नहीं होना चाहिए।
अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला संविधान के धर्मनिरपेक्षता के मूल्य और कानून तथा न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है। इससे भारत के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है।


(लेखक  मैग्सेसे पुरस्कार विजेता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं,उनसे  ashaashram@yahoo.com पर संपर्क किया जा  सकता  है.) 

बिहार की चुनावी सरगर्मी दिल्ली में

पंकज कुमार
विधानसभा चुनाव बिहार में है,लेकिन इससे हजारों किलोमीटर दूर इसकी सरगर्मी राजधानी दिल्ली में भी महसूस की जा सकती है। राजधानी दिल्ली में कहने का मतलब अलग-अलग पार्टी के मुख्यालयों और नेताओं की जोड़तोड़ से नहीं,बल्कि उन प्रवासी बिहारवासियों से है,जो रोजगार और बेहतर भविष्य की तलाश में राजधानी और दूसरे राज्यों की ओर पलायन कर गए।

प्रवासी बिहारी भले ही अपनी मिट्टी से दूर हो गए हैं लेकिन उनका जुड़ाव अभी भी कम नहीं हुआ है। उनकी आंखों में अपने बिहार को समृद्ध और विकसित राज्य बनते देखने की ललक है। ऐसे में जब प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं तो चुनावी हलचल दिल्ली में भी है। इसी संदर्भ में दिल्ली के मालवीय स्मृति भवन में परिचर्चा का आयोजन किया गया जिसका विषय था ‘बिहार विमर्श‘। बिहार विमर्श का मुख्य मकसद बिहार से बाहर गए लोगों को बिहार से जोड़ना,साथ ही वोट की ताकत के जरिए सही हाथों में नेतृत्व सौंपना।
यह कोई राजनीतिक मंच या फिर किसी पार्टी विशेष की ओर से आयोजित परिचर्चा नहीं थी बल्कि दिल्ली में रहकर बिहार के दर्द को समझनेवालों की जमात थी। इस मौके पर मुख्य अतिथि के तौर पर बीजेपी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान ने प्रवासी बिहारियों से आह्वान किया कि वो वोट देने जरूर जाएं। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में आपको पांच साल में एक बार मौका मिलता है और इसे चूकना नहीं है।

‘‘चलो बिहार‘‘ का नारा देते हुए संजय पासवान ने किसी राजनीतिक दल का नाम लिए बगैर लोगों को सावधान भी किया। उन्होंने कहा कि वह वोट देने बिहार जरुर जाएं,लेकिन तीन बलियों से सावधान रहें। तीन बालियों  के कहने का मतलब-बाहुबली,धनबली और परिवारबली। इन तीन बलियों के खिलाफ मतदाताओं को एकजुट होकर अपने आत्मबल से चोट करने को कहा। इस चुनाव में अगर हम बाहुबली,धनबली और परिवारबली को पटखनी दे देंगे तो बिहार में हालात बदलने से कोई नहीं रोक सकता।

इस मौके पर ‘यूथ यूनिटी फॉर वाइब्रेन्ट एक्शन’संगठन के संयोजक विनय सिंह ने प्रवासी बिहारवासियों को वोटर आइकार्ड नहीं होने की बात उठाई। विनय सिंह ने कहा कि जो लोग पलायन कर दूसरे राज्य चले गए उनकी न तो गृह क्षेत्र में अब कोई पहचान है और न ही बाहर। ऐसे लोगों की संख्या लाखों में हैं जो बिहार जाकर वोट डालना तो चाहते हैं लेकिन अपने ही घर में बेगाने हैं। जबकि करीब 10लाख बांग्लादेशियों को पहचान पत्र हासिल हो चुके हैं।
ऐसे में बिहार को बदलते हुए देखने वाले लोग क्या करें और उन्हें बिहार क्यों जाना चाहिए?इस पर फिजीकल फाउंडेशन ऑफ इंडिया के पीयूष जैन ने कहा कि वह बिहार के वोटरों के उत्साहवर्द्धन के लिए जाएंगे। उन्होंने कहा कि ऐसे प्रवासी बिहारवासी जो वोट भले ही न डाल पाएं,लेकिन सकारात्मक माहौल बनाने का प्रयास करेंगे।

अच्छी सरकार के लिए मतदान को अनिवार्य बताने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रतन लाल ने कहा कि चुनाव के समय वोटरों को दो काम करना चाहिए-चुनाव लड़े या वोट दें। दोनों में से कोई काम नहीं करने पर बिहार की दुर्दशा पर बोलने का कोई अधिकार नहीं। प्रोफेसर के मुताबिक‘एक्सरसाइज फ्रेंचाइजी फॉर गुड गवर्नेंस’संगठन के जरिए वह वोटरों को जागरूक करने में जुटे है और विधानसभा चुनाव के लिए वोटरों को जागरूक करने का काम कर रहे है।
वहीं बिहार विमर्श विषय पर बोलते हुए एसके झा ने राज्य के प्रत्यक्ष और अप्रत्क्ष दोनों रूप से बदहाली के लिए नेताओं को जिम्मेदार ठहराया। उनके मुताबिक नेताओं ने बिहार को भारत का उपनिवेश बना दिया है जहंा जनता सरकार तो चुनती है लेकिन फायदा दूसरे राज्यों को मिलता है।
बिहार में 243सीटों के लिए पांच चरणों में चुनाव होने वाले हैं और राज्य के पांच करोड़ 50 लाख 88 हजार वोटर इस विचार विमर्श में जुटे है कि किसे अगले पांच के लिए राज्य की तकदीर सौंपे। बिहार में इन दिनों चौक-चौराहे राजनीतिक मंच में तब्दील होना समझ में आता है।

दिल्ली में रहने वाले प्रवासी बिहारवासियों के बीच चुनाव को लेकर कौतूहल को समझने के लिए अलग नजरिया चाहिए। ऐसा नजरिया जिसमें  पलायन का दर्द,अपनों से दूर होने की कसक,अपनी मिट्टी से जुड़ी यादें,दूसरे राज्यों में हो रही उपेक्षा और इन सबके बीच 21वीं सदी में संपन्न बिहार को देखने का सपना शामिल है।


लेखक 'शिल्पकार टाइम्स'  हिंदी पाक्षिक अख़बार में  सहायक संपादक है इनसे kumar2pankaj@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.